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रोहित ठाकुर प्रकृति की पुकार के कवि हैं

जसवीर त्यागी


“नए ब्रांड का प्रेम उतारा था बाज़ार में /जिसने पहले/ लॉन्च किये हैं उसी कंपनी ने/ हत्या के नए उपकरण/ दाल-भात लिट्टी चोखे की यादें आयीं हैं बाज़ार में/ सोहर चैता कजरी की/ स्वर लहरी के पाउच निकले हैं.”

रोहित ठाकुर की कविताओं से गुज़रते हुए कई बार मुझे दिनेश कुमार शुक्ल की ये काव्य पंक्तियाँ याद आती रहीं। ख़ास तौर पर उनकी कविता ‘भाषा’ को पढ़ते समय:

वह बाजार की भाषा थी
जिसका मैंने मुस्कुरा कर
प्रतिरोध किया

कविता की नई पीढ़ी कितनी सजगता से कविता की मनुष्यधर्मी परम्परा से प्राप्त मूल्यों को आगे बढ़ा रही है यह बात कविता के भविष्य को लेकर भी आश्वस्त करती है।

रोहित ठाकुर समकालीन हिन्दी कविता के महत्त्वपूर्ण कवि हैं। उनकी कविताएँ समकालीन हिन्दी पत्र-पत्रिकाओं और सोशल मीडिया पर उपलब्ध हैं। रोहित ठाकुर महानगर से नहीं, बिहार अंचल से आने वाले युवा कवि हैं। उनकी कविताओं में आँचलिकता की आत्मीयता और प्रकृति का अनुपम सौंदर्य देखने को मिलता है। इस अर्थ में रोहित ठाकुर प्रकृति की पुकार के कवि हैं। वे कहते हैं-

“मेरी कमीज की जेब में
पैसे की जगह फूल थे
मुझे कवि होना था।”

ऐसे ही वे एक अन्य कविता में लिखते हैं-

” पतझड़ के विरुद्ध
मैं बुदबुदाता हूँ
फूल।”

“मैं तुम्हें और फूलों को
अलविदा नहीं कह सकता।”

रोहित जब कुछ कहना चाहते हैं, तो फूल उनके कहन में सहायक बनकर आते हैं-

“मैं तुम्हारे बारे में
कुछ कहना चाहता हूँ
मैं फूलों की बात करता हूँ।”

रोहित ठाकुर निराशा में भी फूलों को नहीं भूलते-

“फूलों का खिलना
एक आन्दोलन है
निराशा भरे दिनों में।”

” दुःख ने जब-जब अवकाश दिया
फूलों-सा खिल उठा जीवन।”

दुःख में भी फूलों का हाथ-साथ न छोड़ना यह रोहित की बहुत बड़ी खासियत है, जो उन्हें अपने समकालीन कवियों से विशिष्ट बनाती है। नेचर एक नियामत है। रोहित ठाकुर उसी नियामत के नये-नये शब्द चित्र अपनी कविताओं में उतारते रहते हैं-

“फूल मानचित्र है उस देश का
जहाँ नागरिक हैं तितलियाँ।”

रोहित को प्रकृति इतनी अनन्यता से आकर्षित करती है कि उन्हें फूलों में भी कोई बालक झाँकता हुआ दिखता है-

“कोई फूल है कि छोटे से बच्चे का चेहरा है।”

रोहित प्रेम पत्र में भी फूलों को संजोए रहते हैं-

” तुम्हारे तमाम प्रेम पत्र फूल हैं
स्मृतियों के जंगल में खिलते हैं।”

फूलों का साहचर्य रोहित को आंतरिक प्रफुल्लता से भर देता है, उनका अपना सोचना है कि-“फूल आदतन खुश रहते हैं।”

जैसे मनुष्य फूलों को सँजोता संवारता है, वैसे ही फूल भी- ” फूल भी करते हैं लोगों की
बेहतरी के लिए दुआ।”

मुनाफ़े के लिए मानवीय भावनाओं को माल की प्रचार सामग्री बना देने, प्रकृति और प्राकृतिक संसाधनों के दोहन के लिए मची होड़ में आज प्रकृति और पर्यावरण संकट के दौर से गुजर रहे हैं।

पर्यावरणवादी बार-बार प्रकृति और पर्यावरण के संरक्षण पर बल दे रहे हैं। ऐसे में रोहित ठाकुर जब बार-बार प्रकृति के नज़दीक जाते हैं, तो वे कहीं-न-कहीं पर्यावरण के सच्चे हितैषी होते हैं।

ऐसा नहीं है कि रोहित प्रकृति के पास जाकर मनुष्य के सुख-दुःख को भूल जाते हैं, वे एक सच्चे सहृदय संवेदनशील रचनाकर की तरह उसमें साझीदार बनते हैं। वे अपनी एक कविता में लिखते हैं-

“क्या आया मन में कि रख आया
एक लालटेन देहरी पर
कोई लौटेगा दूर देर से कुशलतापूर्वक
आज खाते समय कौर उठा नहीं हाथ से
पानी की ओर देखते हुए
कई सूखते गले का ध्यान आया।”

एक कहावत है कि ‘जाके पैर न फ़टी बिवाई, वो का जाने पीर पराई’। किसी दूसरे की पीड़ा को अनुभव करना ही किसी भी सच्चे रचनाकार का धर्म होता है, इस अर्थ में रोहित ठाकुर एक सफल सहृदय कवि के रूप में अपनी कविताओं में देखे जा सकते हैं।

अपने समय के संकट और संघर्ष भी रोहित ठाकुर की कविताओं में उतरते हैं। वर्तमान समय के वैश्विक कोरोना संकट को भी रोहित खुली आँखों से देखते हैं, और अपनी ‘घर लौटते हुए किसी अनहोनी का शिकार न हो जाऊं’ कविता में कहते हैं-

” दिल्ली-बम्बई-पूना-कलकत्ता
न जाने कहाँ-कहाँ से
पैदल चलते हुए लौट रहा हूँ
अगर पहुँच गया अपने घर
घर पहुँचने से पहले आशंकित हूँ
किसी अनहोनी से।”

रोहित की कविताओं में अपने समय की आवाज सुनी जा सकती है। वे ‘घटना नहीं है घर लौटना’ कविता में विचार करते हुए लिखते हैं-

“विश्वविजेता भी कभी
लौटा था अपने घर ही
हम असंख्य हताश लोग
घर लौट रहे हैं
हमारे चलने की आवाज
समय के विफल हो जाने की आवाज है।”

रोहित ठाकुर की कविताएँ अपनी सादगी संजीदगी और अपनी सच्चाई में पाठक को मोह लेती हैं। उनकी एक कविता ‘भाषा का दारोगा’ बहुत अच्छी कविता है-

“भाषा का दारोगा
आया था घर
वह जोर-जोर से हँसता था
उसने कहा- तुम हर चीज को कविता में ले आते हो
यह अच्छी बात नहीं
भाषा पर दबाव बढ़ रहा है।”

इस कविता में सिर्फ एक दारोगा और एक कवि नहीं है। यहाँ सत्ता और साहित्यकार का सवाल भी उठता है।
एक ईमानदार सच्चा साहित्यकार सत्ता नहीं, अपने समाज के साथ खड़ा दिखता है, इस अर्थ में रोहित ठाकुर भी अपनी भाषा और अपनी कविताओं के साथ आम आदमी के साथ कदम से कदम मिलाते हुए देखे जा सकते हैं।

रोहित की कविताओं का सफ़र लम्बा होगा आश्वस्त हूँ।

रोहित ठाकुर की कविताएँ

1. भाषा

वह बाजार की भाषा थी
जिसका मैंने मुस्कुरा कर
प्रतिरोध किया
वह कोई रेलगाड़ी थी जिसमें बैठ कर
इस भाषा से
छुटकारा पाने के लिए
मैंने दिशाओं को लाँघने की कोशिश की
मैंने दूरबीन खरीद कर
भाषा के चेहरे को देखा
बारूद सी सुलगती कोई दूसरी चीज
भाषा ही है यह मैंने जाना
मरे हुए आदमी की भाषा
लगभग जंग खा चुकी होती है
सबसे खतरनाक शिकार
भाषा की ओट में होती है |

2. घर 

कहीं भी घर जोड़ लेंगे हम
बस ऊष्णता बची रहे
घर के कोने में
बची रहे धूप
चावल और आंटा बचा रहे
जरूरत भर के लिए

कुछ चिड़ियों का आना-जाना रहे
और
किसी गिलहरी का

तुम्हारे गाल पर कुछ गुलाबी रंग रहे
और
पृथ्वी कुछ हरी रहे
शाम को साथ बाजार जाते समय
मेरे जेब में बस कुछ पैसे |

3. लौटना

समय की गाँठ खोल कर
मैं घर लौट रहा हूँ
मैं लौटने भर को
नहीं लौट रहा हूँ
मैं लौट रहा हूँ
नमक के साथ
उन्माद के साथ नहीं

मैं बारिश से बचा कर ला रहा हूँ
घर की औरतों के लिये साड़ियाँ
ठूंठ पेड़ के लिये हरापन
लेकर मैं लौट रहा हूँ

मैं लौट रहा हूँ
घर को निहारते हुए खड़े रहने के लिये
मैं तुम्हारी आवाज
सुनने के लिये लौट रहा हूँ |

4. उसे इस समय एक घड़ी चाहिए

उसे घर के खाली दीवार के लिए
एक दीवार घड़ी चाहिए
दरभंगा टावर की घड़ियाँ बंद रही
कई सालों तक
फिर वह शहर छूट गया
पिता की कलाई घड़ी बंद पड़ी है
उनके जाने के बाद
घड़ीसाज़ों की दुकानें बंद
हो रही है
फिल्मों में घड़ीसाज़ का किरदार –
अब कौन निभाता है
नींद में बजती रही है
घड़ी की अलार्म
पर उससे कुछ हासिल नहीं हुआ
तकनीकी रूप से
राजा और प्रजा की घड़ियाँ
समान होती है
पर समय निरंतर निर्मम होता जाता है
प्रजा के लिए
मैंने
उसे समझाया
कोई घड़ी
जनता के लिए जनता ही बनाती है
पर उसमें बजने वाले समय को
नियंत्रित करता है शासक
तुम बाजार से –
कोई भी घड़ी ले आओ
तुम्हारे हिस्से
नहीं आयेगा –
समय का उज्जवल पक्ष |

5. एकांत में उदास औरत

एक उदास औरत चाहती है
पानी का पर्दा
अपनी थकान पर
वह थोड़ी सी जगह चाहती है
जहाँ छुपाकर रख सके
अपनी शरारतें
वह फूलों का मरहम
लगाना चाहती है
सनातन घावों पर
वह सूती साड़ी के लिए चाहती है कलप
और
पति के लिए नौकरी
बारिश से पहले वह
बदलना चाहती थी कमरा
जाड़े में बेटी के लिए बुनना
चाहती है ऊनी स्कार्फ
बुनियादी तौर पर वह चाहती है
थोड़ी देर के लिए
हवा में संगीत |

6. यादों को बाँधा जा सकता है गिटार की तार से 

प्रेम को बाँधा जा सकता है
गिटार की तार से
यह प्रश्न उस दिन हवा में टँगा रहा
मैंने कहा –
प्रेम को नहीं
यादों को बाँधा जा सकता है
गिटार की तार से
यादें तो बँधी ही रहती है –
स्थान , लोग और मौसम से
काम से घर लौटते हुए
शहर ख़ूबसूरत दिखने लगता था
स्कूल के शिक्षक देश का नक्शा दिखाने के बाद कहते थे
यह देश तुम्हारा है
कभी संसद से यह आवाज नहीं आयी
की यह रोटी तुम्हारी है
याद है कुछ लोग हाथों में जूते लेकर चलते थे
सफर में कुछ लोग जूतों को सर के नीचे रख कर सोते थे
उन लोगों ने कभी क्रांति नहीं की
पड़ोस के बच्चों ने एक खेल ईज़ाद किया था
दरभंगा में
एक बच्चा मुँह पर हथेली रख कर आवाज निकालता था –
आ वा आ वा वा
फिर कोई दूसरा बच्चा दोहराता था
एक बार नहीं दो बार –
आ वा आ वा वा
रात की नीरवता टूटती थी
बिना किसी जोखिम के
याद है पिता कहते थे –
दिन की उदासी का फैलाव ही रात है |

7. भाषा का दारोगा 

भाषा का दारोगा
आया था घर
वह जोर – जोर से हँसता था
उसने कहा – तुम हर चीज को कविता में ले आते हो
यह अच्छी बात नहीं है
भाषा पर दबाव बढ़ रहा है |

8. पुल 

पुल से गुजरने वाला आदमी
नदी को निहारता है
पुल पर खड़ा आदमी
अपनी स्मृतियों में खो जाता है
पुल पर खड़ी औरतों की साड़ी
उड़ती है बादलों की तरह
पुल पर खड़े बच्चे नदी में छलांग लगाते हैं
तैरते हैं मछलियों की तरह
पुल प्रफुल्लित होता है यह सब देख कर
लावारिश लाशें बहती है पुल के नीचे
पुल स्तब्ध खड़ा रहता है |

9.  कविता

कविता में भाषा को
लामबन्द कर
लड़ी जा सकती है लड़ाईयांँ
पहाड़ पर
मैदान में
दर्रा में
खेत में
चौराहे पर
पराजय के बारे में
न सोचते हुए ।

10. रेलगाड़ी
दूर प्रदेश से
घर लौटता आदमी
रेलगाड़ी में लिखता है कविता
घर से दूर जाता आदमी
रेलगाड़ी में पढ़ता है गद्य
घर जाता हुआ आदमी
कितना तरल होता है
घर से दूर जाता आदमी
हो जाता है विश्लेषणात्मक |

11. साधारण क्षणों में भी असाधारण रूप में औरतों को याद करता हूँ 

दादी को
माँ को
चाची को
भौजी को
पत्नी को
बहन को
असंख्य औरतों को
गन्दे बर्तनों के बीच
गन्दे कपड़ों के बीच
अंधेरे रसोई में
साधारण कपड़ों में
साधारण बात कहते हुए
असाधारण रूप में याद करता हूँ |

12. गौरैया

गौरैया को देखकर
कौन चिड़िया मात्र को याद करता है
गौरैया की चंचलता देखकर
बेटी की चंचल आँखें याद आती है
पत्नी को देखता हूँ रसोई में हलकान
गौरैया याद आती है
एनीमिया से पीड़ित एक परिचित लड़की
कंधे पर हाथ रखती है
एक गौरैया भर का भार
महसूस करता हूँ अपने कंधे पर
गौरैया को कौन याद करता है चिड़िया की तरह |

13. घर लौटते हुए किसी अनहोनी का शिकार न हो जाऊँ

दिल्ली – बम्बई – पूना – कलकत्ता

न जाने कहाँ – कहाँ से

पैदल चलते हुए लौट रहा हूँ

अगर पहुँच गया अपने घर

उन तमाम शहरों को याद करूँगा

दुःख के सबसे खराब उदाहरणों में

हजारों मील दूर गाँव का घर नाव की तरह डोल रहा है

उसी पर सवार हूँ

शरीर का पानी सूख रहा है

नाव आँख के पानी में तैर रही है

विश्वास हो गया है

नरक का भागी हूँ

घर पहुँचने से पहले आशंकित हूँ

किसी अनहोनी के |

देहरी पर लालटेन

14. लालटेन

क्या आया मन में की रख आया

एक लालटेन देहरी पर

कोई लौटेगा दूर देश से कुशलतापूर्वक

आज खाते समय कौर उठा नहीं हाथ से

पानी की ओर देखते हुए

कई सूखते गले का ध्यान आया |

15. घटना नहीं है घर लौटना 

दुर्भाग्य ही हम जैसों को दूर ले जाता है घर से

बन्दूक से छूटी हुई गोली नहीं होता आदमी

जो वापस नहीं लौट सकता अपने घर

मीलों दूर चल सकता है आदमी

बशर्ते कि उसका घर हो

विश्व विजेता भी कभी लौटा था अपने घर ही

हम असंख्य हताश लोग घर लौट रहे हैं

हमारे चलने की आवाज

समय के विफल हो जाने की आवाज है |

(कवि रोहित ठाकुर की कविताएँ विभिन्न प्रतिष्ठित साहित्यिक पत्र- पत्रिकाओं और ब्लॉग्स पर प्रकाशित हो चुकी हैं।इनकी कविताओं का मराठी और पंजाबी भाषा में अनुवाद भी हुआ है ।

पत्राचार का पता – रोहित ठाकुर, C/O – श्री अरुण कुमार, सौदागर पथ, काली मंदिर रोड के उत्तर, संजय गांधी नगर , हनुमान नगर , कंकड़बाग़, पटना, बिहार, पिन – 800026, मोबाइल नम्बर – 6200439764, मेल : rrtpatna1@gmail.com

टिप्पणीकार डॉ. जसवीर त्यागी हिन्दी अकादमी दिल्ली के नवोदित लेखक पुरस्कार से सम्मानित हैं।  दिल्ली के गाँव बूढ़ेला के रहने वाले हैं और दिल्ली विश्वविद्यालय के राजधानी कॉलेज के हिंदी-विभाग में एसोसिएट प्रोफेसर हैं. अनेक पत्र-पत्रिकाओं में कविताएँ व लेख प्रकाशित। ‘अभी भी दुनिया में’ शीर्षक नाम से एक काव्य-संग्रह प्रकाशित। कुछ कविताएँ पंजाबी, तेलुगू, गुजराती भाषाओं में अनूदित। हिंदी के प्रसिद्ध आलोचक डॉ. रामविलास शर्मा पर ‘सचेतक और डॉ. रामविलास शर्मा’ शीर्षक से पुस्तक का तीन खण्डों में  सह -सम्पादन। मो.9818389571
ईमेल: drjasvirtyagi@gmail.com)

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