क्रान्तिकारी कवि व एक्टिविस्ट रामेश्वर प्रशान्त का निधन आज 6 जून को सुबह साढ़े दस बजे बेगूसराय के गढ़हरा में हो गया। काफी अरसे से वे बीमार थे। लकवाग्रस्त थे। धीरे धीरे उनका बोलना भी बन्द हो गया था।
सारी जिन्दगी वे कम्युनिस्ट क्रान्तिकारी की तरह इस शोषक व्यवस्था से लड़ते रहे। उनका संघर्ष समझौताहीन था। उन्हें टूटना और शहीद हो जाना स्वीकार था पर झुकना नहीं। उनका हमारे बीच होना उस मशाल की तरह था जिसने नक्सलबाड़ी किसान आंदोलन की लौ को राजनीति और साहित्य में जलाया, उसे ऊँचा उठाया और निरन्तर सक्रिय रहे।
अपने इस प्रिय व आदरणीय साथी के निधन पर हम अपना सलाम पेश करते हैं, लाल सलाम !
वे कामरेड के साथ मेरे राजनीतिक और साहित्यिक गुरू भी थे। उनका व्यक्तित्व क्रान्तिकारी राजनीति और साहित्य से मिलकर बना था, ‘द्वाभा’ लिए। जब हिन्दी में अकविता व अकहानी का दौर था और साहित्य में राजनीति से परहेज की प्रवृति हावी थी, उन दिनों प्रशान्त जी ने गढ़हरा से लघु पत्रिका ‘द्वाभा’ निकाली थी।
रामेश्वर प्रशान्त का जन्म 2 जनवरी 1940 को आज के बेगूसराय जिले के सेमरिया घाट में हुआ। यह साहित्य और राजनीति की उर्वर भूमि थी। उन्होंने काव्य सृजन 1960 के दशक में शुरू किया। प़त्र-पत्रिकाओं में उनकी रचनाएं छपती रहीं। जीवन के अन्तिम दिनों तक वे समाज को बदलने की लड़ाई में शामिल रहे।
आंदोलनों के योद्धा के साथ वे कलम के योद्धा भी थे। हम जैसे बहुतों को बनाने में उनकी भूमिका थी। इस व्यवस्था की नजर में वे नौजवानों को बिगाड़ने वाले माने जाते थे। ऐस बिगाड़ने वाले लोगों की हमेशा जरूरत है क्योंकि इस रास्ते से ही क्रान्ति के सिपाही तैयार किये जा सकते थे।
उनके साथ मैंने मुंगेर, जमालपुर, सुल्तानगंज की साहित्यिक यात्राएं कीं। 1972 में जब बलिया से ‘युवालेखन’ कां प्रकाशन शुरू हुआ। वे उसके प्रधान संपादक थे। उस अंक का संपादकीय मैंने जरूर लिखा लेकिन उसे धारदार बनाया था रामेश्वर प्रशान्त जी ने। ऐसी बहुत सी यादें हैं।
रामेश्वर प्रशान्त का पहला काव्य संकलन पाच दशक की लम्बी काव्य यात्रा तथा 75 की उम्र पार कर जाने के बाद आ पाया। यह संग्रह है ‘सदी का सूर्यास्त’। इसके दो खण्ड है। पहले खण्ड में 60 कविताएं हैं, वहीं दूसरे में गीत, गजल और मुक्तक हैं। मुक्तिबोध कविता के बारे में कहते हैं ‘नहीं होती खत्म/कविता कभी खत्म नहीं होती/वह आवेग त्वरित कालयात्री/परम स्वाधीन विश्व शास्त्री/गहन गंभीर छाया आगमष्यित की/लिए वह जन चरित्री’।
रामेश्वर प्रशान्त की काव्यभूमि कविता की इसी अवधारणा से निर्मित हुई है। ‘मेरी कविता’ में वे स्पष्ट कर देते हैं कि उसकी सृजन प्रक्रिया क्या है तथा इसके पीछे कवि का उद्देश्य क्या है। कवि की नजर में सृजन स्वतःस्फूर्त से ज्यादा सचेतन क्रिया है। समाज, समय और जीवन का कोई प्रसंग, घटना या विचार अपने आप में कविता का कारण नहीं बनता। वह जब मन-मस्तिष्क में गहरे उतरता है, भाव व संवेदना की आंच में पकता है तब जाकर वह कविता के रूप में बाहर आता है। वे कहते हैं: ‘पाक चढ़े धागे की तरह/जब कोई बात पक जाती है/तब कविता जन्म लेती है’।
रामेश्वर प्रशान्त अपनी कविता के माध्यम से जो प्रतिष्ठित करते हैं, वह आलोचनात्मक यथार्थवाद है। वे मौजूदा व्यवस्था की सुसंगत आलोचना विकसित करते हैं। कविता में उनका विश्व दृष्टिकोण सामने आता है। श्रमिक वर्ग के शोषण उत्पीड़न के लिए वे विश्व साम्राज्यवादी व्यवस्था को जिम्मेदार मानते हैं जिसकी लूट की चपेट में न सिर्फ भारत है बल्कि तीसरी दुनिया के तमाम देश हैं।
इस व्यवस्था की क्रूरता है कि वह दुनिया के मशहूर कवि पाब्लो नेरुदा की हत्या करने से भी नहीं हिचकता। जब समाज वर्गों में बंटा हो और उनके स्वार्थ आपस में टकरा रहे हों, ऐसे में कवि तटस्थ नहीं रह सकता। उसे अपना पक्ष स्पष्ट करना होता है कि वह किसके साथ खड़ा है और किसके प्रतिपक्ष में। कविता भी इतिहास बदलने के जंग में शामिल हो सकती है। कवि का काम अपने सृजन को इस जंग का औजार बना देने का होना चाहिए। राजदरबार या सत्ता का चारण न होकर मजदूरों और किसानो का उसे चारण बन जाना चाहिए। उस वर्ग की मुक्ति के लिए अपने सृजन को लगा देना चाहिए जो हाशिए पर ढ़केल दिए गए हैं, देश में रहते हुए यहां से विस्थापित हैं। रामेश्वर प्रशान्त कविता के अपने मकसद को यूं बयां करते हैं:
मेरी कविता/जो इतिहास बदलने की मशीन का
एक पुर्जा बन जाना चाहती है……
कई-कई बार/लाल भट्ठियों में पकती है
खेतों में खटने वाले किसानों के पास दौड़ती है
आधा पेट खाकर/काम करने वाले मजदूरों से बतियाती है
और उनका चारण बन जाना चाहती है
जिनकी अपनी धरती नहीं
कोई घर नहीं/कोई देश नहीं/अपना कोई भविष्य नहीं
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