समकालीन जनमत
कविताजनमत

स्‍त्री और प्रकृति की नूतन अस्तित्‍वमानता को स्‍वर देतीं ऋतु मेहरा की कविताएँ

कुमार मुकुल 


 

ऋतु मेहरा की कविताएँ आपाधापी भरे जीवन और प्रकृति के विस्‍तृत वितान के मध्‍य एक तालमेल बिठाने का प्रयास करती कविताएं हैं। कवयित्री को तमाम लोगों की तरह सुकून की तलाश है जिसे अपनी कविता में अभिव्‍यक्‍त करती वह लिखती है –
नंदा के भाल पर सजे सूर्य को
हक से कहा जाए – थोड़ा धीरे ढलना। 
यहां जो सूरज से धीरे ढलने की मांग है वह एक तरह से खुद से और नकली व्‍यस्‍तता के छद्म विराट में खोती लोगों की भीड़ से की गयी मांग है कि वे ठमककर विचार करना शुरू करें कि आखिर वे किस सुबह और शाम की तलाश में भागे जा रहे, उनका सूरज – चांद – तारे यहां, इधर है, उनकी राह में ही वे उग रहे, डूब रहे, जरूरत रूक कर उन्‍हें निहारने की है, देखने की है। उनसे अपने अंतस के संबंधों को पहचानने की है कि यही जीवन है –
मानो वो जो है उपर कोई मंच है
और यहां मेरे हाथ के प्‍याले में होती थिरकन
कोई चलचित्र।
देखा जाए तो यह स्त्रियों की नूतन अस्ति‍त्‍वमानता का युग है। वे नये सिरे से अपना व्‍यक्तित्‍व गढती उस पहचान को दृढता देने की कोशिश कर रही हैं।
यह उधेड़बुन ऋतु के यहां भी है कि स्‍त्री योनि है या मनुष्‍य है और वह रूककर जैसे खुद को ही आश्‍वस्‍त करती है कि वह एक आजाद इंसान है, जो कि वह है और ऋतु की कविता स्‍त्री के इस इंसान होने को उसकी सामूहिकता और सामाजिकता में  तलाशती है जो कि अभी निर्माण की प्रक्रिया में और संघर्ष की प्रक्रिया में मनुष्‍य की पशुता से लोहा लेती उसे नया आकार देने की कोशिश कर रही है –
मैं जिंदा हूं
जिंदगी खूबसूरत है
बहुत कुछ किया जा सकता है, अभी भी …। 

ऋतु मेहरा की कविताएँ

 

1)
गगन के सीमान्त पर
असंख्य सपने पंख लगाए
जा रहे हैं सूरज की ओर
और जलकर हो रहे हैं गुलाबी ।
आसमान फैला रहा है चहुँओर
गुलाबी सपनों से रिसता तरल
जो धीरे-धीरे घुल रहा है नीले आकाश में
जहाँ उभर रहे हैं दाग बैंगनी रंग के।
हवा के झोंके किसी पल सहलाते हैं किरणों के केश
मलते हैं उनमें सपनों का तरल।
बहा ले जा रही है हवा अपने साथ
ख़ुशबुएँ और रंग, छिड़कती उन्हें जगह-जगह।
रंग झूमता है इधर-उधर, गिरता है बादलों पर
रंगता है उन्हें थिरकनभी कुछ गुलाबी, कुछ बैंगनी
और कुछ नारंगी।
वहीं सूरज से उड़ता गुलाल
हवा की अठखेलियों में रम रहा है
पिघलता है कभी, तो कभी रहता सघन
रंगता है सपनों के साथ शाम के संसार को ।
बादलों की गिलहरियां, घोड़े, हाथी और दैत्य
सेंक रहे हैं दिन की अंतिम धूप।
मैं दिमाग की सभी खिड़कियां खोले निहार रहा हूँ
अपनी धुंधली दृष्टि से सब कुछ।
मैं आहिस्ता एक छोर से मिट रहा हूँ
और मेरे सपने कर रहे हैं तैयारी
सूरज की ओर जाने वाले कारवाँ में शामिल होने की।
ये जो हो रहा है ऊपर सब कुछ
नीचे मेरे कॉफ़ी के प्याले में प्रतिबिम्बित होता है।
मानो वो जो है ऊपर कोई मंच है
और यहां मेरे हाथ के प्याले में होती थिरकन
कोई चलचित्र ।

 

2)

पहाड़ों पर सिर्फ पैदल चला जाए
पगडंडियों में, नदी के किनारे
कुल देवियों के ठान से गुज़रते हुए।
छुरमल के बाड़े पर, परइ-गरदेवी के
बांस के झुरमुट से होते हुए, धीरे-धीरे
वक़्त को थाम लिया जाए।
नंदा के भाल पर सजे सूर्य को
हक से कहा जाए- ‘थोड़ा धीरे ढलना,
आज उड़ने का मन है, बहुत दूर ।’
चलते-चलते चखा जाए
राम गंगा की मछलियों का स्वाद,
अल्मोड़ा बजार* की बाल मिठाई।
जंगलों से चुरा लिए जाएं हिसालू,
किरमौड़, काफल, आत्मा को तर
कर देने वाले शस्त्र रस।
इनमें भा जाए कोसों दूर।
पांच इन्द्रियों को किया जाए आज़ाद।
एक दिन केवल स्पंदन के नाम ।
बहुत ऊंचे किसी टीले पर जहाँ हवाएँ
गाती हैं झोड़े, लेटकर देखा जाए बादलों का सैलाब।
घुला मिला जाए पहाड़ी मन से
पहाड़ी जन से।
खोया जाए देवदार के जंगलों में,
किसी छोटी नदी के किनारे-किनारे चलकर
फिर से पहुँचा जाए बस्ती की ओर ।

बहुत कुछ है पहाड़ों में जिसे
ठहरकर देखे जाने की ज़रूरत है।
जो छिप जाया करता है, वाहनों के अंधड़ में ।
पिघल जाता है उनकी गुर्राहट में।

पहाड़ हमसे बहुत बड़े हैं, और हम बहुत छोटे।
पहाड़ों को एक छोटे आदमी की हैसियत से देखा जाए।
अपने मशीनी राक्षसों को छोड़ कहीं दूर,
पहाड़ों पर सिर्फ़ पैदल चला जाए।

 

 

3
राजबारों को प्रेमिकाएँ नहीं मिलतीं
मिलतीं हैं पनयार, पोखर, दरख़्तों के साए शापित देवियाँ।
राजबारों को मिलती हैं रानियाँ, जिनसे वे नहीं करते प्रेम।
जो उनके साथ बैठ चलाती हैं राज-पाट,
होती हैं धनुर्धर, सारथि, विचारक, दार्शनिक
जनती हैं वारिस भी,
और फिर सदा के लिए हो जाती हैं अस्पृश्य।
राजा का स्पर्श कुसुम-कलिकाओं के लिए है
प्रेमिकाओं के लिए है।
मैं पहाड़ों पर अक्सर काफल जैसी प्रेमिकाएँ नहीं,
अपितु जाती हूँ ढूँढने देवदार जैसी रानियाँ।
अपने ऊंचे भाल से उनके अजेय कपाल को
करती हूँ स्पर्श, और मेरे सामने हो उठता है जीवंत
राजमहल राजबारों का।
काफल टूटकर गिर रहे हैं शाखाओं से
उन्हें चुन-चुनकर होंठों से लगा रहा है राजा
और खा जा रहा है।
रानियाँ खहड़ी हैं राजा के शीर्ष पर देवदार सरीखी।
झूम रही हैं स्वयं के आलिंगन में।
धीरे-धीरे राजा का दिन ढलता है,
उसकी बूढी हड्डियाँ अब प्रेमिकाओं को नहीं सुहातीं
वे छिटककर दाल से नहीं गिर पड़ती हैं अब
पके काफल के दानों की तरह।
राजा के आंगन के काफल अब पेड़ों पर बहुत ऊपर लगते हैं।
जहाँ नहीं पहुँच सकता है बूढा राजा।
प्रेम-आलिंगन से टूटा राजा का शरीर बढ़ता है रानियों की ओर।
बरसों से अस्पृश्य रानी की प्यासी, कठोर देह को छूता है और
जल उठता है रानी की मादक उत्तेजना की आग में।
देवदार सांस लेते हैं, के संगी हवा के झोंके उन्हें चूमते हैं
और करते हैं राजा की अस्थि-भस्म को देवदार के चरणों में अर्पित ।
चिरयौवना रानी अब इस भस्म से सींचेगी अपनी जड़ें।
एक धुंधली सी
हुणुक की थाप पर बखारता है कोई-
‘जाग राणी देवदारों मा जाग, जाग ऊँचा धुर-डांडयों मा जाग।’
और कहीं किसी ऊंचे पर्वत पर निकल आती है
देवदार के कोने से किसी, नाचती- खेलती रानी की रुह।
फिर से खेली जाती है इतिहास में धूमिल राजबारों की कहानी।
राजबारों को प्रेमिकाएँ नहीं मिलतीं
उन्हें मिलतीं हैं शापित देवियाँ, रानियों के रूप में।

सुदूर कहीं मैं ही गा रही हूँ हुणुक की थाप में-
‘जाग राणी देवदारों मा जाग, जाग ऊँचा धुर-डांडयों मा जाग।’

 

4
बहुत दूर किसी गिरिशिखर पर
जहाँ बहुत सघन हैं वन
गुप अंधेरों में
संगीतमयी होते तट
जहाँ कहानियां आज भी
मायावी हैं और
रोंगटे खड़े करती हैं
झींगुरों की आवाज़
जंगलों में आज भी
पालते हैं किस्से
वही जंगल जहाँ औरतें
दोपहर में अलसाती हैं
बकरियों के झुण्ड के साथ
और दूर किसी ग्वाले की बांसुरी पर
उड़ जाने देती हैं अपने उर को.
उन्हीं पगडंडियों में
जहाँ कूदते-फांदते बच्चे
रंग-बिरंगे स्वेटरों में
गाते हैं, नाचते हैं
अनसुनी एक तान पर.
वहां जहाँ आज भी
मिथक गाए जाते हैं
ज़िंदादिली के गानों में .
बहुत ऊंचाई पर
वहीं
जन्म होता रहा है
कहानियों का
और भरे जाते रहे हैं
पन्ने
इसलिए की उड़ सकें
आने वाली पीढ़ियों
इसलिए कि जीवन में
भरा रहे रोचक बातों का सिलसिला
न मानने वाले वहां भी हैं
पर उस ना मानने में भी हैं
मिथक और भी गहरे .
वहां कोई नहीं है ज्ञानी
सबकी अपनी मनमानी
बहुत ऊपर किसी गिरिशिखर पर
जहाँ सघन हैं वन
ढोल-दमऊ की थाप पर
नाच रहे हैं लोग
किसी मिथक के नशे में.

 

5)

एवेन्यू ट्रीज़

दोपहर किसी गुमनाम गली में
सहसा दो अजनबियों के पैरों की थिरकन
विमूढ़ सपने, अस्त-व्यस्त कल्पनाएँ।
जहाँ शहर के एवेन्यू ट्रीज़
नीम, गुलमोहर,अमलतास
बाहों में बाहें डाल, झूल रहे हैं अनंत की ओर
शीश उठाए।
धूप पत्तों की छलनी से सहलाती है उनके गाल ।
नीले आकाश से झांकना चाहते हैं
और नज़र भर देख लेना चाहते हैं,
उन दो अजनबियों को, रूई के फाहों से
अश्विन के बादल।
शहर सूनसान है।
नहीं हैं कहीं घूरती नज़रें, जान लेने पर उतारू वाहन।
ज़िंदा रहने की जद-ओ-जहद में मिटते लोग।
प्रेम, स्वप्न और कल्पना अभी मरे नहीं।
कोयल,मैना, बुलबुल, गौरैया
सपनों के कितने नाम हैं,
कल्पना की उड़ान के सहस्त्रों आयाम हैं।
छतों पर, ड्योढ़ी पर, ताले लगे हुए जर्जर मकानों पर
फैला है प्रेम सरीखा, पत्तों की छाया का जाल।
शतरंज की बिसात सरीखे धूप-छाँही दृश्य।
दोनों अजनबी चले जा रहे हैं
शतरंज की गोटियों सी धीमी चाल।
शहर कहाँ है? शहर के लोग कहाँ हैं ?
” शहर वाक़ई ख़ूबसूरत है।”
लोग लोहे के दरवाज़ों पर, सड़क पर, जालियों और
खिड़कियों पर लिपट गए हैं लताएँ बनकर।
कुछ उग आए हैं गमलों में।
कुछ सूख रहे हैं सड़कों के किनारे।
“वो देखो पत्ते! बच्चे हैं, हवाओं के साथ
कर रहे हैं अठखेलियां।”
शहर के प्रेमी युगल बोगनबेल और चम्पा से
महक रहे हैं डालों पर
और जो थे कुछ शहर से भी बुज़ुर्ग,
उग आए हैं उस गुमनाम गली के दोनों छोर
एवेन्यू ट्रीज़ बनकर।
नीम,गुलमोहर, अमलतास।
दरख़्त-दर-दरख़्त।
शहर वाक़ई ख़ूबसूरत है, आविर्भूत हो रही है कल्पना
दोपहर किसी गुमनाम गली में।

6)

कभी-कभी लगता है
औरत नहीं हूँ, अवचेतन
मादा हूँ सिर्फ़।
आईडीयोलॉजिकली
रिसीवर, कंसीवर, हॉर्मोनल।
पर इस बीच एक बहुत बड़े प्रश्न चिह्न सा
खहड़ा हो जाता है मेरा व्यक्तित्व।
पल-पल परिवर्तित, दिन के आठों पहर अलग।
इन्सटेबल।
इंसान हूँ बड़ी शिद्द्त से।
मेरा इंसान किसी भी औरत पर भारी है।
मैं सबसे ज़्यादा ख़ुश होती हूँ
जब हर तरह की नज़रों और चाहतों के बीच,
अस्पृष्ट, यानी अनटच्ड
सर उठाए, कोई गीत गुनगुनाते हुए सुनती हूँ
अपनी ही सांसों को ।
अपनी धड़कन ।
मैं ज़िंदा हूँ।
ज़िंदगी ख़ूबसूरत है।
बाहत कुछ किया जा सकता है, अभी भी।
फिर कभी-कभी लगता है औरत नहीं हूँ अवचेतन
इंसान हूँ।
प्रैक्टिकली
वाइल्ड, पैशनेट, इल्लॉजिकल कभी-कबार ।
पर आज़ाद हूँ,
और क्या चाहिए?

 

(ऋतु की कलम नई है, कविता प्रकाशन की दुनिया में ये उनके शुरुआती कदम हैं। ऋतु मूलतः पिथौरागढ़, उत्तराखण्ड की निवासी हैं और उनका स्थाई निवास दिल्ली में है। डेकन कॉलेज पुणे से पुरातत्व में स्नातकोत्तर की पढ़ाई का दूसरा वर्ष चल रहा है।
स्नातक के दौरान कई अनुवाद और सम्पादन कार्यों में शामिल रहीं। ‘चकोर लकीरें’ के माध्यम से ‘इंटैनजीबल हैरिटेज’ और ऐतिहासिक दस्तावेज़, रंगमंच व प्रदर्शन कला को जीवित रखने हेतु मंच पर प्रस्तुतियाँ। उत्खनन कार्यों में भी सक्रिय योगदान।

टिप्पणीकार कुमार मुकुल जाने-माने कवि और पत्रकार हैं. राजस्थान पत्रिका के सम्पादकीय विभाग से सम्बद्ध हैं.)

 

 

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