समकालीन जनमत
कविता

नरेश अग्रवाल की कविताएँ जनता के संघर्षों की सहचरी हैं

विपिन चौधरी


यह संसार आश्चर्य से भरा हुआ है लेकिन अभी तक सभी आश्चर्य खोजे नहीं जा सके हैं. मगर दुख खोज लिए गए हैं। सारे के सारे दुख जो हर संवेदनशील के मन को चीर डालते हैं. वैसे दुख किसी भी कोने में दबा हुआ हो, कहीं भी छुपा हुआ बैठा हो कवि उन्हें खोज ही लेता है और उसकी उत्पत्ति को जानने की हर संभव कोशिश करता है. इस बीच वह खुद भी हैरान परेशान रहता है कि बाकी संसार को इस दुख से कोई फ़र्क क्यों नहीं पड़ता. वे क्यों सुख भरी नींद सो पाते हैं. क्यों उनकी आँखें दूसरों के दुखों पर नहीं टिकती. यही हैरान परेशान कवि दुनिया में वे तमाम दुश्वारियों को अपने करीब ले आता है और अपने कवि मन से उन्हें देखता है और व्यथित हो उठता है.

कवि नरेश अग्रवाल इस दुनिया में होने वाली उठापटक के बीच प्रकृति में हो रही हलचलों को देखते हैं  और मनुष्य जीवन से उसकी तुलना करते हैं। यह तुलना ही उनकी कविताओं के मिज़ाज को अलहदा बनाती हैं.  वे अलग-थलग कर दी गई चीज़ों के हिमायती बनकर सामने आते हैं. और हाशिये पर रहने वालों का चुनाव करते हैं, ठीक उस धूल की तरह जिसे साफ़ कर दिया जाता है यह भूल कर की  बिना इस धूल के जीवन की कल्पना नहीं की जा सकती.

अब मित्रता केवल मेरी धूल से
जिसे अब तक किसी ने न चुना था
इसे ही माथे पर लगाकर
महसूस करता हूं लगाव
ऐसे लोगों से
जिन्हें समझा गया
हमेशा धूल की ही तरह!

प्राकृतिक संसाधनों का बंटवारा, जीवन की मूलभूत आवश्यकताओं से वंचित जनता, एक दूसरे के दुख दर्द का सहारा बनती वनस्पतियाँ, मार काट पर तुली दुनिया को देखकर उसकी विवेचना करते कवि के पास हमेशा उम्मीद का हथियार रखता है जिसके ज़रिए वह बड़े से बड़े मसले हल कर सकता है.

नरेश भी उसी उम्मीद का दामन अंत तक नहीं छोड़ते. उन्हें तयशुदा फ़ेम में चीज़ों को फिट कर देखना कतई नहीं सुहाता इसीलिए उनकी कविताओं में जन की बात है उस आम जन की बात जो मेहनत की कमाई खाता है सुख की नींद सोता है.

यह दुख पेड़ से बिछुड़ने
डाल से अलग कर दिए जाने का है
इसमें सारे विस्थापित जनों का
दुख भी शामिल!

नरेश जन चेतना के कवि हैं वे हमेशा वंचितों के साथ नज़र आते हैं उनकी कविताएं भी उन्हीं कामगारों की तरह अनगढ़ हैं जो अमीरों के जीवन को सँवारते-सँवारते खुद खत्म हो जाते हैं.

आज के इस आडंबरवादी समाज में नरेश जैसे कवि ही आम लोगों की जुबान बनते हैं और उनके दुख तकलीफों को बात करते हैं उनके अनुसार अभी सबका जीवन इतना हरा नहीं हो सका है कि सब कोई उस हरियाली को देख पाए और उसे महसूस कर पाए. अभी कई पड़ाव पार करने हैं और वंचितों को न्याय दिलवाना है क्योंकि इस पृथ्वी पर मौजूद एक भी व्यक्ति जब तक भूखा सोएगा तब तक  सभी क्रांतियाँ नाकाम ही मानी जाएंगी.

 

नरेश अग्रवाल की कविताएँ

 

1. चयन

सभी बच्चों ने
अपना साथी चुना
किसी ने पहाड़
किसी ने नदी
किसी ने तालाब
वृक्षों को भी किसी ने नहीं छोड़ा
चींट, मकोड़े, पशु-पक्षी
सफेद बादल तक
सभी के साथी बन गए

मैं सभी का चुनना देखता रह गया
उनकी मित्रता के आश्चर्य से भर गया
अंतिम घोषणा मेरी थी
नहीं कुछ बचा था लेने को
सारा कुछ चुन लिया मित्रों ने

मैं सभी में बुद्धिमान
और मेरा चयन
कितना धीमा और कमजोर

हमेशा देर की मैंने
कभी पकड़ नहीं पाया
चांद और सूरज
पेड़ तक लंबे हो गये मुझ से

अब मित्रता केवल मेरी धूल से
जिसे अब तक किसी ने न चुना था
इसे ही माथे पर लगाकर
महसूस करता हूं लगाव
ऐसे लोगों से
जिन्हें समझा गया
हमेशा धूल की ही तरह!

 

2. सब कुछ बदल जाता है

सभी चकमा देते रहते हैं
एक दूसरे को
वेष बदल-बदल कर

दीवारें रंग बदल लेती हैं
पेड़ अपना स्वरूप
नदियां थोड़ा-थोड़ा सूखती हैं
एक दिन पूरी सूख कर
पहचान खो देती हैं

सब कुछ बदल जाता है
बादलों की तरह
विशाल दिखने वाला पहाड़
अचानक लुप्त हो जाता है
भरी हुई जेब बाजार लूट लेती है
तने हुए कंधे जल्द ही झुक जाते हैं
चांद देखते-देखते आधा हो जाता है
गर्मी ठंड में बदल जाती है

सभी कुछ तो हम बर्दाश्त करते हैं
साथ ही बर्दाश्त की सीमा भी बढ़ाते रहते हैं

पूरी तरह एक दिन पत्थर हो जाने के बाद
टूटते नहीं, टिके रहते हैं
अपने खड़े रहने के लिए
दूसरों को ठोकर देते रहते हैं

 

3. मांगते ही रह गए

किसी में ताकत नहीं
खून के धब्बे
आकाश तक पहुंचा दे
लड़ा दे सितारों को
काबू में कर ले अपने
जरूरत पड़े तो मार गिराए उन्हें

आसमान हर खतरे से सुरक्षित
सारा खून-खराबा जमीन पर
दबे कुचले लोगों के बीच
जिनकी चीख में कोई आवाज नहीं

खान में मजदूर मरे
मछुआरे नदी में डूब गए
भुखमरी ने लोगों का दम तोड़ा
हजारों मारे गए लड़ते-लड़ते
सभी को लुप्त होते देखता रहा आकाश

कहते हैं आकाश के पास वह सब कुछ है
जो हमारे पास नहीं
फिर भी दया नहीं रत्ती भर

समृद्धि मांगने के लिए जिनके हाथ
उपर उठे
वे उठे के उठे रह गए
कफन भी खरीद न पाये मृत्यु तक

 

4. जीवित चित्र

वह मूंगफली का ढेर लगाए
सड़क किनारे बैठा है
हर दिन की तरह
थोड़ा-थोड़ा तौल रहा
तौलते-तौलते
ग्राहकों का इंतजार कर रहा

एक आ रहा
दूसरा जा रहा
उसका ढेर धीरे-धीरे कम हो रहा
साथ ही खुशियों में थोड़ी वृद्धि

यही उसके हर दिन की दिनचर्या
यही उसके सारे जीवन की कथा
जो कैनवास में बने
एक चित्र की तरह दिखती है

यह वैसा चित्र जो
सृष्टि के चित्रकार ने बनाकर यहां रख दिया है

यह जीवित चित्र
जो अपनी जगह से हिल-डुल नहीं सकता
बड़ा भी नहीं हो सकता, न ही छोटा

अपनी एक सीमा में बंधा हुआ
हर एक बाजार में है दृश्यमान!

 

5. कब्जा अंगूठे पर

मेरे पिता ने सुलाते हुए
मुझे एक कहानी सुनाई
उस जमाने की
जब हस्ताक्षर या अंगूठा लगाने जैसी
कोई चीज नहीं थी

न कोई मालिक
न कोई नौकर
जो जितना उगा ले, जहां उगा ले
उतनी फसल उसकी
अधिक होती तो वह बांट देता

पिता के पिता बीमार रहते थे
कभी काम नहीं कर सके
भाईयों के अनाज से
अपनी जिंदगी बचाई

मरते समय एक बात कही
जो अब तक याद है कि
जमाना बदलेगा
कमजोर को कोई नहीं खिलाएगा
वह सताया जाएगा बुरी तरह से
नरक दिखेगा धरती पर

ऐसा कहा था उन्होंने
एक शेर की आंखों को देखकर
जो अक्सर आने लगा था
बहुत भूखा था
पहले शांत रहा फिर दहाड़ने लगा
एक रात, एक मादा देह को
उठाकर साथ ले गया

जब वापस लौटा
तीन बच्चे थे उसके साथ
आदमी की शक्ल में
दिमाग था गुस्सैल एवं रोबदार
ताकत भी
ठीक उसी शेर की तरह

देखते-देखते उन्होंने
कब्जा किया पहले जमीन पर
फिर सभी के अंगूठे पर

वो डर सभी पर हावी है आज तक
ठीक उसी तरह
जैसा होता है एक शेर का

 

6. हम तटस्थ हैं

उन्होंने कहा
न हमें नदी से लेना-देना
न ही उसके तट से
हम तटस्थ हैं
इसलिए इसे मैला करके
वापस मुड़कर देखते भी नहीं

इस देश में कोई अपराध नहीं
तटस्थ की भूमिका निभाने में

आप वोट मत दीजिए
आप गवाही मत दीजिए
आप आलोचना मत कीजिए
आप चोरी डकैती होने दीजिए

बलात्कार होता देखकर भी
चुप रहिए
यह कोई अपराध नहीं
क्योंकि आप तटस्थ हैं

तटस्थ होने का आपको लाभ है
आप बच जाते हैं झमेले से
हानि है बहुत बड़ी उनको
जिन्हें न्याय नहीं मिलता

आपकी चुप्पी का गुस्सा
आपके मुंह पर थूक कर नहीं
सजा काटकर निकालते हैं लोग

अगर आप तटस्थता छोड़
तट पर आएं तो न्याय मिलेगा
समय आने पर आप को भी

 

7. शांति संदेश

एक कबूतर उड़ता हुआ आया
सैनिकों के पास
सफेद कागज में था
शांति संदेश
चोंच में दबा हुआ

उसे लिया नहीं गया
वापस छोड़ दिया
कबूतर फिर उड़ा
दूसरे पक्ष को भी दिखाया
यही संदेश
तीसरे, चौथे
पूरी दुनिया तक ने
नहीं माना

सभी की सीमाएं
थर्रा रही है युद्ध के लिए
ललकार रही भीतर ही भीतर
जैसे किसी को
किसी पर विश्वास नहीं

कोई नदी को छीनने को तैयार
तो कोई समुद्र पर कब्जा चाहता
हर जमीन पर कड़ा पहरा

हार कर
कबूतर ने छोड़ा यह संदेश
एक धर्म स्थल पर
टकराकर इससे
घंटियां बज उठीं

अब देश की रक्षा का संबंध
केवल मनुष्य तक सीमित नहीं
धर्म से भी जुड़ गया!

8. आपराधिक इतिहास

उसने विगत के तीस सालों का
आपराधिक इतिहास निकाला
शहर का

चिह्नित किया घटनाओं को
चिह्नित किया स्थानों को
चिह्नित किया लोगों को
सारे आंकड़े चौंकाने वाले थे

लगभग हर जगह
हर घर, हर दुकान, हर परिवार से
दर्ज था मुकदमा
जो दर्ज नहीं हो सका
मुखबिरों ने उनके राज खोले

अधिकारी दंग रह गया
जहां वह बैठा था
सबसे अधिक अपराध यहीं हुए
लेकिन केस कहीं दर्ज नहीं

उसने महसूस किया
वह एक खूनी कमरे में बैठा है
जहां पीड़ित आत्माएं छटपटा रही
रुपए उड़ रहे हैं, शराब महक रही
औरतों की आह, गालियों की बौछार
क्या नहीं, जिसे अपराध न कहें

एक ही उपाय समझ में आया
जगह छोड़ना या काम छोड़ देना

उसने कमरे का दरवाजा बंद किया
ताला मारा
पेड़ के नीचे बैठकर
इस विषय में सोचने लगा

जैसे ही सिर उठाया
ऊंची डाल पर
लटकी हुई
एक गोल रस्सी दिखी

जिसकी परछाई
उसके पैरों तले दबी थी

वह इतना डरा
जैसे प्रेतात्माएं हर जगह मौजूद

फिर दृढ़ निश्चय कर
सारी परेशानियों को झटक
नए सिरे से काम में जुट गया

9. कोई अमीर कैसे

पोते ने दादी से
बड़ी मासूमियत से पूछा
कोई अमीर कैसे बनता है

दादी ने अंटी से सिक्का निकालकर
दिखलाते हुए कहा
इसके सहारे

पोते ने उसे छुआ
मजबूत तो था लेकिन बेहद हल्का
दादी ने रुपया दिखाया
यह तो और हल्का

पोता ठीक से समझ नहीं पाया
उसकी आतुरता देखकर दादी ने कहा
बहुत सारा, पूरे महल जितना, शहर जितना
केवल एक बोरी अनाज की तरह नहीं
असंख्य किसान की देह जितना
सिक्के जमा होने पर
बनता है कोई अमीर

पोता कुछ नहीं बोला
समझ गया
उसका पिता नहीं है अमीर
पूरा गांव इसी तरह

तब दादी ने
उसका चेहरा पढ़ते हुए कहा
लेकिन यह बात भी सही
अमीरों के पास
हमारी जैसी खुशियां नहीं

इसलिए तो छीनकर ले जाते हैं
बार- बार हमसे खुशियां

 

10. बढ़ई

कहते हैं वह खानदानी बढ़ई था
जीते जी उसने
ढेर सारे दरवाजे और खिड़कियां बनाई
सुन्दर-सुन्दर नक्काशी की सभी पर

मरा तो लकड़ियां ढक दी गयी शरीर पर
फिर आग लगा दी गयी
हमेशा के लिए
राख कर देने वाली

बर्दाश्त नहीं कर पाया वह
इतना बड़ा दुख
जीविका चलाने वाली चीज से
जलाये जाना देह को

कुछ समय के बाद
फिर से जन्मा
प्रायश्चित किया पेड़ बनकर
फिर कटा
बना दरवाजे और खिड़कियां
किसी-किसी ने टहनियां सुलगाकर खाना भी पकाया

अपने अंग के सैकड़ों टुकड़े होते देखकर
मरा नहीं फिर भी वह
कहते हैं बीज में प्रवेश कर गया
बचाता रहा जंगलों को

अब वह बढ़ई नहीं
जड़ें फैलाने वाला जीव था!

 

11. जंगल राज में

सिंह तालाब का पानी पी रहा
जी भर के पी रहा
मालिक की तरह पी रहा
राजा की तरह पी रहा

वह तट पर नहीं जैसे दरबार में है
पूरी पानी की थाल रखी हुई सामने
इतनी अधिक तृप्ति
जैसे आकाश की परछाई को पी रहा

खत्म नहीं हुआ यह सिलसिला
इसके बाद बाघ पिएगा
चीता पिएगा
लकड़बग्घा और भालू भी

बड़े से छोटे तक का यह क्रम
चलता रहेगा शाम के अंतिम पहर तक

अंत में आएगा छोटा सा खरगोश
छुपते-छुपाते
मुलायम चमड़ी को बचाते
ढकते अंधकार से अपनी देह
डरते-डरते दो घूंट पिएगा
आहट से पीछे हटेगा
फिर वापस आकर पिएगा

जंगल का यही कानून
सबसे छोटा डर-डर कर जियेगा
सिंह हमेशा राज करेगा
प्रजातंत्र को
चींटियों की तरह मसलेगा!

 

12. बिछुड़ने का दुख

प्रिय मित्र
मेरी कठपुतली की भेंट स्वीकार करो
बहुत सुंदर लेकिन अकेली है यह
नृत्य नहीं कर सकेगी
इसे लटकाना भी मत धागों से
सजा कर रखना
काठ की अलमारी में

काठ के साथ मिलकर
उसकी मित्र हो जाएगी
कभी-कभी पेड़ की तरह दिखेगी
नन्ही डालियों की तरह
हाथ-पांव हिलाने-डुलाने की कोशिश करती हुई

अभी भी मौजूद इसमें पेड़ से जुड़ने की चाह
यह उदासी उसकी आंखों में दिखती है

यह दुख पेड़ से बिछुड़ने
डाल से अलग कर दिए जाने का है
इसमें सारे विस्थापित जनों का
दुख भी शामिल!

 

13. नाव

पेड़ को काटकर
नाव बनाई गयी
उसी से हम नदी पार कर रहे

अब इसे कोई पेड़ नहीं कहता
डाल भी नहीं कहता
न जड़, न पत्तियां
सभी केवल नाव को पहचानते हैं
जो पानी में डूबी रहती हर पल
लेकिन किसी को डूबने नहीं देती

रात होते ही
गुलामी की रस्सी से बांध दी जाती
पड़ी रहती है किनारे पर

सितारे हंसते हैं इस पर
चिड़िया चोंच मारती है
पूछती है कहां है जगह
घांसला बनाने के लिए

निरुत्तर नाव सुबह फिर चल पड़ती है
अपनी सूनी देह लिए
फिर से अपने काम पर
भले इस पर पत्ते नहीं
लेकिन यह पेड़ ही तो है!

 

14. यह वही है

उस व्यक्ति के पास
न मशाल है न तलवार
न डंडा न कोई झंडा
बिल्कुल अकेला

इतना कमजोर
हाथ भी न उठा सका
जब पुकारा गया

बगल वाले ने
हाथ ऊंचा उठाते हुए कहा
यह वही है जिसे सभी खोज रहे
भिक्षुक नहीं
सबसे कम तनख्वाह पाने वाला
गांव का वृद्ध
एक बेसहारा

केवल हाथ दिखा
दरअसल यह भी उसका नहीं
है एक
जाली राशन कार्ड बनाने वाले का
जो उसकी बगल में खड़ा

अनाज टपक कर था
उसके राशन कार्ड से
जो नहीं जा रहा
इस भूखे पेट में
जा रहा था
उसके नाम से
दूसरों के भरे हुए पेट में

सारी चीजें शून्य हो गईं

उन्होंने मेरे कमरे की चाबी छीन ली
कहा अब यह घर मेरा है
दूसरों ने मेरी डिग्री फाड़ दी
कहा यह झूठी है फिर से पढ़ो

मैंने परीक्षा दी
किसी ने पन्नों को नहीं जांचा
शून्य चढ़ा दिया मेरे आगे
अब और कितने शून्य लूं
शून्यों से भर गया है संसार
हर जगह शून्य

खेद है अब मुझे
मेरी आंखें केवल शून्य ही देख पाती हैं
लगता है सारी चीजें शून्य हो गईं
जबकि ढूंढ नहीं पा रहा
शून्य में छुपे हुए लोगों को
नहीं समझ पा रहा उनके आघात को

बस चोट को देखता हूं
मरहम-पट्टी कर रहा हर दिन
मेरी तरह ही क्षतिग्रस्त है यह संसार

 

15. भार ढोने वाली नाव

क्या फलों के पास स्वतंत्रता है
कभी न पकने की
कच्चे ही आजीवन रहने की
कभी वंचित न होने की
डालियों के संसर्ग से
न ही वंचित होने की
अपनी जड़ों से

नहीं है ऐसी स्वतंत्रता
फूलों के पास
कि वे कभी न सूखे
अपनी सुगंध न खोयें

न ही तिनकों के पास
कि हवा का ले उडाना रोक सके
या पानी में बहने की बजाए रुके रहें

मेरी स्वतंत्रता कितनी?
यह भी एक प्रश्न चिन्ह
जब हर तरफ दबाव
इसे छीने जाने का

यह शरीर तो मेरा है
ये भूख भी मेरी
लेकिन यह छोटा सा दिमाग
दूसरों की सत्ता
जिस पर पर राज कर रही
कि भूल गया हूं
परिवार का होना
घर द्वार सभी कुछ

हमेशा व्यस्त
स्वयं को बचाने के लिए
अब मनुष्य भी कहां रहा
दूसरों का भार ढोने वाली
नाव बन गया हूं!

 

16. पुरस्कार

उसका एक ही काम था
मास्टर की किताबें पोंछना
फिर वापस उन्हें रखते जाना
जो एक नहीं असंख्य थीं

बारी-बारी से उसके हाथों में आतीं
वापस सेल्फ में रख दी जातीं
वह सजाते-सजाते नहीं था परेशान
परेशान था कि एक को भी पढ़ नहीं पाता
परेशान था कि धूल केवल उसके पास
ज्ञान मास्टर के दिमाग में

वह परेशान रहा उस दिन तक
जब काम करने लायक नहीं रहा
अंतिम दिन बच्चों की कुछ कॉमिक्स चुरा कर
घर ले आया अपने बच्चों के लिए
उन्हें निरक्षर से साक्षर बनाने के लिए

यह चोरी नहीं थी
बल्कि वह पुरस्कार
जो मास्टर ने कभी नहीं दिया!


 

 

कवि नरेश अग्रवाल, 1 सितम्बर, 1960 को जमशेदपुर में जन्म। अब तक साहित्यिक कविताओं की 14 पुस्तकों का प्रकाशन, स्वरचित सूक्तियों पर 3 पुस्तकों, शिक्षा सम्बन्धित 4 पुस्तकों का प्रकाशन। 

देश की लगभग सारी स्तरीय साहित्यिक पत्रिकाओं में कविताएँ प्रकाशित। पिछले 10 वर्षों से लगातार ‘मरुधर के स्वर’ रंगीन पत्रिका का सम्पादन कर रहे हैं, जो आर्ट पेपर पर छपती है।

‘हिंदी सेवी सम्मान’, ‘समाज रत्न’, ‘सुरभि सम्मान’, ‘अक्षर कुंभ सम्मान’, ‘संकल्प साहित्य शिरोमणि सम्मान’, जयशंकर प्रसाद स्मृति सम्मान, अंतरराष्ट्रीय विश्व मैत्री मंच कविता सम्मान, स्पेनिन साहित्य गौरव सम्मान, झारखंड-बिहार प्रदेश माहेश्वरी सभा सम्मान, सतीश स्मृति विशेष सम्मान, किस्सा कोताह कृति सम्मान, कमला देवी पाराशर हिन्दी सेवा सम्मान, ‘हिंदी सेवी शताब्दी सम्मान’ देश की ख्याति प्राप्त संस्था बिहार हिंदी साहित्य सम्मेलन, पटना द्वारा महामहिम राज्यपाल द्वारा दिया गया।

यात्रा के बेहद शौकीन तथा अब तक 14 देशों की यात्रा कर चुके हैं। निजी पुस्तकालय में साहित्य एवं अन्य विषयों पर करीब 5000 पुस्तकें संग्रहीत।

सम्पर्क –
नरेश अग्रवाल
हाउस नंबर 35, रोड नंबर 2
सोनारी गुरुद्वारा के पास
कागलनगर, सोनारी
जमशेदपुर – 831011

दूरभाश – 9334825981, 7979843694
e mail id: nareshagarwal7799@gmail.com

 

टिप्पणीकार विपिन चौधरी समकालीन स्त्री कविता का जाना-माना नाम हैं। वह एक कवयित्री होने के साथ-साथ कथाकार, अनुवादक और फ्रीलांस पत्रकार भी हैं.

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