सिद्धार्थ गिगू
प्रदीपिका की कविताएँ किसी एक सांचे-ढांचे में नहीं बंधती. दूसरे शब्दों में कहें तो यहां उनकी भावनाओं में पर्याप्त विविधता और उतना ही विस्तार दिखता है. उनकी कविताओं की खास बात उनमें मौजूद रहस्य है जो आपको हौले से यथार्थ तक लाता है.
ये कविताएँ मानवीय अनुभूतियों – चाहे वे भौतिक हों या आत्मिक, की सबसे सघन परतों को देखने-समझने की कोशिश करती हैं और इस तरह एक रास्ते का इशारा देती हैं. वो रास्ता जो सुंदरता, प्यार और स्वतंत्रता पाने की मानवीय आकांक्षा की पहेली सुलझाने की तरफ जाता है.
प्रदीपिका सबके लिए लिखती हैं. सब लोग और सब कुछ ही उनकी दुनिया है, उनका घर है. उनकी कविताओं में हम सबके लिए कुछ न कुछ है. किसी को नसीहत देने की नीयत न रखते हुए भी ये कविताएँ हमें अपने स्थापित मूल्यों पर सवाल उठाने को उकसाती हैं और ऐसी दुनिया की तरफ एक खिड़की खोलती हैं जिसमें हम सब अपने-अपने तौर से झांकने की मंशा रखते हैं.
एक अहम बात कि प्रदीपिका की कविताएँ लोगों में मुक्ति का भाव जगाना चाहती हैं इसलिए उनकी लेखनी महत्वपूर्ण हो जाती है. किसी भी बड़ी रचना की यही सबसे बड़ी पहचान है – उसमें मुक्तिकामी चेतना की उपस्थिति.
प्रदीपिका सिर्फ अच्छी कवि ही नहीं हैं, बल्कि वे गद्य भी बहुत अच्छा लिखती हैं और इसमें भी एक तरह की लयात्मकता झलकती है. इसे जब आप बोल-बोलकर पढ़ते हैं तो इसमें गुंथा हुआ सुर-ताल उभरकर आता है. यह एक महीन-सी प्रक्रिया है लेकिन प्रदीपिका की कविताओं को पढ़ते हुए पाठक दुनिया को देखने, सुनने और महसूस करने के कई तरीके खोज सकते हैं. यही इन कविताओं की ताकत है – रहस्यों को परत-दर-परत उघाड़ना और हमारे दिलों में एक नई इच्छा को जन्म देना. वह इच्छा जो हमें जीवन को और पूर्णता के साथ जीने और अनुभव करने की तरफ ले जाती है.
प्रदीपिका की कविताएँ
1. रहस्य के राग
अंधेरा इतना सघन है
कि अब कुछ-कुछ दीख पड़ने का भ्
एक पूरा पर्वत शिखर मेरी हथेलि
यह स्पर्श, यह निर्जन प्रस्तर न
एक स्पंदन है
एक ऊष्मा जो चुभने लगती है
एक तरलता जो हथेलियों से होकर
रक्त शिराओं तक जा पहुँचती है
मेरे हाथों में तुम्हारा चेहरा
देखती हूँ कि मेरी सीमाएँ कहाँ
कहाँ वह परिधि होगी जिसके बाहर
इन विशाल वन प्रदेशों में कौन र
जबकि मैंने यहाँ स्वयं को नहीं
इनके स्मृति पृष्ठों पर क्या अं
या कि मैं कहाँ-कहाँ बिखरी हूँ
घास की इन पत्तियों और जल की अदृ
क्या मैं कभी जान सकूँगी कि तुम
या फिर ये ही कि मैं कब सुन सकूँ
मुझमें बहती हवा में, मेरे निर्
2. कहाँ है?
कौन हो?
अनुभव और संस्कार के कारागार के
क्या है कोई शब्द
तुम्हारे अर्थ और स्वर के परे
धरती के गर्भ से
अंतरिक्ष के वितान तक यदि ईश्वर
तो कहाँ है वह
3. शून्य से
तरंगें, पर्वत सी विराट, उठती हैं
विशाल बाहुओं सी
समुद्र के वक्ष में स्थित है शू
मैं घर लौटना चाहती हूँ
पर डरती हूँ
तुम मिट्टी की काया में उतरो रत्ना
आओ, मुझे तैरना सिखाओ
4. पूरे डूब जाने के बाद
तुम्हारा हृदय
मेरे अंतर का मानचित्र होता है
हमारे शब्द
जन्म पा रहे होते हैं
सुदूर आकाशगंगाओं में
जब हम चुप रह जाते हैं पूरे डूब
चित्रगुप्त अपनी बही में
एक प्रेमगीत लिखता है
5. शरद जब आ ही चुका है
अश्विन शुक्ल षष्ठी
शरद का कोमल दिन
काज सब निपटा लिए
खाली हृदय रख दिया सूखने
धुले हुए आँगन में
सोच रही है संजुक्ता
किस संदूक में रख दे इस बार
छद्म परिचय, शिष्टाचार
कि रात के दर्पण में
चाँद का मुख मैला न हो
6. विस्मृति
जमती जाती है धूल
रोज़ थोड़ी-थोड़ी
खिड़की के काँच
कुर्सी के हत्थे
किताब की जिल्द
चाय के बर्तन
और मकड़ी के जाले पर
पारिजात की पत्तियों पर धूल दि
किंतु नेह की कोमल कलियों पर
ऐसे आ गिरती है
विस्मृति की रेत
कि ढूँढे नहीं मिलता कोई आकाश
विस्मृति मृत्यु का दूसरा नाम न
बल्कि एक अंधी सुरंग का नाम है
दुनिया के सारे बंधक मज़दूर
खटने के लिए यहीं आते हैं
7. स्मृति
प्रतिमाएँ बोलती हैं
स्वामी की भाषा
स्मृतियाँ जीवन के उर्वर पुष्प
प्रस्तर स्तूपों में रहती हैं क
अनुभव से कहती हूँ
स्मृति के प्रति समर्पण ही है
कि बहता रहता है हृदय से
एक अतल स्रोत
तुम्हारी करुणा बनकर
8. अदृश्य से
आषाढ़ की संध्या
गरजता है घन, गहरे सांद्र गर्जन
पहाड़ पर बिजली चमकती है
हरे वृक्ष समर्पण में नत
रह-रह झूमते हैं
छोटे नालों की अंजुरियों में
भर उठा है जल
मैं अब भी प्रतीक्षारत सोचती हूँ
अदृश्य से मुझे
कोई दृश्य संदेश आएगा
जो सुन रहे हैं
मैं हर बार की तरह,
फिर से कुछ कहने को होता हूँ
हर बार की तरह कहना,
हर बार की तरह अनसुना रह जाने के लिए है।
बार-बार कहा जाता है, उनके लिए,
सुन नहीं पाते जो
जो सुन नहीं पाते, उनसे क्या कह
जो सुन रहे हैं, वे सब सुनेंगे
9. छतों पर पुल
लड़कों को गलियाँ मिलीं
छतों को लड़कियाँ
लड़कों को गोद में संभालते हुए
धरती ने आसमान से कहा
तुम लड़कियों की छतों पर
सात रंगों के पुल बना देना
10. एक होना
कहानी दो की होती
पर नायक एक
नायिका भी एक
बाहर से दो दीखते
पर भीतर एक
एक तब भी
जब दोनों एक होते
और तब भी
जब एक होना हो जाता असंभव
कहानी सुनते-सुनाते
हर एक पूछता
एक होना
क्या सचमुच एक होना होता?
11. कहाँ है मेरा देस
सवेरे-सवेरे
क्या तुम में भी उठता है
एक अनाम ज्वार
क्या तुम भी
बंद कर आँखों के द्वार
लौटा देते हो उसे
और वह गिर कर
तुम्हारे सीने की क़ैद में
हताश प्रेमी की तरह
पूछता है
कहाँ बसते हैं मेरे प्राण
बता दो, कहाँ है मेरा देस
12. इंतज़ार करते हुए
सबसे कठोर पहाड़ों के सीने से
बहती हैं
सबसे अबोध नदियाँ
तस्वीर पर से धूल पोंछते हुए
लिखी जा सकती हैं
सबसे मासूम कविताएँ
बन्दूकें साफ़ करते हुए
देखे जा सकते हैं
सबसे कोमल स्वप्न
प्रतीक्षा
शब्दकोश का
सबसे करिश्माई शब्द है
13. वैकल्पिक सुख
क्या याद आता होगा
क़ैद में बैठे एक पंछी को?
खेत-खलिहान, हवा-दरख़्त?
या फिर उस बहेलिए का
फूल सा चेहरा
जो नहीं आया था बहुत दिन से
कोई जाल बिछाने?
(कवयित्री प्रदीपिका सारस्वत मूलतः घुमक्कड़ हैं, पत्रकार हैं, कवि और लेखक हैं। इनका ठिकाना दिल्ली में लिखा जा सकता है पर अधिकतर समय बैकपैक के साथ ही बीतता है। अनिश्चित की पड़ताल और प्रवाहहीन से सवाल इनके काम का स्वभाव कहा जा सकता है। कश्मीर के मौजूदा सामाजिक जीवन पर आधारित इनका लघु उपन्यास ‘गर फ़िरदौस’ किंडल पर प्रकाशित है।
सम्पर्क : pradeepikasaraswat@gmail.com
टिप्पणीकार सिद्धार्थ गिगू कॉमनवेल्थ पुरस्कार प्राप्त भारतीय अंग्रेज़ी लेखक व फ़िल्मकार हैं। अंग्रेज़ी में उनकी कहानियाँ, उपन्यास, निबंध, संस्मरण और कविताएँ अपनी विशिष्ट यथार्थवादी शैली और कथानकों के लिए पाठकों व आलोचकों द्वारा सराही जाती रही हैं। गार्डन ऑफ़ सॉलिट्यूड, द लाइन ऑफ़ कश्मीर सहित चार उपन्यास, एक कहानी संग्रह रूपा द्वारा प्रकाशित किए गए हैं। कश्मीरी पंडितों के निर्वासन पर उनका संपादित संग्रह ‘अ लॉन्ग ड्रीम ऑफ़ होम’ कश्मीर पर एक महत्वपूर्ण दस्तावेज़ है। उनकी लघु फ़िल्मों ‘द लास्ट डे’ व ‘गुडबाय मेफ्लाइ’ को भी प्रतिष्ठित फिल्म समारोहों में प्रदर्शित किया जा चुका है।
सम्पर्क: sgigoo@yahoo.com)