समकालीन जनमत
कविता

वंदना पराशर की कविताएँ शब्द एवं संवाद बचाने की कोशिश हैं

वंदना मिश्रा


समकालीन कविता में अपना स्थान सुरक्षित कर चुकी ‘वंदना पाराशर’ की कविताएँ किसी परिचय की मोहताज नहीं. वंदना उन लोगों में से हैं जिन्हें चिड़िया, रिश्ते, गाँव, देश के साथ-साथ गायब होते कोमल शब्दों की भी चिंता है। भयावह समय और खौफ़नाक खेल को रेखांकित करती हैं उनकी कविताएँ। उनकी ‘गायब हो जाना ‘कविता इसका प्रमाण है ।

मनुष्य परिस्थितियों का दास होता है, यह केवल बयान बाज़ी नहीं । असमय बड़े हुए बच्चों के लिए कुछ भी अनजाना नहीं। रोटी सब की आवश्यकता होती है पर रोटी तलाशते हुए, कमाते हुए छोटे बच्चे ‘रोटी’ को ही अपनी पूरी दुनिया मानते हैं। ‘परिस्थितियाँ’ कविता इस सत्य को रेखांकित करती है। यूँ ही तुलसीदास ने’ पेट की आग को बड़वाग्नि’ से बड़ा नहीं माना था। सौंदर्य के बड़े-बड़े प्रतिमान न स्थापित करते हुए वंदना ‘चूल्हे की आग’ को खूबसूरत मानती हैं, जो लोगों के चेहरे को खिला दें ,यहाँ अनायास बाबा नागार्जुन याद आते हैं ‘अकाल और उसके बाद ‘कविता के साथ जिसमें अनाज का दाना आने से, चूल्हे से धुआँ उठने से घर भर की आँखें चमक उठती है।

स्त्री के जीवन में विस्थापन लिखा होता है, वह भटकती रहती है घर की तलाश में. वह मकान को घर बनाती है लेकिन उसका कोई अपना घर नहीं होता, न मायका न ससुराल ‘अपना घर’ कविता इसी दर्द को दर्शाती है। ये दर्द केवल स्त्री का नहीं जड़ से कटे उस मज़दूर का भी है जो शहर में गगनचुंबी इमारतें बनाने के बावज़ूद अपने लिए ठिकाना नहीं ढूंढ़ पाता, वे न गाँव के रह जाते हैं न शहर के. नमक की तरह घुल जाते हैं पर उन्हें तिरस्कृत ही किया जाता है। “खाराजल समझ कर शहर ने, इसे हमेशा दरकिनार किया”. सुखद है कि उनके यहाँ स्त्रियाँ केवल कोमलांगी नहीं, सिंहनी हैं, साज़िशों को जानती हैं, जिसमें स्त्री को पत्थर की देवी बना दिया जाता है। लिहाज़ा वे उनकी मुक्ति के भी सपनें देखती हैं । “बंजर धरती की कोख से जो उगा लेती है फूल ”

स्त्री सहारा देती है, पुरुष उसे अपना हक़ समझकर लेता है। उसकी क़द्र नहीं करता। ‘औरत’ कविता के पिता, पितृसत्ता और प्रेम के बीच उलझे हैं और बच्चे माँ से ही प्रेम, करूणा और आधार पाते हैं – “पिता उतने भी निष्ठुर नहीं थे, जितना ‘पितृसत्ता’ ने ढाल दिया है उन्हे”

‘गृहणी की कविता’ में भी माँ है जो कविता लिखने के बीच घरेलू कार्य करती है, या कहें कि घरेलू काम के बीच कविता लिखती है, सृजन बाधित होता है पर प्रसन्न बच्चों की आँखों में ही वो कविता तलाश लेती है। उनके यहाँ कविता को वायवीय दुनिया की चीज़ नहीं बल्कि यथार्थ की ठोस ज़मीन पर रखा गया है। ‘चाक’ कविता स्त्री के मनमाने रूप गढ़ने वालों पर तंज़ और स्त्री की विवशता को दर्शाती है। गढ़ने वाले बिना मुँह, कान की गाय की तरह भोली और बेबस स्त्री चाहते हैं, जो बस देखे, कुछ समझे नहीं – “होती हैं तो गाय सी बड़ी-बड़ी आँखें”
किसी अन्य कवि ने लिखा है “अनवरत प्रेम के लिए चाहिए, गाय की तरह थोड़ा सा ख़ाली दिमाग़।”
स्त्री की बात कहते हुए, वंदना एक बड़े फ़लक से भी जुड़ती हैं, जहाँ मज़दूर, बच्चे, पिता सभी की बातें समाहित हो जाती हैं। मोबाईल और कम्प्यूटर में डूबे समाज में ‘चुप्पियाँ ‘ आत्मा को खोखला कर रही हैं ऐसे में शब्दों और संवाद को बचाने की कोशिश करती हैं वंदना जी की कविताएँ। ‘समकालीन जनमत ‘के पाठकों के लिए इन कविताओं को प्रस्तुत करने में गर्व है मुझे ।

 

 

वंदना पाराशर’ की कविताएँ

1. गायब हो जाना

गायब हो जाना
एक पूरी प्रक्रिया है
जो दहशत पैदा करती है
यह अचानक नहीं होता
मानचित्र से
कई देश गायब हो गए
शहर से, गांव से
कई लोग गायब हो गए
आंगन से
कई चिड़िया गायब हो गई
अब बुलाने पर भी
कभी नहीं आती
ठीक उसी तरह
जैसे,
वाक्यों के बीच से
शब्द गायब हो रहे हैं
लाइब्रेरी में धूल फांकते
शब्दकोश में भी
कई बार उन शब्दों को ढूंढा
अफसोस,
कहीं नज़र नहीं आया
शायद दीमक ने उसे चाट लिया
जुब़ान भी अब
उन शब्दों का उच्चारण
भूलने लगी है
यह गायब हो जाना
बहुत ही खौफनाक खेल है
जो दहशत पैदा करता है।

 

2. चूल्हे की आग

आग हँसी
बच्चे हँसे
बूढ़े हँसे
घूंघट की ओट में
श्यामा हँसी
देखो!
सबके चेहरे
हैं कितने
खिले- खिले।

 

3.अपना घर

स्त्री
भटकती है
जन्म से मृत्यु तक
खोजती हुई
एक घर
पिता से
भाई,
पति से
पुत्र तक
ढूँढ़ती हुई/अपना घर।

 

4.चाक

स्त्री
गीली मिट्टी की तरह होती है
कई बार
कई रूपों में
वह ढलती है
चाक पर
उसका आकार कभी
स्थायी नहीं होता
वह बदलती रहती है
समय के हिसाब से
कई धूप खाई
वह पकती है आग में
आग में तपकर निकली हुई मूर्तियों में
कुछ के कान
कुछ के मुँह,
नहीं होते हैं
होती हैं तो
गाय-सी बड़ी-बड़ी आँखें
जो झाँकती है
कुम्हार की आँखों में।

 

5. औरत

माँ की आंखें नम थीं
पिता ने एक बार फिर से
माँ को औरत होने का एहसास करवाया है
पिता
जिनके कमज़ोर शरीर का भार
टिका है माँ के कंधे पर
फिर भी पिता,
पिता है
और माँ…
पिता उतने भी निष्ठुर नहीं थे
जितना कि पितृसत्ता ने ढाल दिया है उन्हें
उन्हें प्यार था माँ से
वे चूमते थे माँ को
उसके माथे को छूते थे
जब वह ज्वर से पीड़ित होती
ख़्याल था उन्हें माँ के जने का भी
फिर भी पिता
पिता थे
मैंने हमेशा ही माँ का आँचल ढूंढा
जहाँ अथाह प्रेम और करुणा थी
निस्वार्थ, निश्चल और
अहम से कोसों दूर।

 

6. देहरी के उस पार

चाक-चौबंद स्त्रियां
लांघ गई है देहरी
पसर गई है
उन तमाम दिशाओं व भू -भागों में
जहां वर्जित है,
केवल स्त्रियों का जाना
कठकरेज स्त्रियां अब
भयभीत नहीं होती है
धर्म के ठेकेदारों से
उन शास्त्र-निर्माताओं से
जो धर्म की व्याख्या
मनुष्य की जाति व लिंग देखकर करते हैं
सावधान! प्रहरी
इसे मत रोको
कर लेने दो प्रवेश
उन तमाम दिशाओं व भू-खंडों में
जहां वर्जित है
स्त्रियों का जाना
इसे केवल मृगनयनी,कोमलांगी समझने की
भूल मत करना
सिंहनी है ये
बंजर धरती की कोख से
जो उगा लेती है फूल
इसे मत रोको, प्रहरी!
मंदिर के द्वार से
लौटाई गई स्त्रियां
अट्टहास कर पूछती हैं
मंदिर के गर्भगृह में
पाषाण होकर पूजित
उस स्त्री से की बतलाओ वह उपाय
जो पत्थर में ढालकर
तुम्हें देवी बना दिया है
बतलाओ की
कब तोड़ोगी यह कारा
और स्वतंत्र होकर
प्रवेश करोगी उन तमाम
दिशाओं व भू -भागों में
जहां वर्जित है
केवल स्त्रियों का जाना।

 

7. उखड़े हुए लोग

शहर को शहर बनाते हैं
गांव से उखड़े हुए
कुछ लोग
जिसकी न ज़मीं अपनी होती
न आसमान अपना होता
आधी रोटी खाते
और आधी ही उम्र जीते
ये लोग
उग आते हैं शहर में
कुकुरमुत्ते की तरह
गगनचुंबी इमारतें बनाते
सजाते- संवारते
शहर को शहर बनाते
ये लोग
अपना ठौर तलाशते
भटकते रहते हैं
खानाबदोश की तरह
शहर की तंग गलियों में
नमक की तरह
घुल जाने की इनकी आदत
शहर की हवा संग
घुल जाना चाहती है
किंतु,खाराजल समझकर
शहर ने हमेशा ही
इसे दरकिनार किया
गांव की गंध में लिपटा हुआ तन- मन
न कभी शहर का हो सका
और न ही गांव का
‘गंवार’ का तमगा लटकाए
डोलते रहते हैं
शहर की तंग गलियों में
रोटी की तलाश में।

 

8. गृहणी की कविता

हाथ में कलम लेकर
कविता लिखने बैठी ही थी
कि तभी
याद आ जाती है कि
चूल्हा पर अदहन चढ़ाकर भूल आई हूं।
चावल धोकर डाल आई और एक बार फिर से
कलम पकड़ लेती हूं कि तभी
तेज़ आवाज़ आई
भात के खदबदाने की
उठकर मांड़ पसा आई
सोचा,अब लिख लूंगी कि तभी
मांड़ की खुशबू को सूंघते हुए
बढ गई थी भूख, बच्चों की
बच्चे खाते हुए मुस्कुरा रहे थे
उधर कविता रुठकर मुझसे
दूर जा खड़ी हुई
मैंने झांककर देखा
बच्चों की आंखों में
कविता वहीं थीं
बच्चों की पुतलियों संग
आंख-मिचौली खेल रही थी ।

 

9. परिस्थितियाँ

परिस्थितियाँ
हर वो बात सिखा देती हैं
जिसे उम्र नहीं सिखा पाती है
भूख
कभी उम्र नहीं देखती है
वह, बचपन में ही उम्रदराज बना देती है
वह सब सिखा देती है
जो हमें रोटी दे सके।

सबने कहा –
अभी तुम्हारी उम्र
बहुत कम है
दुनिया को समझने के लिए
सुनकर वह मुस्कुराया
और कहा-
दुनिया मेरे लिए
सिर्फ एक रोटी है
जो मेरी ज़रूरत भी है
और ज़िंदगी भी।

 

10. चुप्पियाँ

चुप्पियाँ बहुत तेजी से पसरती जा रही हैं
खतरनाक है इस तरह से
चुप्पियों का पसरना
लोगों के बीच अब
संवाद बहुत कम बचा है
चुप्पियाँ अधिक
चुप्पियाँ गतिशील हैं
संवाद अदायगी की भाषा बनती जा रही हैं ये चुप्पियां
लोग चुप रहकर ही बहुत कुछ कह जाते हैं,कर जाते हैं
आजकल मोबाइल और कंप्यूटर पर भी
लोग अपनी बातें जोर-शोर से करते हैं
और उनकी ज़बान बंद रहती हैं
धीमा जहर की तरह चुप्पियाँ पसरती जा रही हैं
चुप्पियाँ वहाँ भी पसर गई हैं
जहाँ बोलना ज़रूरी था
क्या एक दिन
सबके सब गूंगे और बहरे हो जाएंगे?
दीमक की तरह
अंदर ही अंदर
आत्मा को खाये जा रही हैं ये चुप्पियां
पहले लोगों की ज़बान को मारती हैं
फिर आत्मा को ।


 

कवयित्री वंदना पराशर, जन्म – 10 मार्च, सहरसा, बिहार
शिक्षा – एम.ए ,नेट, पी.एच.डी( अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी)। कई पत्र – पत्रिकाओं,  वेबसाइट पर तथा कई साझा काव्य – संग्रह में कविताएँ प्रकाशित।
वर्तमान पता – A-203 , ग्रीन पार्क अपार्टमेंट
देवी नगला, क्वार्सी बाईपास रोड
अलीगढ़(202001) उत्तरप्रदेश।

सम्पर्क: vandanaamu84@gmail.com

 

टिप्पणीकार कवयित्री वंदना मिश्रा का जन्म 15 अगस्त जौनपुर उत्तरप्रदेश में हुआ। एम.ए., बी.एड. और पीएचडी के बाद फिलहाल ये G. D. बिनानी पी. जी. कॉलेज, मिर्ज़ापुर के हिंदी विभाग में प्रोफ़ेसर हैं। 

कविता संग्रह –

1.कुछ सुनती ही नहीं लड़की
2. कितना जानती है स्त्री अपने बारे में
3.खिड़की जितनी जगह

गद्य साहित्य – 1. सिद्ध नाथ साहित्य की अभिव्यंजना शैली पर संत साहित्य का प्रभाव
2. महादेवी वर्मा का काव्य और बिम्ब शिल्प
3.समकालीन लेखन और आलोचना

कई प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में कविताएँ प्रकाशित हो चुकी हैं।

सम्पर्क: vandnamkk@rediffmail.com

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