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सुषमा की कविताएँ प्रेम के विविध शेड्स को उभारती हैं

रत्नेश विश्वकसेन


सुषमा गुप्ता की कविताएँ जिन्हें वह क्षणिकाएँ कहती हैं अनुभूतियों की कौंध है जिसे ठीक ठीक पकड़ कर अभिव्यक्त करने में सुषमा सफल नजर आती है।

प्रेम जीवन के लिए इसलिए साहित्य के लिए भी सबसे जरखेज उपजीव्य हमेशा से रहा है।कुल पच्चीस क्षणिकाओं में बीस-इक्कीस क्षणिकाओं में प्रेम की केन्द्रीयता है।

स्त्री के हवाले प्रेम को देखना- पढ़ना एक ऐसी यात्रा की ओर बढ़ना है जहां कई बार आप गए तो होते हैं पर शायद उस तरह नहीं जिस तरह आपको जाना चाहिए। रिश्तों को इस तरह लिखना कि ‘उसके तापमान अजीब होते हैं क्योंकि वे जितने ठंढे होते हैं दिल को उतना ही जलाते हैं’ अब यह रिश्तों और संबंधों के भीतर जम रही बर्फ से, उपेक्षा से जलते मन का चित्रण पाठक को सहज ढंग से अपनी जद में ले लेता है।

किसी की याद आने पर उसे आवाज देना लाजिमी है पर सुषमा जब कहती है कि उससे ज्यादा सुंदर यह कहना होगा कि तुम्हारी याद आती रहे इसलिए तुम्हें आवाज न दी तो यह उनकी अनुभूति को ही नहीं बल्कि अभिव्यक्ति को भी व्यापक बनाता है।

वह मानती हैं कि प्रेम की भी मृत्यु निश्चित है लेकिन अगर किसी भी फंदे से तंग रखने से बचा पाए तो कम से कम यह होगा कि प्रेम की अकाल मृत्यु नहीं होगी।अब इस तरह की कविता आपके सामने आती है तो आपको थोड़ा ठहरना पड़ता है या यों कहें कि ठहर जाने का आमंत्रण देती हैं ऐसी पंक्तियां।

प्रेम का रंग इसलिए लाल होता कि उसके सभी जख्म सदा के लिए दुखते नील छोड़ जाते हैं जैसे पर्यवेक्षण सुषमा की कविताओं को वृहत्तर बनाते हैं। प्रेम के कई रंग सुषमा की क्षणिकाओं में दिखते हैं, मसलन मोहब्बत के धोखे कितने नाखुदा बनाएंगे जो एतबार की बात पर मोहब्बत की उधारी तक जा पहुंचते हैं या भूखी आंखों और भूखे पेट द्वारा एक दूसरे को खा जाने वाली जरूरतें जो मोहब्बत में डिमांड और सप्लाई के रूल की तसदीक करती है या शक की ऐनक से प्रेम को नही देखा जा सकता या फिर प्रेम में अलविदा के समय खुश रहना,सदा मुस्कुराना,बस यही मेरी दुआ है तुम्हारे लिए जैसे छल के सिक्के को नेग में देने का चलन का अब भी न बदलना या प्रेम में पड़े इंसान का कुछ भी हो जाना पर होश में रह कर प्रेम पर कहानी लिखने के लिए बचे रह जाना उसके प्रेमिल अस्तित्व को अपदस्थ करता हो।

ये अनुभव से उपजे न भी हो तो आज के दौर में इसकी इस तरह की किसी भी याचित या अयाचित स्थिति से इनकार नहीं किया जा सकता। मोहब्बत में प्रतिबिंब से मोह की कीमत देह भर है जैसी पंक्ति इसलिए चुभती है कि उसका खुरदरापन अनावृत होकर आपके सामने आ खड़ा होता है।

कहीं प्रेम को नाखून भर होने की भावना भी नजर आती है जिसमें उसके काट-काट बढ़ने और फूंक-फूंक बचने की कामना है । छोटी छोटी खिड़कियों से झांकता है प्रेम, उसे अंदर की तरफ खुलने वाले दरवाजे, कभी रास न आए जैसी आकांक्षा भी है लेकिन प्रेम के निचोड़ के रूप में सुषमा ने जो प्रेम के स्थायी सत्य को अभिव्यक्त किया है वह अद्भुत है-

तुम प्रेम करना तो समझना इस अंतर को,
प्रेम दुख से भरे मन के लिए रोने भर का कंधा नहीं होता।
तुम प्रेम करना तो समझना इस अंतर को।
प्रेम,एक दुख से भागने के लिए दूजा दुख चुन लेना भी नहीं होता।—-

प्रेम विकल्प नहीं है यह बात समझना बहुत मुश्किल है पर सच है। किसी अभाव का विकल्प तो वह एकदम नही है और अगर हम ऐसा मानते हैं तो यह मुगालता है। प्रेम सहज वही होगा जिसमें किसी अभाव की पूर्ति या किसी विकल्प के खोज की विकलता नहीं होगी क्योंकि तब हर अभाव एक नए विकल्प की तलाश में भटकता रहेगा।सुषमा जब प्रेम पर लिखती हैं तो ऐसी पंक्तियों के माध्यम से कविता के रचनात्मक फलक को विस्तार और ऊंचाई दोनों देती है।

इसके अलावा लिखी क्षणिकाओं में भी उनके विषय विवेक की गहराई का परिचय मिलता है। गृहस्थ जीवन की एक झांकी जिसमें आदमी खूंटी पर थकान टांगता है और भूख को बिस्तर पर रखता है तथा औरत सुबह उगने तक भूख को बुहार कर उदासियों को वापस अपने जुड़े में लपेट लेती है फिर सिर्फ कविता भर नहीं रह जाती बल्कि जीवन के ठोस सच से मिलवाती है।यादों को लेकर दो बिम्ब हैं, एक में ‘याद को सरकारी दफ्तर की अर्जी सा होना चाहिए जहन और मन पर बोझ डाले बिना,मैं रद्द कर देती तुम्हें याद करना’ तो दूसरे में ‘उदास रातों में गूंजती है झींगुर की पैनी आवाज,इस संगीत पर यादों का नृत्य बड़ा उत्तेजक है’ इन पंक्तियों के माध्यम से भी सुषमा के काव्य बोध का पता मिलता है।

बचपन जिस तरह अनुर्वर हो रहा है, एकल परिवार में में तो उसकी स्थिति लगभग जड़ है उसे जानने समझने में यह क्षणिका कि ‘खुशी की गोलियां बाँटनेवाला काबुलीवाला अब मर चुका है,उदास देश के बच्चों तुम अब हथेली पर पाल लेना मन’ मदद करती है।

इस दौर में हम बेहद अकेले हैं इसलिए क्षण भर भी जी लेने की चुनौती खड़ी है।असामयिक और अकाल होने का खतरा बढ़ता ही जा रहा है तो क्षणिकाओं का इस तरह महत्वपूर्ण होना भी समझ में आता है। सुषमा को पढ़ने पर इस बात का आश्वासन मिलता है कि फिर भी इतनी फांकों और खतरों के बावजूद जीवन से लगाव कम नहीं होगा , छल ,फ़रेब ,झूठ और संदेह के दौर में भी प्रेम की अनिवार्यता बनी रहेगी।

कविताओं का शिल्प गद्यात्मकता के हवाले है इसलिए उसे संप्रेषणशील बनाये रखना चुनौती है और वह इस बात की है कि वर्णन को बिम्ब में कैसे बदलें। यह कविता की लोकप्रियता और बेशक उसकी सम्प्रेषणशीलता की चुनौती का दौर भी है। यह इसलिए भी बड़ी दिखती है कि हिंदी कविता का वर्तमान दौर अपनी व्यापक स्वीकृति नहीं बना पा रहा है।

छोटी कविताएं या क्षणिकाएं इस चुनौती से निबटने में ज्यादा कारगर है।स्मृति के स्तर पर भी वह आपके साथ देर तक रह सकती हैं।सुषमा को उनकी क्षणिकाओं के लिए बधाई लेकिन इसके साथ ही उन्हें इस बात का ध्यान रखना होगा कि हर वक्तव्य को कविता में बदलने की हड़बड़ी नहीं हो क्योंकि अपने तमाम आकर्षण के बावजूद वक्तव्य स्थायी नहीं होते। बिम्ब को लेकर उनकी समझ और उसका प्रयोग दोनों बेहतर है अर्थात उनका पर्यवेक्षण अद्भुत है ।यह उनकी उज्ज्वल संभावना है जिसे उन्हें और मजबूत करने की जरूरत है।

 

 सुषमा गुप्ता की क्षणिकाएँ(कविताएँ)
 1.
रिश्तों के तापमान अजीब होते हैं।
जितने ठंडे हो उतना दिल जला देते हैं
2.
यूँ तो मैं कह सकती थी तुम्हारी याद आई, इसलिए तुम्हें आवाज़ दी..
फिर मुझे लगा -कभी हम मिले तो यह कहना ज़्यादा सुंदर होगा …
तुम्हारी याद आती रहे इसलिए तुम्हें आवाज़ न दी।
3.
मैं देह के दरिया में डूब भी सकता था ,पर फिर मैंने चुना वह तट
जहाँ बच्चे सामाजिक कहलाने के लिए पैदा कर, नाव की तरह उपयोग किए जाते हैं।
4.
वह नियोन लाइट में खड़ी थी ।
वह औसत खूबसूरत थी और उसका टैग प्राइज़ भी बहुत हाई था ।
मैं चुपचाप घर आ गया ।
वह घर की उजली एल ई डी में नहाई थी। वह ‘अब’ खूबसूरत भी नहीं थी
और उस पर महँगा टैग भी नहीं था।
मेरी जेब में रखा बटुआ मुस्कुरा उठा।
5.
रात ढले आदमी ने टाँगी खूँटी पर थकान और भूख को रखा  बिस्तर पर।
औरत ने सुबह उगने तक बुहार दी भूख और उदासियों को लपेट लिया वापिस जूड़े में।
वह दोनों ‘सब ठीक है’ के आवरण में आश्वस्त हैं।
6.
जिसने मन रखना चाहा
उसके पास मेरे मन की कोई बात नहीं थी।
जिससे चाहा कि वह बात करे मन की ,उसके पास मेरे लिए मन नहीं था।
मन का इतना सोचना जानेमन
दरअसल मनहूसियत के सिवा और कुछ भी नहीं ।
7.
ज़िन्दगी के पाठ पढ़ते-पढ़ते अक्सर,
किताबों से रटे उसूलों पर पकड़ ढीली पड़ जाती है ।
8.
प्रेम की मृत्यु निश्चित है ।
पर तुम मोहब्बत के फंदे तंग रखने से बचना , प्रेम अकाल मृत्यु नहीं मरेगा ।
9.
तन पर चोट, लाल‌ से नीली पड़‌ जाती और
मन पर चोट?
मोहब्बत का रंग इसलिए भी लाल है कि उसके सब ज़ख्म सदा के लिए‌ दुखते नील छोड़ जाते।
10.
मैंने यूँ ही खेल-खेल में उछाल दिया कंकड़।
सोचा..
उन छोटे मोहक गड्ढों में बारिश का पानी भरा है और …
उसकी डबडबाती आँख से ढुलक गया आँसू ।
11.
जो पैर तले चींटी तक के दब न जाने की एतिहात रखता था
आज बेहयाई से दिल रौंद देता है कदमों में।
यह मोहब्बतों के धोखे कितने नाखुदा बनाएँगे !?
12.
एतबार की बात पर मोहब्बत की उधारी है ।
एक जन्म में कुछ ज़िन्दगियाँ हमने ऐसे भी गुज़ारी हैं।
13.
आदमी का पेट भरा था और आँखें भूखी थी।
औरत की आँखों में पानी था और पेट भूख से चिपक रहा था ।
उन दोनों ने एक दूसरे को खा लिया।
तो तुम्हें किसने कहा..
कि मोहब्बत में डिमांड एंड सप्लाई के रूल नहीं चलते!!
14.
शक की ऐनक से नहीं दिखाई देता प्रेम…
प्रेम की ऐनक नहीं देखने‌ देती सच ।
15.
“खुश‌ रहना, सदा मुस्कुराना, बस यही मेरी दुआ तुम्हारे लिए।”
यह छल‌ का सिक्का ,नेग में देने का चलन, प्रेम की अलविदा में  सदियों से न बदला।
16.
शंतरज की बिसात पर एक सिर्फ़ रानी को नहीं है बंदिश , न दिशा की न घर की ।
तो तुमने क्या सोचा ?
बलि के लिए‌ तैयार करने को
यह ‘वूमेन एम्पॉवरमैंट’ का तमगा
नई ईजाद है‌!!!!
17.
याद को सरकारी दफ्तर की अर्जी-सा होना चाहिए
ज़हन‌ और मन पर बोझ डाले बिना ,
मैं रद्द‌ कर देती तुम्हें याद करना।
18.
उसने कहा –
“यह प्रेम कहानी तुम्हारी है?”
मैंने पूछा
“प्रेम में पड़ा इंसान कबूतर, कुत्ता, गधा, चमगादड़ कुछ भी हो सकता है ,
पर जो कहानियाँ बना सकने जैसा होश बाकी रख पाए ,
क्या वह वाकई प्रेम में हो सकता है !?”
इस एक बात के बाद हम बहुत देर हँसे ।
19.
तुम प्रेम करना तो‌ समझना इस अंतर को
प्रेम दुख से‌ भरे मन के लिए रोने भर का कंधा नहीं होता।
तुम प्रेम करना तो‌ समझना इस अंतर को ।
प्रेम ,एक दुख से भागने के लिए दूजा दुख चुन‌ लेना भी नहीं होता।
20.
छोटी छोटी खिड़कियों से झाँकता है प्रेम ।
उसे अंदर की तरफ खुलने वाले दरवाज़े, कभी रास न आए ।
21.
उदास रातों में गूँजती है झींगुर की पैनी आवाज़ ,
इस संगीत पर यादों का नृत्य बड़ा उत्तेजक है ।
22.
यह चार हाथ की दोस्ती और आठ पाँव का इश्क
सब मछली के काँटे हैं , पर यह भूल जाना तुम ।
23.
मोहब्बत को बस
नाखून भर होना चाहिए
काट-काट बढ़ती हो,
फूँक-फूँक बचती हो ।
24.
नदी में चाँद उतारना है‌
इसलिए भी देह को हो जाना चाहिए चोंच वाली कश्ती
सनद रहे, मोहब्बत में प्रतिबिंब से मोह की कीमत देह भर है।
25.
खुशी की गोलियाँ बाँटने‌वाला काबुलीवाला अब मर चुका है‌।
उदास देश के  बच्चों तुम अब हथेली पर पाल लेना मन।
(कवयित्री डॉ सुषमा गुप्ता, शिक्षा: एम.कॉम,एमबीए, एलएलबी,पीएचडी। जन्मस्थान: दिल्ली
वर्तमान में बहुराष्ट्रीय कंपनी में प्रबंध निदेशक। एक एकल कविता संग्रह व‌ अनेक साझा लघुकथा व कहानी संकलन प्रकाशित । समाचार-पत्रों एवं देश-विदेश की प्रतिष्ठित पत्रिकाओं में कविता , कहानियाँ, आलेख ,समिक्षाएं प्रकाशित ।
टिप्पणीकार डॉ. रत्नेश विष्वक्सेन, एसोसिएट प्रोफेसर
झारखंड केंद्रीय विश्वविद्यालय
सम्पर्क: rvsranchicollege@gmail.com)

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