समकालीन जनमत
कविता

पम्मी राय की कविताएँ प्रतिबद्धता और दूरगामी यात्रा की संकेत हैं

निरंजन श्रोत्रिय


युवा कवयित्री पम्मी राय की कविताओं में कुछ अनगढ़पन-सा पाठकों को लग सकता है। ऐसा इसलिए भी कि पम्मी ने अभी-अभी ही कविता में आँखें खोली हैं। आश्वस्तिकारक यह है कि यह अनगढ़पन कविता की समझ के स्तर पर नहीं है। शिल्प और भाषा के स्तर पर परिपक्वता तो वे आगे कविताओं में ले ही आएँगी।

कवयित्री के संवेदनों की महीनता और अपने समय की समझ को देख कर यह उम्मीद पम्मी ही नहीं किसी भी युवतम कवि से की जा सकती है। पहली कविता ‘गीली मिट्टी गीली आँखें’ भले ही एक इतिवृत्त लगे लेकिन एक वंचित समाज के प्रति कवयित्री की सहानुभूति बल्कि मार्मिक भाव इसे कविता तक लाता है।

‘हम ग्लोबल हो गए हैं’ कथित वैश्वीकरण, उससे उपजे बाजारवाद और अंततः आत्मकेन्द्रित होते मनुष्य पर एक तंज है। यह कविता साम्राज्यवाद पर प्रहार करते हुए हमारे इस अनमने समय का पता देती है। किसी भी युवतम कवि के ऊर्ध्वाधर विकास के लिए यह आवश्यक है कि उसे अपने समय की राजनीतिक समझ भी हो।

‘अनसुनी आवाज’ युवा कवयित्री पम्मी राय की ऐसी कविता है जिसमें समकालीन राजनीतिक विरोधाभासों की आहट है। एक सजग राजनीतिक चेतना के साथ एक जरूरी प्रतिरोध यहाँ दर्ज है- ‘सुनी नहीं गई उससे वह आवाज/ एक चीख ही तो निकाली थी उसने/ इस विकास के खिलाफ/ अपनी पीठ पर महसूस करते हुए/ उन पीढ़ियों की आँखों को/ इन्कार ही तो किया था उसने।’

‘शक्लों में ढलती कविता’ शृंखला की चार छोटी कविताओं में कवयित्री की मूल प्रतिज्ञा स्पष्ट होती है। मजदूरों का दर्द, बुजुर्गों का अकेलापन, संघर्ष की जरूरत को अपने में समेटे ये कविताएँ युवा कवयित्री की प्रतिबद्धता और दूरगामी यात्रा की संकेत हैं-‘ गुजरते हुए सड़कों से/ बटोर लेती हूँ मैं किनारे बैठे/ तमाम मजदूरों के चेहरे की स्याही/ बना लेती हूँ एक कविता।’

‘महकते गीत’ कविता अपनी परम्परा और जड़ों से जुड़ने का सर्जनात्मक आग्रह लिए है। स्वाद, सुगंध और संगीत को परम्परा और अतीत की लय में कवयित्री ने खूबसूरती से गूँथा है। यह कविता एक सांगीतिक महक जैसा प्रभाव उत्पन्न करती है जिसे मात्र नॉस्टैल्जिया कह देना काफी नहीं होगा। इसमें केवल यादों को वहन करने की भावुक क्रिया नहीं बल्कि उनके संरक्षण का आत्मीय आग्रह भी है।

‘चिड़ियाँ, बच्चे और आदमी’ उस सीमा के अतिक्रमण का आव्हान है जिसके पार एक दूसरी दुनिया है। यह वह सीमा-रेखा है जिसे पार करना मनुष्य के लिए निषिद्ध है। कवयित्री इस निषेध के विरूद्ध अपनी कविता को खड़ा करती है। कवि को इस प्रतिरोध का हश्र पता है लेकिन उसके बावजूद यह संकल्प कविता की मंशा और ताकत को बयां करता है।

‘आदमीयत’ जैसी छोटी कविता धारणाओं और ढर्रे के बीच मनुष्यता और उसके परिवेश की तलाश है। ‘आग-पानी’ कविता के जरिये कवयित्री ने एक अलग ही तरह का स्त्री-विमर्श रचा है जो अपने संवेदनों में वैश्विक है। नाइजीरिया, युगांडा, इराक, सीरिया, भारत और पाकिस्तान जैसे देशों के नामोल्लेख के जरिये वे समूची दुनिया की औरतों के पक्ष में उस आग को पुनर्जीवित करना चाहती हैं जो बर्फ बन चुकी है। ‘प्रेमिकाएँ’ कविता में प्रेम और प्रेमिकाओं का एक अलग पक्ष रखा गया है। यहाँ असफल प्रेमिकाओं को जो प्रेम में डूबने के कारण पानी में डूबने से नहीं डरतीं, प्रेम करने में सबसे समर्थ माना गया है।

‘क्या ढूँढ रही है औरतें’ कविता में कवयित्री यह स्थापित करती है कि स्त्रियाँ परम्परा और रस्मों को निभाते हुए भी प्रगतिशील हो सकती हैं। यहाँ इसे कवयित्री के विरोधाभास के बजाय एक यथार्थ और वृहद सामाजिक परिप्रेक्ष्य में देखा जाना चाहिए। यह भी कि कोई भी बदलाव ‘इंस्टेन्ट’ नहीं होता। मूल प्रश्न यह है कि क्या सामूहिक रूप से स्त्रियों द्वारा गालियाँ देना (भले ही गीतों में) क्या एक नकार का न सुना जाने वाला स्वर नहीं है ?

‘जंगल के आईने से’ स्त्री विमर्श को एक तल्ख स्वर में प्रस्तुत करती कविता है जो अपने अंत तक आते-आते सत्ता की दमनकारी मंशा को उघाड़ती है-‘ जहाँ प्रत्येक व्यक्ति है शक की निगाह में/ जहाँ औरतों के कौमार्य का/ लिया जा रहा प्रमाण पत्र/ उनके स्तनों के निचोड़ से।’ ‘विजय गान’ जैसी छोटी कविता हिंसा के खिलाफ एक प्रभावी शांति गीत की तरह है। युवा कवयित्री पम्मी राय में आगे जाने की अपरिमित संभावनाएँ हैं। जिस कवि के अंतर्मन में शांति खरगोश के मुलायम बच्चे और बुजुर्ग तमाम तूफानों के बीच खड़े यूकेलिप्टस की तरह आते हों, उससे ये उम्मीद जायज भी है।

 

 

पम्मी राय की कविताएँ

1. गीली मिट्टी गीली आँखें

मैंने देखा , हाँ मैंने भी देखा है
सड़क के किनारे
गीली मिट्टी पर रखे
तीन ईंटों के बीच
गीली लकड़ियों को सुलगाते हुए
क्षुधा तृप्ति की चाह से भरी आँखों को
धुएँ से भर जाते हुए

एक पतीला जो पड़ चुका है काला
चार कोनों से टूटा हुआ
उसे आँच पर चढ़ाते हुए
तीन बर्तनों के सीमित भंडार से
एक ही को निकालते हुए
मैंने देखा, हाँ मैंने भी देखा है।

फिर कुछ आगे बढ़ देखा मैंने
उसी के अंश को कचरे के ढेर से
कुछ जुटाते हुए
और कूड़े से भी दुत्कार भगाए जाते हुए
एक मैली पैंट और गंदे बोरे के साथ
पूरे शहर का चक्कर लगाते हुए
जहाँ बैठ आने लगती सबको उबकाई
उसे वहीँ बैठ
कचरे में मिली रोटी को खाते हुए
मैंने देखा, हाँ मैंने भी देखा है
एक को नभ के विस्तृत छोर
तो दूूसरे को रसातल में जाते हुए।

 

 

2. हम ग्लोबल हो गये हैं

हम ग्लोबल हो गए हैं
ऊँचे हमारे मनोबल हो गये हैं
विश्व हमारा घर बना
अनजाने पड़ोसी हो गये हैं
हम ग्लोबल हो गए हैं,
हम सत्ता पर काबिज हो गए हैं

विदेशों से हृदय के तार जुड़ गए हैं
अपने माँ बाप से हम मुड़ गए हैं
छोड़ कर सहानुभूति ,मानवता
हम दोहरा अपना संकल्प
बदला लेने के लिए
गिर गए थे
हाथ झाड़ खड़े हो गये हैं
हम ग्लोबल हो गये हैं।

हो रही मित्रता नेट पर
क्योंकि साधारण मित्र
नहीं मिलते अब चैट पर
हाकीमों से ताल्लुकात हो गये हैं
हम ग्लोबल हो गये हैं।

 

3. अनसुनी आवाज

रमई घर नहीं लौटा
बंद हो गयी है उसकी चीखती आवाज
पोंछ रहा था जब वो
गर्दन तक गड्ढ़े में उतरा
मिट्टी खोदने से आये पसीने को कि
गूंजने लगी वह सरसराती आवाज
उतरने लगी उसके कानों से दिल तक
नुकीले विष पगे तीरों की तरह
जिसमें किया जा रहा था वादा
समुचित विकास और मुआवजे का
दिया जा रहा था उसे वक्त
उस जमीन को खाली करने का
जिसमें न जाने उसकी
कितनी पीढ़ियों की आँखे
उगी हुई देखती रहती थी उसे

सुनी नहीं गयी उससे वह आवाज
एक चीख ही तो निकाली थी उसने
इस विकास के खिलाफ
अपने पीठ पर महसूस करते हुए
उन पीढ़ियों की आँखों को
इंकार ही तो किया था उसने
अपनी जमीन छोड़ जाने से
कि सरसराती आवाज के साथ
एक गोली चली गयी थी
उसके गले के पार
ताकि न निकल पाए दूसरी चीख
और इस तरह खोद दी गयीं
कई पीढ़ियों की आँखें
और दबा दिया गया रमई को
उनके बीच……
रमई को निगल गयी उसकी ही जमीन
अपना ही आसमान टूट गिरा उसपर
अनसुनी की जब उसने
शासन की उस गूंजती आवाज को।

 

4. शक्लों में ढलती कविता

i)

गुजरते हुए सड़कों से
बटोर लेती हूँ मैं किनारे बैठे
तमाम मजदूरों के चेहरों की स्याही
बना लेती हूँ एक कविता
जो दिखने लगती है
एक मजदूर की शक्ल में
चमकने लगती है पसीने के रंग में।

ii)
गुजरते हुए वृद्धों के साथ
झूलने लगती हूँ मैं
उनके एकाकीपन में
जो अवसरवादी समाज के विरूद्ध
एक लम्बी प्रतिरोधी खामोशी है
जो तमाम तूफानों के बीच
सफेदे की तरह खड़े हैं।

Iii)
हँसते हुए मैं ले लेती हूँ उधार
रोते मनुष्यों से थोड़ी रुलाई
भर लेती हूँ अपनी कविता में
ताकि थोड़ी और भावुक
हो सके मेरी कविता
जिससे वह पिघल जाये
उन तमाम दुखों पर
मेरी हँसी फैला दे उन पर

iv)
गाते हुए मैं गुनगुना लेती हूँ
उन गीतों को भी
जो अपने में समाहित किये हुए हैं
युगों की युद्धों की गाथाएँ
जिससे मेरी कविता
भर सके अपने आप में गीतात्मक युद्ध
और लड़ सके अन्याय के विरूद्ध
संवेदनात्मक युद्ध
मांग लाती हूँ अपने सदी के महान कवियों से
उनके प्रिय विस्फोटक शब्द

5. महकते गीत

मेरी माँ के गीतों से भी उठ रही है
ठीक-ठीक वही महक
जो मेरी आजी के गुनगुनाये गीतों में थी
ठीक वही महक
जो आती है चूल्हे पर चढ़े पतीले के खदबदाते भात से
भरी है इस महक में
अनेक पीढ़ियों की
चिर संचित अभिलाषाएँ
नयी दुल्हन की पायल की रूनझुन
दालान में बैठे बाबा की लाठियों की ठनक
विदा होती बेटी की
हाथों का चावल
जो देती है मायके को
अपनी मंगलकामनाओं के साथ
अपने हिस्से आये थोड़े से अनाज से
भूखे बच्चे की हाथों की
छोटी कटोरी की खन-खन और
मेरी माँ की नई साड़ियों का आँचल का धागा
जो बाँध आती थी वह
पास के पीपल के पेड़ में
मेरी सलामती के लिए
आती थी सुना उसे भी
दो-चार गीत महक भरे
लाती थी माँग
लबालब भरी खुशियों और उम्मीदों की
एक नयी झोली
अभाव के दिनों में भी,
और अब मैं
बटोरती हूँ उस महक को हू ब हू
अपने भविष्य के लिए
बचाए रहती हूँ अपने अतीत को….।

 

6. चिड़ियाँ,बच्चे और आदमी

उस खिड़की के पार
जिसके पार जाना
हो आप के लिए निषिद्ध
होती है एक रंगीन दुनिया
एक गाढ़ी रंगीन चिड़िया की चहचहाट
एक अबोध बच्चे की अधखुली मुस्कान
और एक स्त्री
अपने में सिमटी हुई
सबके लिए खुली
आप छू लेना चाहेंगे बार- बार
उस पार के कोहरे की ठंढी चादर
अपने गर्म तासीर बदन में
महसूस करना चाहेंगे एक सुरीली ठंड
पर जैसे ही बढ़ाएँगे अपने हाथ
खुद को पाएँंगे खड़ा
उस खिड़की से कोसों दूर
उस दुनिया में
जहाँ रंगीन चिड़िया
बदल चुकी होगी शिकारी बाज में
और बच्चा कुटिल व्यक्ति में,
औरत तो दिखेगी ही नहीं आपको
बस दिखेंगी कुछ बेदखल आत्माएँ
कनफुसियाँ करते हुए,
और आप खुद को बचाते हुए हर छुअन से।

 

7. आदमीयत

सूरज और चाँद की मिलीजुली रोशनाई से
मैं लिखूँगी तुम्हारा नाम
मेरे बच्चे ……
कि तुम पैदाईश हो आदम की
कि तुम्हें समझना है
स्वर्ग-नर्क के घालमेल को
कि तुम्हारी आने
वाली अनेक पीढ़ियाँ
इस प्रश्न के आइने में
धारण करेंगी अपनी नस्लें
कि कैसे चुना तुमने
स्वर्ग-नर्क के जादुई जद के बीच से
मनुष्य होना …
तुम्हें लिखना होगा
इन हर्फों के परे
मनुष्य, मनुष्यता और जंगल-जमीन।

8. आग-पानी

आग और वीणा की तान में
वे ढूँढ रहीं ब्रह्माण्ड
उनकी पुतलियाँ छू रहीं दो दिगंत
वे आँखों की बाट पर माप रहीं
जीवन और मृत्यु

वे सृजन की आँच में
सेंक रहीं रोटियाँ
वे पहुँचा रहीं उन्हें
सभी नाइजीरियाई औरतों के हाथ में
जहाँ जुबान पर नमक का स्वाद
पारे की तरह बेस्वाद है
जहाँ जीवन का मतलब जंग
और बाकी सब ‘बोको हराम’ है
वे पानी पर तैरा रहीं अगाध स्वप्न
वे पैदा कर रहीं अभी भी बेटियाँ
वे भविष्य की पीढ़ी के लिए
अभी बचाए रखना चाहती हैं
आग , पानी और जंगल के साथ-साथ
जमीन के भीतरी तलों से उठती गंध को
वे इन सबको मिलकर बचाना चाहती हैं
युगांडा, इराक, सीरिया, भारत, पाकिस्तान
और भी देशों की तमाम औरतों के साथ
जहाँ आग बर्फ बन चुकी है
वे अभी नदी की धार की तरह
समुन्द्र की गहराईयाँ मापना चाहती हैं।

 

9. प्रेमिकाएँ

आजकल की प्रेमिकाएँ
नोट करती हैं डायरियों में
जोड़ती हैं हिसाब-किताब
कितने फूल, कितने उपहार,
प्रेम के कितने गीले शब्द,
वे जोड़ती हैं पाई-पाई
अपनी डायरियों में
वे लिखती हैं कि….
‘तुम्हारा कोई दोष नहीं ..
तुम्हारा कोई दोष नहीं’
वे दोहराती हैं इसे कई बार..
हम ही डूब गयीं थीं प्रेम में
फिर चुनती हैं वे
बनारस का सबसे खूबसूरत पुल-विश्वसुन्दरी…
वहाँ रूक वे देर तक बतरस करती हैं उससे
पर नहीं जानती कि
उन जैसी अनेक प्रेमिकाओं ने
गुजरते हुए वहाँ से
दिया होगा उसे ये नाम-विश्वसुन्दरी..
कि तब से वह भी डूबा हुआ है प्रेम में
वे कूदती हैं गंगा में …
वे प्रेम में डूब कर
पानी में डूबने का डर भूल गयी हैं वे नदी और प्रेम में फर्क करना नहीं जानती
उबार लेते हैं कभी उन्हें आस-पास के लोग
तो कभी बन जाती हैं वे जलपरियाँ
वे असफल प्रेमिकाएँ नहीं हैं
वे सदियों में एक
प्रेम करने में सबसे समर्थ प्रेमिकाएँ हैं …..

 

10. क्या ढूंढ रही हैं औरतें

घरों से निकल रही हैं औरतें
परम्पराओं के कलेवर में
रस्मों को निभाते हुए
तोड़ रही हैं बंदिशे
न सिर्फ भावनाओं की
बल्कि कपड़े,बर्तन,रसोई घर के
चौखटे के साथ-साथ ,उनकी जकड़न से
अपने आप को छुड़ाने की जद्दोजहद
पहुँच रही है भाषा तक
वे कर रही हैं हल
भाषा की श्लीलता-अश्लीलता के प्रश्न
तोड़ रही हैं तमाम भाषाई सीमायें
वे इकट्ठा हो दे रही हैं गालियाँ…….गीतों में
वे खोद रही हैं मिट्टी
पानी भरे गड्ढे में
ढूँढ रही हैं समुन्दर
वे समुद्र और गड्ढे का फर्क मिटा रही हैं

वे मना रही हैं मटकोर
वे हुलस-हुलस गा रही हैं
सबके लिए अश्लील गालियाँ
जीवन के माधुर्य में लपेट
वे तोड़ रही हैं मान्यताएँ
बाँट रही हैं धान, वे कूटेंगी उसे
अपने-अपने घरों की ओखलो में
पकाएँगी अरवा भात
भरेंगी अरवा की गंध
अपने नथुनों से कलेजे तक
इन सब के बीच बचा ले रही हैं
खास अपने लिए एक आदिम दिन
जीवन भर के लिए….

 

 

11. जंगल के आईने से

जहाँ अतीत के आईने से
झाँंकता चेहरा वर्तमान का
पड़ चुका है और भी बदरंग
निकल रहा जुलूस हर रोज
देशी-विदेशी लूट का
जहाँ जंगल दिया गया है बदल
लाल टापू में ….
जहाँ इस्पात के रंग को
छुपा दिया गया है खून के रंग में
वे फूलबूटों और संगीनों की
खटकती आवाज से
पैदा कर रहे आदम मन में थर्राहट…
जल, जंगल, जमीनों के नाप
और भूख से की गयी
आत्महत्याओं के समीकरण
कर रहे हैं वे हल आग से ..
जहाँ हिंसा और प्रतिहिंसा के अर्थ को
बना दिया गया है समानार्थी

जहाँ प्रत्येक व्यक्ति है शक की निगाह में
जहाँ औरतों के कौमार्य का
लिया जा रहा प्रमाण पत्र
उनके स्तनों के निचोड़ से …
हाँ और ना के कबूलनामे के मध्य
निकाला जा रहा गर्भ-शिशु
चीरकर फूले हुए पेट से आदिवासी औरत के…

दशकों में जोड़ कर दहाईयाँ
बुझाई नहीं जा सकती
आग और आँसू की बारूदी चिंगारी
विकास प्रेत के भरोसे
जीता नहीं जा सकता
आबरू और आत्मा की धार से जंग
जहाँ सिसकते बचपन की
रूई के फाहे-सी आवाज
दबा दी गयी है
चिंघाड़ती गोलियों के शोर में
और अभी बिलकुल अभी
गूंजी है एक धाँय की आवाज
दंतेवाड़ा से गया …
बुद्ध की गोद तक
साथ ही एक बच्चे की चीख भी

 

12. खिड़की

हर शाम जब भी खोलती हूँ खिड़की
मेरी माँ की आँखे चमकने लगती हैं
तारों के बीच से
और तभी मेरे पिता
हवा के झोंकें के साथ
पोंछ जाते हैं मेरे माथे का पसीना,
उनके उम्मीदों के पंखों के सहारे
चाहती हूँ उड़ना वहाँ तक
जहाँ से चाँद फंेकता है अपनी रोशनी
उस रोशनी में नाचती हुई
चाहती हूँ उतरना उन गलियों में
जहाँ छोड़ गए होते हैं बच्चे
खेल में टूटे जूते
रेशमी रिबनें और ताम्बई अंगूठियाँ
लाना चाहती हूँ इन्हें बटोर
अपने कमरे के बीच
घर के आँगन को बना देना चाहती हूँ कच्चा
बो सकूँ उजाले के पौधे
वैसे ही जैसे बो देती थी
बचपन में अक्सर सिक्कों को
खूब फलने की आशा में

और इस तरह
बूढ़े होने से पहले
ठीक-ठीक मैं बच्चा होना चाहती हूँ।

 

13. विजयगान

विजयगान गा रहे हैं बच्चे
उनके दुधमुँहे मुख से
निकल रहे हैं उल्लास के गीत
वे बजा रहे हैं नगाड़े
अपनी कौम की शांति के
वे भविष्य बना रहे हैं
ढाल कर साँचे से

वे तुम्हारी तमाम साजिशों के खिलाफ
अपनी मासूमियत को बचा ले जाएँगे
तुम्हारी टैंकों और गोलियों को
मिट्टी के खिलौनों में तब्दील करने में
वे हो गये हैं माहिर ….
तुम्हारे इतिहास के बरक्स
वे लिखेंगे शान्ति-शान्ति
और खरगोश के बच्चे-सा मुलायम प्यार।

 


 

कवयित्री पम्मी राय, जन्मः 10 अगस्त 1992, देवरिया (उ.प्र.)

शिक्षाः काशी हिन्दू विश्वविद्यालय से परास्नातक

सृजनः कुछ पत्रिकाओं में कविताएँ प्रकाशित, मुक्तिबोध स्मृति काव्य प्रतियोगिता में द्वितीय स्थान

सम्प्रतिः हिन्दी विभाग, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में शोधरत।

सम्पर्कः कमरा नं. 19, कामकाजी महिला छात्रावास, न्यू मेडिकल एन्क्लेव, काशी हिन्दू
विश्वविद्यालय, वाराणसी- 221 005 (उ.प्र.)

मोबाइलः 09532117256

ई-मेलः pammiraibhu@gmail.com

 

टिप्पणीकार निरंजन श्रोत्रिय ‘अभिनव शब्द शिल्पी सम्मान’ से सम्मानित प्रतिष्ठित कवि,अनुवादक , निबंधकार और कहानीकार हैं. साहित्य संस्कृति की मासिक पत्रिका  ‘समावर्तन ‘ के संपादक . युवा कविता के पाँच संचयनों  ‘युवा द्वादश’ का संपादन  और शासकीय महाविद्यालय, आरौन, मध्यप्रदेश में प्राचार्य  रह चुके हैं. संप्रति : शासकीय स्नातकोत्तर महाविद्यालय, गुना में वनस्पति शास्त्र के प्राध्यापक।

संपर्क: niranjanshrotriya@gmail.com

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

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