स्वयं प्रकाश से मिलने का इत्तिफाक नहीं हुआ, पर उनकी कहानियां इत्तिफाकन जिंदगी के बेहद बेचैन वक्तों में मेरे करीब आईं और मुझे किसी हमदर्द और हमख्याल को पा लेने का अहसास हुआ।
बिल्कुल तारीख तो याद नहीं है, पर रामजन्मभूमि के नाम पर देश भर में मुस्लिम विरोधी घृणा का आक्रामक और आपत्तिजनक प्रचार का दौर था। बाबरी मस्जिद को ढाह कर अपने शौर्य (?)पर इतराने वाले हिंदू फिरकापरस्त राजनेताओं से मेरा मन बहुत आहत था।
बचपन से पत्रिकाओं, किताबों और फिल्मी गीतों ने जिस दिलोदिमाग को गढ़ा था और जिंदगी के 20-21 सालों में अपने अनुभवों ने भी जिस तरह सांप्रदायिक भावनाओं की निरर्थकता और सांप्रदायिकता के खतरों की प्रबल समझ पैदा की थी, उस दिलोदिमाग और समझ पर बेतरह हमले हो रहे थे। मुसलमानों में सांप्रदायिक संकीर्णता और कट्टरता अधिक होती है, वे खाते यहां की हैं और गाते पाकिस्तान की हैं, जैसे कुतर्क मेरे गले कभी नहीं उतरे।
गांव में मेरे जो पड़ोसी थे, उनमें मुस्लिम समुदाय के पड़़ोसी ही गमी और खुशी के मौकों पर हमारे ज्यादा करीब रहे। महज एक दूसरे के पर्व-त्यौहारों में ही हमारा मिलना-जुलना और साथ खाना-पीना नहीं होता था, बल्कि यह रोजमर्रे की बात थी।
उन्हीं दिनों मैं यह भी देख रहा था कि गांव की गरीब मुस्लिम परिवारों की औरतें लड़-झगड़कर नसबंदी भी करवा रही थीं, कोई विरोध करता तो उनका जवाब होता कि ज्यादा बच्चे होंगे तो तुम खिलाओगे। लेकिन पूरे देश में आबादी बढ़ाने का ठिकरा मुस्लिम समुदाय के माथे पर ही फोड़ा जा रहा था। ऐसे ही माहौल में मुझे ‘पार्टीशन’, ‘रशीद का पाजामा’ और ‘चौथा हादसा’ जैसी कहानियां पढ़ने को मिली थीं। और मेरे बेचैन दिल को करार आया था उन्हें पढ़कर। अल्पसंख्यकों के प्रति ऐसी आत्मीयता और संवेदनशीलता इस दौर के कम ही कहानीकारों के यहां मिलती हैं।
‘पार्टीशन’ कहानी इस बहुप्रचारित धारणा का मजबूती से प्रतिवाद करती है कि हिंदुस्तान में बहुसंख्यकों की सांप्रदायिकता अल्पसंख्यक सांप्रदायिकता की प्रतिक्रिया है, बल्कि इसके उलट यह कहानी बताती है कि बहुसंख्यकों का जो सांप्रदायिक वर्चस्व है वह अल्पसंख्यकों को अपने सांप्रदायिक खोल में घुसने को बाध्य करता है।
आज इसे दुबारा पढ़ते हुए मुझे खासकर गोवध, धर्मांतरण, शुद्धि आंदोलन आदि हिंदू सांप्रदायिकता के राजनीतिक एजेंडे के खिलाफ दिए गए प्रेमचंद के जोरदार तर्क याद आने लगते हैं। ऐसा नहीं था कि प्रेमचंद मुस्लिम सांप्रदायिकता के पक्ष में थे। लेकिन वे समझ रहे थे कि साम्राज्यवाद के खिलाफ जो जनसंघर्ष है उसे हिंदू सांप्रदायिकता की राजनीति कमजोर करेगी। प्रेमचंद ने 1923-24 में अपने प्रसिद्ध लेख कहुतिर्रजाल (मनुष्यता का अकाल) में लिखा कि हिंदू कौम कभी अपनी राजनीतिक उदारता के लिए मशहूर नहीं रही।
हिंदुओं में एक भी ऐसा नेता नहीं, जिसने हिंदू-मुस्लिम एकता के लिए जी जान से काम किया। भगत सिंह ने भी अपने मशहूर लेख ‘सांप्रदायिक दंगे और उनका इलाज’ में नेतृत्व के दिवालियापन की ओर साफ इशारा किया है। प्रेमचंद ने यह भी लिखा कि कांग्रेस ने मुसलमानों को अपना सहायक बनाने की उतनी कोशिश नहीं की जितनी करनी चाहिए थी। वह हिंदू सहायता प्राप्त करके ही संतुष्ट हो गई।
प्रेमचंद के लिए सांप्रदायिक एकता का मतलब ‘ईश्वर अल्ला तेरोे नाम’ की माला जपना नहीं था, बल्कि उस कम्यूनल प्रोपगैंडा का मुकाबला भी था जो मुस्लिम समुदाय के खिलाफ चलाया जा रहा था और जिससे जनता की एकता टूट रही थी। स्वयं प्रकाश की कहानियां सांप्रदायिकता को लेकर स्वाधीनता आंदोलन के दौरान चली बहसों से भी हमें जोड़ती हैं।
दोनों किस्म की फिरकापरस्ती का विरोध करते हुए भी वे राजनैतिक स्वार्थ में पैदा की गई बहुसंख्यकों की सांप्रदायिकता को देश और समाज के लिए ज्यादा खतरनाक मानते हैं। इस नाते भी स्वयं प्रकाश पे्रमचंद की परंपरा के कहानीकार लगते हैं।
‘पार्टीशन’ के कुर्बान भाई फिरकापरस्त सियासत के कारण हुए दंगों की त्रासदी झेल चुके हैं। दंगों के दौरान अजमेर में उनके पिता का रंग का लंबा-चैड़ा कारोबार बर्बाद हो गया। दुकानें जला दी गईं और दो भाइयों का कत्ल कर दिया गया।
अलीगढ़ यूनिवर्सिटी में पढ़ने वाले शायराना तबीयत के नौजवान कुर्बान अचानक सड़क पर आ गए। अभाव और बेरोजगारी की दशा में एक सेठ के यहां काम मिला भी, तो अपनी ईमानदारी, दयानतदारी, शराफत और आदर्शवादिता के कारण वहां टिक नहीं पाए। फिर भी हिंदुस्तान को छोड़कर वे पाकिस्तान नहीं गए। इंसानी आदर्शों के मूत्र्त रूप रूप हैं कुर्बान भाई। उन्हें अदब से गहरी मुहब्बत है।
पार्टीशन के दौरान हुए दंगों में सबकुछ खोकर भी वे फिरकापरस्त नहीं हुए, मेहनत से भरोसा नहीं छोड़ा और जीवनयापन के लिए वे काम भी किए जिन्हें बहुत छोटा समझा जाता है। वे दोस्त जो उनकी अदबी मुहब्बत के दीवाने हैं, जो उन्हें मजहब के आधार पर दोयम दर्जे का आदमी नहीं समझते, उनकी आत्मीयता उनके लिए भरोसे का काम करती है।
पार्टीशन की पीड़ा को वे लगभग भूल चुके हैं, तभी वह भरोसा टूट जाता है, जब वकील उखचंद का हाली गाड़ीवान गोम्या उनसे झंझट करता है और उन्हंे ‘मियां’ कहकर अपमानित करता है और इसके प्रतिवाद में उनके अदबी दोस्त दूर तक साथ नहीं दे पाते। कुर्बान भाई के पुराने जख्म फिर हरे हो जाते हैं। सोचते हैं- ‘‘…क्या-क्या कीमत रोज चुकाकर कस्बे में थोड़ा-सा अपनापन…. थोड़ी-सी सामाजिक सुरक्षा…थोड़ा-सा आत्मविश्वास.. थोड़ी सी सहजता उन्होने अर्जित की थी…और कितनी बड़ी दौलत समझ रहे थे इसको… और लो! तिल-तिल करके बना पहाड़ एक फंूक में उड़ गया।….मैं एक मिनिट-भर में ‘कुर्बान भाई’ से ‘मियां’ हो जाउफंगा, यह कभी सोचा क्यों नहीं? अपनी मेहनत का खाते हैं। पिफर भी ये लोग हमें अपनी छाती का बोझ ही समझते हैं।’’
एक दिन कुर्बान भाई किसी से कहते हैं- ‘‘आप क्या खाक हिस्ट्री पढ़ाते हैं? कह रहे हैं कि पार्टीशन हुआ था। हुआ था नहीं, हो रहा है, जारी है।’ फिर कहानी के आखिर में कुर्बान भाई टोपी पहनकर मस्जिद की ओर जाते नजर आते हैं। हालांकि किसी को यह अस्वाभाविक लग ही सकता है कि एक गाड़ीवान द्वारा अपमान क्या किसी को इस तरह बदल सकता है।
लेकिन कहानी में जो अकहा छिपा है उसे पढ़ लिया जाए तो इस बदलाव को समझा जा सकता है। अगर 1947 के बाद भी भेदभाव और संदेह के सिलसिले तथा बहुसंख्यक सांप्रदायिकता के निरंतर प्रसार के लिहाज से देखें तो इस टूटन और बदलाव की वजह समझ में आ सकती है। जब मैं इसे पहली बार पढ़ रहा था, तब बाबरी मस्जिद ध्वंस की पीड़ा से यह कहानी सीधे जुड़ गई थी।
कुछ कम संवेदनशील या मुस्लिम समुदाय से नफरत करनेवाले संवेदनहीन लोग यह तर्क कर ही सकते हैं कि गाड़ीवान ने गुस्से में ‘मियां’ कह ही दिया तो ऐसा क्या हो गया, ठीक उसी तरह की मस्जिद टूट ही गई तो क्या हो गया, वहां कौन मुसलमान नमाज पढ़ते थे और वह जगह तो रामजन्मभूमि थी। लेकिन उस ध्वंस से दोनों समुदायों के बीच तो दूरी बढ़ी ही, नए किस्म का पार्टीशन हुआ ही, यही तो सच्चाई है। इसी पार्टीशन की प्रक्रिया को उजागर करते हुए पाठकों को कहानी सचेत करने की कोशिश करती है।
अगर हम कहानी की प्रकाशन की तिथि को देखें, तो कहानीकार की दूरअंदेशी का पता चल सकता है। यह कहानी अमरकांत के संपादन में 1983 में प्रकाशित वत्र्तमान साहित्य (संभवतः प्रवेशांक) में प्रकाशित हुई थी। यह कहानी संकेत करती है कि सांप्रदायिकता का जहर फिर से समाज के निचले स्तर और मेहनतकश वर्ग के आदमियों को भी अपनी चपेट में ले रहा है। गोम्या गाड़ीवान है और कुर्बान भाई एक छोटे-से दुकानदार, दोनों के बीच दूरी बढ़ रही है।
यह कहानी इसे भी दर्शाती है और पूरी ताकत से पाठक के विवेक को झकझोरती है कि निश्ंिचत मत रहिए, पार्टीशन महज अतीत नहीं है, बल्कि फिरकापरस्त ताकतें पार्टीशन जारी रखे हुए हैं। बाबरी मस्जिद ध्वंस से लेकर गुजरात कत्लेआम तक की घटनाएं तो इसी का दर्दनाक साक्ष्य हैं।
‘पार्टीशन’ को पढ़ते वक्त मुझे बचपन में पढ़ी गई रामवृक्ष बेनीपुरी की किताब ‘माटी की मूरतें’ के अविस्मरणीय चरित्र सुभान खां की याद आ गई, जो दिल में आज तक मौजूद हैं। ऐसा लगा कि कुर्बान भाई उसी परंपरा के हैं और ‘मियां’ कहकर उनका ही उपहास उड़ाया जा रहा है, उन्हें जबरन सांप्रदायिक बनने के लिए विवश किया जा रहा है। इसी तरह ‘रशीद का पाजामा’ पढ़ते वक्त भी मुझे प्रेमचंद की एक यादगार कहानी ‘ईदगाह’ और उसके बाल नायक हमीद की याद आई।
रशीद भी हमीद की तरह गरीब है और संवेदनशील है। हमीद दादी के लिए चिमटा खरीदता है और रशीद अब्बू के लिए छड़ी। मगर एक फर्क है वक्त का, वहां हमीद को सांप्रदायिक घृणा का सामना नहीं करना पड़ता, पर यहां गरीब रशीद की प्रतिभा से दूसरे विद्यार्थियों में जो ईष्र्या है, वह सांप्रदायिक नफरत का रूप ले लेती है। इसमें भी रशीद का प्रतिद्वंद्वी नंदकिशोर उसपर अपमानजनक कटाक्ष करता है।
सिर्फ सोफिया ही है जो रशीद की पीड़ा में उसके साथ होती है। कहानी के अंत में सूचना है कि नंदकिशोर छोटा-मोटा लीडर बना गया अपनी जाति का और रशीद इंजीनियर-विंजीनियर नहीं बन सका। कहानीकार अंत मंे लिखता है- ‘‘उसे (रशीद को) आज तक समझ में नहीं आया कि पजामे के नेफे में नाड़ा घुस आने से उसके धर्म का क्या संबंध था? क्या आपको समझ में आया?’’ असल में कहानी पढ़ते वक्त जो समझ में आता है वह बेहद खतरनाक है कि किस तरह आजाद भारत में सांप्रदायिकता बच्चों और किशोरों के जेहन में भी घर कर रही थी। 1990 के आसपास अल्पसंख्यकों के प्रति घृणा से भरी जो पीढ़ी आई, वह वाकई अचानक नहीं आ गई थी।
स्वयं प्रकाश सिर्फ दया और सहानुभूतिवश ही अल्पसंख्यकों की पीड़ा का बयान नहीं करते, बल्कि एक गहरी लोकतांत्रिक संवेदना के साथ उनके मन के भीतर उतरते हैं। बड़े रोचक ओर गुदगुदे अंदाज में लिखी गई ‘चैथा हादसा’ में उर्दू लहजे और बढ़ी हुई दाढ़ी के कारण कहानीकार को मुसलमान समझा जाने लगता है। उस रूप में वे उस उपेक्षा, भेदभाव और दंश को महसूस करते हैं, जिसे इस देश का आम मुसलमान आए दिन महसूस करता है।
कहानी के अंत में एक पात्र हबीब की यह दावेदारी कि, यह देश उसका भी है, ही वह समझ है जिसे पाठकों के भीतर स्वयं प्रकाश पैदा करना चाहते हैं। वे मुसलमानों के प्रति हिंदुओं के मन में बैठाए गए पूर्वाग्रहों से टकराते हैं। काॅलेज के जमाने में मैं खुद जब बहस करते हुए हिंदू समुदाय के अपने सहपाठियों और दोस्तों से यह कहता था कि वे मुसलमानों की संकीर्णता, कट्टरता और पाकिस्तानपरस्ती का अपना अनुभव बताएं, तो प्रायः चुप्पी छा जाती थी। कई तो यह भी कहने लगते कि मुस्लिम समुदाय के उनके अच्छे दोस्त हैं, लेकिन..।
मेरे लिए सवाल यही था कि इस ‘लेकिन’ को कौन पैदा कर रहा है। जाहिर है एक खास किस्म की राजनीति, जिसका आम तौर पर सत्ताधारी वर्ग से गहरा संबंध था। जो इस राजनीति को ठीक से नहीं समझते वे ऐसे पूर्वाग्रहों से ग्रस्त रहते हैं। ‘आदम जात का आदमी’ पढ़ते वक्त तो मैं वाह! वाह! कर उठा। इसमें कहानीकार ने अराजनीतिक और यशलोलुुप कवि सुधीर की तो जैसे आंख ही खोल दी है। गए हैं महोदय हिंदुत्ववादी सिंघल के यहां 1100 रु. के लिए ‘राम जन्मभूमि’ पर कविता सुनाने, पर कवि-सम्मेलन से पहले उनके पैंट की जीप खराब हो जाती है और उस रात एक गरीब-बूढ़ा मुसलमान ही उनकी मदद करता है। और वे ‘रामजन्मभूमि’ वाली कविता नहीं सुनाते।
यह स्पष्ट है कि आजादी के आंदोलन को कमजोर करने के लिए साम्राज्यवाद ने खासकर हिंदू और मुस्लिम सांप्रदायिकता को उकसाया और लगातार दोनों समुदायों के बीच टकराव की स्थितियां पैदा की तथा 1947 की आजादी के बाद भारत के शासकवर्ग ने अपने स्वार्थ में मुस्लिम समुदाय को निरंतर अलगाव में डाला और हिंदुत्व की राजनीति को शासनतंत्र के भीतर पैठने दिया, इसी कारण हिंदू समुदाय में मुस्लिम समुदाय की कट्टर और संकीर्ण छवि प्रचारित हुई।
उसी प्रचारित छवि के आधार पर आज भी सेकुलरों से बहसें की जाती हैं और बहस करने वाले बड़े अभिमान के साथ हिंदुओं की शाश्वत सहिष्णुता का गुणगान करते हैं। यह सहिष्णुता थी या नहीं और आज है या नहीं, यह तो अलग बहस का विषय है, लेकिन प्रेमचंद तो अपने दौर में इस सहिष्णुता की कमी की ही बात कर रहे थे। वैसे इतना तय है कि आजादी के बाद शासकवर्ग की नीतियों और उसके व्यवहार ने बहुसंख्यकों के मिथ्या वर्चस्ववाद और असहिष्णुता को बढ़ाया है।
अगर ऐसा नहीं होता तो 1984 में इंदिरा गांधी की हत्या के बाद इतने बेगुनाह सिक्खों का कत्लेआम न होता। आखिर सिक्खों की हिंदू विरोधी छवि तो पूरे देश में उस तरह प्रचारित नहीं थी, फिर आम सिक्खों को क्यों निशाना बनाया गया? स्वयं प्रकाश बहुसंख्यकों के भीतर बढ़ती इस एकाधिकारवादी प्रवृत्ति के खतरे को लेकर सवाल करते हैं। हिंदी कहानी में यह एक बहुत बड़ा काम है। 1984 में सिक्ख विरोधी उन्माद और कत्लेआम की पृष्टभूमि में लिखी गई ‘क्या तुमने सरदार भिखारी देखा है’ अविस्मरणीय कहानी है, जो एकसाथ पाठक को गहरी व्यथा और गुस्से से भर देती है। एक 70 वर्षीय वृद्ध सिक्ख पर जिस तरह से हमले किए जाते हैं और जिस क्रूरता के साथ उनकी पिटाई की जाती है, उसका वर्णन इतना प्रभावशाली है कि पाठक हमलावरों के प्रति नफरत से भर उठता है। और जिस खुद्दारी और आत्मस्वाभिमान के साथ वे सिक्ख बुजुर्ग इस शर्त के साथ महज चा-चू के लिए पैसे मांगते हैं कि बिलासपुर आने पर लौटा देंगे, वहां तक पहुँचते-पहुँचते पाठकों की आंखें नम हो जाती हैं। इस कहानी के आखिरी हिस्से से गुजरते वक्त मैं बेहद मर्माहत हो उठता हूं।
यह संयोग है कि शुरू में मैंने इन्हीं कहानियों को पढ़ा। फिर अपने सहपाठी और मित्र सुमन कुमार सिंह के साथ मैंने उनके संभावित पीएच.डी. के सिलसिले में एक साथ स्वयं प्रकाश की कई कहानियां पढ़ीं। लेकिन घोर परंपरावादी विभागाध्यक्ष की मूढ़ता और कूपमंडूकता की वजह से उनकी कहानियों पर शोध की इजाजत ही नहीं मिली। उस व्यक्ति ने धृष्टता के साथ कहा कि वह स्वयं प्रकाश को नहीं जानता।
हम यह समझ रहे थे कि वह जानना क्यों नहीं चाहता। खैर, नैनसी का धूड़ा, नीलकांत का सफर, अशोक और रेणु की असली कहानी, सूरज कब निकलेगा, अविनाश मोटू उर्फ एक आम आदमी, उस तरफ, आस्मां कैसे-कैसे, बर्डे, चीं घोड़ी, झक्की, तलबी, जो हो रहा है, इनका जमाना जैसी कहानियां पढ़ते हुए मैंने जाना कि किस तरह बिना दूर की कौड़ी लाए और सनसनीखेज प्रवृत्ति को अपनाए बगैर भी अविस्मरणीय कहानियां लिखी जा सकती हैं और किस तरह कहानियों के जरिए पाठकों से संवाद करते हुए उन्हें मानसिक रूप से बदलने की कोशिश की जा सकती है। वे प्रायः मध्यवर्गीय सुपरिचित परिवेश के विस्तार और वैविध्य को अपनी कहानियों में बहुत सहज तरीके से एक गहरी आलोचनात्मक दृष्टि के साथ पेश करते हैं।
आर्थिक, सामाजिक, पारिवारिक और राजनैतिक स्तर पर मौजूद विडंबनाओं और विसंगतियों को सामने लाते हुए वे अपने पाठक वर्ग की मानसिकता, समझ और चेतना को विकसित करने की कोशिश करते हैं।
समाज कैसा है या कैसा बन रहा है, उसके इंडिकेटर की तरह भी है स्वयं प्रकाश की कहानियां। सिर्फ सांप्रदायिकता के बढ़ते असर की ही वे शिनाख्त नहीं करतीं, बल्कि कई अन्य महत्वपूर्ण बदलावों को चिह्नित करते हुए वे पाठक को उसकी सही भूमिका में खड़ा करना चाहती हैं।
जिस दौर में मैं उनकी सारी कहानियों से गुजरा, वह दौर आर्थिक उदारीकरण, आक्रामक उपभोक्तावाद के कारण मध्यवर्ग की भीतर बढ़ती खतरनाक स्वार्थपरता का दौर था। हिंदी कहानी में सूचना क्रांति (जिसे मैं सूचना साम्राज्य कहता हूं) के कारण बदले हुए यथार्थ, स्त्री विमर्श और दलित विमर्श का जोर था। मुझे लग रहा था कि सूचना क्रांति, उपभोक्तावाद और बाजारवाद को हिंदी कहानी में मध्यवर्ग की अपरिहार्य विवशता की तरह ज्यादा पेश किया जा रहा है।
स्त्री विमर्श वाली कहानियों में स्त्रियों की देहमुक्ति की ज्यादा फिक्र नजर आ रही थी, जाति विमर्श वाली कहानियों में वर्ण व्यवस्था के समूल नाश की चेतना प्रायः गायब थी। ऐसे में मुझे स्वयं प्रकाश की कहानियां ज्यादा सकारात्मक लगीं। अशोक और रेणु की कहानी, एक खूबसूरत घर, तीसरी चिट्ठी, लड़कियां क्या बातें कर रही थीं, मंजू फालतू, बलि जैसी कहानियां स्त्री मुक्ति की ज्यादा ईमानदार संवेदना के साथ लिखी गई प्रतीत हुईं। किस तरह साहित्यकार और संस्कृतिकर्मियों की बिरादरी भी मध्यवर्गीय पतन का हिस्सेदार हो रहा है, इसे तो हमलोग खुद महसूस करते रहे हैं, कूढ़ते और गरियाते रहे हैं।
स्वयं प्रकाश ने चैथमल पुरस्कार और सुलझा हुआ आदमी जैसी कहानियों में हमारी इसी बेचैनी का तो बयान किया है। वे ऐसे कहानीकार हैं जो मिडिल क्लास की आंख खोलते हैं, जिंदगी की सार्थकता और सफलता से संबंधित उसकी धारणाओं से बहस करते हैं।
निरंतर धन और सुविधा की होड़ में मशीन बनते इस वर्ग को झकझोरते हुए वे उसकी संवेदना, उसके आदमीपन को जगाने की कोशिश करते हैं। उसे मजदूर वर्ग और गरीबों की परिवर्तनकारी ताकत और घोर विपरीत स्थितियों में भी जीवन की उनकी जिजीविषा से परिचित कराते हैं। उसे उस वर्ग के साथ जोड़ते हैं, क्योंकि उसी के जरिए व्यवस्था में बदलाव संभव है। नीलकांत का सफर, सूरज कब निकलेगा जैसी कहानियां इसी की बानगी हैं।
एक बड़ी खासियत है कि स्वयं प्रकाश समाज में कई स्तरों पर पसरती आत्महीनता से जूझते हैं और निरंतर खोते जा रहे आत्मस्वाभिमान को वापस लौटाते हैं। ‘उस तरफ’ कहानी में जैसलमेर के पिछडे़ इलाके भीषण आग से बारह बच्चों को बचाने वाले नखत सिंह के चरित्रा के जरिए वे सभ्यता और श्रेष्ठता की कसौटी पर ग्रामीणों को बड़ा सिद्ध करते हैं।
उसी तरह ‘संधान’ कहानी महानगरों की तुलना में कस्बाई शहर के लोगों की आत्महीनता को निरर्थक साबित करती है। छोटे कस्बाई शहरों में महानगरों की अपेक्षा और गरीब मेहनतकश लोगों में अभिजात और समद्ध लोगों की अपेक्षा गर्व करने लायक ढेर सारी चीजें होती हैं, इसे स्वयं प्रकाश बड़ी कुशलता से दिखाते हैं। कोई चाहे तो इसे यथास्थिति का स्वीकार कहकर आलोचना कर सकता है। लेकिन जिन्हें बदलाव की जरूरत होती है, उनके लिए भी यह स्वाभिमान ताकत का काम करता है।
जब साहित्य की नई पीढ़ी बेतहाशा दिल्ली की ओर भाग रही थी, उस वक्त सामाजिक-राजनीतिक आंदोलनों से जुड़ाव के अतिरिक्त इस तरह की कहानियों ने भी गांवों और कस्बों में जड़ें जमाए रखने में मदद की।
स्वयं प्रकाश की कहानियां एक शुभचिंतक दोस्त की तरह हमसे संवाद और बहस करती हैं। वे आकांक्षा की कहानियां हैं। इन आकांक्षाओं को जानना-समझना जरूरी है, क्योंकि ये एक नए समाज, सचमुच के लोकतांत्रिक समाज के निर्माण से जुड़ी आकांक्षाएं हैं।
(यह लेख बनास पत्रिका में पूर्व में प्रकाशित हुआ था।)
(सुधीर सुमन संस्कृतिकर्मी हैं और बिहार में प्राध्यापक हैं)