समकालीन जनमत
कहानीस्मृति

महाश्वेता देवी की स्मृति में

मीता दास

महाश्वेता देवी (जन्म 14 जनवरी 1926, ढाका, बंगलादेश, मृत्यु: 28 जुलाई 2016, कोलकाता) की स्मृति में मीता दास द्वारा लिखा गया लेख और महाश्वेता देवी की बांग्ला कहानी का अनुवाद।
महाश्वेता देवी एक बांग्ला साहित्यकार एवं सामाजिक कार्यकर्ता थीं । आपकी स्कूली शिक्षा ढाका में हुई। भारत विभाजन के समय किशोरवस्था में ही आपका परिवार पश्चिम बंगाल में आकर बस गया। बाद में आपने विश्वभारती विश्वविद्यालय, शांतिनिकेतन से बी.ए.(Hons) अंग्रेजी में किया और फिर कोलकाता विश्वविद्यालय में एम.ए. अंग्रेजी में किया। कोलकाता विश्वविद्यालय से अंग्रेजी साहित्य में मास्टर की डिग्री प्राप्त करने के बाद एक शिक्षक और पत्रकार के रूप में आपने अपना जीवन शुरू किया। तदुपरांत आपने कलकत्ता विश्वविद्यालय में अंग्रेजी व्याख्याता के रूप में नौकरी भी की। तदपश्चात 1984 में लेखन पर ध्यान केंद्रित करने के लिए आपने सेवानिवृत्त ले ली।

इन्हें 1996 में ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित किया गया था और वे साहित्य अकादमी अवार्ड , मैकससे अवार्ड से भी सम्मानित हुईं ।  महाश्वेता देवी का नाम ध्यान में आते ही उनकी कई-कई छवियां आंखों के सामने प्रकट हो जाती हैं। दरअसल उन्होंने मेहनत व ईमानदारी के बलबूते अपने व्यक्तित्व को निखारा है। उन्होंने अपने को एक पत्रकार, लेखक, साहित्यकार और आंदोलनधर्मी के रूप में विकसित किया।

महाश्वेता देवी का जन्म सोमवार १४ जनवरी १९२६ को अविभाजित भारत के ढाका में हुआ था। आपके पिता मनीष घटक एक कवि और एक उपन्यासकार थे और आपकी माता धारीत्री देवी भी एक लेखकिका और एक सामाजिक कार्यकर्ता थीं। आपकी स्कूली शिक्षा ढाका में हुई। भारत विभाजन के समय किशोरवस्था में ही आपका परिवार पश्चिम बंगाल में आकर बस गया।

बाद में आपने विश्वभारती विश्वविद्यालय, शांतिनिकेतन से बी.ए.(Hons) अंग्रेजी में किया और फिर कोलकाता विश्वविद्यालय में एम.ए. अंग्रेजी में किया। कोलकाता विश्वविद्यालय से अंग्रेजी साहित्य में मास्टर की डिग्री प्राप्त करने के बाद एक शिक्षक और पत्रकार के रूप में आपने अपना जीवन शुरू किया। तदुपरांत आपने कलकत्ता विश्वविद्यालय में अंग्रेजी व्याख्याता के रूप में नौकरी भी की। तदपश्चात 1984 में लेखन पर ध्यान केंद्रित करने के लिए आपने सेवानिवृत्त ले ली।

महाश्वेता जी ने कम उम्र में लेखन का शुरू किया और विभिन्न साहित्यिक पत्रिकाओं के लिए लघु कथाओं का महत्वपूर्ण योगदान दिया। आपकी पहली उपन्यास, “नाती”, 1957 में अपनी कृतियों में प्रकाशित किया गया था ‘झाँसी की रानी’ महाश्वेता देवी की प्रथम रचना है। जो 1956 में प्रकाशन में आया।

महाश्वेता देवी ने हमेशा लेखन को जमीन से जोड़कर देखा और लिखा । उन्होंने उन जंगलों में जाकर जहाँ साधारण लोग जाने से भी डरते थे ।  उनका जीवन जीकर और उन्ही के बीच जीकर लिखा , इस लिए उनका लेखन आज धरोहर की तरह है साहित्य के पटल पर । उन्होंने आदिवासियों के लिए भरपूर लिखा । उन्होंने अपना पूरा जीवन उनके हक़ के लिए सिर्फ लिखा ही नही लड़ा भी ।

वे ह्यूमन राइट्स के प्रति भी संवेदनशील थीं ।  कभी भी हाशिये पर रह गए लोगों को अपनी रचनाओं से बाहर  नही रखा ।  साहित्य पर कदम रखने से पहले कवितायेँ भी लिखती थी । वे बताती हैं कविता ही मेरी मूल विधा थी । वे यह भी कहती थीं की उन्होंने कभी रीराइट नहीं किया जो लिखा एक बार लिखा । किसीने उन्हें पूछा था की आप इतने सारे करेक्टरों पर लिखती हैं उन्ही में घुल मिल जाती हैं , आप खो नही जाती की आप क्या हैं । कहती हैं वे मेरे संग – संग चलते हैं वे मेरे खून में बहते रहते हैं वे मेरे जीवन का हिस्सा हैं ।  उन्होंने पलामू के जंगलों में रहकर उपन्यास ” जंगल के दावेदार ” लिखी । नक्सल मूवमेंट से प्रभावित होकर ” १०८४ वें की माँ लिखी , और यह कहानी उन्होंने अपने बेटे नवारुण के दोस्तों  मृत्यु पर शोक ग्रस्त बेटे और उनके दोस्तों के डूबे हुए दिल और धधकती आँखों की ज्वाला के तले ही लिखा था |  एक कहानी ** ब्रेस्ट गीभर ** लिखी जो स्तन केंसर पर आधारित थी ।

एक कहानी द्रौपदी लिखी उन्होंने और वे एक साक्षात्कार में कहती हैं की इस कहानी को लिखने के बाद  तरह के आलोचनाओं का सामना भी करना पड़ा , यह कहानी संन 1975 – 76 के आसपास लिखी गई | उसी दौरान उन्होंने स्तनदायनी भी लिखी और तब भी उन्हें आलोचकों के संगीन तीर झेलने पड़े | पर यह एक ऐसा विषय था उनके लिए की वे बार – बार इसी थीम में अपने नए पात्रों के संग कलम में उतरती रहीं | कई लोगों ने प्रशंसा भी की | इसी थीम पर उन्होंने लिखा ” चोली के पीछे ” | और कितनी ही कहानियाँ हैं जिन्होंने उन्हें कलम उठाने पर मजबूर किया , बगैर थके वे  में हमेशा व्यस्त रहीं | जैसे —  अक्लांत कौरव , रुदाली , चोली के पीछे , अग्निगर्भा ,  नक्सल आंदोलन को केंद्र में रखकर एक और कहानी खाइखलासी प्रथा के विरुद्ध लिखा ” तीर – 1993 ” आदि हैं । पिछले चालीस वर्षों में, आपकी छोटी-छोटी कहानियों के बीस संग्रह प्रकाशित किये जा चुके हैं और सौ उपन्यासों के करीब (सभी बंगला भाषा में) प्रकाशित हो चुके हैं। कई उपन्यास और कहानियों के हिंदी अनुवाद भी हुए हैं ।

वे कहती थीं मैं एक साधारण इंसान हूँ , मैंने हमेशा हाशिये पर पड़े लोगों के लिए लड़ाई की , मेरे पति कम्युनिस्ट थे , मेरा बेटा नवारुण भी कम्युनिस्ट था ,पर मुझे लेफ्ट पर हमेशा आस्था रही ।

उन्होंने खूब लिखा और  लिखा , वे दिन के 18 – 19 घंटे लेखन में बिताती थीं । अपने अस्सी की उम्र में भी उन्हें लेखन के लिए भरपूर ऊर्जावान देखा है सबने | पर यह कहती थीं  तुम्हें  मेरी रचना  आपके पत्रिका को जरूर मिलेगी पर जरा मुझे समय दें अब मैं पहले जैसी नहीं रही कि दो या तीन दिन में पूरा लिख डालूं |

एक – एक दिन में ” स्तनदायनी ” , “द्रोपदी ” और ” बिछन ” मैंने पूरी की थीं | डेढ़ दिन में ”  बसाई  टुडू ” , तीन दिन में ” ऑपरेशन ” लिखा ,  जैसे मैंने चार दिन में – हजार चौरासी की माँ लिखा , अब मेरी कार्य क्षमता भी उम्र के अनुसार कम हो चली है | वे कहती थीं की पहले मुझे लेखन का बुखार चढ़ता था , तब वे दिन – रात नहीं देखती थीं , बस लेखन और लेखन |

मैं उनसे मिलने के लिए नवारुण दादा से कई दफा अपनी इस इच्छा को जाहिर किया , पर वे बस मुस्कुरा देते कहते कुछ नहीं थे | एक दफे नवारुण दादा की पत्नी ने मुझसे कहा की वे तुम्हें उनसे मिलाने कभी नहीं ले जायेंगे  ! मैंने प्रश्न किया – क्यों ?? प्रणति दीदी यानि नवारुण दादा की पत्नी ने कहा — ” माँ बेटे की आपस में पटती नहीं , आपस में संवाद भी नहीं है , तुम उनसे मत कहना , नहीं ले जायेंगे तुम्हे | ” मैं निरुत्तर ही नहीं अवाक्  गई, पर यह मेरी इच्छाशक्ति थी या विधि का विधान मेरी मुलाकात हुई महाश्वेता देवी जी के संग नवारुण जी के ही घर पर , उन दिनों वे बहुत  अस्वस्थ थीं , उनकी पुत्र वधु प्रणति दीदी उन्हें उनके अस्वस्थ होने पर अपना कर्तव्य का निर्वहन करती हुई उन्हें अपने निवास पर ले आई थीं |

उन्हें उन दिनों काफी सेवा की जरूरत थी जिसे प्रणति दीदी ने जी जान से किया | मैं प्रणति दीदी से मिलने गई , नवारुण दादा को भी गए काफी महीने बीत चुके थे | प्रणति दीदी से मिली हम दोनों गले लग कर काफी देर चुप रहे फिर दोनों की ही आंखे भीग गईं | हम अलग हुए , मैं नवारुण दादा की तस्वीर को भीगी नजरों से देख रही थी | प्रणति दीदी बोली – ” चाय पियोगी , पर काली कारन दूध नहीं है | ” और हाँ उनसे मिलोगी ? मैंने कहा – ” किससे ?” बोलीं – ” महाश्वेता ”

मैंने पैर छुए , आशीर्वाद लिया , कहा आपको देखकर कितनी खुशी हुई मैं बता ही नहीं सकती | उन्होंने पुछा – करती क्या हो , मैंने कहा थोड़ा बहुत लिखती हूँ और अनुवाद भी करती हूँ |  मैंने डरते – डरते पूछा आपकी कहानी ” चोली के पीछे ” का हिंदी में अनुवाद करूँ ?  बोलीं – जरूर करो पर पूरा होने पर मुझे अवश्य दिखलाना | ” पर मेरी बदनसीबी की उन्हें अनुवाद नहीं दिखा पाई , चार माह खबर मिली ” एक साहित्य की दुनिया का अनमोल सितारा टूट गया  साहित्य का आकाश सूना हो गया  … महाश्वेता देवी नहीं रहीं ”

14 जनवरी महाश्वेता देवी की जन्म तिथि है और मैं उनकी स्मृति में उनकी कहानी ‘चोली के पीछे’ अनुवाद आप सब बहुमूल्य पाठकों के  लिए प्रस्तुत करती हूँ |

 

**************************

कहानी: चोली के पीछे 

महाश्वेता देवी { बांग्ला कहानी }

अनुवाद:  मीता दास

(एक)

 

क्या है आखिर , असल में यही था उस साल का विशेष मुद्दा कह ले या समस्या | यह समस्या एक अंतराष्ट्रीय मुद्दा बनता जा रहा था , उस समय जितने भी जोड़ – तोड़ की राजनीति ,फसलों का नुकसान , भूकंप , चारों ओर फैला हुआ तथाकथित संत्रास वाद और राष्ट्रीय शक्तियों के बीच हत्या और मुठभेड़  , हरियाणा में  विजातीय या सगोत्रीय विवाह पर युवा – युवतियों का सर कलम करना और नर्मदा नदी को लेकर मेधा पाटकर और इस तरह के कई लोगों के जायज और नाजायज मांगों से उपजी सैकड़ों बलात्कार , जन संहार ,प्रताड़ना के आरोप में ठसाठस भरे पड़े थे लॉकअप इत्यादि |एक नॉन इशू  समाचार भी स्वाभाविक तरीके से समाचार पत्रों में उच्च स्थान प्राप्त करके भी नॉन इशू का ही दर्जा प्राप्त कर पाता है पर इन सब में सबसे ज्यादा महत्व पूर्ण इशू था चोली के पीछे |

 

सामाजिक जीवन में एक इशू नॉन इशू को रौंदकर आगे बढ़ जायेगा और बढ़ जाता है और यही नियम भी है | इसलिए ” क्या है ” इतना महत्वपूर्ण हो उठा था | यह प्रमाणित हो जाता है कि भारत सिर्फ सोया ही नहीं रहता , जरूरत पड़ने पर जाग उठता है |

 

इसलिए क्या है यह जानने के लिए जातीय मीडिया , सेंसर बोर्ड , ब्रा विरोधी मुक्त युवतियां राज्य की बहुत सी संस्था और संगठनों इत्यादियों से जुड़कर , दूरदर्शन के मल्टी चैनलों में हरे रंग के आई शेड लगाकर लेडी वोटर से राजनैतिक और धार्मिक सभी ठेकेदार सभी इस मुद्दे को लेकर बेहद व्यस्त हो उठे थे | इसलिए फिल्म खलनायक का कैसेट सभी ने गोपनीय रूप से देख रहे थे और यही हो उठा था ” नॉर्म ऑफ द डे ” |

 

इस तरह की चिंताओं में देश को व्यस्त देखकर शुभचिंतक लोग समाज के दिमाग में घर लौटा लाने के मुद्दे छेड़कर मुंबई और कलकत्ते में विस्फोट करवा देते हैं , इन्ही सभी मुद्दों से ध्यान हटाने के लिए एक नये मुद्दे का अविष्कार हुआ  —– चोली के पीछे आखिर है क्या | यह अविष्कार एक और नए विस्फोट के रूप में सामने आया , इधर किसीने कहा ईमारत धंस गई और उधर सहसा सुनने में आया कि मिडिल ईस्ट में चोली खोलना और गुटरगूँ – गुटरगूँ आदि पर नियंत्रण रखा जा रहा है | इतना पावर फूल लॉबी है भारतीय फिल्म इंडस्ट्री लोक संस्कृति का प्रतिनिधित्व कारी संस्कृति के माध्यम से किशोर – किशोरियों के मगज में इन सभी संदेशों का प्रचार – प्रसार करने लगे जिससे लॉबी चिढ़ गई और इनकी काउंटर लॉबी { गरिष्ठ संख्या } अधिकर्ता { अवैतनिक ये वाही

इन जो सेमिनारों में जाने को मिल जाए तो बेहद खुश होते हैं} वे लोग हैण्ड बिल छपवाकर हर अख़बारों के मध्य डलवा देते हैं और उसमे लिखते हैं कि हर साल इस तरह बम्बईया फिल्मों में इस तरह के फुटेज का स्टॉक प्रचूर मात्रा में होता है, सब को इकठ्ठा करके वसुंधरा यानि पृथ्वी को अट्ठारह बार लपेटा जा सकता है | और इन सब के बावजूद यह देश के जन मानस को दूर बैठकर भी कभी हंसते हैं , कभी रुलाते हैं ,कभी गवाते हैं इत्यादि तर्क सामने रखते हैं | यह खबर पढ़ कर हरिपद पगला टाटा की बिल्डिंग की छत पर चढ़ कर चिल्ला उठा था ” इनोवेशन – इनोवेशन “!

 

इस सब के बीच ऐ  टी टी ए डी एफ अटैक { एंटी टेरेरिस्ट टेक्टिक्स एंड डिस्पैरिटिव फोर्सेस अटैक } के तहत कुछ एंटी टेरेरिस्ट को बंदी बनाकर कारागर में बंद कर दिया गया कौन सा कारागार ? कौन बंदी ? कौन सी सज़ा किसी को पता नहीं  पर इन्वेंशन शब्द चिंता में डाल दिया |  106 वर्षीय गोपीकृष्ण बाबू स्वतंत्रता सेनानी अचानक कह उठते हैं अँगरेज़ फिर से भारत में इन्वेंट करने घुस रहे हैं भारत को दखल करने के लिए | अब समग्र देश के लोग राजधानी में कुछ गोपण राजनैतिक सेमिनार होने वाला है जिनमें ऐसे भी कुछ लोग  थे जो  भारतीय भाषा भी नहीं जानते थे या जिन्हें भारतीय भाषा का ज्ञान तक नहीं था |उनका कहना यह था कि कल्चरल रिवॉल्यूशन से ज्यादा  कल्चरल इनोवेशन नुकसान देह होता है  और यह सब रोकने के लिए भारत को जो भी करना चाहिए वही कर रहा था |  इन सब को रोकने के लिए जो कुछ करना चाहिए वे लोग अपने तरीके से कर ही रहे थे |  यही है युद्ध में काम आने वाले अस्त्र इनका वे उपयोग भी करते हैं. निर्माण भी करते हैं….

बम्बई की फेक्ट्री में जो जन संस्कृति बन रही है वही संस्कृत कैसेट के माध्यम से जेट की गति से पूरे देश में छा रही है|  यह रशिया नहीं है. यहाँ मार्क्स, लेनिन, माओ सब व्यर्थ हैं.प्राकृतिक शून्य स्थान है वहां जिसे पायरेटेड कैसेट से ही भर दिया जायेगा | इसीलिए आज के समय में चोली के पीछे एक मृत संजीवनी की तरह है |  इतना सब हो जाने के बावजूद शैली की माँ अपना वृहद आकर का देह लिए एक  ही वस्त्र में अंग ढककर कहती है –  “जीवने ब्लाउज पेहन लाम ना चोली पोरबो की गो | ”इन सब चीज़ों को लेकर देश व्यस्त था और उधर उपेन की खबर को अखबार में डेढ़ इंच की जगह मिली , जिसे  लोग नज़र अंदाज़ कर देते हैं|  उपेन की ख़बर उनके ही अखबार में ठीक से नहीं छपी झरोवा और सेवपुरा दोनों गाँव के बीच जगह रेल के चक्के में जो अज्ञात लाश मिली कोई  नहीं जान सका कि वह उपेन की लाश थी | और इस खबर पर लोग निगाह भी नहीं डालते |

 

[ दो ]

 

उपेन की खबर उपेन के हिसाब सेअख़बार में प्रकाशित ही नहीं हुआ | झरोवा और सेवपुरा के ठीक बीचों – बीच रेलगाड़ी के पहिये से एक अज्ञात व्यक्ति का शव और वह शव उपेन का ही है यह पहले कोई जान ही नहीं पाया | लाश मिलने से पहले ही उपेन के दोस्त उजान को एक पोस्टकार्ड मिला उसमे लिखा था  ….. ” कम टू झरोवा , वैरी अर्जेन्ट ” |यही चिट्ठी उजान को झरोवा उपेन का परिणाम जानने के लिए ले आता है | पोस्टकार्ड देख उजान को एक करेंट सा लगता है|

यही चिठ्ठी थी जो उपेन का परिणाम जानने के लिए उजान को झरोवा ले आयी थी | याद है उपेन का लापता जो जाना ,स्वाभाविक रूप से यह पोस्टकार्ड लेकर शीतल माल्या के पास लेकर जाता है  | सॉल्टलेक के  एक पतली सी गली जिसके दक्षिण में एक बड़ा सा पेड़ है और उसके करीब से बहती हुई छोटी सी नदी रास्ते के उत्तर की तरफ़ जाती है सुंदर सा

फ़्लैट , वही पर शीतल का घर था और वह खुद भी सुंदर थी और अपनेआप में परिपूर्ण थी, तैंतीस साल की किशोरी जो

सेल्फ डिपेडेंट थी तो भला  उसका नाम शीतल क्यों ? यह उजान को भी नहीं पता ? उपेन और शीतल , उपेन घुमतुफ़ोटोग्राफर और शीतल विख्यात पर्वतारोही , दोनों साल में एक आध महीने ही साथ बिता पाते थे  पर दोनों एक दुसरे पर इतना जान क्यों छिड़कते थे यह उजान के समझ से परे था |हो सकता है उजान बहुत कुछ नहीं जानता हो उनके बारे में

उजान सिर्फ़ उपेन के प्रति ही ज्यादा समर्पित था , उपेन करीब पांच साल से कोलकाता, उड़ीसा, बिहार गया और भी न जाने कितनी जगहें जाता पर उजान हमेशा उसके संग रहता क्योंकि उपेन की तस्वीरें देश-विदेश में ऊँची कीमत मेंबिकती थी जिससे उजान को भी ज़्यादा फ़ायदा था  |सॉल्टलेक का जो फ्लैट है वह उजान को बिल्कुल पसंद नहीं क्योंकि उसमें कोई

नहीं रहता पर फ्लैट बिल्कुल चकाचक था | कभी कभी शीतल आती और सब चीजें अस्त व्यस्त हो जाता. इस पर उपेन कहता कि शीतल को घर से ज़्यादा प्रकृति से प्रेम हैइसिलए वह घर सजाने सवारने में ध्यान नहीं देती | शीतल के अंदर दो इंसान था एक जो पर्वतों को बार बार चुनौति देती थी और दूसरी तरफ़ प्रकृति, फूल-चिड़ियों पेड़, नदियों झरनों से प्यार करती थी. शीतल जब सॉल्टलेक में रहती तो वहाँ की प्रकृति में डूब जाती लेकिन उसे लैण्डस्केप कभी पसंद नहीं आता |

कभी कभी लगता कि वह दो हजार चौरानबे सदी से भी आगे की लड़की है या उसकी शताब्दी अभी आयी नहीं. उपेन यह बात कहते कहते खिलखिलाकर कर हंस देता | उपेन की उम्र पैंतीस है या पचपन समझना मुश्किल हो जाता. उसका चेहरा

चौकोर- मोटा, चेहरे पर दाढ़ी-मूछ, आँखे अति उज्ज्वल,चमकीली आँखे हफ्ते में एक दिन नहाता मांछ भात खाता,बीड़ी फूकता और बियर पीता था | कलकत्ता में भी और दिल्ली के बहुत बड़े बड़े होटलों में भी रहता तो ऐसे ही रहता था | अभी शीतल बहते हुए नदी के किनारे पत्थर की तरह चुपचाप बैठी थी , इस तरहपत्थर की बुत बनकर बैठे रहना उसने हिमालय की छोटी से सीखा था |

 

” ओ झरोवा….”

हाँ, यही लिखा है ……

” उसने मुझे नहीं लिखा ”

” आप तो इस समय कदमकुरी में रहती हैं ? ”

” पर झरोवा होकर ही तो दिल्ली गया होगा ,  मैंने कहा था उसके साथ हमेशा लिपटे रहना तुम जानते हो इस समय एप्पल एस्टेट में कितना काम है | तुम्हें मैंने पैसे भी दिए थे | ”

” आप पैसे नहीं देतीं तब भी मैं उपेन के आगे पीछे ही रहता, मुझे क्या पता था कि दिल्ली जाकर उसके सर पर पागलपन सवार हो जायेगा , मैं इधर बीड़ी लेने गया और उधर पुलिस उसे…यह कहते कहते उजान का गला भर आया | ”

” हाँ, अख़बार की तस्वीर में देखा और उसे बदनाम भी किया गया | ”

” हाँ एक बैनर की तस्वीर थी , उस पर लिखा था – “safe them. save breast” .

” शीतल बोली मैं दिल्ली कभी नहीं गयी , एक बार गयी तो कुछ समझ में ही नहीं आया कि कहाँ जाऊं | शहर मेंकभी नहीं रही रास्ता भूल गयी | सब गडमड हो गया | ”

उजान दुस्साहस कर कह उठता है कि ” मैं जानता था कि वह मुझे ही ख़बर देगा और दिया भी इसलिए उस पत्र कामैं प्रतीक्षा भी कर रहा था | ”

शीतल गुस्से से उत्तेजित होकर ज़ोर ज़ोर से साँसे खींचती और कहती है -” कुछ ज़्यादा इंतज़ार नहीं किया ? ”

एक मिनट में ख़ुद को शांत कर खुद से पूछती है – ” क्यों झरोवा  गया ? ”

उजान – ” आपको तो पता है ”

शीतल – ” सिर्फ़ इतना ही पता है कि पिछली बार गया था क्योंकि पिछली बार कुछ हाथी माइग्रेट कर रहे थे , उससे पहले सूखा, फिर नदी के पानी में पेस्टीसाइड, अकाल,सूखा …..”

” हाँ हाँ हाँ… वह सब तस्वीरें नेशनल प्रेस और नेन्स मैंगजीन में निकली थी , यह सब तो चार बार हुआ, पांचवी बार क्या?”

उजान – ” आमी जानी ना ?  मैं बेतला चला गया था और उपेन संग नहीं गया | ”

शीतल – ” यह सब किसकी तस्वीरें हैं ?”

उजान – ” एक देहाती स्त्री जिसके स्तन कटे हैं और उन्हीं स्तनों में मुंह डाले एक शिशु आंचल से स्तन को ढके उसमें मुर्छित पड़ा है और वही लड़की दूसरी तस्वीर में बुत सी जो अन्य लड़कियों के संग माथे पर घड़ा लिए हुए हैऔर उसका स्तन उन्नत है. वही लडकी जब पेड़ के  नीचे गन्ना चूस रही है और उसके वक्ष मूर्ति की तरह सुडौल और उन्नत है ,

और उसका चेहरा आनन्द और उल्लास से भरा है | ”

शीतल- ” किसकी तस्वीर है ? ”

” गंगौर ”

” गंगौर क्या होता है ? ”

” मुझे नहीं पता ”

शीतल – ” गंगौर …गणगौरी ? ”

उजान – ” मतलब ? ”

शीलत – ” तुम तो फ्रीलान्स जर्नलिस्ट हो , इस नाम से तुम्हें कोई कौतुहल नहीं होता ? ”

उजान – ” नाम में क्या रखा है ? ”

एक मिनट में शीतल ,शीतल मालया हो जाती है | भारतीय डॉक्यूमेंट्री पर रनिंग कमेंट्री देने लगती है कि कैसे राजस्थान में गंगा पूजा होता है फिर ख़ुद से ही कहती है गंगा वहां कहाँ?वहां तो बड़ी नदी भी नहीं है , राजा महाराजाओं का देश हो सकता है गंगा भी हो ?

शीतल – ” उजान, तुम्हारा डिवाइन कल्चर का कुछ कम नहीं, उपेन भी यही कहता था कि बंगाली लोग डिवाइन होते हैं

उनको लगता है कि अपने राज्य के अलावा कुछ और जानने की जरूरत ही नहीं | ”

उजान – ” यह तस्वीरें आपको कहाँ से मिली ? ”

शीतल – ” उपेन ने छुपा कर रखी थी , गंगौर का उपेन से क्या रिश्ता था …. ”

उजान – ” नहीं पता ”

बाढ़ में उजड़ने के बाद गंगौर के लोग झरोवा आ गए थे ,  ईंट-भट्ठे पर देहाड़ी मजदूर के रूप में काम करने लगे | उपेन और उजान जब वहां गए तो पता कला दो तीन महीने पहले ही वहां आये थे | गंगौर की देह और कद-काठी बहुत ही सुगठित थी और उसका बच्चा दूध पी रहा था , उससे प्रभावित होकर उपेन ने चाह कि बच्चे को दूध पिलाती हुए माँ की एक तस्वीरउतारे |

गंगौर ने भी कोई आपत्ति नहीं की , बस उसने अपना हाथ बढ़ा कर कहा था – ” रुपया !!! हमारी तस्वीर खींचोगे पैसे नहीं दोगे ?? ”

उजान को जैसे शॉक लगा उपेन ने अपनी जेब में हाथ डाला और जितने पैसे पैंट की जेब से थे सब निकालकर सब उसने गंगौर को दे दिया |

वहां से पी.डब्लू.डी. के बंगले की तरफ़ चलते चलते उजान ने कहा – ” साठ – सत्तर रुपये दे दिए ? कितनी निर्लज्ज औरत है? ”

उपेन – ”  अरे – अरे उजान तुम्हें शॉक लगा ? अरे बाबा यह तस्वीर बेच कर मैं भी तो पैसे ही  कमाऊंगा न? वे घास नहीं खाते उजान जो बाबू लोग रिलीफ़ देते हैं उसके पीछे भी इनका कोई मतलब रहता है , मूर्ति तरह है उसका स्तन ?मेमेल प्रोजेक्शन देखा है ? ”

उजान – ” नहीं, मैंने नहीं देखा | ”

” होता है … होता है ,  मेरे एक दो दोस्त हैं जो स्वाधीनता के बाद दण्ड कारन्य गये थे , एन्थ्रोपालिस्ट थे , उन्होंने औरतों की खुली छातियाँ देखी | ”

उजान – ”  छी छी ….”

उपेन – ” वो भी छी छी कर रहे थे. उसके बाद उन्होंने उन औरतों को ब्लाउज़ पहनने के लिए कहा था , अब वे ब्लाउज़ पहनती हैं , तब वे नहीं पहनती थी , यह सब देख वह भद्रपुरुष धीरे धीरे पागल हो गए | ”

उजान –”छोड़ो न , दूसरी बातें करो ! ”

उपेन – ” मैंने उनकी छातियाँ देखी है | ”

उजान – ” छी उपेन दा, तुमी  तो विवाहितो ?”

उपेन   – ” सुंदर चीज़ों में श्रद्धा रखना सीखो | ”

उजान – ” उपेन दा के माथे में गंगौर बस गयी थी , वह सब तस्वीरें यहाँ नहीं है , रात में कंडे की आंच में लिट्टी सेंक रही है, उसका मैला लाल बदरंग दुपट्टे के नीचे से उसके स्तन के मध्य रेखा की धारियां कोणार्क के मंदिरों की मूर्तियों की तरह झाँक रही थी …ट्रेन चली जा रही है और गंगौर लोग सब आसमान की ओर ताक रहे हैं उन्हें आसमान में अजन्ता के गुहा

चित्र बने हुये से दिख रहे है | गन्दी ओढ़नी सर पर ओढ़े औरतें जिनके बालों में जूएँ हैं…मैली कुचैली औरतें जो कई दिनों से नहाई नहीं थी |

दूसरी बार गंगौर बोली – ” एक एक तस्वीर के सौ सौ रूपये लूंगी | ”

उपेन अपनी घड़ी उतारकर दे देता है. घड़ी में तब ग्यारह बजकर दस मिनट हुए थे | काँटा थमा ही रहेगा उपेन कभी भी अब उस घड़ी को नहीं सुधरवायेगा | ”

मंत्रमुग्ध उपेन को गंगौर ने गन्दी सी गाली देते हुए चीख उठी और बोली ” न जाने कहाँ के हरामी, बेजन्मा बदमाश हो तुम, एक हाथ में घड़ी दोगे और थाने जाकर रपट लिखवाओगे कि घड़ी चुरा लिया भाग यहाँ से ….”

गंगौर का मर्द थप्पड़ मार कर उसे वहां से ले जाता है . उस दिन उपेन देसी दारु के ठेके पर लौट आता है , वह मेमेल प्रोजेक्शन भूल नहीं पा रहा था , उसका दिमाग लातूर हो गया था |

उपेन – “उजान, there life is mistry. यह लोग ऐसे कैसे रहते हैं? ”

उपेन को ले जाने के उद्देश्य से उजान सीमेंट के जमे एक बोरी पर बैठ जाता है , गंगौर के ऊपर बहुत गुस्सा था और गंगौर लौट आयी थी उसी के पास और बोली – ” वह आदमी मेरा मर्द नहीं है , हमलोगों का ठेकेदार है काम कराने लाया है मेरा मर्द घर में भी नहीं रहता क्योंकि पुलिस उसे चोर साबित कर उसे बहुत मारती है. गाँव घर के हाल बहुत ख़राब हैं | ”

उजान ने गुस्से में कहा – ” निकल जाओ यहाँ से | ”

गंगौर बहुत रो रही थी हुलस हुलस कर .. आंचल में मुंह छुपाकर कह रही थी – ” कैमरा बाबू को बोलो न अपने साथ ले जाए मुझे , कपड़ा लत्ता, दो रोटी और हम दोनों को सोने लिए कोई एक कोना दे दे बाबू … न हमारी खेती है न ज़मीन…. बहुत मुश्किल है जीना … चूल्हा-चौका, बर्तनबासन, चक्की, कमरा सफा, कपड़ा  सफा सब कर देबे बाबू … ”

उजान – ” घर वाला है तो तेरा…”

गंगौर – ” घर नहीं आ सकता बाबू …. रात में छुप  – छुप कर आता है , मैं पैसे देती हूँ.  ठेकेदार लोग अच्छे नहीं हैं बाबू…”

उजान – “चली जा यहाँ से, नहीं तो पुलिस बुलाऊंगा …!”

 

और उजान लगभग भागता हुआ उपेन के पास जा पहुँचता है| मन में एक ही बात घूमती रहती है उपेन  ….. गंगौर , गंगौर  …. उपेन ! गंगौर ने बताया भी था उपेन को दारू के ठेके से खींचकर ले जाना बेहद झमेले का काम है | ऐसे में

दूसरे ही दिन उपेन और उजान लौट आये |

उपेन गुमसुम सा हो गया था | कभी – कभी अचानक ही बोल उठता  …… ” नहीं रख पाएगी उजान वह ऐसी बॉडी लाईन किसी भी तरह नहीं बचा पाएगी  …… कुछ भी नहीं बचेगा ,क्या तुम्हे पता है ऐलोरा के स्त्रियों के स्तन सभी क्षरित { ख़त्म} हो रहे हैं , क्षरण हो रहा है उनके स्तनों का ? गंगौर इज़ फैंटास्टिक ! ”

 

” उजान ! ”

” यस शीतल , कहिये ? ”

” क्या उपेन  …… और गंगौर  …… ?

उजान कलकत्ता लौट आया और कहा  …… ” नहीं उपेन दा बारबार एक ही बात दोहराते थे , देसी दारु यानि कंट्री लिकर और देशी औरत यानि कंट्री वीमेंस रिपेल मी ! तरंगित करती है | ”

शीतल जरा मुस्कुराई |

” इस लड़की के बारे में और कुछ जानते हो ?

” नहीं जानता और जानना भी नहीं चाहता ”

” खैर छोड़ो यह बताओ दिल्ली जाने से पहले क्या हुआ था ? ”

नहीं पता उजान को कुछ भी नहीं पता , यह की उपेन अरुणाचल नहीं जाकर उन दिनों कलकत्ते आया था उसे कुछ भी नहीं पता | असल में वह न तो अरुणाचल ही गया और कलकत्ते आया यह भी नहीं पता | झरोवा गया कि नहीं उसका भी कोई जिक्र नहीं | अचानक ही एक दिन मेरे सामने आकर खड़ा हो गया हड़बड़ाकर  …….

” व्हाट ? ”

” टिपिकल बेंगॉली  एक्सप्रेसन ”

” डोंट बी सो टिपिकल | मुझे बांग्ला ठीक समझ नहीं आती ,यह भाषा और कल्चर मैंने उपेन के लिए ही सीखी थी ! ऑफकोर्स हमारे माउंटेरियन क्लब में कई बेंगॉली हैं | उपेन को भी बांग्ला में मास्टर है  ….. वह नाम मात्र का पंजाबी है ,वे  तीन पीढ़ियों से कलकत्ते में ही बसे हैं | उपेन ने अट्ठारह साल की उम्र में कलकत्ता छोड़ा था | वह बांग्ला में ही बात करता था | फिर आगे भी तो बताओ ? ”

” जैसे भयानक सा कुछ घट गया हो मुझे ऐसा ही कुछ महसूस हुआ | और उपेन बोलै मैंने कई चक्कर लगाए और खूब दौड़ – धूप भी की और तो और कभी खूब पैदल चला  हूँ, कभी ट्रक में चढ़ा और कभी थाने के जीप में सवार होकर घूमा  ……. पर गंगौर लोग कहीं नहीं मिले |कोई कुछ नहीं बताता की वे लोग अचानक कहाँ चले गए | और बंगलो के चौकीदार ने उसे बताया की गंगौर को झरोवा आना ही पड़ेगा  ….. कारण गंगौर ने बेहद ख़राब कोई काम किया है इसलिए उसे हर हाल में आना ही पड़ेगा  ….. कोई खोज – खबर नहीं मिला अब तक | एक कॉन्सिपेरिसि ऑफ़ साइलेन्स ! ”

” मिल जाती तो क्या कर लेते उपेन दा ” ? उजान ने पुछा

” ले आता ”

” कहाँ ”

” कहीं भी , किसी भी जगह ”

” किस लिए ”

” तुम नहीं समझोगे , उसे बचा लेता , सुरक्षित कर देता ”

” एक मैरेड औरत को  ……. ”

” अरे क्या मैं  उसे  …… नहीं उजान तुम नहीं समझोगे , जाने भी दे अब मैं सोना चाहता हूँ | ”

” तुम्हारा बैग और बाकी  …… ?

” मैं अब सोऊंगा ”

और आपको तो पता है शीतल उसका सोना ? तीन – चार दिन की छुट्टी , और उसके बाद नींद खुलते ही बोले ” दिल्ली जाऊंगा ” और आखिरकार  …….

” अब क्या करोगे ? ”

” क्यों झरोवा जाऊंगा , आप नहीं चलेंगी ? ”

” नहीं मैं क्या करुँगी जाकर , यही रूककर प्रतीक्षा करुँगी | ”

” कहाँ ”

” कदमकुरी में ”

” फिर मैं निकलूं , आज ही रवाना होऊंगा | ”

” यस ”

” आपका जाना उचित होता।, आप तो उनकी पत्नी हैं ? ”

” नहीं , असल में हमारा रिश्ता ही कुछ और तरह का है देखो न कभी उपेन कहीं खो जाता है और कभी लौट भी आता है |वो और उसका कैमरा , मैं और मेरा हिमालय  , …… हो सकता है भविष्य में कभी  …….. ”

” कदमकुरी में ही रहेंगीं ? ”

” हो सकता है ”

” अगर हम एक साथ रहते ! एक इंसान अकेले – अकेले रहकर न जाने कैसा अजीब तरह  गया था , कुछ बहका हुआ सा | ”

“आपने उनका बहकना देखा ही कहाँ है ? ”

” सेव दी ब्रेस्ट ” क्या यह पागलपन नहीं है ? ”

“पर मुझे लगता है उपेन ऐसा कुछ नहीं सोचता ! लो ये थोड़े रूपये रख लो , जैसे ही उससे मिलो मुझे सीधे खबर करना | ”

“रुपये नहीं चाहिए ”

शीतल नजर भर कर उन तस्वीरों को ताकती रही , सीना ,ब्रेस्ट | उँह ये कैसा सीना ? पूरे फैट टिसू ही हैं और क्या हैं ,पता नहीं कुछ तो भी उपेन भी न ! शीतल सोचने लगी कि ऐसा क्या है इन तस्वीरों में जिनके लिए उपेन इतना बहक गया ? ”

उजान बाहर निकल आया , और चला गया | अब घर में सिर्फ और सिर्फ अकेली शीतल थी | उसने आहिस्ते से दरवाजा बंद किया और आईने के सामने जा खड़ी हुई और अपने सिलिकॉन लिक्युइड इंजेक्टेड ब्रेस्ट को निहारा और हौले से उसपर हाथ फेरा | शीतल की चोली के पीछे से झलक रहा था सिलिकॉन ब्रेस्ट | उपेन का कहा उसे याद आया ” शीतल ये सब कृत्रिम हैं  …… नकली | ” कहता था  … अरे नहीं – नहीं था नहीं  …. अब तक उपेन था नहीं हुआ ,निश्चय ही वह है  … है |

 

 

शीतल लम्बी – लम्बी साँसें भरने लगी | और अपने – आपसे कहने लगी शांत  ….. शांत  …. शांत |

उसने मन ही मन उपेन का भी हर तरह के फोटो खींचने का शौक पूरा हो और वह भी हिमालय आरोहण की सारी ऊंचाइयों तक पहुँच जाए फिर आराम से दोनों आराम से कदमकुरी में ही सैटल हो जायेंगे |

उस दिन सुजान कबीर अचानक आया था और पूरे घर में फैले तस्वीरों को देखकर शीतल से प्रश्न किया था |

” चोली के पीछे क्या है को लेकर अचानक उपेन इतना क्यों चिंतित क्यों है | ”

शीतल निरुत्तर सी हो गई | कुछ रूककर बोली ” उजान  ने रुपये नहीं लिए | ”

 

[ तीन ]

 

गंगोर बिलकुल स्वाभाविक सी ही थी उसे जरा भी इल्म नहीं कि क्यों उसके स्तनों ने उपेन को पागल किया ?

ब्रेस्ट को एक जटिल स्वेद ग्रंथि कहें तो भी चलता है | क्योंकि वहां भरी मात्रा में चर्बी होती है और ग्रंथि वाला स्थान भी बेहद मनोहारी होती जो है | इसके भीतर सत्रह तरह के दुग्धदायिनी यूनिट रहता है | , और उनका गंतव्य स्तन बिंदु ही होता है | जब शिशु का जन्म होता है तो सारा खून यहाँ से दूध बनकर उतरता है | उपेन को यह सब पता था इसलिए लिक्यूइड सिलिकॉन वक्ष उसे स्वाभाविक नहीं लगते | और इसलिए शायद गंगौर के वक्ष ज्यादा अतुलनीय और शीतल के वक्ष विपन्न लगता है |

दिल्ली जाने से पहले उसका अरुणाचल जाने की बात थी ,पर अचानक ही बीच रास्ते पर उसका मन हुआ की नहीं उसे झरोवा जाना है | ट्रेन से उतर कर बेहाल – परेशान हो अपने को लगभग घसीटते हुए एक ट्रेन पकड़कर  …. गोमो फिर वहां से बस पकड़कर सेवपुरा और वहां से ट्रेन से मधेपुरा और आखिर में झरोवा |

 

पर भरी दोपहर जब वह झरोवा पहुंचा तो चारों तरफ सन्नाटा सा था जैसे रात उतर आई है | उसे पता था झरोवा में रात में सन्नाटा होता है पर दिन रंगीन और कोलाहल भरा | पर आज दिन भी सन्नाटे में डूबा था | गंगौर लोगों के झुग्गी – झोपड़े ,खपरैल के गोदाम के चारों ओर न तो उनके कपडे – लत्ते बिखरे थे और न ही अरंड के पेड़ के इर्द – गिर्द और न ही कुएं के करीब कोई झंझट – झमेला ही |

 

” कहाँ हैं सब , कहाँ ? ”

चौकीदार बोलै ” चाय लाऊँ साहब दुकान से | ”

” गंगौर लोग कहाँ हैं ? ”

” नहाएंगे सर ? ”

” वे सब कहाँ हैं ? ”

 

ठेकेदार बाजार में उदास सा घूम रहा है , उसे भी नहीं पता ,दुकानदारों और ठेले वालों को भी कुछ भी नहीं मालूम |हँसेगोडा , लामडी आदि गाँव – गाँव जाकर ढूंढ आया उपेन |लामडी में देशी दारु के नशे में चूर गंगौर का मरद मिला पर जैसे ही उसने गंगौर का नाम सुना जमीन पर जोर लगाकर थूक दिया और झोपड़ी में घुस गया | हताश होकर लौट ही रहा था की उपेन को एक बच्चे के रोने की आवाज सुनाई दी| एक बारह – तरह साल की एक दुबली – पतली काली सी लड़की एक साल भर के बच्चे को गोद में लिए खड़ी थी |बच्चा रो रहा था |

अचानक उपेन के मस्तिष्क में एक हलचल सी दौड़ जाती है उपेन को विश्वास सा हो जाता है की हो न हो यही यही गंगौर का बच्चा है | और कहीं कोई न कोई भयंकर घटना घटी है जिसके चलते सभी पत्थर से हो गए हैं और गूंगे भी |चौकीदार ने उसे कहा भी था की उसे एक बार झरोवा जरूर आना ही होगा |  जरूर गंगौर ने कोई बुरा काम किया है ,इसलिए झरोवा में पुलिस गस्त दे रही है |

 

उपेन लौट आता है , वह सोचता है जरूर भयंकर सा कुछ घटा है पर नेसन { राष्ट्र } को कहाँ पता है यह सब | उपेन का दिमाग भूकंप सा मचल उठता है , उसका माथा फटने लगता है , गर्म मिटटी उखड़कर वापस फटी धरती को जोड़ दे रही थी |  सब कुछ फट रहा था उजान ! ट्रेन की छुक – छुक और गड़गड़ाहट में भी उपेन को महसूस हो रहा था की उसे एक बार झरोवा वापस आना ही होगा |

 

[ चार ]

 

उपेन जब दोबारा पहुँचता है , तब देखता है कि झरोवा ने अपना मौन व्रत तोड़  दिया है | उसे लगता है वह पहली बार यहाँ आया है | वही दुकानदार , वही घरद्वार , बस के उड़ाये धूलों से धुल – धूसरित शकरपारे , नमकीन की दुकानें | हाट के दिन बकरी – बकरे , गाय – भैंसों का सौदा चल रहा है |पर अब कोई झुग्गी – झोपड़ियां नहीं दिखतीं | फिर भी न जाने क्यों उपेन का मन कहता गंगौर यहीं है , यहीं कहीं है |चौकीदार ने उसे देख कर अपनी भौंहे टेढ़ी कर ली थी | कहीं बज रहा था ” चोली के पीछे क्या है | ”

 

” पिछली बार आप अपना बैग छोड़कर चले गए थे बाबू ? ”

” बैग रखे हो न ? ”

” हाँ मेरे घर में रखा है , और आप अचानक गंगौर को खोजते हुए कहाँ निकल गए थे ? ”

” कहाँ है वह ? ”

” कौन गंगौर ?  आपने फोटो खींच – खींच कर उसका दिनाग ख़राब कर दिया था  …. वर्ना वह इतना साहस नहीं जूटा पाती? ”

” क्या किया गंगौर ने , क्या वह मर गई ? ”

” गंगौर लोग मरने नहीं आते बाबू , मारने आते हैं , बेशरम देहाती औरत  ….. जब देखो तब बदन नचाएंगी , बाजार में लोगों से पूछेगी क्यों तुम लोगों का फोटो नहीं खींचा , देखो मेरा खींचता था , देख – देख ! ”

” उसके बाद ”

” सब धर्म नाश कर दिया गंगौर ने | ”

” क्या किया ”

” पुलिस के नाम से नालिश { इल्जाम } लगाया | तब आई पुलिस और उस वक़्त तो वह सेवपुरा में थी | ”

” क्यों ”

” क्यों क्या बाबू ? ”  सेवपूरा में ही तो है , बड़ा थाना , बड़ा दरवाजा , अदालत | महकुमा है न,  शहर है सेवपुरा इसलिए उसे वहीँ जाना पड़ता है बार – बार | ”

” क्या वह अब सेवपुरा में है ? ”

” और नहीं तो क्या ? हफ्ते – हफ्ते जाना – आना पड़ता है ,पुलिस तो पीछे पड़ ही गई है इसलिए यहाँ लेबरों का आनाजाना करीब – करीब ख़तम हो गया है बाबूजी ! शिवजी की दुनिया में औरत को बोहत समझ – भूझ कर चला पड़ता है | वह नहीं समझती , उसे ऐसा करने में अच्छा लगता है पर देखो जी बार – बार पुलिस का आना ठीक नहीं पर औरत होकर नहीं समझती कि आखिर पुलिस भी तो मरद ही है |और अगर पुलिस को चिढ़ाएगी तो वह चिढ़ेगा ही | ”

” क्यों  … क्यों  …. क्यों चिढ जाएंगे ? ”

” पुलिस के नाम पर फालतू में कलंक धरेगी वह भी गन्दी – गन्दी तो क्या पुलिस उसे ऐसे ही छोड़ देगी ? कभी छोड़ा है भला जो अब छोड़ेगी ? भाग सकती थी वह , ट्रेन में बैठकर गई नालिश { इल्जाम } लगाने  …. इस वास्ते उसे हाजिरी तो देनी ही पड़ेगी | और पुलिस उसे   …….. ”

” गंगौर है कहाँ ? और उसका बच्चा कहाँ है ? ”

” तू है तो किसी की औरत ! ”

” क्या वह गांव में है ? ”

” कोई उसे गांव में घुसने देगा भला ? वहां उसका कोई स्थान नहीं , उससे झरोवा में कोई नहीं बोलता , सेवपुरा से आती – जाती है और उसे जो करना है अपने मन का करती है | ”

” कहाँ है वह ? ”

” सँझा होने दो , दिखेगी बाजार में देशी दारू पीकर पड़ी होगी कहीं  …… ”

” गंगौर दारू पीती है ? ”

” और क्या करेगी ! ”

” मैं उसे ले जाऊंगा | ”

” छी – छी बाबू आप तो नामी गिरामी लोग हैं ! झरोवा को कौन पहचानता था , आपने ही कई बार फोटो खींच कर अखबारों में डाला इसलिए आज झरोवा को लोग जानने लगे हैं   …. आप उसे ले जायेंगे ? ”

” उसे बचाना ही होगा  ” उपेन का दिमाग काम नहीं कर रहा था , चौकीदार क्या कह रहा है उसे समझने की वह कोई कोशिश भी नहीं कर रहा था |

” पर पुलिस ? ”

” क्या कर लेगी सेवपुरा की पुलिस मैं बिहार के कई पुलिस वालों को सबक सिखाया है | सब तस्वीरें खींच कर अखबार में डाल दूंगा | ”

” चलिए लीजिये अपना बैग और चेक कर लीजिये सब ठीक – ठाक है न | अगर पुलिस के हत्थे चढ़ जाती तो बैग साफ़  …. नहा लीजिये , मैं होटल से कुछ खाने – पीने का सामान ले आता हूँ | गंगौर तो सांझ से पहले आने से रही | ”

 

नहा धोकर उपेन निवाड़ वाली खटिया में लेट जाता है और शाम तक सोया रहता है |  उजान संग होता तो उसे जबरदस्ती उठाकर खाना खिलाता | हिदायत देता नर्वस एनर्जी लेकर कितने दिनों तक जिन्दा रहोगे , कोलैप्स कर जाओगे | ” मन ही मन उपेन कहता  …. कई दिनों पहले ही उपेन पुरी कोलैप्स हो गया है उजान , उपेन फेलियर | झरोवा की इतनी तस्वीरें खींची पर सब बेकार कोई काम नहीं आईं ,आखिर क्या लाभ हुआ | पानी में जहर घुला था जिसे पीकर न जाने कितनो ने जान दी , कितने लोग फसल बर्बाद होने पर पलायन कर गए  ….. उस बार तो इन्ही मुद्दों को लेकर राज्य सरकार बनाम उपेन पुरी  —— इसे अकाल कहा जाए या फसल की बर्बादी , इसी पर बहस चल निकली थी | इतना सब होने के बाद भी जाकर देखो हाट में दुबलाये से गाय ,भेड़  – बकरियां , मोबिल ऑइल से गंधाते खाने के सामान धुल – धूसरित  , तेज आवाज में बजता वेरी बिज़ी वीडियो पैलेस में और पान की दुकानों में चोली के पीछे क्या है गीत |इस वक़्त यही यहां का प्रमुख गाना बना हुआ था | पर चोली के पीछे क्या है यह सिर्फ गंगौर ही जानती है | कुछ भी तो नहीं बदला , बस कुछ गोदाम घर नए बने हैं |  नई पुलिस चौकी भी बनी है , वहां से वे सभी औरतों और लड़कियों को भद्दी नज़रों से घूरते और फिकरे कसा करते और गन्दी तरीके से हँसते | ऊलजलूल खाना दुकानों से मंगवा कर खाते रहते| यही सब देख रहा था उपेन , इन्ही सब वजहों से ही उपेन कोलैप्स हुआ जा रहा था | और इसलिए शीतल के जीवाणु रहित साफ़ सुथरे घर पर आते ही उपेन का दम बंद होने को आता है | नहीं अब जिंदगी को फिर से सजाना पड़ेगा वह सोचता है |

 

उपेन की नींद टूटी तब शाम अच्छे से घिर आई थी | कहीं एक जोखिम का बोध हो रहा था , खुश समय के लिए वह एक लट्टू की तरह घूम रहा था अचानक उसे महसूस हुआ यहां वह एकदम अकेला है | वैसे वह हमेशा ही हर जगह अकेला ही होता है | इतना अकेला रहना और जीवन के सामान्य अधिकारों को भी न मानना ठीक नहीं | गंगौर का वक्ष तो स्वाभाविक ही था , तैयार भी किया जाता है फिर भी क्यों वह इसकी की तस्वीर लेने को आकुल हो उठा था | उसे क्यों महसूस हुआ की वह वक्ष बहुत ही विपन्न है |

 

” क्या पागलपन करते हो बाबू , जाओ घर जाओ , तुम्हारा क्या कोई घर नहीं ? ” चोकीदार का घर है , बीबी बच्चे हैं |उपेन के लिए इंतजार करती हुई कोई घर का कोने में वही जिसे ब्याह कर लाया था रीती रिवाजों में बांधकर  ….. जैसे हर एक का होता है विवाह | पर अभी तो गंगौर को बचाना है| जोखिम भरा बोध उसे दारु के ठेके की ओर ले जाने में मदद करती है | वहां के माहौल से उठती मांस के अंतड़ियों – पसलियों के रेशों से बने भुर्जियों की गंध , दारु की उग्र गंध ,पायरिया से सड़ते मसूड़ों की गंध , नाले से उठती तीव्र गंध और उन्ही में मिली जुली पाखाने की गंध | उपेन की नाक बंद होने को आती है | सहसा चोली के पीछे गीत बज उठता है|

 

और वहीं गंगौर आ धमकती है | अब उसके कपड़े लाल – पीले नाइलॉन के हैं और उनमे पता नहीं कितने दिनों का मैल गंधा रहा है | पर उपेन ने डरते – डरते आंख उठाकर उसे देखता है  ….. देखता है बहुत ही प्रगाढ़ चोली और बेहद उन्नत वक्ष , सर पर तेल और चोटी बंधी हुई और आँखे सतत संधानी |

उपेन और गंगौर एक दूसरे को बारी – बारी से तकते हैं | और गंगौर के होंठों से एक सयानी धारदार हंसी खेल जाती है |और बढ़ आये किसी पुरुष का हाथ वह ठेल देती है और कहती है  … ”  ” कैमरा बाबू बड़े दिनों से मुझे ढूंढ रहे हैं ,और घूम रहा है मेरे लिए ठेकेदार भी | पर आज कैमरा बाबू मेरे ग्राहक , क्यों है न बाबू ? ” उपेन खुद को समर्पण की मुद्रा में खुद को ढीला छोड़ देता है |

” ठेकेदार गंगौर ? ”

” का करी बाबू वो तो ठेकेदारी छोड़ कुच्छ भी नई जानता |किन्तु भूषन ! तेरे को तो हम प्रोमोट कर दी , तभी तो धंदा बेबसाय सबै नफा ही नफा |”  सब हंसने लगते हैं कोई एक जन जोर से पूछता है  ….. ” तेरे चोली के पीछे क्या है रे गंगौर? ”

” चलिए बाबू | ”

गंगौर उठ खड़ी होती है , उपेन को उँगलियों के इशारे से पीछे आने को कहती है  …. ” बाबू ”

 

उसके बाद वे एक टूटे – फूटे रास्तों से होते हुए , जिसके चारों तरफ फैले हुए अरंड के पेड़ों का झुरमुट था | एक और रेल की पातें बिछी हुई हैं और दूसरी ओर एक टूटा हुआ बस उल्टा पड़ा हुआ है | सब टूटे – फूटे यहाँ सब बिकते हैं | और उससे लगे हुए टूटे – फूटे गिरते से गोदाम घर , गंगौर तेज कदमो से चलती चली जाती है | और एक घर के समीप पहुँच कर दरवाजे पर कसकर एक लात जमाती है | उस घर के भीतर और क्या – क्या है उपेन को कुछ भी नहीं दिखता , गंगौर ही एक लालटेन जलाकर रखती है और खुद ही अपने जीवन की रनिंग कॉमेंट्री सी देती चलती है |

 

” सेवपुरा अगर चली जाऊं तो इससे भी ज्यादा पैसे हैं वहां |पर क्या करूँ थाना है न वहां इसलिए वे उसे वहां घुसने ही नहीं देते | और इधर झरोवा में भी रहना पड़ेगा और सेवपुरा में उसे हाजरी देने भी जाना पड़ेगा  ….. जब – जब केस की डेट पड़ेगी और तब पुलिस डेट लेगी | इतना रूपया भी जमा नहीं हुआ की गंगौर कहीं भाग जाये | पर भागेगी भी कहाँ ,सब लोग तो जान गई हैं तुझे गंगौर ? तूने ही तो तफ्तीश के दौरान उन चेहरों को ऊँगली उठाकर पहचान लिया था , और उसी के चलते सब कुछ हवा की भांति भीकर गया रे गंगौर ! ” जैसे अपने आप से बांटें कर रही हो गंगौर या उपेन को सुना रही है |

” गंगौर ! ”

” कपड़े नहीं उतारेगी गंगौर , सिर्फ उठाएगी ! काम निपटाने के बीस रुपये , रात बिताने के पचास , झटपट फैसला करो | ”

” तुम रंडी { यह }का काम करने लगी गंगौर ? ”

” इससे तुझे क्या रंडी { कुतिया  }  की औलाद ? ”

” तुम  …. अपने  …. कपड़े  …. उतारो {  अपनी चोली उतरो} | ”

 

गंगौर तेज – तेज साँसें लेने लगती है और क्रोधित होकर कर्कश आवाज में कहती है  …….

” कुछ सुनाई दे रहा है , हर वक़्त , हर मौके – बेमौके यही बजा – गा रहे  रहे हैं , मेरे पीछे – पीछे हाँक रहे हैं मर्दों , बच्चों को ” चोली के पीछे क्या है   …… चोली के पीछे क्या है   …….

” नहीं ऐसा नहीं है गंगौर   …….

” तुम  बेहद हरामी हो बाबू   …… मेरी छाती की फोटो खैंची  ….. खैंची की नहीं ? ठहरो अब मजा चखाती हूँ जितनी भी जेब में माल है सब धरवा लूंगी  ……. सब मतलब  ….. सब  ….. ”

 

लालटेन  की माध्यम रौशनी में गोदाम घर की दीवार  आकृतियों का एक वायलेंट तस्वीर उभरती है , गंगौर अपनी चोली उतारकर उपेन की और फैंकती है  चीख  कहती है देख  …. देख इन भूसों , चिन्दियों और रुई के गोलों को तू भी देख ले  ….. ले देख  … देख क्या है आखिर चोली के पीछे  …… ”

 

वहां स्तन नहीं हैं , सिर्फ दोनों ओर सूखे हुए जखम , सिकुड़ा हुआ चमड़ा , एक दम समतल , सपाट और क्रोध से जलती हुई दोनों निगाहों से जैसे ज्वालामुखी बरस रहा था | उपेन की आँखें  विस्फारित सा होकर जम सा गया था |

” गैंग रेप , नोच – खसोट कर रेप  ….. पुलिस वाले  ….. अदालत वाले  …. केस वाले  …. और लॉकअप में भी | अब मैं झरोवा से सेवपुरा और सेवपुरा से  ……. झरोवा , ठेकेदार ग्राहक जुटाता है और इधर पब्लिक सताते हैं   ……… गाना बजाकर परेशान करते हैं   …….. ”

उपेन के पैरों में लड़खड़ाहट भर जाती है , वह इस हालत में भी उठ खड़ा होता है | और उधर गंगौर पगलाई सी उपेन की जेबें टटोलती रहती है , कितनी हिंग्श लग रही थी वह और उसके पसीने की गंध और अचानक जोर – जोर से जमीन पर जोर से एक लात जमाती है |

 

उपेन बाहर निकल आता है , गंगौर की चीखने की आवाज अब तक आ रही है , और चीख रही है और दीवारों , दरवाजों पर जोर – जोर से लातें चला रही है | उपेन अचानक चलते – चलते दौड़ने लगता है और सोचने लगता है  …… चोली के पीछे कोई नॉन ईशु नहीं , इसके पीछे है गैंग रेप , कोई नॉन ईशु नहीं रहता है  ….. कुत्सित मानसिकता , बलात्कार |उपेन चाहता तो जान सकता था की ऐसा क्यों हुआ ? पर वह यह सब सोचते हुए रेल लाईन पकड़ कर संग – संग दौड़ने लगा बेतहासा |

 

[ पांच ]

 

उजान इस घटना के काफी देर बाद पहुंचा | तब तक झरोवा शांत हो चूका था | अब गोदाम घर की जगह नया सा एक बस डिपो बन गया था | झरोवा में एक नया थाना , वहीँ से एक मृत शरीर की फोटो जो कई दिनों पुरानी थी |

 

गंगौर नाम की कोई औरत झरोवा में नहीं रहती |

 

लापता उपेन पुरी की तलाश जारी है कागज- कलम और फाइलों में | यह फाइलें बेहद आसानी से गुम हो जाती हैं |

 

०००००००

रचनाकाल : —— 1993

Related posts

Fearlessly expressing peoples opinion