समकालीन जनमत
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हेमन्त कुमार की कहानी ‘ रज्जब अली ’ में सामंती वैभव देखना प्रतिक्रियावाद को मजबूत करना है

जगन्नाथ दुबे

〈 कथाकार हेमंत कुमार की कहानी  ‘ रज्जब अली  ’ पत्रिका ‘ पल-प्रतिपल ’ में प्रकाशित हुई है. इस कहानी की विषयवस्तु, शिल्प और भाषा को लेकर काफी चर्चा हो रही है. कहानी पर चर्चा के उद्देश्य से समकालीन जनमत ने 22 जुलाई को इसे प्रकाशित किया था. कहानी पर पहली टिप्पणी युवा आलोचक डॉ. रामायन राम की आई  जिसे हमने प्रकाशित किया है, यह  दूसरी टिप्पणी जगन्नाथ दुबे की है जो डॉ रामायन राम द्वारा उठाए गए सवालों से भी टकराती है . बहस को आगे बढ़ाने के लिए प्रतिक्रिया, टिप्पणी, लेख आमंत्रित हैं. सं 〉

पल प्रतिपल के 83वें अंक में प्रकाशित हेमन्त कुमार की कहानी रज्जब अली इन दिनों खास तौर पर चर्चा में है. इस कहानी पर जो प्रतिक्रियाएं आ रही हैं उनमें जो एक बात कॉमन है वह यह कि कहानी जिस समय मे और जिस विषय पर लिखी गयी है वह दोनों ही चुनौतीपूर्ण है.

यहां यह कहने में कोई हर्ज नहीं कि हेमन्त कुमार ने जिस विषय का चुनाव किया है वह आज के समय मे बहुत जटिल और खतरनाक विषय है. जटिल इसलिए कि उसे किसी एक रेखीय वैचारिक समझदारी से नहीं समझा जा सकता. उसे समझने के लिए भारतीय सामाजिक-संरचना के कम से कम हजार वर्ष की ऐतिहासिक विकास यात्रा को समझना होगा. खतरनाक इसलिए कि उस पूरी समझदारी के साथ भी अगर आप कुछ कहते हैं तो आपको देशद्रोही होने की कीमत चुकानी पड़ सकती है. ऐसा करने के बदले आपको मारा पीटा जा सकता है, आपको देशद्रोही करार दिया जा सकता है, आपकी लेखनी बन्द कर दी जा सकती है.  इतना ही नहीं आपका प्राण भी लिया जा सकता है.

इन सभी आशंकाओं के होते हुए भी हेमन्त जी ने रज्जब अली की कहानी लिखने की जुर्रत की है. हमारे समय-समाज को आईना दिखाया है. हमारे लोकतांत्रिक मूल्यों वाली लोक कल्याणकारी सरकारों की भूमिका और सामाजिक संगठनों की असलियत का पर्दाफाश किया है. साम्प्रदायिकता किन रूपों में और कैसे विकसित होती है इसकी शिनाख्त पेश की है. हमारी सामाजिक संरचना की मूल्यवत्ता, सहजीविता और आपसी भाईचारे को रेखंकित किया है. यही नहीं उन्होंने यह भी दिखाया है कि किसी भी समाज का बहुसंख्यक तबका साम्प्रदायिक नहीं होता. भारत का तो एकदम नहीं है. भारतीय गांवों में अब भी आपसदारी और आपसी सह संबंध जीवित हैं.  हां यह जरूर है कि उन्हें खत्म करने की कोशिशें लगातार बढ़ रही हैं.

रज्जब अली नामक कहानी आपसदारी को खत्म करने की कोशिश करने वाले वर्ग की कुटिल रणनीति और उसके साम्प्रदायिक चेहरे को उजागर करती है, लेकिन वह कहीं से भी अतिवादी कहानी नहीं होती. रज्जब अली हमारे समय का जीवित यथार्थ रचने वाली कहानी है. इस यथार्थ को देखने समझने के लिए भारतीय गांवों से आपका करीबी रिश्ता होना जरूरी है. अगर आप आज के भारतीय गांव का यथार्थ नहीं जानते तो आप इस कहानी के यथार्थ को भी नहीं पकड़ सकते.

हेमन्त कुमार का गांव उत्तरकालीन विमर्शों के दौर का गांव तो है, लेकिन आज भी वहां सामंती मानसिकता जिंदा है.  मैं अवध से आता हूं. अवध के बहुत सारे गांव ऐसे मिल जाएंगे जहां दलित कहा जाने वाला तबका आज भी पंडित जी और बाबू साहबों की हुक्म उदूली करता नजर आएगा. इसलिए जब हेमन्त कुमार एक दलित से यह कहलवाते हैं कि इस बकरे पर फला बाबू साहब की नजर है, इसे उन्हें देना ही होगा.  बदले में पैसा भी नहीं मिलेगा तो यह सार्वभौम सच न होते हुए भी एक खास स्थिति में सच लगता है.

यह मानने में किसी को कोई हर्ज नहीं है कि विमर्शमूलक चेतना के विकास ने हजारों सालों से दबे-कुचले वर्ग को स्वाभिमानपूर्ण जीवन जीने का हक दिया है. स्थितियां बदली हैं.  आज जिसे हम दलित के नाम से जानते हैं वह वर्ग भी सम्मानपूर्ण जीवन जीने लायक बन गया है लेकिन यह कहना कि, कोई भी दलित आज के समय में, पंडित जी और बाबूसाहब की हुक्म उदूली नहीं करता यथार्थ से भागना है. अभी भी बहुत कुछ बदलने की जरूरत है.

इस बदले हुए समाज और बदलने की जरूरत को न समझने वाला काल्पनिक क्रांतिलोक का पुजारी इस कहानी के इन तथ्यों को नजरअंदाज करते हुए कहानी को सामंती मूल्यों की वाहक करार देता है. इसी तरह के एक क्रांतिदूत रामायन राम जी ने ‘ रज्जब ’ अली पर टिप्पणी करते हुए इसे सामंती वैभव के प्रति नॉस्टैल्जिया से ग्रस्त कहानी करार देते हैं. कहानी के मूल सरोकार को नजरअंदाज करते हुए इस नॉस्टैल्जिया से ग्रस्तता की अपनी समझदारी से वे गहन पड़ताल भी करते हैं. वे कहानी के मूल उद्देश्य से ज्यादा कहानी के वृत्तान्त में जाते हैं. वहां से जो कुछ खोजकर लाते हैं उसके लिए हमारे यहां कहा जाता है कि खोजा पहाड़ तो निकली चुहिया.  हेमन्त जी की यह कहानी अपने उद्देश्य में बहुत स्पष्ट है.  कथावितान इस तरह की साफगोई से बुना गया है कि वहां किसी भी तरह के भ्रम की कोई गुंजाइश न रहे ,फिर भी जिन्हें भ्रमित होना है उन्हें कौन रोक सकता है ?

कहानी में मूल समस्या साम्प्रदायिकता है. जब यह फैलती है तो कितनी भयावह और वीभत्स रूप अख्तियार करती है, यह इस कहानी में व्यक्त हुआ है. दूसरी बात जो इसी से जुड़ी हुई है वह यह कि भारतीय समाज का बहुसंख्यक तबका साम्प्रदायिकता में नहीं सहजीविता में विश्वास करता है. भारतीय गांवों के ढांचे में तमाम बुनियादी कमियों के बाद भी उनके आपसदारी मौजूद है. एक दूसरे के सुख-दुख में वे हाथ बंटाते हैं. एक दूसरे के साथ खड़े मिलते हैं. उनमे अधिकतम अलगाव के खिलाफ हैं. वे धर्म के नाम पर दुश्मनी नहीं करना चाहते. कुछ लोग हैं जिनका राजनैतिक हित उस दुश्मनी की आग को भड़काने में ही सधता है वे उसे भड़काना चाहते हैं.

हेमन्त जी की दिलचस्पी इन्ही विषयों में है. वे यह दिखाने की कोशिश करते हैं कि समाज के चंद लोग अपनी राजनैतिक आकांक्षाओं को पूर्ण करने के लिए साम्प्रदायिकता नामक विष की खेती में लगे हुए हैं. बहुसंख्यक तबका ऐसी किसी भी तरह की रणनीति का हिस्सा नहीं है.

रामायन जी की समस्या यह है कि वे इस मुख्य उद्देश्य को नजरअंदाज करते हैं. उनके लिए दलितों की बस्ती को चमरौटी और ठाकुरों की बस्ती को बबुआन कहना लेखक की सामंती वैभव के प्रति नॉस्टैल्जिया है. उनका आरोप यह भी है कि हेमन्त जी की और भी कहानियां इस नॉस्टैल्जिया से ग्रस्त हैं. शायद उनका इशारा ‘ छोटे ठाकुर ’ कहानी की तरफ हो।

‘ छोटे ठाकुर ’  कहानी सामंती वैभव के टूटने की कहानी है.  इसलिए रामायन जी अगर उसमे नॉस्टैल्जिया खोजने की कोशिश कर रहे हैं तो मुझे लगता है वहां भी वे इसी तरह औंधे मुंह गिरेंगे. इस कहानी पर रामायन जी ने जो सवाल उठाया है, उसे मैं आरोप की तरह देखता हूँ. कारण कि जिन विन्दुओं पर रामायन जी ने ऊर्जा गंवाई है वह इस कहानी के केंद्र में है ही नहीं. जिस दलित चेतना में रैदास घोषणा करता हो ‘ कह रैदास खलास चमारा’ उस दलित वर्ग का सचेत इंसान खुद के चमार कहे जाने को क्यों नहीं स्वीकार करेगा.

उनका यह आरोप कि दलित बस्ती को चमरौटी कहना सामंती मानसिकता का परिचायक है, खुद उनकी वैचारिक चेतना पर सवाल खड़ा करता है. आज का दलित अपनी बस्ती को चमरौटी कहे जाने से नहीं, अपने मूलभूत अधिकारों के न मिलने से खफा होता है. नाम से उसे फर्क नहीं पड़ता.  नाम से फर्क उन्हें पड़ता है जिन्हें किताबी क्रांति में विश्वास है.

यह कहानी हमारे समय के लिहाज से एक बेहद जरूरी कहानी है. इसलिए जरूरी यह है कि इस कहानी के मूल मन्तव्य पर बात हो. कहानी के मूल मन्तव्य पर बात न करके हम उन्ही प्रतिक्रियावादी साम्प्रदायिक ताकतों के हाथ मजबूत करते दिखेंगे. अब तय हमें करना होगा कि हम किस तरफ हैं.

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