Friday, December 1, 2023
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गुलामी के प्रतिरोध में स्त्री

2020 में वर्सो से स्टेला दाज़्दी की किताब ‘ए किक इन द बेली: वीमेन, स्लेवरी ऐंड रेजिस्टेन्स’ का प्रकाशन हुआ । लेखिका ने नौ साल की उम्र में इतिहास की परीक्षा से बात शुरू की है । उस उम्र के बच्चों से उम्मीद की जाती थी कि किताब में लिखे को जस का तस उतार दें । पूरी कक्षा में वे एकमात्र अश्वेत विद्यार्थी थीं । इतिहास में उनकी रुचि थी और उसी वय में उनकी रुचियों को लिंग और नस्ल ने प्रभावित करना शुरू कर दिया था ।

इतिहास की पुरानी घटनाओं का पुस्तकों में जिस तरह जिक्र हुआ था उसमें औद्योगिक क्रांति सबसे कम हिंसक बदलाव नजर आता था । कताई करने वाली नयी तकली की खोज का जिक्र तो था लेकिन यह नहीं बताया जाता था कि उसकी सफलता रुई की अबाध आपूर्ति पर निर्भर थी । इसे बनाये रखने में कामयाबी लाखों गुलाम अफ़्रीकियों के जबरिया श्रम की बदौलत मिलती थी । अध्यापक इस पहेली के बारे में खामोशी बरतते थे । वे इतिहास को ब्रिटेन के गोरों का साम्राज्य विस्तार ही समझते थे । ऐसा केवल इतिहास की कक्षा में ही नहीं होता था । आम तौर पर अश्वेत लोग या तो अदृश्य थे या बर्बर, बेवकूफ या अप्रासंगिक थे । गणित, विज्ञान या साहित्य की हमारी समझ में उनका कोई योगदान कल्पना से परे था ।

लेखिका ने हाल के दिनों में ही महसूस करना शुरू किया कि उद्योगीकरण और गुलामी के बीच इतना गहरा रिश्ता है । इसे छिपाने के लिए उद्योगीकरण को परस्पर असंबद्ध ऐसी घटनाओं के रूप में प्रस्तुत किया जाता है जिनमें किसी स्त्री या अश्वेत की कोई भूमिका नहीं दिखायी देती । अमेरिका में नागरिक अधिकार आंदोलन और उसके जुझारू प्रतिरूप ब्लैक पावर के उभार के बाद नया इतिहास बोध पैदा होना शुरू हुआ । फिर तो इस इतिहास के बारे में लेखिका ने सब कुछ खंगाल डाला ।

इस तमाम अध्ययन से साबित हुआ कि काले लोगों की भूमिका को जान बूझकर दबाया गया है । इसी दौरान इतिहास से स्त्रियों को गुम करने की कोशिशें भी उजागर होने लगीं । बहुत पहले ही मार्क्स और एंगेल्स ने ऐसे ही मजदूर वर्ग को बाहर कर देने के प्रयासों की पोल खोली थी । असल में इतिहास में जिन लोगों के नाम आते हैं उनके नियंत्रण में शक्ति का तंत्र होता है । इस तंत्र के बल पर ही इतिहास में लोगों के नाम दर्ज होते हैं । गोरे मजदूरों की जगह भी राजाओं और रानियों के नाम के सामने कुछ नहीं होती ।

अश्वेत स्त्री के मामले तो तिहरे बोझ से दबे होते हैं । लिंग, वर्ग और नस्ल की वंचना के चलते उनका नाम शायद ही कभी सुना गया होगा । लेखिका ने उनमें से कुछ नामों को खोज निकालने और दर्ज कराने का संकल्प किया । वे कामगार माता थीं । तमाम अश्वेत बौद्धिकों के चिंतन से परिचित होना जरूरी लगा । उत्तर आधुनिकता के सिद्धांतों से भी मदद ले सकती थीं लेकिन उन्होंने व्यावहारिक अनुभव की बुनियाद पर खड़ा होना चुना । इसके लिए उन्होंने पूर्वजों की अफ़्रीकी जमीन की यात्रा की और अपने लोगों की प्रतिभा से चकित रह गयीं ।

धीरे धीरे उनको समझ आता गया कि गोरे मालिकों और काले गुलामों यानी उत्पीड़कों और उत्पीड़ितों के बीच संघर्ष के चलते ही 1807 में गुलाम व्यापार का खात्मा हुआ जिससे पचीस साल बाद गुलामों की मुक्ति का रास्ता हमवार हुआ । इसका श्रेय किसी सेनपति को देना उसी तरह है जैसे अमेरिका की खोज का श्रेय कोलम्बस को देना ।

लेखिका को अपने शोध के दौरान अनुभव हुआ कि गुलाम या मुक्तिदाता जैसे पदों का सरलीकरण उचित नहीं । यथार्थ इसके मुकाबले जटिल था । उनमें आपस में भेद थे । वे सभी एक ही सुर में नहीं बोलते थे । नस्ल, वर्ग और लिंग की स्थापित मान्यताओं से भी अंतर्विरोध धुंधले पड़ जाते हैं । उन्हें समझ आया कि अश्वेत गुलामों की अपनी कोशिशों और उनकी मुक्ति के समर्थकों के प्रयास तत्कालीन आर्थिक जरूरतों के साथ मिल गये जिनके चलते अफ़्रीका से चलने वाला यह व्यापार बंद हो गया । लगा कि इतिहास का अध्ययन सुरागरसी है । साक्ष्य की जांच और व्याख्या करनी पड़ती है । उस समय झूठ बोलना और लिखना चलन में था । काली और अश्वेत स्त्रियों के प्रसंग में खासकर इसके अपवाद बहुत कम हैं । दस्तावेज गोरे पुरुषों ने तैयार किये हैं जिनमें उनकी राय शामिल रही है ।

इस स्थिति के चलते प्रचंड परिश्रम के बावजूद लेखिका को अफ़्रीकी मूल की स्त्री का कुछ खास पता नहीं चला । तभी ऐसे अफ़्रीका केंद्रित इतिहासकारों के समूह की खबर मिली जो इसी तरह के सवालों से जूझ रहे थे । उन सबके शोध से प्रमाणित हुआ कि अफ़्रीका के गुलामों की मुक्ति प्रधान रूप से उनके ही प्रयासों से हुई थी । इन प्रयासों में स्त्रियों की भूमिका को भी दर्ज किया जाना शुरू हुआ हालांकि अब भी पूरी तरह से उनका योगदान प्रकाश में नहीं आ सका है । दुखद है कि गुलामी के खात्मे के इतने दिनों बाद भी मुख्य धारा की मीडिया में उन कुछेक गोरों का तो बहुत गुणगान होता है जिन्होंने गुलामी की आलोचना की थी लेकिन इसके शिकार और इसकी समाप्ति के लिए बलिदान करने वाले जुझारू योद्धाओं की चर्चा भी नहीं होती । अगर सिनेमा की दुनिया पर यकीन करें तो गुलामों की मुक्ति की लड़ाई लड़ते गोरे ही नजर आयेंगे । गोरे इतिहासकारों के लेखन में भी यही नजर आयेगा । काली स्त्री तो कहीं दिखायी ही नहीं देगी । अगर कहीं उनका उल्लेख होगा भी तो विवरण अकादमिक स्त्रीद्वेष से रंगा होगा । उनकी मौजूदगी संगीत, फ़ैशन या लोकप्रिय मीडिया की बनायी छवियों तक सीमित रहेगी ।

कुछ लोग मानते रहे कि उन्हें गुलामी से कोई खास परेशानी नहीं रही । इसके साथ ही उसकी सब कुछ को सहन करने वाली मातृ छवि भी बनायी गयी । इस आदर्शीकरण के परदे में गुलाम स्त्री की जटिल हालत छिप जाया करती है । इस छवि के चक्कर में असुविधाजनक कहानियों को दबा दिया जाता है । इन भूमिकाओं तक उसे सीमित कर देने के चलते उनके साथ होने वाली हिंसा नजर नहीं आती । वह अत्याचार का खामोश तमाशबीन मात्र बनकर रह जाती है । लड़ाई तो पुरुषों ने लड़ी । उंगली पर गिने जाने लायक जितनी स्त्रियों की विद्रोही भूमिका का पता चलता भी है वे पुरुषों की पिछलग्गू बना दी जाती हैं ।

इस पुरुष केंद्रित वृत्तांत से अलग हटकर देखना शुरू करते ही तस्वीर बदलने लगती है । उसमें गुलाम स्त्री नजर आने लगती है । वे हाड़तोड़ परिश्रम करती दिखायी देती हैं । बलात्कार या रतिज बीमारियों की शिकार होकर होने वाली उनकी मौतें महसूस होना शुरू होती हैं । उनकी बाहों, गले और पैरों में पड़ी लोहे की जंजीरों के निशान उभरना शुरू हो जाते हैं । उनके कपड़ों पर पसीनों के गंदे दाग झलकने लगते हैं । इस भयावहता के समक्ष उनमें से कुछ पागल होती तो कुछ आसन्न मृत्यु की बाट जोहती दिखती हैं । लेकिन उनमें कुछ ऐसी भी दीख सकती हैं जो सही मौके का इंतजार कर रही होती हैं । भाग निकलने की योजना बनाती या बदला लेने का सपना देखती औरत भी मिलना बहुत कठिन नहीं रह जाता । उनके हाथ में कभी कभी धारदार हथियार या छिपायी हुई जहर की शीशी उनके दिमाग में चलने वाली खुराफ़ात का सबूत पेश करते हैं ।

इन औरतों को चार सौ साल की गुलामी और उसके प्रतिरोध के इतिहास में वाजिब जगह मिलनी चाहिए । उच्च शिक्षा केंद्रों में गुलामी की बात करने से जी छुड़ाने की प्रवृत्ति आम है लेकिन ठीक इसी वजह से उस पर चर्चा प्रासंगिक बनी हुई है । गुलामी और गुलाम व्यापार की घटनाएं किसी अन्य ग्रह पर नहीं घटित हुईं, न ही इस व्यापार से लाभ अर्जित करने वाले अमेरिका तक ही सीमित थे । ब्रिटिश साम्राज्य का भी अतीत गुलामों के योगदान की कहानी सुनाता है । ब्रिटेन के कस्बों और शहरों में सैकड़ों साल तक गुलामों का खून पसीना बहा है तब जाकर उस मुल्क की प्रगति हुई और उसके नागरिकों की जेब सोने के खनकते सिक्कों से भरी । गुलामों और उपनिवेशों ने ही ब्रिटेन के आगे ग्रेट जोड़ा लेकिन ब्रिटेन के इतिहास में इस कृत्य का जिक्र भी नहीं होता । कुछेक अन्य वजहों से भी इस अतीत की बात होनी चाहिए ।

जो समाज अपना इतिहास नहीं जानता वह ऐसे पेड़ की तरह होता है जिसको अपनी जड़ों की जानकारी नहीं होती । पश्चिम के विविधता से भरे समाजों के लिए इस यादगदार इतिहास को जानना खास तौर पर जरूरी है । अफ़्रीकी मूल से आयी हुई इतनी बड़ी आबादी गुलामी के अमानुषिक अत्याचार झेलकर भी कैसे बची रही, इसे जानना उनके वंशजों को गर्व से भर देता है । हिटलरी संहार से बचे यहूदियों और दूसरे विश्वयुद्ध के दौरान फ़ासीवाद का प्रतिरोध करने वाले सम्माननीय बहादुरों की तरह ही इन्हें भी सम्मानित किया जाना चाहिए । अश्वेतों को गुलामी की चर्चा शुरू होने पर शर्मिंदा होने या झेंपने की आदत से आजाद होना होगा । यूरोपीय लोगों ने जिस तरह अफ़्रीकी लोगों को गुलाम बनाया वह मानवता के प्रति किया गया सबसे बड़ा अपराध है ।

2007 में जब संसद द्वारा गुलाम व्यापार की कानूनी समाप्ति की दो सौवीं सालगिरह मनायी जा रही थी तो उसी समय गुलाम प्रथा के खात्मे में गुलामों के संघर्ष के योगदान को भी उजागर किया जाना चाहिए था । उसमें स्त्रियों का जिक्र न होना तो और भी भारी भूल थी । गुलामी से आजादी तक की यात्रा बहुत लम्बी और तकलीफदेह रही है । इस यात्रा में हरेक कदम पर औरतें मौजूद रही हैं । इतिहास में उनकी मौजूदगी को ओझल करके उनके साथ अन्याय किया गया है ।

गोपाल प्रधान
प्रो. गोपाल  प्रधान अम्बेडकर विश्वविद्यालय, दिल्ली में प्राध्यापक हैं. उन्होंने विश्व साहित्य की कई महत्वपूर्ण पुस्तकों का अनुवाद , समसामयिक मुद्दों पर लेखन और उनका संपादन किया है
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