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महाअरण्य की माँ- महाश्वेता देवी

अभिषेक मिश्र
वर्षों पहले ‘दैनिक हिंदुस्तान’ में प्रसिद्ध लेखक कमलेश्वर का एक साप्ताहिक कॉलम आया करता था, जिसमें वो सांप्रदायिकता, राष्ट्रीय एकता, धर्मनिरपेक्षता आदि विषयों पर लिखा करते थे। उनके निधन के बाद मन में कहीं एक इच्छा हुई कि जिस विषय और भावनाओं के साथ उनका कॉलम आया करता है, काश ऐसा हो कि इसके बाद इस मुहिम में महाश्वेता देवी जी का नाम जुड़ जाए। और सुखद आश्चर्य हुआ कि वाकई उसके बाद महाश्वेता देवी जी का ही कॉलम आरंभ हो गया, जो काफी समय तक जारी रहा।

हालांकि, बाद में तो कुछ वर्षों पश्चात उन्होंने भी इसमें लिखना छोड़ दिया; मगर तब तक न सिर्फ हिंदुस्तान अख़बार बल्कि पूरे हिंदुस्तान की भी पत्रकारिता में काफी बदलाव आ चुके थे। मगर इसमें एक बात जो ज्यादा मायने रखती है कि उनसे हजारों किलोमीटर दूर बैठा एक आम युवा भी यह महसूस करता था कि तेजी से बदलते इस समय में हाशिये पे खड़े लोगों के लिए कोई आवाज जो सभी के दिलों को छू सकती है महाश्वेता देवी की ही हो सकती है।

आम आदमी के दिलों में उनके प्रति जो छवि बनी थी उसे सटीक शब्द देते हुये उनके जीवनीकार कृपशंकर चौबे ने उन्हें उपयुक्त नाम ‘महाअरण्य की माँ’ दिया था।
14 जनवरी 1926 को ढाका में जन्मीं महाश्वेता देवी के पिता मनीष घटक चर्चित कवि और उपन्यासकार थे। प्रसिद्ध फिल्मकार ऋत्विक घटक उनके चाचा थे। शान्तिनिकेतन से भी अपनी प्रारंबिक शिक्षा का एक भाग ग्रहण कर चुकीं, अंग्रेजी भाषा से स्नातक और परास्नातक महाश्वेता देवी का लेखन मुख्यतः बांग्ला में रहा जिसका अनुवाद विभिन्न भाषाओं में हुआ।

लंबे और अनथक संघर्ष मगर जिन लोगों के लिए और जिनसे वो लड़ रही थीं, उसकी तुलना सिर्फ ‘झाँसी की रानी’ लक्ष्मीबाई से ही की जा सकती है। और यह मात्र संजोग नहीं है कि रानी लक्ष्मीबाई का उनके जीवन को एक स्वरूप देने में उल्लेखनीय भूमिका रही है। वाकई नियति किसी को अपने किसी कार्य के लिए चुनती है तो उसे प्रेरणा और मार्गदर्शन देने की पटकथा भी रच देती है। मुंबई में अपने मामा के यहाँ उन्होंने 1857 की क्रांति के बारे में पढ़ा तो उनकी इस ओर दिलचस्पी जगी। उन्होंने इस पर और अध्ययन शुरू किया और रानी लक्ष्मीबाई की शख्सियत से काफी प्रभावित हुईं। उन्होंने उनपर लिखने का इरादा कर लिया और उनके भतीजे गोविंद चिंतामणि से पत्रव्यवहार शुरू किया।

सामग्रियों की उपलब्धता से उत्साहित हो उन्होंने पूरे मनोयोग से लिखना शुरू भी कर दिया और 300 पेज लिख डाले। इसके बाद उन्होंने स्वयं इसे पढ़ा और अपने हाथों से फाड़ कर फेंक दिया। आज जब 10-20 कहानियों की किताब या 200-250 पृष्ठों का कोई उपन्यास छाप कुछ लोग सोशल मीडिया पर सेलेब्रिटी और बेस्ट सेलर बन जाते हैं वो शायद इस स्थिति को इतनी सहजता से न समझ पायें! मगर महाश्वेता देवी को इस पूरी प्रक्रिया में कुछ कमी सी लग रही थी।

इस कमी को पूरा करने वो मात्र 26 साल की उम्र में अपने 6 साल के बच्चे और पति को छोड़ निकल पड़ीं। तब न उनके पास नौकरी थी न उनके पति के पास, मगर वो अपना सफर जारी रखे रहीं। इस क्रम में वो झाँसी की रानी की तब के जीवनीकार वृंदावनलाल वर्मा से भी मिलीं। उनकी सलाह पर झाँसी, बुंदेलखंड, ग्वालियर, कानपुर… जाने कहाँ-कहाँ वो भटकीं अपनी नायिका से जुड़े इतिहास की तलाश में। ऐतिहासिक दस्तावेजों के साथ लोकगीत, लोककथाएँ आदि भी उनकी सूचना के स्रोत रहें। उनकी इस पद्धति ने आगे चलकर न सिर्फ लेखन में एक विशेष महत्व पाया बल्कि उनकी रचना प्रक्रिया को भी जमीनी सच्चाई से जोड़े रखा। उन्होंने आने वाली पीढ़ी को सिखाया कि भारत का इतिहास लिखने, जानने, समझने के लिए मौखिक परंपराओं में भी झांकना होगा। आदिवासियों से जुड़े उनके कार्यों और लेख्न में भी उनका यही अनुभव काम आता रहा। ‘झांसीर रानी’ शीर्षक से उनकी यह पुस्तक पूर्ण हुई जो ‘देश’ पत्रिका में धारावाहिक रूप से छपने लगी और न्यू एज प्रकाशन के माध्यम से 1956 में पुस्तक रूप में प्रकाशित हुई। उन्होंने लिखा है कि यहीं से वो भी समझ पाईं कि वो एक कथाकार बनेंगीं। उनकी इसी खोज ने उन्हें आगे भी प्रेरित किया ऐसे विषयों पर लिखने का जो अब तक उपन्यासों की सीमा से बाहर थे। मगर झाँसी की रानी न सिर्फ उनकी प्रेरणा में बल्कि उनके अंदर एक चिंगारी बन पूरी ज़िंदगी उनके अंतरतम में कहीं-न-कहीं प्रज्ज्वलित रहीं।

ऐसी ही पहलों में एक थी उनकी एक महागाथा ‘अरण्येर अधिकार’। 1974 में फिल्म निर्माता शांति चौधरी जो बिरसा मुंडा पर एक फिल्म बनाना चाहते थे ने उनसे उन पर कुछ लिख कर देने को कहा। उन्होंने कुछ किताबें पढ़ीं, तब के दक्षिण बिहार (आज झारखंड) गईं और अपनी शैली के अनुसार आदिवासी समाज से प्रामाणिक जानकारियाँ प्राप्त कीं। इसके बाद उनकी जो अमर रचना तैयार हुई उसके साहित्य अकादमी पुरस्कार पाने पर आदिवासियों के उत्साह का आलम यह था कि उन्होंने कई जगह ढाक बजा गया कि ‘हमें साहित्य अकादमी पुरस्कार मिला है’। महाश्वेता देवी का अभिनंदन करते आदिवासी वक्ताओं ने उनसे कहा कि मुख्यधारा से बाहर यह समाज जो इतिहास में भी कहीं नहीं आता था उसे आपके लेखन से एक स्वीकृति मिली है। इस समाज से उनका यह संबंध ताजिंदगी बना रहा।
महाश्वेता देवी ने कभी मार्क्स या माओ को नहीं पढ़ा किन्तु हाशिये पर खड़े, उपेक्षित वर्ग की पीड़ा को समझने के लिए उन्हें किताबों और सिद्धांतों की जरूरत नहीं थी। इसे उन्होंने अपने जीवन से और उनके साथ, उनके बीच रहते हुये महसूस किया, समझा और इसके लिए सारी जिंदगी संघर्ष किया था। यह उनका ही व्यक्तित्व था कि वामपंथ का साथ देते हुये एक समय उसके विरुद्ध वो ममता बनर्जी के साथ भी खड़ी हुईं और एक दौर में जब अख़बार के फ्रंट पेज पर नैनो कार के पक्ष में खबरें छप रही होती थीं, अंदर एक कौलम में वो उससे हो रहे विस्थापन का विरोध कर रही होती थीं। अपनी पत्रिका ‘वर्तिका’ के माध्यम से उन्होंने किसान, मजदूर, आदिवासी आदि सभी को अपनी अभिव्यक्ति का एक मंच उपलब्ध करवाया।

उनका यह संघर्ष उनकी कई रचनाओं, लेखों आदि के माध्यम से भी उभर कर सामने आता रहा। उनकी कुछ प्रमुख रचनाओं में ‘अग्निगर्भ’, ‘जंगल के दावेदार’, ‘1084 की माँ’ आदि हैं। उनकी कुछ कृतियों पर फिल्में भी बन चुकी हैं जिनमें 1968 में आई दिलीप कुमार अभिनीत ‘संघर्ष’, रुदाली (1993), ‘1084 की माँ’ (1998) ‘माटी माई’ (2006) आदि प्रमुख हैं। उनकी लगभग 20 कहानी संग्रह और 100 के करीब उपन्यास प्रकाशित हो चुके हैं। ‘साहित्य अकादमी’, ‘ज्ञानपीठ’ और ‘मैगसेसे’ पुरस्कार उन्हें प्राप्त हो चुके हैं। उन्हें 1986 में पद्मश्री, 1996 में ज्ञानपीठ, 2003 में फ्रांस का Officer de I’Ordre des Arts et des Letters और 2006 में पद्मविभूषण से सम्मानित किया गया था।
28 जुलाई 2016 को वो भले भौतिक रूप से हमारे बीच न रहीं, किन्तु उनका रचनाकर्म और जीवन उनकी राह पर चलने के इच्छुक जनों को सदा प्रेरित करता रहेगा।

(अभिषेक कुमार मिश्र भूवैज्ञानिक और विज्ञान लेखक हैं। साहित्य, कला-संस्कृति, विरासत आदि में भी रुचि। विरासत पर आधारित ब्लॉग ‘धरोहर’ और गांधी जी के विचारों पर केंद्रित ब्लॉग ‘गांधीजी’ का संचालन।
मुख्य रूप से हिंदी विज्ञान लेख, विज्ञान कथाएं और हमारी विरासत के बारे में लेखन। लेख और कहानियां ‘विज्ञान प्रगति’, ‘अहा जिंदगी!’, ‘विज्ञान कथा’ आदि में प्रकाशित। पत्रिका ‘पूरी दुनिया’ में भी नियमित विज्ञान स्तंभ लेखन। एक विज्ञान कहानी ‘सत्यमेव जयते’ अंतर्राष्ट्रीय ई-बुक -Around the world in more than 80 SF-stories’ में चयनित। फरीदाबाद में निवास।

Email:abhi.dhr@gmail.com

ब्लॉग पता ourdharohar.blogspot.com)

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