सविता पाठक
ये माना जिन्दगी है चार दिन की
बहुत होते हैं यारों ये चार दिन भी
-फ़िराक़
प्रो लालबहादुर वर्मा नहीं रहे। ये ख़बर आते ही यादों का सैलाब सा आ गया है। प्रसिद्ध इतिहासकार, लेखक और अनुवादक लेकिन वर्माजी के शब्दों में “मैं एक एक्टीविस्ट हूं..।” वर्मा जी इतिहास के एक्टीविस्ट ही तो थे इतिहासबोध उनका मिशन था। पूरी दुनिया का इतिहास जिसमें मानवता अपनी कामयाबी और गलतियों से सीखते हुए आगे बढती है।
हर बार हर नयी किताब में वह एक ख्वाब तक ले आते हैं। वो ख्वाब है समानता और आजादी का। यह समानता और आजादी उनसे परिचय होने के बाद कोई अमूर्त सी बात नहीं लगती थी लगता है जैसे किसी ने जिन्दगी को एक प्रयोगशाला में ढाल दिया हो देखो और सीखो।
1996 की बात है,मेरे लिए प्रो वर्मा का घर बिलकुल अजूबा था। घर का ड्राइंगरूम है कि एक पुस्तकालय लगता था। ऊपर से जो नयी किताबें उनके पास आती थी वो उसे डिसप्ले पर लगा देते थे। बगल में एक मेज पर दो दिन तरह के लिफाफे रखे रहते थे जो किसी किताब या पत्रिका की सहयोग राशि के होता था। किताब या पुस्तिका लेने के बाद पैसे उस लिफाफे में रखना होता था। उनके ड्राइंगरूम में जाने का मतलब ही किताबों की दुनिया से लेकर बहस की दुनिया में जाना होता था। लौटते समय कोई बात या कोई किताब सर पकड़ा देते थे जो हम जैसो के लिए किसी नियामत से कम नहीं था।
इलाहाबाद का उनका घर कितने ही छात्रों के लिए एक अलग तरह का काफी हाउस था मैं कभी काफी हाऊस में तो गयी नहीं लेकिन सर के घर में देखा था कैसे अलग अलग मतों को मानने वाले,अलग अलग इलाकों से आये छात्र छात्रायें खुलकर अपनी बात कहते थे ये उनका ड्राइंगरूम था जहां छात्रायें अपने जीवन की समस्याओं को समाज से जोड़कर देख पाती थी। और जाते समय साहस और हिम्मत साथ ले जाती थी। उन्ही के घर में देखा था कि कैसे हाथ में ढेर सारा रक्षा बांधे लड़का उनसे सनातन धर्म पर बहस किये जा रहा था, बहस पूरे जोर पर थी मजेदार लग रहा था वर्माजी बहुत ही इन्वाल्व होकर बातें कर रहे थे। वर्मा जी उस शहर के प्रोफेसर थे जहां गुरू जी के पांव छू कर छात्र धन्य होते थे लेकिन यहां अलग माजरा। पांव क्यों छूते हो से पहली बहस शुरू हो जाती थी। वर्मा जी प्रोफेसर और लड़का उनका छात्र, चाहते तो बहस आंख की एक तरेर से ही सलट जाती जैसा कि होता है लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ। सर ने कहा बहुत अच्छे से तुम अपनी बात रख रहे हो और हम बातचीत जारी रखेंगे। वहां कोई भी अपनी कविता,कहानी और बात लेकर आता था और वर्मा जी इतने प्यार से उसे सुनकर वाह वाह कर देते थे। कई बार लगता है कि कितने लोगों के भीतर की रचनात्मक जमीन को वर्मा जी ने खाद पानी दिया है।
इतिहास मेरा विषय नहीं था लेकिन उनकी किताब ‘इतिहास के बारे में’ पढकर इतिहास की किताबों को फिर से पढ़ना शुरू किया। मेरी दोस्त दूसरी बार उनके घर लेकर गयी थी मैंने बालों में ढेर सारा तेल लगा कस कर चोटी बांधी थी। जीवन की उदासी अब रहने सहने से कहां छिपती है। वर्माजी ने कहा अगली बार आना तो बाल धोकर आना..अगली बार गयी तो सचमुच बाल धोकर गयी..। सर अपने छात्र छात्राओं को लेकर यमुना और किला घूमाने लेकर जा रहे थे मेरी दोस्त की वजह से हम भी जत्थे में शामिल हो गये। फिर मैंने पहली बार देखा कि नाव में बैठकर कैसे लोग गाते हैं। किले में घूमते हुए तरह तरह की किताबों का जिक्र, जमाने भर की वास्तुकला का जिक्र हो रहा था। लड़के लड़कियां सब साथ थे उनमें बाड़ाबंदी नहीं थी। सबखुल कर अपनी बात कह रहे थे। मेरी दुनिया में एक खिड़की खुल रही थी। एक दिन मैंने बहुत झिझकते हुए पूछा उपनिवेशवाद और साम्राज्यवाद किसे कहते हैं। इस एक सवाल को पूछने से पहले मैंने बड़ी हिम्मत जुटायी थी। लगा कि कहेंगे बीए में एडमिशन ले लिया है और है बेवकूफ। दरअसल इलाहाबाद के छात्रों के लिए ये आम शब्दावली थी। फिर क्या था उन्होंने अपने इर्द गिर्द बैठे लोगों से कहा आप बताये। उस दिन तो उन्होंने वही विषय ही बना दिया। फिर तो बातों बातों उन्होंने पूरी दुनिया को आबाद और बर्बाद करने वाली दो ताकतों को चित्रों में समझा दिया। एक प्रोफेसर जिसने विविधता का मतलब बताया जिनसे समझा कि जनतान्त्रिक मूल्य क्या होते हैं। वर्मा जी फ्रांस की क्रांति का जिक्र यूं करते थे जैसे उनके सामने इन्सानित की इबारत लिखी जा रही हो। उन्होंने एक दिन पूछा कि दोस्ती क्या है और हम फ्रेन्ड इन नीड, इज फ्रेन्ड इनडीड पर जाकर रूक गये। फिर इलाहाबाद में एक गोष्ठी हुई जिसका विषय था दोस्ती। वहां पहली दफा लगा कि दोस्ती नीड से बड़ी कोई चीज है। मार्क्स और एंगेल्स की दोस्ती को उन्होंने जैसे सामने रखा लगा कि दोस्ती ही इंकलाब है। विचारों से दोस्ती, विचारों को पोषित करने वाली दोस्ती।
एक प्रोफेसर जिसके किचन में जाकर चाय बनाने से लेकर खाने की चीजें तक निकाल कर कोई भी बेहिचक खा लेता था। एक ऐसा आदमी जो गीत,संगीत,भोजन,स्वाद से लेकर किसी भी विषय पर बिना अगले को किसी कमतरी का अहसास कराये अपनी बातों में शामिल कर लेता था। जो पढा रहा है कि कविता सुना रहा पता नहीं चलता था। वर्माजी कभी कभी इतिहासकार से ज्यादा मोटिवेटर से लगने लगते थे। किसी के जीवन को सिर्फ रूटीन भर होने से होने बड़ी परेशानी होती थी वो उसे प्रोत्साहित करने लगते थे। आदमी के भीतर की क्षीण पड़ती आशा में रौशनी भरने का नुस्खा उनके पास था। कितनी भी बहस हो जाय लेकिन उन्होंने दूरी कभी नहीं बनायी किसी से भी नहीं।
अभी महीने भर पहले सर से मुलाकात हुई थी। वही उत्सुकता, वही बैकग्राउंड में बजता संगीत वही उनकी बात, खुद को गंभीरता से लो, रचो,आगे बढो,वो कहो जो तुम्हारा विवेक कहता हो, भेड़चाल से बचो। सर के पास ढेरों बातें और अनगिनत प्रोजेक्ट रहते थे इस उम्र में बोल बोल कर लिखवाते रहते थे। और लिखने वाला खुद को खुशनसीब समझता था। आज जब आपको याद कर रही हूं तो लगता है कि कितनी बातें है जिसे मैंने आपसे प्रैक्टिस में सीखी है। सर आप कहीं नहीं गये हैं हमारी नींव आप हैं। जन इतिहासकार होना किसी मैथोडोलोजी की ही बात नहीं है आपके पास जन को सुनने की ललक और धैर्य दोनों था। इस अवस्था में भी किसान आंदोलन देखने आये थे। वो हर परिघटना को किसी उत्सुक विद्यार्थी की निगाह से देखते थे। बहुत उदास होने के बाद भी लग रहा है आपने भरपूर जिया,जिन्दगी को बहुत प्यार दिया। बहुत प्यार और क्रांतिकारी अभिवादन।
(दिल्ली विश्वविद्यालय में प्राध्यापक सविता पाठक साहित्य की अलग-अलग गतिविधियों में शामिल रही हैं। इनकी कविताएँ कई प्रतिष्ठित पत्र पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुकी हैं। इन्होंने ‘अम्बेडकर के ज़ख्म’ नाम से ‘वेटिंग फॉर वीज़ा’ का हिन्दी अनुवाद किया। इसके अतिरिक्त सविता पाठक ने विश्व स्तर के कई कवियों और साहित्यकारों की रचनाओं का अनुवाद भी किया है।
सम्पर्क: savitapathakindia@gmail.com)