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टीवी की बहसों को तोड़-मरोड़ कर किसानों के खिलाफ़ ज़हर उगला जा रहा है

( यह लेख कृषि विशेषज्ञ देविन्दर शर्मा के ब्लाॅग से साभार लिया गया है। समकालीन जनमत के पाठकों के लिए इसे हिंदी में दिनेश अस्थाना ने प्रस्तुत किया है ) 

जब उच्चतम न्यायालयए उत्तरप्रदेश के लखीमपुर-खीरी कांड का स्वतः संज्ञान ले रहा था उसी समय एक और डरावना वीडियो क्लिप सामने आ गया जिसमें साफ-साफ देखा जा सकता है कि एक केन्द्रीय मंत्री के काफिले ने वापस लौट रहे प्रदर्शनकारी किसानों के हुजूम पर पीछे से गाड़ी चढ़ा दी जिसमें चार लोग मारे गये और अनेक घायल हो गये, और उसके बाद भड़की हिंसा में चार और लोगों की मृत्यु हो गयी।

इस वीभत्स कांड से जहाँ एक ओर पूरे देश में गुस्से की लहर फैल गयी, वहीं समाज के क्रूर चेहरे से नकाब भी हट गया, समाज के दबंग और शिक्षित (और मीडिया) लोग हरचंद कोशिश कर रहे हैं कि इस घटना का सारा दोष उन्हीं किसानों के सर मढ़ दिया जाय कि वे लोग आगे वाली गाड़ी के चालक के ऊपर पत्थर फेंक रहे थे, इसलिये गाड़ी का सन्तुलन डगमगा गया और उससे उनको धक्का लग गया। यदि ये वीडियो सामने न आये होते तो इस एकतरफा सोच को स्वीकार्यता अवश्य मिल जाती, अन्यथा कम से कम समाज में भ्रम तो फैल ही जाता। सच्चाई यह है कि जिस आसानी से इस प्रकार के आक्षेप किसानों पर लगाये जाते हैं उससे किसान-समाज के खिलाफ़ भेद-भाव, अपमान और कड़वाहट ही पैदा होती है जो आगे चलकर उन्हीं किसानों के खिलाफ़ स्थायी हो जाती है।

चाहे आप इसे शहरी और ग्रामीण आबादी का विभेद कह लीजिये या विशद रूप में कृषि आधारित समाज से लोगों के बढ़ते हुये अलगाव का प्रतिबिम्बन कह लीजिये, पर किसानों के प्रति उनमें कड़वाहट और रोष का एक दबा हुआ एहसास बहुत साफ नज़र आता है। उनसे किसी भी बातचीत के बीच में आप उन्हें जरा सा खँरोच दीजिये और फिर देखिये कि कैसे दबी हुयी यह कड़वाहट उछलकर सामने आ जाती है। किसानों को मुफ्तखोरी और सब्सिडी पर पलनेवाला एक सामाजिक बोझ माना जाता है। मुझसे अक्सर लोग यहाँ तक कह देते हैं कि किसान मध्यवर्ग के टैक्स पर जिन्दा रहते हैं और पूछ देते हैं कि ‘‘किसानों को शहरों में प्रदर्शन करने छूट किसने दे दी, वे यातायात में व्यवधान डालते हैं और लोगों के लिये परेशानी खड़ी करते हैं।

मेरे ट्वीट, जिनमें मैं किसानों की आत्महत्या पर जारी रिपोर्टों का जिक्र करता हूँ, के जवाब में ट्रोल सेना प्रायः प्रतिनिन्दा के स्तर तक उतर आती हैः ‘‘कुछ भी हो इन लोगों को मर ही जाना चाहिये। ये लोग समाज की गाद हैं।’’ मेरी तो जबान ही बन्द हो जाती है लेकिन उसी के साथ कड़वाहट और शत्रुता उभर कर सामने आ जाती है। नई दिल्ली की सीमा पर प्रदर्शनकारी किसानों का ही मामला ले लीजिये, उनके ऊपर गालियों की बौछार करने के अलावा किसान आन्दोलन को खालिस्तानियों, आतंकवादियों और राष्ट्रविरोधी तत्वों की कारगुजारी बताने की हरचन्द कोशिश की जा रही है। जैसे कि इतना ही काफी नहीं है, आप जितनी ज्यादे टीवी बहसें देखते हैं उतने ही ज्यादे हतोत्साहित होते हैं। अधिकांश एंकर और पैनलिस्ट, जिन्हें शायद गेहूँ और जौ के पौधे का फ़र्क़ न मालूम हो, वे हमें उन कृषि कानूनों के फ़ायदे गिनवा रहे हैं, जिनका किसान विरोध कर रहे हैं।

तो यह जो विद्वेष स्थायी हो गया है वह वर्तमान में जारी भयानक विभेदकारी विमर्श का ही परिणाम है। वास्तव में इसे बल उस आर्थिक प्रारूप से मिलता है जिसमें उद्योगों के हित में कृषि के बलिदान की अपेक्षा की जाती है। इसमें माना जाता है कि आर्थिक सुधारों को जारी रखने के लिये खाद्यान्नों की कीमत कम रखनी होगी ताकि ग्रामीण क्षेत्रों के लोग दिनों दिन प्रवासी होकर शहरों में जाते रहें और उद्योगों को सस्ते श्रमिक मिलते रहें। पिछले कम से कम चार दशकों से कृषि आय या तो स्थिर रही है या फिर कम हुयी है। इससे शहरी आबादी के लिये खाद्यान्नों की कीमत कम रही है और मुद्रास्फीति नियंत्रण में रही है।

नवीनतम सिचुएशनल सर्वे रिपोर्ट 2019 ने स्पष्ट दर्शा दिया है कि केवल कृषि उपज से आय 2013 के पिछले सर्वे के मुकाबले गिरी है। इससे एक किसान की औसत आमदनी की गणना रु0 27 प्रतिदिन आती है जो मेरे हिसाब से एक दुधारू गाय द्वारा अर्जित आमदनी से भी कम है। इसका प्रारम्भिक कारण यह है कि कृषि उत्पादों की कीमतें जानबूझकर कम रखी गयी हैं। मैंने प्रायः बताया है कि पिछले 45 सालों (1970 और 2015 के बीच) में गेहूँ की कीमत 19 गुना हुयी है जबकि सरकारी कर्मचारियों के वेतन और मँहगाई भत्ते में 120 से 150 गुना बढ़ोत्तरी हुयी है और उसी अवधि में काॅलेज और विश्वविद्यालय के प्रवक्ताआंे और प्राफेसरों के वेतन और मँहगाई भत्ते में 150 से 170 गुना बढ़ोत्तरी हुयी है।

आर्थिक सर्वे 2016 में बताया गया है कि इन्हीं कारणों से भारत के 17 राज्यों में, जो पूरे देश का लगभग आधा होता है, औसत आमदनी रु0 20,000 प्रतिवर्ष आती है। दूसरे शब्दों में आधे देश में कृषक परिवार की आमदनी रु0 1,700 प्रतिमाह से भी कम है। जब मैं किसानों की दयनीय स्थिति की बात करता हूँ तो, जैसा कि सबको पहले ही मालूम है, कोई हलचल नही होती। दिलचस्प यह है कि सरकारी अधिकारियों को लगभग रु0 20,000 प्रतिवर्ष केवल धुलाई भत्ते के नाम पर मिलते हैं। 11 लाख अराजपत्रित रेलवे कर्मचारियों में से प्रत्येक को इस साल रु0 17,171 बोनस के मिलेंगे जो मोटे तौर आधे देश के किसानों की सालाना आमदनी के समतुल्य है।

इसके बावजूद यह धारणा बनायी गयी है कि किसान बड़े आराम की जिन्दगी जी रहे हैं। उन्हें कोई टैक्स नहीं देना पड़ता। परन्तु वास्तविकता यह है कि अपनी छोटी सी आमदनी में ही किसानों को भी हर खरीद पर अप्रत्यक्ष कर देना ही पड़ता है। यहाँ तक कि जब कोई कृषि मजदूर भी यदि 30 रुपये जोड़ी की चप्पल खरीदता है तो उसमें जीएसटी की राशि शामिल होती है। और हमें यह नहीं भूलना चाहिये कि किसान को स्फीति के आधार पर कोई मँहगाई भत्ता नहीं मिलता। यहाँ तक कि सरकार द्वारा घोषित समर्थन मूल्य जारी मुद्रास्फीति की दर से कम ही रखी जाती है, इसका अर्थ यह है कि समर्थन मूल्य से किसान को उत्पादन का मूल्य भी नहीं मिल पाता। इसके अलावा दो दशक पहले गठित आर्थिक सहयोग एवं विकास संगठन (आर्गेनाइजेशन फाॅर इकोनाॅमिक कोआपरेशन एण्ड डेवलपमेन्ट) द्वारा घोषित प्रोड्यूसर सब्सिडी इक्वीवैलेंट दिये जाने पर भी भारतीय किसानों को इस पूरी अवधि में कोई फायदा तो नहीं अलबत्ता नुकसान ही हुआ है।

परन्तु जब कोई राज्य सरकार कृषि ऋणों को माफ करती है तो मीडिया पर जैसे पहाड़ ही टूट जाता है। माफ करनेवाले को निकाल बाहर करने के लिये ढेर सारे टीवी कार्यक्रम चलने लगते हैं। परन्तु क्या उससे कई गुने अधिक काॅरपोरेट के अशोध्य ऋणों को माफ करने पर भी कोई टीवी कार्यक्रम आपने देखा है? एक तरफ पिछले पाँच सालों में मोटे तौर पर 2 लाख करोड़ के कृषि-ऋण माफ किये गये हैं तो दूसरी तरफ पिछले आठ सालों में 10 लाख करोड़ से अधिक के काॅरपोरेट के अशोध्य ऋण माफ किये गये हैं। उस पर तुर्रा यह कि एक पूर्व मुख्य आर्थिक सलाहकार ने यहाँ तक कह दिया कि काॅरपोरेट के अशोध्य ऋण माफ किये जाने से आर्थिक विकास होता है।

किसानों के खिलाफ वैमनस्य के बीज इसी प्रकार जानबूझकर बोये जाते हैं। मध्यवर्ग के एक बड़े समूह में किसानों के प्रति तिरस्कार और नाराजगी गलत सूचनाओं और तथ्यों को तोड़ने मरोड़ने से आती है और यह काम नियमित तौर पर किया जा रहा है। इस प्रकार के झूठे प्रभाव को ठीक किया जाना जरूरी है। इसमें सरकार, विश्वविद्यालय, नागरिक समाज को अपनी भूमिका निभानी चाहिये। किसान समाज पर कोई बोझ नहीं हैं, बल्कि वास्तव में वही राष्ट्र के सहायक बनकर समाज का बोझ उठाते हैं।

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