समकालीन जनमत
स्मृति

हमीदिया रोड की उस बिल्डिंग से उठकर हमारे दिल में बस गये मंज़ूर सर

पुष्यमित्र


इन दिनों अपने देश में पतझड़ का मौसम है। इस पतझड़ में जो बसंत के बाद आया है, सिर्फ सूखे पत्ते ही नहीं बड़े-बड़े पेड़ भी एक झटके में धराशायी हो जा रहे हैं। रोज किसी प्रिय के जाने की खबर मिलती है। खबरें एक के बाद एक इस तरह आती हैं कि शोक मनाने के लिए भी पूरा वक्त नहीं मिलता। इस आपाधापी भरे वक्त में आपको नहीं जाना था मंजूर सर!

सवेरे-सवेरे प्रभात रंजन जी के ट्वीट से पता चला कि मंजूर एहतेशाम नहीं रहे। फिर सोचा कहीं से कंफर्म कर लूं। भोपाल राजू भाई को फोन लगाया। स्वतंत्र पत्रकार राजू कुमार नीरा जो इन दिनों अक्सर मंजूर सर से मिलते जुलते रहते थे। उन्होंने भी कंफर्म कर दिया। उन्होने बताया कि पहले से लीवर की गम्भीर समस्या से पीड़ित मंजूर सर को एहतियातन उनके घर वालों ने कोविड का वेक्सीन लगवा दिया था। उसके बाद ही उनकी तबियत बिगड़ने लगी। बाद में वे कोविड पॉजिटिव भी पाये गए। उन्हें कोविड प्रोटोकॉल के हिसाब से ही सुपुर्द ए खाक किया गया। राजू जी को यह सूचना उनकी बेटी से मिली।

डेढ़ दो साल पहले उनका इसी वजह से ऑपरेशन हुआ था और ऐसा लगा कि इस ऑपरेशन के बाद वे काफी बदल गये। वे अब बहुत कम बोलते हैं, चुपचाप रहते हैं। छोटा जवाब देते हैं। पिछले साल जनवरी महीने में भोपाल गया था तो उनके घर जाकर मिला। वहां आधे घंटे ठहरा और इस आधे घंटे में यह समझ आ गया कि अब वे अपने ही अंदर कहीं खो गये हैं। लापता हो गये हैं। हूं और हां में जवाब देते हैं। काफी कुरेदने पर दो शब्द बोलकर चुप हो जाते हैं।

मुझे 2000 ईस्वी की उनके साथ अपनी पहली मुलाकात याद आयी जब मैं भोपाल के एक स्थानीय अखबार नवभारत के लिए उनका इंटरव्यू लेने गया था। उस रोज हमारी मुलाकात सात घंटे चली थी। दोपहर तीन बजे से रात दस बजे तक। बार-बार मुझे लगता कि मैं उनके जैसे मशहूर लेखक का बेवजह इतना वक्त ले रहा हूं। हर प्रसंग के खत्म होने पर मैं औपचारिक विदाई मांगता, मगर हर बार वे ये कहकर बिठा लेते कि अरे बैठो मियां, कहां जाओगे। हमारी बातचीत जम गयी थी। लगता था कई चीजों के बारे में हमलोग एक ही तरह से सोचते हैं। हर प्रसंग पर हम एक ही तरह की मिसाल लेकर आते थे। और यह बात हमदोनों को हैरत से भर देती थी। उन्हें उस वक्त क्या अहसास हुआ यह तो पता नहीं, मगर मुझे लग गया कि इस खूबसूरत शहर भोपाल में मुझे एक मेंटर मिल गया है।

उन दिनों मैं भोपाल में रहकर मास कम्यूनिकेशन की पढ़ाई कर रहा था और साथ ही साथ नवभारत अखबार में नौकरी कर रहा था। वे जवानी के दिन थे और हर युवा पीढ़ी की तरह हम भी जब किसी नये इंसान से मिलते तो उनके सामने लिटरेचर, म्यूजिक, फिल्म और दूसरी चीजों में अपनी पसंद का जिक्र करते और सामने वाले से उसकी पसंद के बारे में पूछते थे। हमारी दोस्तियां, मोहब्बत सबकुछ ऐसे ही होते थे। आज भी नये लोगों के साथ ऐसा ही होता होगा। उस दौर में अचानक मुझे मुझसे 26-27 साल बड़े मशहूर लेखक मंजूर एहतेशाम मिल गये। और फिर उनसे लगातार मुलाकातें होती रहीं। हमारी पहली मुलाकात जैसा मैंने बताया सात घंटे की थी, बाद के दिनों में भी दो-तीन घंटे तक बातचीत हो ही जाया करती थी। और यह सिलसिला महीने में दो-तीन बार तो हो जाता था।

वह मोबाइल का जमाना नहीं था। उनके घर में लैंडलाइन फोन था, मैं एसटीडी बूथ से फोन करता और उनके घर पहुंच जाता। कई दफा तो ऐसा होता कि बगैर पूछे उनके घर टपक पड़ता और वे हर बार पूरी मुहब्बत से स्वागत करते।

भोपाल के हमीदिया रोड स्थित उनकी दुकान शिल्पकार फर्नीचर में कई टेबुलों-कुरसियों-पलंगों और सोफों को पार करने के बाद उनका एक केबिन हुआ करता था, जहां धीमी रोशनी में वे बैठकर अपने अजीजों से बतियाते थे। जैसे ही मालूम होता कि कोई उनका परिचित मिलने आया है, वे झटकते हुए बाहर आते और आगवानी करके अंदर ले जाते। फिर घंटे-दो घंटे बाद जब वापसी की बात होती तो बड़ी आत्मीयता से बाहर छोड़ आते। इस बीच चाय-सिगरेट और कभी-कभार नास्ता चलता और दोस्तोएवस्की और गांधी और जिन्ना और निर्मल वर्मा, शानी वगैरह का जिक्र होता रहता।

मंजूर एहतेशाम का घर

बाद में उन्हें मध्य प्रदेश की सरकार ने उन्हें निराला सृजनपीठ का अध्यक्ष बना दिया और रवींद्र भवन के सामने के सरकारी बंगलों में उन्हें एक छोटा सा बंगला उन्हें मिल गया। फिर वहां मुलाकात होने लगी। यह सिलसिला 2003 तक चला जब तक मैं भोपाल में रहा। इसलिए पिछले साल जनवरी में जब आधे घंटे में उनके घर से लौट गया तो आप सोच सकते हैं कि मैं क्या सोच रहा होऊंगा। ऐसा लगा कि अब दुनिया से वे धीरे-धीरे विदा ले रहे हैं।

उन आधे घंटे में मैं ही उन्हें कुरेदते रहा। एक आखिर बात उन्होंने कही कि वे भोपाल शहर पर एक किताब लिखने की कोशिश कर रहे हैं। यह बात मेरे लिए बड़े उम्मीद की बात थी, क्योंकि कम से कम एक चीज थी जो उन्हें इस दुनिया से जोड़ रही थी।

मगर 2020 साल उनके लिए बड़ा खतरनाक साबित हुए। इस जाते हुए साल में उनकी पत्नी कोरोना की वजह से अकाल कलवित हो गयीं और वे अपने ही घर में बिल्कुल अकेले हो गये। बेटियां घर आती जाती रहीं। मगर वह अकेलापन शायद दूर नहीं हो पाया और जनवरी, 2020 में जो उम्मीद मुझे बंधी थी वह तब धराशायी हो गयी जब उनकी पत्नी के गुजरने की खबर राजू भाई ने दी।

अकेलापन तो पिछले दस साल से उनके पीछे पड़ा था। पहले उनके सबसे करीबी मित्र लेखक सत्येन कुमार और फिर उतने ही करीबी दोस्त नाटककार अलख नंदन गुजर गये। फिर उन्हें लगने लगा था कि वे इस दुनिया में अकेले हो गये हैं। यह 2012 की बात है, जब अलख नंदन गुजरे थे। उन दिनों मंजूर सर से फोन पर मेरी बातचीत होती थी। उस बातचीत में वे इतने उदास लगते थे कि मन होता था उनसे मिलने भोपाल चला जाऊं। उन दिनों मैं रांची में प्रभात खबर अखबार में नौकरी करता था।

और फिर एक रोज चला भी गया। उनका दबाव था कि उनके घर पर ही ठहरूं। और एक रात मैंने उनके घर पर गुजारी। मगर तब वे मौन नहीं हुए थे। काफी बातें कर रहे थे, अपने बारे में, अपने दोस्तों के बारे में, अपनी दुनिया के बारे में। वे पूरी रात बातें करते रहे। ऐसा लगा कि वे मुझे बहुत कुछ बता देना चाहते हैं। सुबह हुई तो वे सो गये और मैं चुपके से उनके घर से निकल आया। मुझे लगा कि इस बातचीत के बाद शायद उनका मन हल्का हुआ होगा। मगर शायद इन तकरीबों से अब काम नहीं बनता। वे फिर उदासी और अकेलेपन में घिरते चले गये। और फिर वे चले ही गये। अब उनसे हुई मुलाकातें और उनकी बातें हीं उनकी याद के रूप में मेरे पास बच गयी हैं। ऐसी कई बातें जो उन्होंने टुकड़ों में मुझे बतायी थी। हालांकि वे अपने बारे में या अपनी किताबों के बारे में बहुत कम बातें करते थे, मगर फिर भी मैं पूछ-पूछकर कई बातें जान पाया कि कैसे इंजीनियरिंग की पढ़ाई करने वाला यह अंगरेजीदा युवक हिंदी साहित्य का लेखक बन गया।

मंजूर एहतेशाम के संग पुष्यमित्र उनके घर पर

वे बी-टेक की पढ़ाई करते थे, मगर उस पढ़ाई को उन्होंने बीच में ही छोड़ दिया। एक ऐसा ही किरदार उनके उपन्यास दास्ता ए लापता में मुझे मिला तो मैंने पूछ दिया क्या आप ही हैं। उन्होंने गोलमोल जवाब दिया, मगर वे वही थे। फिर वे भोपाल में दवा की दुकान पर बैठने लगे। उन दिनों सत्येन कुमार उनके काफी करीबी मित्र हुआ करते थे। वे सत्येन कुमार जो बाद में हिंदी के मशहूर लेखक हुए और शहरी मध्यवर्ग के जीवन पर जिन्होंने बहुत दिलचस्प कहानियां लिखीं। मगर जिस वक्त की यह बात है, तब दोनों लेखक नहीं थे। अंगरेजी मीडियम से पढ़े लिखे मॉडर्न नौजवान थे।

उन दिनों मशहूर लेखक शानी मध्यप्रदेश साहित्य अकादमी के अध्यक्ष हुआ करते थे औऱ न जाने किस वजह से मंजूर एहतेशाम उनसे मिलने जाया करते थे और अपने साथ सत्येन कुमार को भी ले जाया करते थे। एक रोज उसी बैठक में मंजूर एहतेशाम ने उन्हें अपने एक परिचित की कहानी सुनाई, जो कभी नवाब हुआ करते थे, मगर धीरे-धीरे इतने कंगाल हो गये कि उन्हें अपनी इज्जत को बचाना मुश्किल होने लगा। इस कहानी ने शानी को बहुत आकर्षित किया और उन्होंने मंजूर एहतेशाम से कहा कि इस कहानी को तुम क्यों नहीं लिखते।

इस प्लॉट को अपने दिमाग में लेकर मंजूर एहतेशाम ही नहीं सत्येन कुमार भी अपने घर लौटे। फिर इन दोनों ने उस प्लॉट पर अपनी पहली कहानी लिखी। मंजूर एहतेशाम की कहानी का नाम था, रमजान में मौत जिसका जिक्र आज राजकमल प्रकाशन समूह के संपादक सत्यानंद निरुपम ने किया और सत्येन कुमार की कहानी का नाम था जहाज। दोनों लंबी कहानियां थीं। जहाज कहानी को तो किसी पत्रिका की ओर से आयोजित प्रतियोगिता में पहला पुरस्कार भी मिला। इस तरह इन दोनों मशहूर कथाकारों के साहित्यिक जीवन की शुरुआत हो गयी।

दिलचस्प है कि भोपाल जाने से पहले मैं मंजूर एहतेशाम के बारे में बहुत कम जानता था। हां, सत्येन कुमार का मैं सुपर फैन हुआ करता था। भोपाल में सेटल होने के बाद पहली फुरसत में मैंने सत्येन कुमार का पता ढूंढा था और उनके प्रिंटिंग प्रेस पर पहुंच गया था। वे लेखन के साथ-साथ प्रिंटिंग का कारोबार करते थे। वे बहुत औपचारिक तरीके से मिले और भेंट के तौर पर उन्होंने अपनी अंग्रेजी कविताओं की किताब मुझे दी। मगर उस मुलाकात में खास तौर पर उन्होंने मुझे कहा कि मंजूर एहतेशाम से जरूर मिलूँ। उन्होंने ही मंजूर सर का पता दिया। और इसी वजह से जब नवभारत अखबार में भोपालनामा पन्ने की जिम्मेदारी मुझे मिली, जिसमें हर हफ्ते भोपाल के एक शख्सियत का इंटरव्यू मुझे लेना था तो बैले गुरू प्रभात गांगुली के बाद मैं उन्हीं से मिलने गया। उस मुलाकात की कहानी पहले लिख चुका हूं। उसके बाद मंजूर सर से मुलाकातों का सिलसिला चल निकला, हां, फिर कभी सत्येन कुमार से मिलने नहीं जा पाया।

बहरहाल मंजूर एहतेशाम ने रमजान में मौत के बाद कहानियां लिखनी शुरू कर दी और छपने भी लगे। फिर उनका एक नॉवेल आया –कुछ दिन और। वे कहते थे कि यह नॉवेल उन्होंने भोपाल के एक बिजी चौराहे पर मेडिकल स्टोर में दवा बेचते हुए लिखी है। जब भी मैं यह सुनता तो हैरत होती। बहरहाल यह किताब जो पति पत्नी के उलझन भरे रिश्ते पर लिखी गयी थी, बहुत पापुलर नहीं हुई। मगर वह एक उदासी भरी काफी इंटेंस कथा है।

इसके बाद उनका वह उपन्यास आया जिसने उन्हें जबरदस्त पहचान दी। वह नॉवेल जिसे हम सब जानते हैं, सूखा बरगद है। वह उपन्यास एक मॉर्डन मुसलमान युवक के बारे में है, जो अपनी विफलताओं और कुंठाओं की वजह से मजहबी कट्टरता को अपना लेता है। पाकिस्तान में जिया उल हक के सत्ता में आने के बाद जिस तरह वहां धार्मिक कट्टरता हावी हो रही थी, उसकी छवियां इस किताब में नजर आ रही थीं। आज तकरीबन वही नजारा अपने मुल्क में है, जब पढ़े लिखे लोग धार्मिक कट्टरता के फेर में कम्यूनल होते जा रहे हैं। बस मजहब का फर्क है। वे मुसलमान नहीं, हिंदू हैं। इस लिहाज से उनकी यह किताब आज भी मौजू है औऱ जब तक राजनीति मजहबी दकियानूसी के जरिये लोगों को अपने वश में करने की कोशिश करती रहेगी। जब तक लोग अपनी मुसीबतों का इलाज पुरातनपंथी मजहबी कट्टरताओं में तलाशते रहेंगे। जब भी वैज्ञानिकता के बदले मजहबी दकियानूसी को तरजीह दी जायेगी। यह किताब मौजू रहेगी।

फिर उन्होंने बाबरी मस्जिद कांड के बाद के हालात पर दास्तान ए लापता जैसा नॉवेल लिखा जो मेरी सबसे पसंदीदा किताब है।

यह किताब खास तौर पर मुझे इसलिए पसंद है, क्योंकि यह इन्सानी जमीर के लापता होने की कहानी है। और इसे उन्होंने एक दिलचस्प किस्से में ढाला है।

यह किताब मूलतः एक ऐसे व्यक्ति के बारे में है जो अपने अतिसंवेदनशील मिजाज के कारण दुनियावी तौर-तरीकों से तालमेल नहीं बिठा पाता है। दो-दो इंजीनियरिंग कालेज में एडमिशन होने के बावजूद कोर्स पूरा नहीं कर पाता। एक खूबसूरत और जहीन युवती के मुहब्बत को इसलिए ठुकरा देता है, क्योंकि उसने उसे पहले बहन मान लिया था। दो बार बिजनेस का असफल तजुर्बा लेता है और जमा पूंजी और आत्म विश्वास लुटाकर घर बैठ जाता है। उसके निकम्मेपन से आजिज आकर उसकी बीवी अपनी बेटियों के साथ घर छोड़कर चली जाती है और तलाक लेने का फैसला कर बैठती है। इन घटनाओं से गुजरते हुए वह खुद अहसास ए लापता के गिरफ्त में पड़ जाता है।

वह महसूस करने लगता है कि वह धीरे-धीरे लापता हो रहा है। वह अपने डॉक्टर से बार-बार मिलता है और उसे अपने इस अजीबोगरीब अहसास के बारे में बताता है। मगर डॉक्टर हर बार उसे यह कह कर लौटा देता है कि उसे कोई बीमारी नहीं है, न शारीरिक और न ही मानसिक. मगर इस लापता होने के अहसास के कारण उस मरीज का जीवन उसके हाथ से लगातार फिसलता चला जाता है।

जब मैंने यह नॉवेल पढ़कर मंजूर सर को फोन लगाया तो उन्होंने कहा कि यह किरदार उनका लापता है। हम सब के अपने-अपने लापता होते हैं, जो जिंदगी की आपाधापी हमारे अंदर ही कहीं खो जाते हैं और हम भी उन्हें भूल जाते हैं। आज उनके न होने पर उनकी ये बातें बार-बार याद आ रही हैं। मुझे बार-बार लगता है कि यह किस्सा भले ही हिंदुस्तान के अंदर से जमीर और सेक्यूलरिज्म के गायब होते चले जाने की कहानी है, मगर इसमें उनका जीवन भी झांकता है। उन्होंने भी कभी इस बात से इनकार नहीं किया।

उन दिनों 2000-2003 जब भोपाल में मैं उनसे लगातार मिल रहा था तो वे अपना एक और मशहूर नावेल बशारत मंजिल लिख रहे थे। यह एक गांधीवादी मुसलमान की कहानी थी, जिन्होंने गांधी के प्रेम में अपनी बेटी का नाम खद्दर रख लिया था। इस उपन्यास को लिखते हुए मैंने उन्हें लगातार देखा, इसलिए उनकी लेखन प्रक्रिया के बारे में कुछ लिख सकता हूं।

लिखने से पहले उन्होंने गांधी और जिन्ना को खूब पढ़ा था। और उन बातों को वे मुझसे डिस्कस करते थे। वे इस बात को समझना चाहते थे कि आखिर जिन्ना जैसा सेकुलर इंसान क्यों रेडिकल बन गया और क्यों गांधी जैसा धर्म को मानने वाला इंसान कम्यूनल नहीं हुआ, इस देश में धर्मनिरपेक्षता की सबसे बड़ी मिसाल बन गया। हमलोग इन बातों पर खूब डिस्कस करते थे। वे पूरी तरह से खुले थे और हर बात को इमानदारी से समझना चाहते थे। हालांकि वे इस बात से काफी हद तक मुत्मइन हो चले थे कि इस मुल्क में अगर सेकुलरिज्म को कोई बचा सकता है तो वह गांधीवाद ही है।

फिर उन्होंने लिखना शुरू किया। परीक्षा देने वाली गत्ती में उनके कम से कम पांच सौ पन्ने फंसे होते, जिन पर उनके खूबसरत और चौकर अक्षर उभरे होते। वे नीली स्याही से लिखते और लाल स्याही के एडिट करते। कई-कई दफा इतने सारे पन्नों को रि-राइट करते। उनकी मेहनत देखकर मुझे घबराहट होने लगती। सोचता कि अगर कभी मुझे लिखना पड़ा तो क्या इतना धैर्य मुझमें हो पायेगा। इतनी मेहनत मैं कर पाऊंगा।

फिर मंजूर सर मुझे लेव तॉलस्तॉय के किस्से सुनाते कि कैसे वे हजार-हजार पन्नों के नॉवेल लिखते। उन्होंने कहा कि वार एंड पीस उपन्यास पढ़ने से पहले उन्होंने उपन्यास के सभी किरदारों का फैमिली चार्ज तैयार किया था। हालांकि वे मुरीद  तॉलस्तॉय के नहीं दोस्तोएवस्की के थे। दोस्तोएवस्की का उपन्यास कारमाजोव ब्रदर्स उनका पसंदीदा उपन्यास था। वे बताते थे कि दोस्तोएवस्की मिर्गी के मरीज थे और दिन में कई-कई दफा उन्हें दौरे आते थे। फिर वे कहते कि एक संवेदनशील क्रिएटिव इंसान को यह सब झेलना ही पड़ता है। वे बार-बार मुझे कहते कि कहानियों को पंसद करो, मगर कहानियों के नायक का जीवन जीने की कोशिश मत करना। काफी दुखद होता है। मुझे लगता कि वे अपना अनुभव बता रहे हैं।

किसी पठान की तरह लंबे और खूबसूरत मंजूर एहतेशाम बहुत नर्म मिजाज इंसान थे। वे कहते थे कि उनके खून में पठानों का खून शामिल है। उनके पूर्वज उसी इलाके से आये थे। इन दिनों जब मैं बादशाह खान के बारे में पढ़ रहा हूं तो लगता है कि वे मंजूर एहतेशाम जैसे किरदार ही होंगे। हालांकि बादशाह खान मंजूर एहतेशाम जितने पढ़े लिखे नहीं थे। मगर दोनों में एक जैसी नर्म मिजाजी और गांधीवादी अहिंसा के प्रति आस्था थी।

मंजूर सर बहुत धीमे और फुसफुसाकर बोलते थे। बहुत नर्म तरीके से। हर बात को कहने से पहले वे लंबी भूमिका बांधते थे। काफी देर बाद समझ आता था कि वे फलां बात कह रहे हैं। अपने समकालीन लेखकों में से उन्हें कुछ पसंद आते थे, कुछ नापसंद थे। खास तौर पर ऐसे लेखक उन्हें नापसंद थे जो अपनी रचनाओं में चमत्कार पैदा करके लोगों को प्रभावित करने की कोशिश करते थे। मगर ऐसे लेखकों की आलोचना भी वे कुछ इस सलीके से करते कि लगता कि वे उनकी तारीफ ही कर रहे हैं।

मेहमान नवाज अव्वल दर्जे के थे। रहते थे भोपाल में, जो बेतकल्लुफ़ लोगों का शहर है, जहां बात-बात पर गाली देने और गाली देकर दोस्ती जाहिर करने का रिवाज है। मगर वे स्वागत करते और बतियाते बिल्कुल लखनऊ अंदाज में थे। पुराने भोपाल के बीचोबीच रहने के बाद भी वे अपने ही शहर के इस अंदाज से कैसे बचे हुए थे, कभी समझ नहीं पाया। मुमकिन है, अपने कुछ बहुत करीबी दोस्तों से वे इस तरह बेतकल्लुफ रहे हों।

जब मैं भोपाल में था, तभी उन्हें पद्मश्री मिला और बाद में निराला सृजनपीठ का अध्यक्ष भी बनाया गया। पद्मश्री मिलने की बहुत खुशी उन्होंने जाहिर नहीं की। संभवतः इसलिए कि तब अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार थी और उसी सरकार से उन्हें यह सम्मान मिला जिसे वे बहुत पसंद नहीं करते थे। हां, निराल सृजनपीठ के अध्यक्ष बनने पर उन्हें एक खुशी जरूर हुई कि इसके बदले उन्हें एक सरकारी बंगला मिल गया। उन्हें लगा कि अब वे शांति के मौहाल में साहित्य रच पायेंगे। अब तक उन्होंने सारी किताबें अपने दुकान पर बैठकर लिखी थी। पहले मेडिकल शॉप पर और फिर शिल्पकार फर्नीचर की दुकान में।

मगर ऐसा कुछ लाभ उन्हें सरकारी बंगले में रहने का नहीं मिला। बशारत मंजिल के बाद उन्होंने एक छोटा सा नावेल पहर ढलते जरूर लिखा, मगर वह ज्यादा मकबूल नहीं हुआ। और फिर से वे हमीदिया रोड वाले शिल्पकार फर्नीचर की अपनी दुकान में लौट गये। वह ऐन चौराहे पर बहुत खूबसूरत जगह था और बाद के दिनों में वहां काफी ऊंची इमारत बन गयी, जिसमें उनका एक अपना फ्लैट हो गया। आखिरी दिनों में मेरी उनसे वहीं मुलाकातें हुईं। 2003 के बाद मेरा भोपाल छूट गया।

पिछले साल जनवरी में उन्होंने कहा था कि वे भोपाल शहर के बारे में एक नॉवेल लिख रहे हैं। पता नहीं वे उसे कितना लिख पाये। उन दिनों वे भोपाल के बारे में खूब पढ़ रहे थे। अगर उन्होंने कुछ लिखा होगा तो वह हिंदी साहित्य की बड़ी उपलब्धि होगी।

मेरे लिये तो मेरा एक मेंटर चला गया। उनका होना यह तसल्ली देता था कि कभी भी भोपाल जाकर उनसे मिला जा सकता है। मगर अब भोपाल जाऊंगा तो उनसे मुलाकात नहीं होगी। आधे घंटे की भी नहीं। हां, हमीदिया चौराहे के पास से गुजरूंगा तो साथ में जो भी होगा उसे जरूर बताऊंगा, यही मंजूर सर का घर है। जहां कभी मैं उनसे मिलने आया करता था। उनके साथ घंटो बतियाता था। अब ऐसे लोग कहां मिलेंगे। हमारे सिर से सिरपरस्ती का हाथ लगातार उठ रहा है।

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(पुष्यमित्र स्वतंत्र पत्रकार और लेखक हैं। 2000 से 2019 तक नवभारत, अमर उजाला, प्रभात खबर और हिंदुस्तान आदि अखबारों में रहकर पत्रकारिता की। अब स्वतंत्र पत्रकारिता न्यूजक्लिक, न्यूज 18, मोंगाबे इंडिया, डाउन टू अर्थ आदि के साथ जुड़कर। बिहार के पटना में रहते हैं। तीन किताबें प्रकाशित हुई हैं। उपन्यास रेडियो कोसी ज्योतिपर्ब प्रकाशन से दो नॉन फिक्शन किताबें, चंपारण 1917 और रुकतापुर राजकमल प्रकाशन से। ) सम्पर्क: 7717768938

इमेल: pushymitr@gmail.com

 

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