समकालीन जनमत
साहित्य-संस्कृति

कविता युग की नब्ज धरो !


 उषा राय 


‘हजार साल पुराना है उनका गुस्सा
हजार साल पुरानी है उनकी नफरत
मैं तो सिर्फ उनके बिखरे हुए शब्दों को
लय और तुक के साथ लौट रहा हूँ
मगर तुम्हें डर है कि आग भड़का रहा हूँ।’


ये पंक्तियां हैं उस इंकलाबी कवि की जिसका नाम है गोरख पांडे और कविता है-‘तुम्हें डर है।’उनका जन्म सन् 1945 में उत्तर प्रदेश देवरिया में हुआ था। पढ़ाई लिखाई की सिलसिले में वे बनारस हिंदू विश्वविद्यालय पहुंचते हैं वहां की राजनीतिक मसखरीयुक्त गतिविधियां, दलित और स्त्री विरोधी बातें उन्हें पसंद नहीं आती है। इसी मानसिक बिखरावकी स्थिति के साथ वे दिल्ली में जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय पहुंचते हैं और दर्शनशास्त्र की पढ़ाई करते हुएअपनी थीसिस लिखने में जुट जाते हैं। 1983 में उनका पहला काव्य संग्रह आता है-‘‘जागते रहो सोने वालों।’’ इसी संग्रह में उनके वे  भोजपुरी के गीत हैं जिनसे विद्यार्थी जीवन में ही उनकी लोकप्रियता काफी बढ़ गई थी। 1985 में जसम का गठन होता है। गुरशरण सिंह अध्यक्ष और गोरख पांडेय महासचिव चुने जाते हैं। गोरख पांडेय नेतृत्वकारी भूमिका में आते हैं और कई महत्वपूर्ण लेख लिखते हैं तथा घोषणा पत्र की तैयारी में अहम भूमिका अदा करते हैं। और इसी तेजी के साथ 29 जनवरी 1989 में वे अपने हॉस्टल के कमरे में आत्महत्या कर लेते हैं।
वह दिन था जब  जे.एन.यू. कैम्पस के बाहर असंख्य लोग खड़े थे। उनमें से एक मैं भी थी। मैं अपनी थीसिस ‘समकालीन हिंदी कविता में व्यंग्य और शिल्प’ के लिए उनका साक्षात्कार लेने के लिए पहली बार उनसे मिलने गई थी। मेरे लिए उनका ऐसा अंत आघातकारी था। दुनिया की मारकाट, अन्याय और कातिल व्यवस्था ने असमय ही हमसे छीन लिया। लेकिन उनका लेखन इतना समृद्ध और विशाल था कि  मृत्यु के पश्चात उनके तीन कविता संग्रह आते हैं- ‘स्वर्ग से विदाई’, ‘लोहा गरम है’ और ‘समय का पहिया’।
उनकी महत्वपूर्ण कविताएं सन् 70 और सन् 80 के दशक की हैं। सन् 70 के दशक में लिखी जाने वाली कविताएँ सन् 60 में लिखी जाने वाली कविताओं से अपने आप को मुक्त करने के लिए छटपटा रही थीं। यही छटपटाहट समकालीन कविता की भूमिका बनती है। इस कविता को खाद पानी सन् 60 के दशक के आन्दोलनों से मिलता है। सन् 67 में नक्सलबाड़ी आन्दोलन होता है। उसके बाद किसानों और छात्रों के कई आन्दोलन होते हैं। यहीं से गोरख पांडेय जैसे कवियों को साफ-सुथरी जमीन और निश्चित दिशा मिलती है।इस समय की लिखी हुई कविताएं नई बातें कर रही थीं और नई समस्याओं को उठा रहीं थीं जैसे- पर्यावरण, साक्षरता, पोषण, जलशुद्धि, गरीबी, बेरोजगारी आदि। वस्तुतः ये कविताएं जनसमस्याओं के लिए प्रतिबद्ध थी और जनसंघर्षों से आबद्ध थीं। जैसा कि शुरू में मैने उनकी पंक्तियां उद्धृत की थी कि ‘तुम्हें डर है कि आग भड़का रहा हूँ तो यह सच है कि उनकी कविता में व्यंग्य है और केवल व्यंग्य ही नहीं, बल्कि व्यंग्य अपने सारे तत्वों के साथ मौजूद है जो व्यवस्था को बेनकाब करने में पूरी तरह सक्षम है। व्यंग्य के बहुत से भेद होते हैं अंग्रेजी में भी और हिंदी में भी। मोटे-मोटे व्यंग्य के केवल चार तत्वों को लेते हैं- सेटायर ,विट, आइरनी और पैथॅास।
इसके बरक्स उनका एक गीत लेते हैं- मैना। यह भोजपुरी बोली में है। इसकी पहली लाइन है-‘एक दिन राजा मरले आसमान में उड़त मैना/बान्हि घर ले आइले मैना ना।
 एक दिन राजा ने आसमान में उड़ती हुई मैना का शिकार किया और उसे बांधकर अपने घर ले आया। इस गीत में राजा कौन है यह स्पष्ट है, राजकुमार कौन है यह भी स्पष्ट है और मैना तो बहुत ही स्पष्ट है जो कि आम आदमी है जनता है। इस पूरे गीत में सेटायर दिखाई देता है किस तरह राजकुमार और राजा मैना के साथ मनमाना आचरण करते हैं और क्रूरता की सारी हदें पार कर जाते हैं। दूसरा है विट, मतलब कहने का तरीका। असमान तरीके से बात करना लेकिन आश्चर्यजनक समानता का मिल जाना। जैसे इस गीत में है कि-‘‘पहिले पाँखि कतरि के कहलें अब तू उड़ जा मैना/ फिर टांग तोड़ि के कहले अब तू नाच मैना/फिर- गला दबा के कहलें अब तू गाव मैना ना।’’ इस गीत के द्वारा गोरख कहना चाहते हैं कि- अभिव्यक्ति की आजादी पर हमला, वैचारिकी का मजाक उड़ाना, जनता की संघर्ष शक्ति का कुचला जाना, जनता को उसकी जड़ों तक हिलादेना,बेचारगी के हद तक पहुंचा देना कुत्सित राजनीति का हिस्सा होता है। अब इसी गीत को आइरनी की नजर से देखते हैं जिसका अर्थ है वास्तविकता को किसी दूसरे तरीके से कहना। इस गीत में जब राजा कहता है -सीखोकि जनता को कैसे चूसा जाए। तब राजा की क्रूरता पूरी तरह उजागर हो जाती है और यह सब मिलकर के एक पैथॉस की सृष्टि करते हैं अर्थात रचना का करूण अवसान। ये कुछ व्यंग्य के रूप है जो उनकी रचनाओं में देखने को मिलता है।
 गोरख पांडे का कथ्य नया था और भाषा भी नई थी। उनकी भाषा में वे सभी गुण मौजूद थे जो समकालीन कविता की भाषा की विशेषताएं होती हैं। भाषा की विशेषता में वे सपाटबयानी को मानते हैं लेकिन सपाट होना सरल होना नहीं है। उनकी कविता यदि व्यवस्था की कुंद और रूढ़ तत्वों को ध्वस्त कर नई उपयोगी और विकासशील बातें करती है तो उनकी भाषा भी कलागत रूढ़ तत्वों को ध्वस्त करती हुई सार्थक रचना प्रक्रिया में प्रवाहमान होती है। यह पारम्परिक नहीं है और बहुत नया अबूझ भी नहीं है। यह मुक्त कंठ से फूटा हुआ सहज रूप से बजता है और बहता है। दरअसल भाषा और विचार वही मूल्यवान है जिसका जीवन से सीधा सरोकार है।‘कलाकला के लिए’ उनकी कविता है जिसमें वे कहते हैं कि-

‘कला कला के लिए हो/जीवन को खूबसूरत बनाने के लिए/ना हो/रोटी रोटी के लिए हो/खाने के लिए ना हो।’’

इसी तर्क को वे आगे तक ले जाते हैं कि मजदूर केवल मेहनत करने के लिए हों और उनकी स्थिति में कोई परिवर्तन न हो ,तो उनके लिए इस कला रोटी और मजदूर के बारे में फिर से सोचना पड़ेगा।अब आते हैं समकालीन कविता की विशेषताओं पर। जब कथ्य बदलता है तब भाषा बदलती है तो फिर शिल्प कैसे नहीं बदलेगा। दरअसल गोरख पांडे की सबसे बड़ी विशेषता उनका शिल्प है जो उन्हें उनके चाहने वालों और जनता के करीब ले आती है। शिल्प में गीत है और गीत भी कैसे, यह लोक कथाओं की शैली में है, जो जनता के सबसे ज्यादा करीब होती है। उनकी कविताएँ कहानी कहती हैं जैसे -‘भूखी चिड़िया की कहानी’-
‘एक थी चिड़िया/चिड़िया भूखी थी/उड़ी दाने की खोज में।’

अब यह दाने की खोज करते-करते वह राजा के गोदाम तक पहुंचती है जहां वह मारी जाती है। वह मारी क्यों जाती है क्योंकि वह भूखी थी, इसलिए वह गुनहगार थी, इसलिए वह मारी जाती है। दूसरी कविता ‘बुआ के लिए’ इसमें भी कहानी है- बुआ एक कम उम्र की लड़की है जिसके पति का देहांत हो जाता है समाज के लिए वह भी समाप्त हो जाती है लेकिन उसकी जिजीविषा उसे जीवित रखती है।वह गांव के लोगों के लिए जो कुछ वह कर पाती है- करती है। गोरख की मार्क्सवादी दृष्टि बुआ को भी कटघरे में खड़ा करतीहै कि  बुआ तुम छुआछूत क्यों करती हो। उनकी एक और कविता है-‘ सातसुरों में पुकारता है’ यह कहानी अनुपम है यह उसलड़की की कहानी है जो अपने ससुराल में सजावट का सामान नहीं बनना चाहती है। वह इस व्यवस्था की व्यर्थताबोध को अच्छी तरह समझ जाती है, वह अपनी माँ से कहती है-

‘तुमने जाना है किस तरह/स्त्री का कलेजा पत्थर हो जाता है/पत्थर हो जाती है स्त्री/महल अटारी में/सजाने लायक।’

और वह दूर से उस योगी के पुकार को सुनती है जो संगीत के साथ सात सुरों  में उसका नाम पुकारता है।गोरख पांडे की तमाम कविताओं में जो स्त्री-चेतना दिखाई देती है, वह बहुत ही संवेदनशील, आधुनिक है, उसमें एक गहरा प्रेम और गहरा जुड़ाव दिखाई देता है जो बहुत बड़े-बड़े लेखकों में नहीं पाया जाता है। जरा सी नाखून की खरोंच से उनके भीतर की पितृसत्तात्मक सोच बजबजा जाती है। गोरख पांडेय की यह बेहतरीन कविता है-‘बंद खिड़कियों से टकराकर’।

‘‘घर-घर में श्मशान घाट है/घर-घर में फांसी घर है/घर घर में दीवारें हैं/दीवारों से टकराकर/गिरती है वह/गिरती है आधी दुनिया/सारी मनुष्यता गिरती है।’’

इस कविता की रोशनी में आज के हालात को अच्छी तरह देखा और समझा जा सकता है।

वक्त ने इस महबूब कवि को बहुत ही कम वक्त दिया लेकिन बिना काव्य तत्व को नष्ट किए उन्होंने विश्व राजनीतिक अन्तर्दृष्टि की पकड़ मजबूत रखा। उनका आदर्श वाक्य था-‘कविता युग की नब्ज धरो। समय की हर धड़कन को महसूस करते हुए इन्हीं पंक्तियों को चरितार्थ किया। ‘कैथरकला की औरतें’कविता का पाठ करते हुए इस लेख को विराम देती हूँ।

( संपर्क -65 अवास विकास कॉलोनी, मॉल एवेन्यू , लखनऊ-1 )

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