समकालीन जनमत
स्मृति

शंख घोष को याद करते हुए

 मीता दास


 

बांग्ला साहित्य का एक युग अचानक ख़त्म हो गया । कोरोना महामारी एक मूर्धन्य साहित्यकार को निगल गई। वे बांग्ला साहित्य में एक नक्षत्र की तरह थे जिसके टूटने से पूरी बांग्ला साहित्य बिरादरी सकते में है ।
शंख घोष के रक्त में विप्लव इस तरह घुला मिला था कि उन्हें उनकी रचनाओं  से अलग करने का मतलब उनकी आत्मा को छीन लेने जैसा ही था । उनकी रचनाएँ सिर्फ नवीन ही नही वरिष्ठ साहित्यकारों को भी प्रेरणा देती हैं । सबको उनके साहित्य से एक ऊर्जा मिलती थी ।
उनका जन्म बंटवारे से पहले के पूर्वी बंगाल यानि आज के बांग्लादेश के चाँदपुर में 5 फरवरी सन 1932 को हुआ था । वे अपनी बाल्यवस्था की पढ़ाई चाँदपुर में नही पाबना में की और भारत आने पर बाकी की पढ़ाई कोलकाता के प्रेसिडेंसी कॉलेज से बांग्ला भाषा व साहित्य में स्नातक की डिग्री प्राप्त की । आगे चलकर उन्होंने कोलकाता विश्वविद्यालय से स्नातकोत्तर की डिग्री प्राप्त की । उसके उपरांत उन्होंने अध्यापन को ही अपने पेशे के रूप में चुना और शियालदाह के बंगबासी कोलिन फिर सिटी कॉलेज और जादबपुर विश्वविद्यालय में अध्यापन का कार्य किया । उनका असली नाम चित्तप्रिय घोष है और उनका छद्मनाम जिस नाम से उन्होंने कई रचनाएँ की । उनके पिता का नाम मनींद्र कुमार घोष और माता का नाम अमलाबाला था ।
उन्हें उनके काव्यग्रन्थ –बाबर की प्रार्थना के लिए साहित्य अकादमी पुरस्कार 1977 में प्राप्त हुआ । उन्हें नरसिंह दास पुरस्कार 1977 में , रबीन्द्र    पुरस्कार 1989 में , सरस्वती सम्मान एंथोलॉजी के लिए , अनुवाद के लिए साहित्य अकादमी 1999 में और पद्मभूषण से 2011 में प्रणब मुखर्जी के हाथों सम्मानित हुए ।
उनकी रचनाओं में हमें उनकी राजनैतिक चेतना मुखर रुप में देखने को मिलती हैं । भारत की केंद्रीय सत्ता के विरुद्ध भी उन्होंने कलम चलाई,  वह कविता है माटी  (नागरिक संशोधन बिल के खिलाफ ) । उन्हें इस बिल पर गहरी आपत्ति थी ।
उन्होंने बच्चों के लिए भी रचनाएँ की और वे रवींद्रनाथ के साहित्य के गहरे ज्ञाता थे । उनका रवींद्रनाथ पर एक महत्वपूर्ण रिसर्च रहा और उन्हें रवींद्रनाथ के विषय मे पारंगत होने की वजह से प्रसिद्धि भी हासिल थी ।
उनका काव्य जितना उत्कृष्ठ था उतना ही उनका गद्य भी उनमें विशेषकर प्रबन्ध ( आलेख ) , भ्रमण वृतांत , स्मृति लेख , अंतरंग विश्लेषण और आलोचना भी ।
उनके विशेष काव्य ग्रंथ —
1. दिन गुली रात गुली 1956
2. एखोन सोमोय नोय 1967
3. निहित पाताल छाया 1967
4 . बाबोरेर प्रार्थना 1976
5. मूर्ख बड़ो सामाजिक नोय 1994
और भी कई ग्रंथ हैं ।
बेहद दुख की बात है कि एक साहित्य जगत के चमकते सितारे को कोरोना महामारी ने 21 अप्रैल 2021 को निगल लिया ।
उन्हें अस्पताल जाने की इच्छा नही थी वे अपने ही घर मे आइसोलेशन में थे 14 अप्रैल से और  21 अप्रैल की रात नींद में ही उन्होंने आखरी सांस ली । मृत्यु के वक़्त उनकी उम्र 90 वर्ष थी ।
शंख घोष की मृत्यु पर बांग्ला के कवि जय गोस्वामी ने कहा — एक महा वट वृक्ष आज गिर गया । वे थे हमारी जाति के विवेक । साहित्यकार शीर्षेन्दू मुखोपाध्याय ने कहा — शंख घोष की मृत्यु से मुझे लग रहा है जैसे सिर के उपर से छत हट गई है । आज मेरा मन बेहद दुखी है ।
शंख घोष की मृत्यु पर पश्चिम बंगाल की मुख्य मंत्री में शोक ज्ञापित किया और कहा कि वे हमारे गर्व थे । उन्होंने कहा कि शंख घोष को गीत और सेल्यूट पसन्द नही था उनका मान रखते हुए उन्होंने उनका अंतिम संस्कार राष्ट्रीय मर्यादा के संग सम्पन्न करने का आदेश दिया और उनका अंतिम संस्कार सादे तरीके से और शांत वातावरण के साथ सम्पन्न हुआ ।
उनकी कुछ अनुदित कविताएँ :
कवि – शंख घोष 
अनुवाद – मीता दास 
 1.भीड़ 
‘ छोटे होकर उतर जाइये महाशय
‘ महीन होकर उतर जाइये महाशय
‘ ऑंखें नही हैं क्या ? क्या आँखों से दिखता नही ?
‘ महीन हो जाइये , छोटे हो जाइये  …… ..
सदर में , बाजार में , या ओट में ?
भीड़ के मध्य खड़े होने पर भी क्या मैं
अपने ही समान नित्य ही और
कितना छोटा हो जाऊँ ईश्वर ?
2. पत्थर
पत्थर , दिन पर दिन उठायें हैं मैंने सीने पर
पर आज उन्हें उतार नही सकता !
आज अभिशाप देता हूँ , कहूँ सब भूल थी उतर जा उतर जा
फिर से शुरु करना चाहता हूँ
उठ खड़े होना जिस तरह से उठ खड़ा होता है मनुष्य
दिमाग से गायब हैं दिन और हाथों के कोटर में लिप्त है रात
कैसे आशा कर लेते हो कि बूझ ही लेंगे तुम्हारा मन
पूरे शरीर के अस्तित्व को घेर
नवीनता कभी नही जागी
हर पल सिर्फ जन्म हीन महाशून्य से घिरा रहा
पर यह किसकी थी पूजा इतने दिनों तक ?
हो जाओ अब अकेले निरा अकेले
आज बेहद धीमे स्वर में कह रहा हूँ तू उतर जा उतर जा
पत्थर , देवता समझकर उठाया था सीने में , पर अब
मुझे तेरी सारी बातें पता हैं !
3. बंदी जीवन
सोचते हो करुणा माँगा है ? तुम सब का समर्थन माँगा है ? गलत ।
ह्रदय में अनुमोदन के लिए अब कोई इंतज़ार नही
उसे पता है गलतियों की सीमा , उसे  विध्वंश की सूची भी पता है,
वह चेहरा हो जायेगा भस्म जान लेता है वह इन हाथों से छू कर ।
तब होगी बातें किसकी ? किसी के संग नही । यह केवल
जिस तरह बंदी जीवन को सीने में दबा कर
एक कोठरी में बैठा रहता है ।
दिनों और रातों के चिन्ह अंकित कर रख छोड़ता है दीवार पर
उसी तरह ही दिनों को गिनकर जाएगी रातों में नोच खाना दिमाग
लोहे में लोहे की ध्वनि जगाना और बजाना विफलता को ।
जो देखता है वही देखता है सिर्फ एक ही है जो अपने सिर के बालों को खुला छोड़कर
सभी के पिंजर को दबाकर खड़ा है योग्य रस लिए
यह केवल उसी का नाच है वलय में वलय की तरह बुनता
——— यदि , कह सको इसे ही अच्छा तो अच्छा है नही तो नही ।
4. शर्त 
सन्यासी बन चुके हो समूचे ?
पूरी तरह ।
त्याग सकते हो सब ? राजी हो ?
उपेक्षा को उपेक्षा से ही
सहज ही लौटा सकते हो जड़ों तक ?
खोल दिया है समस्त द्वार ? और
ताल वीथिका ने निहित शीत की रात में देखा है आग
उस स्वच्छ जल में ?
तब आओ , इस बार , सब कुछ पकड़ों और खींचो
याद रखो किसी भी हालत में और कहीं भी नही है तुम्हारा त्राण { बचाव }
जीत गए हो तुम शर्त ।
6. पुनर्वास 
जो कुछ भी मेरे चारों ओर था
घास पत्थर
सरीसृप
भग्न मंदिर
जो कुछ भी मेरे चारों ओर था
निर्वासन
कथोपकथन
अकेला सूर्यास्त
जो कुछ भी मेरे चारों ओर था
विध्वंश
तीर – बल्लम
घर – द्वार
सब कुछ काँप उठा पश्चिम की ओर
स्मृतियाँ जैसे दीर्घ तर दलगत दंगल
टूटा हुआ बक्सा पड़ा था आम वृक्ष की छाया में
एक कदम की दूरी पर हठात जैसे सब वास्तु हीन से ।
जो कुछ भी मेरे चारों ओर है
शियालदह
भरी दुपहरी
उकेरी दीवारें
जो कुछ भी मेरे चारों ओर है
अंधी गलियां
स्लोगन
मोन्यूमेंट
जो कुछ भी है मेरे चारों तरफ
शरशैया
लैम्प पोस्ट
लाल गंगा
सब कुछ एक साथ घेर लेते मज्जा का अन्धकार भी
उसी के मध्य बजता रहता जल तरंग
चोटी पर शून्य उठा रखता हावड़ा ब्रिज
पाँव के नीचे लोट जाता परंपरागत ।
जो कुछ भी है मेरे चारों तरफ झरना
उड़ते बाल
नग्न पथ
बुझते मशाल
जो कुछ भी है मेरे चारों ओर स्वच्छ
भोर के शब्द
स्नात शरीर
श्मशान के शिव
जो कुछ भी है मेरे चारों ओर मृत्यु
एक के बाद एक दिन
हजारों दिन
जन्म दिन
सब कुछ घूम कर आता स्मृति के हाथों
थोड़े उजाले में बैठे भिखारी की तरह
जो कुछ भी था और जो है दोनों पत्थरों को ठोंक
जला लेते हैं प्रतिदिन का पुनर्वास ।
                  ००००००
अनुवादक मीता दास का जन्म 12 जुलाई सन 1961, जबलपुर { मध्य प्रदेश }
शिक्षा बी.एस.सी विधा हिंदी भाषा & बांग्ला  भाषा में कविता , कहानी , लेख , अनुवाद और संपादनप्रकाशित ग्रन्थ ” अंतर मम” काव्य ग्रन्थ , बांग्ला भाषा में  2003 में, नवारुण भट्टाचार्य की कविताएं ( अनुवाद – मीता दास ) प्रकाशित, भारतीय भाषार ओंगोने ( अनुवाद हिंदी कवियों का बांग्ला भाषा मे अनुवाद – मीता दास ) प्रकाशित , ” पाथुरे मेंये ” {बांग्ला काव्य संकलन }  प्रकाशित, हिंदी कवि अग्निशेखर की कविताओं के बांग्ला अनुवाद – मीता दास प्रकाशित, नवारुण भट्टाचार्य की कविताओं के अनुवाद (अनुवाद – मीता दास ) शीध्र प्रकाशित, सुकान्त भट्टाचार्य की कविताओं का अनुवाद (मीता दास ) शीघ्र प्रकाशित। आकाशवाणी रायपुर से 25 वर्षों से लगातार स्वरचित कविताओं का प्रसारण, दूरदर्शन रायपुर से कविताओं का प्रसारण, भोपाल दूरदर्शन से गीतों का प्रसारण)

Related posts

Fearlessly expressing peoples opinion