समकालीन जनमत
स्मृति

महाश्वेता देवी की स्मृति में उनकी कहानी ‘प्याऊ’ का हिंदी अनुवाद

(समकालीन जनमत प्रस्तुत करता है महाश्वेता देवी के स्मृति दिवस 28 जुलाई पर कवयित्री मीता दास द्वारा अनुदित महाश्वेता देवी की कहानी ‘प्याऊ’ (रचना काल, 1972 ) -सम्पा.

महाश्वेता देवी (जन्म 14 जनवरी 1926 ढाका बांग्लादेश में और मृत्य 28 जुलाई 2016 कलकत्ता में)

प्याऊ

प्याऊ तो बैसाख – जेठ के माह में खुलने ही वाला था , कुसुम भी वहीं काम करती थी पर इस साल बड़ा ही अजन्मा सा है  …. सूखा पड़ा है । धरती की छाती हाहाकार कर उठी है , क्रंदन फूट पड़ा है।

मनुष्यों का रुदन कान को खुला रखने से सुनाई दे जाता है, पर धरती का रुदन अलग ही तरह का होता है। कुसुम के घर पर धरती पर लेटे – लेटे ही वह युवक धरती का रुदन सुन लेता था और कहता  –

— पानी के समय पानी नहीं था और इतना कोई रोया भी नहीं इसलिए अब धरती रो रही है। वह युवक  कहता था चारों तरफ मिट्टी है और वह इस लाल मिट्टी का रोना सुन पाता है। यह सब सोच – सोच कर कुसुम का दिल चिर जाता है। तुम जो – जो बातें कहते थे अब मैं उन सभी बातों पर विश्वास करने लगी हूँ। तुमने मेरी आँखें खोल दी हैं , कुसुम का हृदय अब बदल सा गया है, ठीक इस लाल माटी के देश के जैसा ही।

उसने सिर्फ इतना ही नहीं जाना था, उसने जान लिया था की कुसुम उसकी दुश्मन है। इस माटी की भी शत्रु है। इन सबके बावजूद वह युवक न जाने कितने सारे गीत बनाता और गाता था। कितनी ही कवितायेँ गढ़ता था, और कहता था कि कुसुम और माटी सब दिन – दिन एक हुए जा रहे हैं उसकी दृष्टि में कोई फर्क नहीं।

कहता था – “मैं  इस माटी के लिए अपनी जान दे सकता हूँ यहाँ तक कि मैं तेरे लिए भी अपनी जान दे सकता हूँ। कुसुम का ह्रदय डर से और ख़ुशी से धड़क कर रह जाता था। इलमबाजार की सौरभी , मालती , गुलाब ऐसे ही नहीं कहा करती ” बाबू लोगों के लड़के जिस तरह से प्रेम की बातें करते हैं उनके जैसी बातें करना काली सिकदार किसी भी जनम में नहीं कह पायेगा। ”

कुसुम का मन तब कुछ और ही तरह का हो रहा था सब कुछ समेटने का मन हो रहा था। काली सिकदार जिस तरह गहने और रुपये दे सकता है क्या वैसे ही ये बाबुओं के बेटों जैसा बन पायेगा ?

इन्ही सब बातों का सात – पांच सोचकर ही उसने इस बार प्याऊ खोला। पर चार – पांच लोगों ने उसे अवश्य ही उलाहना देकर कहा-

” अरी ओ छिनाल तेरे हाथों से पानी पीकर मरना है क्या ? कलसी लेकर अगर जमकर बैठ जाएगी तो क्या खूनी औरत तू बामन बन जाएगी ?”

कुसुम उनकी बातों का कोई जवाब नहीं देती। उसने सब लोगों की ओर सिर्फ अपनी आंखे उठाकर देखा और सहमकर अपनी आँखें झुका ली।

पांच लोगों ने उससे कहा भी-

” उस युवक को पकड़वा दिया तूने , पता नहीं कितना रूपया – पईसा खा कर डकार गई तू ?”

कुसुम ने उन बातों का भी कोई जवाब नहीं दिया। इस वक्त वह खुद को सूअर की तरह महसूस रही थी ‘जंगली सूअर’ काली सिकदार द्वारा जाल में फाँस कर लाया हुआ जंगली सूअर और उसे काली सिकदार उसके चारों पैरों को बांधकर उल्टा बाँस पर लटका कर नीचे से आग सुलगा देता है। इधर जिन्दा जंगली सूअर आग से झुलसता जाता और काली सिकदार उस जंगली सूअर को नुकीले सींखचों से छेदता रहता। जितना अधिक दर्द सहता है जंगली सूअर , उसका माँस उतना ही स्वादिष्ट हो उठता है।

वह युवक कहता था , काली सिकदार ठीक इसी तरह मरेगा भी। ज्वर की खुमारी में वह युवक सिर्फ और सिर्फ सपने ही देखा करता था। काली सिकदार जैसा था ठीक अब भी वैसा ही है। कुसुम के घर से युवक के पकड़े जाने के बाद से ही इलमबाजार की सौरभी , मालती और गुलाबों का निरादर ही हुआ है। उनके घर पे चावल , दाल था पर लड़कियों को  मार – मार कर लाल कर दिया था और उन्होंने भी खूब गालियाँ दी थीं कुसुम को।

सब कुछ तो ठीक ही चल रहा है , ठीक जैसा था वैसा ही , ठीक वैसा ही ? वही काली सिकदार फिर से अपने मकान को तीन मंजिला बनवाने के लिए ईंटें पका रहा था और उधर सौरभी जैसेे  शाम उतरते से ही पाऊडर चेहरे पर मलकर दरवाजे पे खड़ी होने लगी हैं और कसाईयों के संग हँसी – ठिठोली में रमने लगी हैं , ठीक वैसा ही है सब कुछ। सौरभी लोग इन कसाईयों को अपने कमरे में नहीं घुसाती थीं , वे लोग कुसुम से कहतीं क्या तू पिशाच है ? पर कुसुम कभी भी उन्हें ना नहीं कहती , उनके देह में रक्त – माँस और चर्बी की गंध बनी रहती थी , पर वे कितना पईसा – रूपया देते थे।

खूब लालच था उसे पैसों का।

इसलिए तो सभी यही सोच रहे थे की उस युवक को जो कुसुम के आंगन में बने बाँस के मचान पर बिछे मैले – कुचैले बिस्तरे पर लेटा रहता था और ऐसा करने की वजह से कुसुम अपने को श्रीपुर की बहुरानी की तरह गर्व से फूली नहीं समाती थी। और  हाँ वही युवक कुसुम को रानी बना कर चला गया। सोच कर कुसुम की छाती फट पड़ती है। सब कुछ ठीक उसी तरह ही हो रहा था , जैसा था ठीक वैसा ही है। वह युवक कहता था कि कुछ भी इस तरह नहीं रहेगा , सच कुछ भी पहले जैसा था ही नहीं। कुसुम नहीं जानती पर हाँ सब कुछ पलट गया है। उस वक़्त वह युवक कुसुम का विधाता था , जमीन पर लेटकर ज्वर में प्रलाप सा बकता रहता था। और उन प्रलापों को सुन – सुन कर कुसुम सोचती आहा  …. सपने में कितने सुख होते हैं ! हो सकता है यह युवक सब कुछ सच कहता हो !

सब कुछ बदल जायेगा , सब बदल भी रहा है , उसका सब कहा कुसुम को सच ही महसूस होता था। वह सोचती थी कि एक दिन नींद से उठेगी तो देखेगी की उसके आसपास के सारे गड्ढे भर गए हैं पूरी जगह समतल हो गई है। और वह समतल जमीन हरे – भरे धान के खेतों से ढक गई है। या फिर कोपाई नदी अब वैसी कोपाई नदी नहीं रह गई है। आजकल कोपाई में जल परिपूर्ण है बिलकुल छलछल नदी की तरह। इसलिए कुसुम को जब तक वह युवक उसके मचान पर लेटा हुआ था लगता था की जैसे ही सुबह उठेगी तो उसे दिखेगा सब कुछ बदल गया है। पर सुबह उठकर उसे ऐसा कुछ भी नजर नहीं आता , वही पहचाना हुआ मोहल्ला , गांव उसके सिवाय कोई नया चेहरा या नई जगह नजर नहीं आता।

उधर दूर जाकर है हाट – बाजार , और उस बस वाली सड़क के दोनों ओर पत्ताविहीन पीपल के पेड़। चारों ओर धूल ही धूल , रूखा – रूखा सा। कोपाई नदी के तटों पर जाकर उसने कई बार देखा है प्रेतों की जानी – पहचानी भीड़ को। और देखा है उसने कई – कई बार की लड़कियाँ रेत खोद रही हैं , जमीन में दबे फौवार को ढूंढ रही हैं। वे लड़कियाँ माटी के संग बातें करती हैं और नाखूनों से खोदती हैं बालुओं को और उनके हाथों आता है सिर्फ बालू। और फिर सारी रात उस जमीनी दबे  फौवारे से बूँद – बूँद जल जमा होता रहता है।  भोर होने से पहले ही लड़कियां उस इकठ्ठा हुए जल को ले जाती हैं। क्योंकि ज्यादा देर कर देने से यह पानी भी नसीब नहीं होता। धूप में पानी सूख जाता है।

जितने भी दिन वह युवक था कुसुम को लगता था की सब बदल जायेगा ऐसी ही बातें वह बड़े घर का लड़का किया करता था। पर अब लगता है सच सबका रंग बदला है , रूप भी बदला है | कितनी काली लगती है रातें और भोर का सूरज , सांझ का सूरज जैसे ओढ़नी की तरह लाल है। इस बार जब शिरीष फूला तब क्या ऐसा नहीं लगा जैसे फूल की तीव्र गंध और फूल के पराग कुसुम के रक्त में झर – झर कर गिर रहे हैं ? अभी तो सारी बातें उसे याद आ रही हैं , उसे ऐसा महसूस हो रह है जैसे वह भी इस मिट्टी की तरह ही रूखी , तृषित और क्षुधार्थ हुई जा रही है।

माटी को जब भूख लगती है तब माटी खून मांगती है। इस बार माटी ने खूब सारा रक्त माँगा था , इसलिए काली सिकदार उत्तेजना से भरकर रक्त – रक्त कहकर कितने दिनों तक कितना शोर मचाया था ! कितनी ही बार उसने , गांव – गांव , खेतों – खलिहानों , गौशाला और हाट – बाजारों को सर पर उठाया | जैसे कोई पागल हाथी हो !  ठीक वैसा ही कर रहा था जैसा श्रीपुर के राजाओं के मल्ल हाथी किया करते हैं !

कितनी ही बार उन्होंने इस पार और उस पार किया और हर बार हँस – हँस कर पैरों से पानी के फौवारों में रेत भर कर मूंद दिया।

” बिहान में आकर जल नही ले जाओगी ? कह कर देखो कितना पानी है ” यह कह – कह कर कितना हँसे । फिर भी इतना रक्त पीकर भी माटी की भूख नही मिटी । इसलिए आसमान का रंग इतना धुआँसा सा है , वर्षा इतनी कृपण हो गई है , लगता है अकाल पड़ेगा ।

कुसुम ज्यादा सोच नहीं पाती । अब उसे ईर्ष्या होती है उन अँधेरे के प्रेतनियों से जो सीने में अपने सारे दुखों का रोना समोकर एक छोटे से कपड़े के टुकड़े से अपने तन की लज्जा को ढँक कर आती है रात में पानी के रिसते फौवारे के लिए रेत खुंरचती हैं। और कुसुम को लगता है की वह अपने बचपन के दिनों में लौट गई है और सिर्फ और सिर्फ रेत खुंरचती रहती है। पर उसके जमीनी फ़ौवारे में कभी अँजुरी भर भी जल जमा नहीं हुआ | उसे रह -रह कर ऐसा क्यों भान होता है कि उन कसाईयों द्वारा दिए गए रुपये – पैसे  , काली सिकदार का दिया नथनी , हाथों की चूड़ियाँ , कान के बड़े – बड़े बूंदे सभी कुछ होने के बावजूद भी वह बहुत ही हतभागिनी है ?

उसे लगता है की सभी ने जल भर लिया है बस वही अकेली खड़ी है | कोपाई नदी की छाती हाहाकार करती रहती है , माटी के ऊपर आकाश तक धूल का बवंडर , नुचे – बुचे पीपल की डाली पर बैठकर एक कौआ कर्कश स्वर में का – का चिल्ला रहा है। चारों तरफ आकाश का रंग धूसर और आकाश की लालिमा का रंग एक हो उठता है। और कुसुम खड़ी ही रह जाती है , बेहद अकेली सी , बिलकुल अकेली और उसके हाथों में होता जल भरने का पात्र और उसका जमीनी फौवारा बिलकुल खाली  ….. सूखा , कभी उसमे जरा सा भी जल नहीं निकला। इसलिए कुसुम बैसाख नहीं , जेठ नहीं , आषाढ़ के धुआँसे से आकाश के नीचे प्याऊ खोला।

“कोई नहीं जायेगा , जल भी कोई नहीं पीयेगा “! सिकदार बोला।

” न जाए कोई।”

” पानी का प्याऊ खोलना होता तो मैं न खोल लेता ? ”

” नहीं ”

” क्या कहा ?”

“नहीं खोलते ”

काली सिकदार की बोलती बंद हो गई , इतना गुस्सा उसका , कुसुम रुपये भी नहीं ले रही अब , जब – जब वह उसे बुलाता कुसुम आती भी नहीं। गुस्से से उसके खून में आग सी लग गई थी। काली ने कहा भी की-

” तू बख्शीश नहीं लेगी ?”

” नहीं ”

” तूने मदन से कहा है की बख्शीश के रुपये में गाय का खून लगा हुआ है ? ”

” नहीं कहा मैंने ”

” नहीं कहा ?”

” मैंने कहा कि तुम्हारा खून लगा हुआ है।”

” तब तूने मुझे क्यों नहीं पकड़वाया ?” काली सिकदार बोल पड़ा।

” तुमने ही तो कहा था कि हसपताल में चिकित्सा कराओगे ? बोला था न तुमने की वो जो है बड़ा बाप का बेटा , धनी है , उसका जान का दाम बहुत | तुमने बोला सुलुक देने से धनी का बेटा जी जायेगा , इसलिए ही तो ! ”

” इसलिए ”

” हाँ इसलिए ”

” और बहुरानी क्या बोली तेरे को ?”

” कुच्छ भी नई ”

कुसुम अवाक् होकर देख रही थी काली सिकदार के घर पर कितना अच्छा चांपाकल लगा हुआ है। यही सब चांपाकल सरकार कृषकों के खेतों के लिए देते हैं काली सिकदार के माध्यम से। इसलिए काली सिकदार के घर एक चांपाकल और दूसरा उसके दामाद के घर लगा हुआ है। यही सब चांपाकल जमीन में हजारों फुट भीतर जाकर जल की धार निकालते हैं। कुसुम देख रही थी काली सिकदार के यहाँ दो कूएँ हैं और एक चांपाकल भी और उसका नौकर उस पानी से गाय को नहला रहा है और कितना – कितना पानी डाल रहा है जिसका कोई हिसाब नहीं ? कुसुम कुछ देर एक टक ताकती रह जाती है फिर कहती है-

” मैं आई हूँ जी !”

दरोगा सिकदार को आँख मारकर समझाता है की वह कुसुम को न छेड़े। असल बात यह है की बगैर कुसुम की सहायता लिए दरोगा उस युवक को पकड़ ही नहीं पाता। किसे पता था की उसके पाँव का जख्म सड़ने लगा था। अस्पताल ले कर जाते वक़्त बीच में ही कहीं कुछ न हो जाये, इसका डर भी था।

” हाँ , दरोगा बाबू ! तुम उसे हसपताल में ले गया था ? ” कुसुम जाते वक़्त पीछे मुड़कर पूछ बैठी।

” ओ बदचलन औरत घर पर ही तो उसके पाओं के जख्म में सड़न पैदा हो गई थी न और ऐसे में इंसान बचता है क्या ? नहीं न , इसलिए उसे अस्पताल नहीं ले गया। ” दरोगा अपनी जांघों को खुजलाते हुए बोला। इसपर कुसुम काफी निश्चिंत हुई —-

“अच्छा ही हुआ मर गया जख्म के सड़ने की ही वजह से ही मरा न। अगर अस्पताल ले जाते और वहां दवा – दारू करके बचा भी लेते उसे और बाद में मार डालते तो ! ” कुसुम लौट आई।

कहने की बात नहीं हैं यह सब , सभी बातें कही नहीं जातीं। कितनी पूछताछ ? कितनी जिरहें पर वे कोई भी बात नहीं उगलवा पाए। आखिर उस बाबुओं के घर का बेटा कुसुम के ही घर क्यों गया ? कौन उसे पहुंचाकर गया ? कोई नहीं जानता आखिरकार उसदिन क्या घटा था। उस दिन जोरदार अंधड़ चल रहा था और उसमे उड़ते हुए धूल। बहुरानी खुद गाड़ी चलकर कोलकाता गई थी , फिर यहाँ वापस लौटती है , यह सब तो सभी जानते हैं। दुबली – पतली , गोरी बाबुओं की बेटी थी बहुरानी भी। वर यहाँ नहीं रहता , स्वसुर कुल का भी कोई यहाँ नहीं रहता पर बहुरानी क्यों यहाँ आती – जाती थी  …….. कौन जाने ?

बहुरानी एक समिति बनाएगी , कोई अच्छा काम करेगी ऐसा सोचकर गाड़ी लेकर उन सभी के घर – घर जाती थी | कुसुम को वह अच्छी तरह पहचानती थी , नहीं तो उसके ही घर क्यों आती ?

—-” इसे यहाँ कुछ दिन रखना होगा , रख पाओगी ? ऐसा क्यों कहा था।

बहुरानी की आँखों में आसूं नहीं थे। बहुरानी ने उससे कहा था की कुछ दिनों बाद वह आकर उसे यहाँ से ले जाएगी। न जाने क्यों कुसुम राजी हो गई थी ? नियति है यह सब नियति , या खून की आदत। सब कुछ जान कर भी न जाने क्यों कुसुम बुद्धू सी हो गई थी। हाँ खून में समाई हुई आदत , बहुरानी ने ऐसे आकर बिनती की कि ऐसे में कोई भी कुसुम ना नहीं कर सकती। बहुरानी कुछ दवाईयाँ रख गई , और कहकर गई की कोलकाता से डॉक्टर साथ लेकर आएगी। पर बहुरानी दोबारा नहीं लौटी।

युवक जानता था की बहुरानी अब नहीं लौटेगी। मचान पर लेटे – लेटे ही शांत भाव से मृत्यु को वरण कर रहा था। उसके जख्म सड़ रहे थे | खून और शर्करा यदि एक हो जाये तब क्या यह शरीर उसे और सह पायेगा। आखिर के दिनों में वह कितनी ही बातें किया करता था  …. तू  .. तू  .. और सिर्फ तू ही ! सब विकारों की बातें , किसी और से कहता हो जैसे पर कभी भी उसने कुसुम का नाम नहीं लिया। कहता और पुकारता ….. श्रीला  .. श्रीला  …. यह नाम बहुरानी का ही है। इसलिए मोहल्ले – मोहल्ले घूमते हुए और सिकदार के घर के पास से गुजरते हुए उसने सुना था की उसे अस्पताल में भर्ती करेंगे , क्या  कुसुम इतने साहस के साथ कह पाती ?

” तुम किसकी बात कर रहे हो जी ! मैं तो कुसुम हूँ  ….. ” कुसुम ने उस बड़बड़ करते युवक से कहा।

“मुझे पता है तुम कुसुम ही हो और यह सब मैं तुमसे ही कह रहा हूँ। ” उस युवक ने कुसुम से कहा। इसलिए ही कुसुम में साहस भर गया और वह काली सिकदार के पास गई। और उसने उससे बातें उगलवाई की वे उस युवक को जान से नहीं मरेंगे , उसका इलाज करवाकर स्वस्थ करेंगे और उसके दिमाग में जो भी भूत समाया हुआ है वह सब उतरवाएँगे। उसके पश्चात उसे आजाद कर देंगे , निश्चित ही छोड़ देंगे।

इसलिए वह युवक  ……. विकारग्रस्त आवाज में कुसुम से कहा भी था” किन्तु विश्वासघाती ! वैश्या ! विश्वासघातक ! ( ट्रेटर ! हरलॉट ! ट्रेटर ! )

” तुम ठीक हो जाओगे बाबू जी ”  कहते हुए जैसे ही कुसुम उसके नजदीक जाती है युवक अपने पैर से जो अभी तक नहीं सड़ा है उसी पैर से कुसुम को लात मरने की भी कोशिश भी की  ? दरोगा ने भी उस सड़े – गले पैर जो बैंगनी रंग में परिणित हो चूका था , बिलकुल भरे हुए गुब्बारे की तरह फूल चूका था ,  उसे घसीट कर आखिर नहीं ले ही गया क्या ? तब भी क्या कुसुम ने इस सर्वनाश को नहीं समझा  ? कुसुम तूने यह कैसा सर्वनाश रच डाला ?

इस बार आषाढ़ में ही प्याऊ ? साल में एक बार कुसुम प्याऊ खोलती ही है | पापी जीवन के पाप धोने के लिए। वरना सभी लोग अभी तक अँधेरे में रेत खंरोच रहे हैं पर कुसुम के घर पर एक पक्का कुआँ क्यों बन गया कहो जरा ? कुसुम नहीं गई उस वक़्त बख्शीश लेने इसलिए आज तक सभी कुसुम को श्राप देते रहते हैं | कहते है-

” इतना लालच , क्या वह पैसा चिरकाल तक तेरे पास रहेगा ? ”

कुसुम ने किसी की बातों का बुरा भी नहीं माना और न ही कोई प्रतिवाद ही  किया। और अभी भी बैठी हुई है प्याऊ पर। अब बाजार – हाट दूरी पर लगता है , बाजे – गाजे , शोर और हुल्लड़ सभी उसके कानो में पड़ते हैं। आज प्याऊ खोले उसे नौ दिन हो गए , कुसुम ने एक बूँद भी आँसू नहीं बहाया। असल में वह रो ही नहीं पाई।

फिर भी पैदल यात्री आ – जा रहे हैं , खड़े होकर पानी पी रहे हैं पर कुसुम ने उन दो आदमियों को एक बूँद भी पानी नहीं पिलाया , दरोगा और उसके संग आये आदमी को। पता नहीं कितनी दूर उनकी जीप गाड़ी का चका ख़राब हो गया था और वे दोनों वहीं से पैदल आ रहे थे। सब कुछ सुनकर भी कुसुम ने उन्हें पानी नहीं पिलाया।

—-” नहीं पिलाऊंगी , जहाँ मिलता है वहीँ चले जाओ।” कुसुम उन्हें बोली। वे दोनों कब चले भी गए कुसुम को पता ही नहीं चला। कुसुम बैठी – बैठ सिर्फ उड़ता  हुआ धूल देख रही थी। और तिल – तिल कर अपने टूटते हुए हृदय को देख रही थी … जो भरभराकर टूट रहा था। जब उसे दरोगा घसीटकर ले गया था तभी वह जान चुकी थी की उन लोगों ने उससे जो कहा था वह सब झूठ है। अब लोगों तुम ही बताओ ऐसे में कुसुम उन्हें पानी क्यों पिलाये ?

कुसुम ने ऑंखें उठाई , चारों तरफ पसरा धूल , बस के चले जाने से उड़ता हुआ धूल , दूरी पर लगा हुआ हाट – बाजार , पर यह आदमी विपरीत दिशा से क्यों चला आ रहा है ?

अब समझी कुसुम की वह दूसरे गांव जा रहा था , हाट की ओर नहीं , उलटी तरफ , और गर्मी लग गई है।

” ढूकचे में पानी क्यों दे रही हो ?”

” पानी है ही नहीं ”

” बाबू वहां बैठे हैं न , ढूकचे में पानी दो न।” यह कहकर उसने पानी का बोतल निकला।

” पानी नहीं है। ” कुसुम उदास स्वर में बोली, हे भगवान   …. हे भगवान तुम कुसुम को छोड़कर मत जाना , इतनी शक्ति जरूर देना की वह पानी न पिलाकर उस आदमी को कष्ट दे सके। और वह आदमी हताश होकर चला गया। कुसुम उस युवक के बारे में सोचने की चेष्टा करने लगी। इस बीच उसने उस युवक के बारे में कभी सोचने की जरा भी कोशिश ही नहीं की और सोचा भी नहीं।

सब कुछ असह्य सा , असहनीय ताप। कुसुम ने पानी पीया और पंखा भी झलकर हवा खाई।

” कुसुम ! जरा पानी दे न कुसुम !” दरोगा फिर लौट आया था। पता नहीं क्यों दरोगा ने ऐसा महसूस किया की वह प्यास और गर्मी से जैसे सिकुड़ा जा रहा है। शरीर से जैसे कुछ बाहर आने को आतुर हो।

” नहीं दूंगी तो क्या करोगे बाबू ? मारोगे ? ” कुसुम ने कहा।

” नहीं ”

” नहीं मारोगे ”

” नहीं रे ”

पता नहीं कुसुम को क्या हुआ उसने दरोगा की कातर आँखों की बिनती देखी और वह वह कातर दृष्टि ने न जाने कहाँ कुसुम को चोट पहुंचाई वह बोल पड़ी-

” लो  .. लो  .. पानी पीयो जी , और उसने ढेर सारा पानी उढ़ेल दिया।

दरोगा पानी पी रहा था , और दूसरा आदमी एक टीन की बोतल लिए सामने खड़ा हो गया-

अब न जाने क्या हुआ कुसुम को , उसने रोना शुरू कर दिया। अब इस आसाढ़ माह का सूखा और चारों दिशाओं के धुसरित वातावरण और मिट्टी के लाल रंग के संग लालिमा लिया हुआ आकाश सब एकाकार हो उठा !

प्याऊ पर पुलिस को पानी पिलाते हुए एक वैश्या रो रही है, ऐसा दृश्य किसने कब और कहाँ देखा है भला ?

 

(मीता दास द्वारा अनुदित यह कहानी पूर्व में ‘दुनिया इन दिनों’ में भी प्रकाशित हो चुकी है)

 

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