समकालीन जनमत
कविताजनमतसाहित्य-संस्कृति

इस क्रूरता पर हम सिर्फ़ रोयेंगें नहीं: सविता सिंह

सविता सिंह 

आज कल मेरी सैद्धांतिक समझ इस बात को समझने में खर्च हो रही है कि किसी देश में छोटी बच्चियों के साथ इतना घिनौना और दर्दनाक बलात्कार क्यों हो रहा है ? क्या इसे सिर्फ़ बर्बर कृत्य कहकर समझ के स्तर पर हम इससे हाथ झाड़ सकते हैं – नहीं ! यह बात तो स्पष्ट है कि हिंसा में उत्तरोत्तर बढ़ोत्तरी हमें भूमण्डलीकृत दौर में उभरे हिंदुत्व की मनोवैज्ञानिक समझ हासिल करने को प्रेरित करती है, क्योंकि इस हिंसा के केंद्र में सभ्यता विरोधी क्रूरता है.

यह क्रूरता उन सभी के लिए है जो हिंदुत्व की अवधारणा से भिन्न धारणा रखते हैं, यानी कि यह क्रूरता ‘अन्य’ के प्रति घृणा से उपज रही है और इसलिए हिंदुत्व अपने आप में कभी सभ्य विचारधारा नहीं बन पायेगी, इसे लगातार कोई ‘अन्य’ चाहिए ही उससे घृणा करने के लिए, उसे हतने के लिए और इसके ज़रिये ही वह अपना अस्तित्व बनाये रख सकता है और अगर ज़रुरत पड़ी तो यह विचारधारा मासूमों के साथ बलात्कार को भी अपना हथियार बनाने से नहीं चूकेगी. इसे लगातार ‘अन्य’ की अवमानना, उसका रक्त चाहिए. यह हिन्दुत्ववाद की मौलिक मर्दवादी अवधारणा है.

आसिफ़ा के साथ आठ दिनों तक बर्बर बलात्कार और उसकी हत्या पर सोचते हुए ऐसा लग रहा है कि उदारवाद की जो अवधारणाएं हैं, जैसे नागरिकता , समानता , स्वतंत्रता , सहिष्णुता , इन मूल्यों को स्थापित करने का काम समाजवादी सोच के लोगों का ही होना चाहिए, इसे बुर्जुआ मूल्य कहकर इन्हें दरकिनार नहीं कर सकते. मेरा ख़याल है कि साम्यवादी विचारधारा को भी इन मूल्यों की बहुत ज़रुरत है। इस देश में हमें आपसी सहिष्णुता, जो एक उदारवादी मूल्य है , को बहुत ठीक से अपने भीतर उतारना ही पड़ेगा. जो ‘अन्य’ है वह सार्वभौमिक रूप से समान भी है. यह विचारधारा दूसरे को नष्ट होने से या नष्ट किये जाने से बचा सकती है.

जबसे हिंदुत्ववादी शक्तियाँ देश के राजनैतिक शीर्ष पर स्थापित हुई हैं प्रजातांत्रिक मूल्यों की एक द्रुत ढलान देखने को मिल रही है. इन मूल्यों का लोप इतनी जल्दी होगा यह कल्पना भी नहीं की जा सकती और इसलिए प्रजातांत्रिक मूल्यों के आधार पर इन हिन्दुत्ववादी शक्तियों को भारतीय प्रजातंत्र के सामुदायिक लोक में प्रवेश मिला. हम यह सोच रहे थे कि इन प्रतिगामी विचारधाराओं वाले लोगों को प्रजातांत्रिक मूल्य कुछ हद तक संवार देंगे और एक खिलाड़ी की तरह ये मैदान में सत्ता का खेल खेलेंगे लेकिन सत्ता पर एकाधिकार प्राप्त करने की इनकी मंशा की वजह से इन्होंनें फासीवादी ताकतों की तरह ही प्रजातांत्रिक मूल्यों को ही समाप्त करना शुरू कर दिया. यह एकाधिकार को प्राप्त करने की मंशा है जिसकी वजह से बाकी हर उस ‘अन्य’ का सफ़ाया क्रूरतम ढंग से किया जा रहा है. जो आसिफ़ा के साथ हुआ, जो उन्नाव में हुआ, जो गुजरात में हुआ और उसमें जो क्रूरता है उसकी गहन समझ इसी तरह प्राप्त की जा सकती है.

हम इन बच्चों के लिए सिर्फ़ रोयेंगें ही नहीं बल्कि अपने देश में उभर चुकी इन प्रतिगामी शक्तियों और समस्या को समझकर उनसे वैचारिक लड़ाई भी लड़ेंगें और भारत का एक नया इतिहास बनायेंगें

सविता सिंह की कविताएँ

1. ईश्वर और स्त्री

जागी हुई देह और आसमान एक दर्पण
देखता होगा ईश्वर भी स्त्री के हाहाकार को
बदलने के लिए होगा उत्सुक अपनी ही कल्पना को
कि बनाए नहीं उसने वे पुरुष अब तक
ले सकें जो उसे बाहों में

उनींदी आँखें बंद होने-होने को
खुलने के लिए तैयार मगर वे दरवाज़े
जिन्हें बचा रखा है अब तक रात ने
लहराता अन्धकार मिल जाने देता है
अपने तम में एक और तम को
सारी वासना को जैसे स्त्री हो

चंद्रमा खिला रहता है आसमान में रात भर
सिमटा एक कोने में सब कुछ देखता सोचता
बदलेगा यह संसार अब स्त्री की कामना से ही
ईश्वर की नहीं इसमें अब कोई भूमिका

2. शिल्पी ने कहा

मरने के बाद जागकर शिल्पी ने
अपने बलात्कारियों से कहा
‘तुम सबने सिर्फ़ मेरा शरीर नष्ट किया है
मुझे नहीं’
मैं जीवित रहूँगी सदा प्रेम करने वालों की यादों में
दुःख बनकर
पिता के कलेजे में प्रतिशोध बनकर
बहन के मन में डर की तरह
माँ की आँखों में आँसू होकर
आक्रोश बनकर
लाखों करोड़ों दूसरी लड़कियों के हौसलों में
वैसे भी नहीं बच सकता ज्यादा दिन बलात्कारी
हर जगह रोती कलपती स्त्रियाँ उठा रही हैं अस्त्र

3. सच कहीं चला गया

सब कहते हैं सच कहीं चला गया
अब तो झूठ ही बचा है
वही ले जा सकता है दूर तक
यह सच का ही आग्रह है-
सौंप दे हम ख़ुद को अँधेरों को
बचने बचाने के लिए कुछ भी नहीं बचा अब
जंगल और आत्मा दोनों ही खाली हो चुके हैं
मुक्ति अब मात्र एक संदिग्ध शब्द भर है
ताकत है असली मुद्दा

लेकिन सच कहाँ जा सकता है
अवश्य होगा वह यहीं कहीं टहलता
पीली पड़ी हमारी आत्मा की क्षीण छाँह में
ठिठका सोचता-
कहाँ से शुरू हो कहाँ पहुँच जाता है कोई रास्ता

4. दारुण अंत

नहीं आती रोशनी वहाँ
जहाँ जीने लगता है अंधकार
हम सबका जीवन

नहीं ठहरती क्षमा
पलट कर चल देती है निष्ठुरता की ओर
क्रूरता ही बन जाए जहाँ जीवन का पर्याय
नहीं होगी करुणा
लिए जा रहा है अदृश्य संस्कार हमें जहाँ
रुदन में मिश्रित पश्चाताप ही होगा
और दारुण अंत उस सपने का
जो है हमारा देश

5. सहमति

ख़ुशी-ख़ुशी चल रहा है सारा अत्याचार
अपने सर उतारकर पेश कर रहे हैं लोग ख़ुशी ख़ुशी

अब तो अपना ही जल्लाद है
जैसे है अपना नाई
वकील और डॉक्टर अपना एक
दर्ज़ी भी अपना एक
वैसे ही ख़रीदार है अब सबका अपना अपना
खरीदता है जो सब कुछ सारी देह सारा दिमाग
समूचा अंतःकरण
सारी सहमति

बेचते हुए कितना हल्कापन महसूस होता है
ख़रीदे जाते हुए कितना संतोष
यह तो बाज़ार ही जानता है अब
या बाज़ार में बिकती चीजें

6. संपत्ति यह पृथ्वी

यहां तो सब कुछ तुम्हारी संपत्ति है
पूरी पृथ्वी ही है निशाने पर तुम्हारे
तुम्हारी तृष्णा से कुछ भी बचा नहीं रहेगा एक दिन
सब कुछ पर होगा तुम्हारा आधिपत्य
छोटी से छोटी भावना पर निर्मम क्रूर दृष्टि तुम्हारी
जानवरों से लेकर मनुष्यों तक
सब पर अधिकार है वैसे भी तुम्हारा
तुम्हारे बच्चे तुम्हारी संपत्ति हैं
तुम उन्हें किसी और तरह से जानते भी नहीं
पत्नियों के स्वामी तो अनंतकाल से रहे हो तुम

मगर बच्चे इस धरती के होते हैं जैसे हम तुम स्वयं भी
प्रकृति जिन्हें सींचती है अपनी नम आँखों से
अपनी हवा से बनाती है जिनके मन
अपनी बारिशों से पैदा करती है वासना
इस जीवन के लिए
अपने हरे लाल पीली बैगनी अनगिनत दूसरे रंगों से
गढ़ती है उनके अपने रंग
और अब तो उसके पास एक दूसरी कल्पना भी है
तुम्हारे स्वामित्य से उबरने की
जैसे है अब स्त्री की भी एक अपनी कल्पना
जबरन प्रेम और मोह की गिरफ्त से
छूट कर इस संसार में जीने की
यहां सब कुछ तुम्हारी संपत्ति नहीं
कुछ इस तरह सोचकर देखो
कितनी आबाध दिखेगी तुम्हें अपनी ही स्वायत्तता

7. अपूर्ण समय

यह एक समय है
बीत जाने वाला
हो चाहे इसका रंग अभी कितना ही गाढ़ा
दहशत चाहे जितनी मारक
एक भीत ही है आखिर रेत की
भुरभुरा जाएगा
कितनी बौखलाहट में दौड़ रही है अभी से हवा
कि पीछे-पीछे चली आती है एक दूसरी कम बौखलाई नहीं
चीरती हुई बाहर का दृश्य
हमारी आँखों को जो ढापे हुए है

लोग शब्दहीन होते जा रहे हैं
हाथों से पकड़े अपनी चुप्पियां
बेटियां जो कल तक खेलती थीं अपने आंगनों दालानों में
पेड़ों की शाखाओं से लटकाई गयी है
हों जैसे कागज की गुड़िया
किसी दुःस्वप्न की कतरनें या कि
फटा हुआ उसका कोई हिस्सा

यह समय यूं ही नहीं रह सकता आखिर

उतारी जाएंगी ये बच्चियां हत्यारी इन शाखाओं से
चिन्हित किए जाएंगे हत्यारे
नहीं आज तो बाद आज के
हिसाब-किताब बराबर होगा

धूलभरी आंधी उठेगी कहीं से
अनगिनत उन आँखों को सचमुच पत्थर बनाती
जिन्होंने देखी ये हत्याएँ और चुप रहीं
सोचकर ये थीं दलितों की बेटियां

8. यह एक समय है

अपने समय से कुछ काम किया
अपने समय से कुछ काम हुआ
बाकी में बेचैनी भरी धूप रही
धूल और गर्द से भरी हुई
उस समय बहुत चाहकर भी
कुछ नहीं कर सकी
मेरी ही बलिष्ठ इच्छा
सच्ची आत्मा मेरी

यह एक समय है
जिसमें कुछ करना है
अन्यमनस्कता जहर है अभी
कायरता मृत्यु

कविता चुप हो भले
भटभटाती आंखों से ताकती
सामने की सड़क
जिस पर गाड़ियां दौड़ती हैं अब भी
बैठे हैं जिनमें सैनिक और सेनापति

यह एक समय है
बोलना जिसमें एक जोखिम भरा काम है
लिखना अपने हाथ काटने जैसा

 

(सविता सिंह इग्नू के स्त्री अध्ययन केंद्र में प्राध्यापिका हैं, समकालीन हिंदी विमर्श और कविता की प्रमुख हस्ताक्षर)

Related posts

1 comment

Comments are closed.

Fearlessly expressing peoples opinion