समकालीन जनमत
कविता

मुन्नी गुप्ता की कविताएँ अपने समय की पीड़ा और परिदृश्य के सच को उजागर करती हैं

निरंजन श्रोत्रिय


समकालीन युवा काव्य परिदृश्य में मुन्नी गुप्ता एक दस्तक देता हुआ नाम है। उनकी कविताओं में व्यंग्य और कटाक्ष छितरा हुआ है लेकिन अपने समय की पीड़ा और परिदृश्य के सच को उजागर करने के संकल्प के साथ! वे मानो अपने समय के किरदारों की शिनाख्त कर रही होती हैं।

यह सब वे एक बेपरवाह अंदाज़ में करती हैं याने हल्के-फुल्के अंदाज़ में। जब हम इस बेपरवाही को चीरकर उनकी काव्य मंशा तक पहुँचते हैं तो हमें वहाँ एक अलग ही संसार का सच नज़र आता है। ‘चुप्पी साधने की कला’ कविता में वे उसी अंदाज़ में चुप रहने का ‘महत्व’ बताती हैं। ‘मेरी चुप्पी के पुरोधा/ मेरे समय के कलमसाज हैं/ जिसने समझाया मुझे/ चुप्पी के मायने।’ जिन्हें चुप्पी के खिलाफ एक ताकत बनना था वे ही इस भयावह चुप्पी की गिरफ़्त में हैं। अंजाम क्या होना है, स्पष्ट है।

‘वह लड़की’ कविता में एक लड़की की छोटी-छोटी आकांक्षाओं के जरिये एक वितान खींच दिया गया है। वह लड़की प्रतीक्षा में है और हमारा क्रूर समय अचानक उसकी हथेली पर एक जलता अंगारा रख देता है। वह हकदार तो फूल झरने की थी। कविता में यह सब बहुत खूबसूरती से रचा गया है।

‘समय का रंगमंच और अदाकार’ कविता में कैरम बोर्ड के खेल के जरिये कवयित्री सत्ता और राजनीति का एक रेखाचित्र खींच देती है। काली-सफेद गोटियों के बीच लाल रंग की रानी गोटी सतत निशानेबाजों से घिरी रहती है। यह सत्ता प्राप्ति का दुष्चक्र है। इन निशानों में षड़यंत्र हैं, दुरभिसंधियाँ हैं, समझौते और व्यापार है।

‘जी हाँ, सिर्फ पाँच’ कविता के माध्यम से मुन्नी गुप्ता ने लोकतंत्र के पाँच स्तम्भों की पड़ताल की है। इन पाँचों चेहरों पर दम्भ, अभिमान और श्रेष्ठता बोध वगैरह है। कविता के क्लाईमेक्स में कवयित्री इन सभी चेहरों को बेपर्दा कर देती हैं-‘ और हर चेहरा/ अपनी मुलामियत के साथ बैठा था/ अपने भीतर के मीलों फैले जंगल को दबाये/ मुलामियत को ओढ़े/ ये मासूम-से पाँच चेहरे।’

‘सफेदी पुते चेहरे पर’ कविता में स्त्री के प्रतिरोध से बौखलाए समाज की हिंसा पर अंगुली रखी गई है। समाज के दृश्यमान और उजले-से दीख रहे चेहरे के पीछे जो कालिख भरा इतिहास है, सजग स्त्री उसका पर्दाफाश कर रही है। स्त्री तमाम असुरक्षाओं और ज़्यादतियों के बीच निहत्थी ही रही है लेकिन उसकी सच बोलती ज़ुबान हमें नाकाबिले बर्दाश्त है।

‘गर तुम जी चुको’ एक छोटी मगर गहरी कविता है। यह दृढ़ता, संकल्प और हौसले की कविता है। अपने निर्णय के प्रति आस्था और निश्चय व्यक्ति को स्थापित करने में महती भूमिका निभाते हैं। जब कोई चाँद होने की ठान ले तो समूचा आकाश उसी का है। ‘विषाक्त दीमकों का कुनबा’ समाज की उन विघटनकारी ताकतों पर कड़ा प्रहार है जो अफवाहों, साजिशों, दूषित मंशाओं और घृणा के माध्यम से पूरी सामाजिक संरचना को तार-तार कर देना चाहती हैं। इन ताकतों के द्वारा किये जा रहे दुष्कृत्यों के विलोम में कवि अपनी आकांक्षाएँ रेखांकित करता है। बनाने वाले हाथों के द्वारा तोड़ने की क्रिया कवयित्री को एक व्यथा से भर देती है।

‘मैं किस बात पर हँसूँ’ कविता में चंद तंज भरे प्रश्न हैं जिनके जरिये पुरूषसत्ता को चुनौती दी गई है। जाहिर है कवयित्री ने अपनी विशिष्ट शैली के ही अंतर्गत ये सुलगते सवाल किये हैं। तमाम अनाचारों और शोषण के बावजूद सत्ता यह चाहती है कि शोषित ‘खुश’ दिखे। खुश होना उसकी प्राथमिकता नहीं। यह सब दिखने-दिखाने का कार्य-व्यापार है। तो सवाल ये है कि तमाम उपेक्षाओं/हिंसाओं को सहते हुए हँसने का अभिनय कैसे किया जाए! जाहिर है ये सुलगते सवाल सत्ता को असामान्य बल्कि विक्षुब्ध करने के लिए पर्याप्त हैं। इस कविता में एक राजनीतिक चेतना के दर्शन होते हैं।

‘हकीकत’ कविता पूँजीवादी सत्ता द्वारा श्रमिक वर्ग के शोषण की दास्तां है। कविता में शोषक-शोषितों के बीच गहरी खाई को दर्शाते हुए उनके अतार्किक दमन पर काव्य-वक्तव्य हैं।

‘धरोहर’ कविता की ताकत की कविता है। कवि और कविता का अल्पसंख्यक समाज किस कदर सत्ता द्वारा बनाए गए शासकीय/न्यायिक संस्थानों द्वारा प्रताड़ना का शिकार होता है, कविता साहसिक रूप से बयां करती है। सबसे आसान होता है सच को मुकदमे में झोंक देना।

‘इंतज़ार’ कविता उन चिट्ठियों के बारे में है जिनका चलन अब लगभग न के बराबर है। कुछ-कुछ अंडरटोन-सी यह कविता लिखे शब्दों की प्रतीक्षा, यात्रा और मनोभावों का वृत्तांत है। मुन्नी गुप्ता एक ऐसी संवेदित कवयित्री हैं जो मितभाषा, कटाक्ष और दहकते सवालों से अपनी कविता संभव करती हैं। यह एक अलग किस्म का तेवर है। वह तेवर जो चुप्पी की कला जानते हुए भी बोलने के साहस में अंततः परिणत होता है।

 

मुन्नी गुप्ता की कविताएँ

1. चुप्पी साधने की कला
मेरी चुप्पी के पुरोधा
मेरे समय के बुद्धिजीवी
जिन्होंने बताया मुझे
चुप्पी साधने की कला
मेरी चुप्पी के पुरोधा
मेरे समय के कलमसाज हैं
जिन्होंने समझाया मुझे
चुप्पी के मायने
मेरी चुप्पी के पुरोधा
मेरे समय के इन्कलाबी फनकार हैं
जिसने समझाया मुझे
चुप्पी का अनहद नाद
मेरी चुप्पी के पुरोधा
मेरे समय के अक्षर शिल्पी कारसाज़ हैं
जिसने बताया मुझे
ज़बान खोलने की कीमत क्या है।

 

2. वह लड़की
वह लड़की
देखना चाहती थी आसमान
छूना चाहती थी सफेद बादलों के टुकड़े
उड़ना चाहती थी आसमान में
बूँद की तरह
बरसना चाहती थी बूँद-बूँद
हर दिन वह बालकनी से झाँकती आसमान
कहती अपनी माँ से
आसमान में छोटे-छोटे
सफेद फूल खिले हैं
तुम दे जाओ मुझे
और हथेली फैलाए
फूल झरने की बाट जोहती
एक हाथ
उसकी तरफ बढ़ा
और अंगार रख कर चला गया।

 

3. समय का रंगमंच और अदाकार
तुमने एक खेल रचा
कैरम बोर्ड पे गोटियाँ सजाई
और स्ट्राइकर दे दिया
नन्हे मासूम हाथों में
वे समझ नहीं पाए
तुम्हारा खेल
और चल दी बाज़ी
सारी सजी गोटियाँ बिखर गईं
अब एक-एक करके
सभी को लगाने हैं
निशाने
रानी निशानेबाजों से
घिरी है।

 

4. जी हाँ, सिर्फ पाँच
पाँच चेहरे थे
मेरे सामने
जी हाँ, सिर्फ पाँच
एक के चहरे पर
जंगल का नक्शा था
दूजे चेहरे पर जाति का दम्भ
तीसरे चेहरे पर घोड़े का अभिमान था
चौथे चेहरे पर श्रेष्ठता का बोध
और अंतिम चेहरा, जी हाँ पाँचवां
जाति, श्रेष्ठता, अहम, पवित्रता का गर्व पाले
धरातल से कुछ इंच ऊपर
स्वर्ग की देवी का था।
चारों चेहरे इस देवी के दास थे
और हर चेहरा
अपनी-अपनी मुलामियत के साथ बैठा था
अपने भीतर के मीलों फैले जंगल को दबाए
मासूमियत को ओढ़े
ये मासूम-से पाँच चेहरे।

 

5. सफेदी पुते चेहरे पर
सफेदी पुते चेहरे पर
आग और खून एक साथ
नाच रहे थे
वह अपनी भाषा में
खरोंचे जा रहा था
सामने
निहत्थी स्त्री को
स्त्री की भूल बस इतनी थी कि
उसने बता दिया था
अपनी ज़बान में उसकी सफेदी में छिपे
काले इतिहास को।

 

6. गर तुम जी सको
अपने फैसले के साथ जीना
चाँद होना है
गर तुम जी सको
चाँद बन कर
तो सारा आकाश तुम्हारा है।

 

7. विषाक्त दीमकों का कुनबा
कितना अच्छा होता
गर तुम
एक भूखे आदमी के बारे में सोचते
एक नंगे आदमी का तन ढकते
एक अधमरे के होंठ पर खुशियाँ बिखेरते
बजाय साजिश रचने के।
तुम खुश रहे पूरे दिन
खबरें पहुँचाते रहे
अपने खबरिया कुनबे को
और विषाक्त कीटाणुओं का यह कुनबा
मसमसाहट और दुर्गन्ध को
पूरे शहर में खबर-सा पहुँचाता रहा
मैं सोचती रही
पढ़े लिखे लोगों की यह जमात
कितनी विषाक्त हो गई
पूरा शहर
इन दीमकों की चपेट में है।

 

8. मैं किस बात पर हँसूँ
तुमने मुझसे कहा-हँसो
मैं भी हँसना चाहती हूँ
पर तय तो करो
किस बात पर हँसूँ
उस बात के लिए
जब तुमने मेरी उँगलियाँ मरोड़
कलम तोड़ दी थीं
या उस बात के लिए हँसूँ
जब सरेराह मेरी मुस्कान को नीलाम कर
मुझे मीना बाज़ार बना डाला
या उस बात के लिए हँसूँ
जब मेरे पाँव काटकर
अपने साम्राज्य के तंग तहखाने में कैद कर लिया
या उस बात के लिए हँसूँ
जब मेरे आज़ाद पंख नोचने की साजिश रची थी
या जब तुम
मुझे अपाहिज बनाने का
हर दांव चल रहे थे।
तुम्हीं कहो किस बात पर हँसूँ
मैं हँसना चाहती हूँ
सच में
हँसना चाहती हूूँ
पर पहले यह तय तो करो
कि आखिर मैं हँसूँ किस बात पर?

 

9. हकीकत
ग्यारहवें मास चिट्ठी मिली कर्महारे को
लिखा था-‘अधिकारी असंतुष्ट हैं आपके कामकाज से..’
और दोनों कर्महारे तत्काल सेवा से बर्खास्त किए गए
कैसे और कहाँ
यह बताए बिना सिर्फ फरमान जारी किया गया
कई मौसम बीतने के बाद भी
यह अबूझ पहेली बना रहा
ज़माने के लिए कि
आखिर ऐसा क्या हो गया?
पर सिर्फ कर्महारे जानते थे
इस जन्नत औ जहन्नुम की हकीकत…।

 

10. धरोहर
ये चिट्ठियाँ ऐतिहासिक धरोहर हैं
हिफाजत से रखी हैं सारी चिट्ठियाँ
ये ही तय करेंगी सच की दिशा
और कविता की ताकत
आने वाले कल में…
ये चिट्ठियाँ ही तय करेंगी
आततायी हमलावर हुए थे कविता के लिए
कविता दिलों को चीरते हुए
मुकदमों के मैदान में आ खड़ी हुई
कविता ने सभी पक्ष खुद सम्भाले
खुद पेशकर्ता खुद ही मुजरिम
अदालतें कविता की जिरह बर्दाश्त न कर सकीं
कविता निचली अदालत से अपर अदालत में है
मामला लंबित है
कविता पर मुकदमा जारी है….।

 

11. इंतज़ार
जब मैं यात्रा पे होती हूँ तो एक चिट्ठी
मेरा इंतज़ार कर रही होती है
जब यात्रा से लौटती हूँ तो फिर एक चिट्ठी
मेरा इंतज़ार कर रही होती है
चिट्ठियों के बहाने ही सही
तुम्हारे दिलो-दिमाग की करतूतों से कम-से-कम
वाबस्ता तो हूँ
वरना जब हँसते हुए वे तुम और सब हमसे रूबरू होते हैं
इन चेहरों की हँसी से हम परीशाँ होते हैं
षड़यंत्र से भरी मुस्कानें बहुत कुछ कहे शून्य छोड़ जाती हैं
खुलासा तब होता है जब
एक चिट्ठी फिर किसी पते पर मेरा इंतज़ार कर रही होती है।


कवयित्री मुन्नी गुप्ता , जन्मः 4 फरवरी 1979, कोलकाता
शिक्षाः कलकत्ता विश्व विद्यालय से एम.ए., पी-एच.डी.
सृजनः एक कविता संग्रह ‘कविता पर मुकदमा’ प्रकाशित, बांग्ला से हिन्दी अनुवाद की पुस्तकें -‘ एक विदुषी पतिता की आत्मकथा’, ‘प्रेयसी नहीं मानती’ प्रकाशित। सुबोध सरकार की कविताओं का अनुवाद प्रकाशित। 
पुरस्कारः गोदावरी देवी स्मृति पुरस्कार, भवानी योगेश्वरी साहित्य सम्मान, निर्मला स्मृति अनुवाद साहित्य सम्मान, अनुबंध साहित्यश्री सम्मान। 
सम्प्रति/सम्पर्कः सहायक प्राध्यापक, हिन्दी विभाग, प्रेसीडेन्सी विश्वविद्यालय, 86/1, कॉलेज स्ट्रीट, कोलकाता
मोबाइलः 9339966805
ई-मेलः  minnigupta1979@gmail.com

 

 

टिप्पणीकार निरंजन श्रोत्रिय ‘अभिनव शब्द शिल्पी सम्मान’ से सम्मानित प्रतिष्ठित कवि,अनुवादक , निबंधकार और कहानीकार हैं. साहित्य संस्कृति की मासिक पत्रिका  ‘समावर्तन ‘ के संपादक . युवा कविता के पाँच संचयनों  ‘युवा द्वादश’ का संपादन  और शासकीय महाविद्यालय, आरौन, मध्यप्रदेश में प्राचार्य  रह चुके हैं. संप्रति : शासकीय स्नातकोत्तर महाविद्यालय, गुना में वनस्पति शास्त्र के प्राध्यापक।

संपर्क: niranjanshrotriya@gmail.com

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