समकालीन जनमत
कविता

ज्योति की कविताएँ चुप्पी का सौंदर्य बयां करती हैं

ज्योति तिवारी को मैं पिछले लगभग पाँच वर्षों से जानती हूँ। ज्योति भी मुझे जानती हों ज़रूरी नहीं। वैसे तो वह ज़्यादातर निष्क्रिय ही  दिखाई देती हैं, लेकिन ज़रूरी नहीं कि वह निष्क्रिय हों भी। हो सकता है कि वे जानबूझकर चुप हों। उनके पास अपने चुप होने का तर्क भी हो। उनकी चुप्पी के पीछे उनका कोई अलग सौंदर्य हो। कोई विचार हो।
ज्योति की कविताओं में तीखा आक्रोश है। तीखा व्यंगय है, फिर भी यह चुप्पी है? इसका अर्थ हुआ कि ज्योति अपनी चुप्पी में ही अपनी असहमति व्यक्त करती हैं। अपना प्रतिरोध दर्ज़ करती हैं और अपना सौंदर्य भी उसी चुप्पी में रचती हैं। वे अपनी इसी चुप्पी को जीती भी हैं। इसका अर्थ यह भी हुआ कि वे तेज स्वर में बोलने से अधिक धीमी गति से लिखने की विश्वासी हैं। इसका प्रमाण उनके स्वाभव एवं व्यवहार में तो दिखाई ही पड़ता है, उनकी कविताओं में भी यह बात नज़र आती है।
वे लिखती हैं-

“मैं एक चुप्पा पागल होना चाहती हूँ
जिसे शोरगुल भरी भीड़ में पहचाना न जाय”।

वे पुनः लिखती हैं-

“जब शोरगुल के विरुद्ध हम चुप रहते हैं 
तो कमरे की मध्यम जलती रोशनी हमारे पक्ष में होती हैं

बहुत तेज रोशनीयों के बीच 
थोड़ी मद्धम रोशनी 
हमारी दोस्त लगती है”

जरूर ये कविताएँ शोरगुल के विरुद्ध खामोशी की कविताएँ कहीं जाएँगी। मैं कह सकती हूँ कि उनकी कविताएँ प्रलाप लिखने के लिए लिखना कभी नहीं होंगी। वे होंगी तो होंगी, नहीं होंगी तो नहीं होंगी।
ज्योति सिर्फ़ अपनी उपस्थिति बनाये रखने के लिए नहीं लिखेंगी। उनकी कविताएँ इसी तरह के चुप्पा पागलपन एवं चुप्पी का सौंदर्य हैं। उम्मीद है कि हर पागल चुप्पी को वे दर्ज़ करती रहेंगी।

प्रत्येक कवि कविता की दुनिया में प्रवेश अपने अनुभव से करता है। ज्योति का भी सभी प्रकार का अनुभव उनकी कविताओं में दर्ज़ है, जिसे देखने के लिए किसी खुर्दबीन की ज़रूरत नहीं पड़ती। उनके लड़की होने का अनुभव, एक छोटे कस्बे से होने का अनुभव, इस भागती दुनिया में धीरे चलने का अनुभव सब कुछ कविता में दर्ज़ हो रहा है। लेकिन जैसे-जैसे वह कविता में बड़ी होती जाती हैं स्वयं का अनुभव सर्वजनीन में परिणत होता जाता है।
ज्योति की कविताएँ स्त्री जन्य अनुभव से, अपने होने के अनुभव से पैदा होकर, लेकिन स्त्री मात्र से आगे बढ़ती दिखाई पड़ती है। परंतु मैंने  यहाँ उनकी स्त्री जन्य अनुभव ,पीड़ा एवं आक्रोश को ही प्रमुखता से लिया है।
वे अपनी कविताओं में स्त्री के आत्म एवं श्रम की पहचान को खोजती हैं। जिससे स्त्री को हमेशा ही दूर रखा गया। उस पहचान से स्त्री को अलग रखने की एक घनघोर पीड़ा दिखाई पड़ती है, जो तीखे आक्रोश में बदल जाती है।
वे लिखती हैं-

“रात नींद में वह जोर से बड़बड़ा रही थी 
कि जब लोगों ने कहा कि तुम गोबर हो
तब तुम्हें कहना था 
कि गोबर से उपला बनता है
उपले से चूल्हा जलता है
चूल्हे पर भात पकता है
भात से पेट भरता है
और फिर गोबर कहता मुंह
लम्बी डकार लेता
खटिया पर धम्म से गिरता है
और घर्र-घर्र खर्राटे लेता है…” 

अब यह बात हम सभी जान ही गए हैं कि यह सब कुछ जो चमकता, चमचमाता, चलता, भागता, आगे बढ़ता, बदलता और गति में दिखाई दे रहा है उस सबके पीछे कोई न कोई स्त्री खड़ी है। यदि इसी बात को दूसरी तरह से कहें कि इन सबके आगे एक स्त्री खड़ी है, तो अतिश्योक्ति नहीं होगी। लेकिन फिर भी उसका काम दूसरे दर्ज़े का ही ठहराया जाता है और उसकी योग्यता को भी। ज्योति इस बात को बहुत ही ‘एग्रेसिव’ तरह से संज्ञान में लेती हैं अपनी कविताओं में और सभ्यतागत इस नकार को ख़ारिज करती हैं।

कविता की क्लासिक परिभाषाओं को स्त्री कवियों ने बार-बार चुनौती दी है। उन्होंने कविता को पुनर्परिभाषित किया है। स्त्री ने कविता को किसी गोष्ठी में नहीं सीखा, न दोस्तों के बीच गप्प लड़ाते हुए उसे अर्जित किया। स्त्री जीवन में कविता,  बैठकर चिंतन-ममन करने से भी नहीं पैदा हुई। वह ज़रूर उसके ज़रूरी काम के क्षणों में आई होगी। जब न वह उसे टाल सकती थी और न ही दर्ज़ कर सकती थी। यक़ीनन इसी तनाव बिंदु पर उसे मिली होगी कविता। या सृजन का कोई भी सूत्र।

ज्योति एक स्थान पर लिखती हैं-

” मेरे लिए कविता
रसोई की खिड़की से दिखती
उस गली की तरह है
जिससे गुजरता
तंगहाल,फटेहाल, बदहाल प्रेमी
“होंठों से छू लो तुम मेरा गीत अमर कर दो” जैसा गाना
अपनी पूरी ठसक के साथ सुन सकता है।”

ज्योति को भी कविता रसोंई में मिली है। जहाँ आज भी स्त्री के जीवन का अधिकतम समय बीतता है। या फिर कहें जहाँ स्त्री अपना अधिकतम समय होम करती है।
ज्योति की कविताओं में हमारे निर्वासित जीवन की गहरी टीस है। जिसे वह भाषा में कहने की कठिन कोशिश करती हैं।

ज्योति लिखती हैं-

“हमारे सफर में ट्रकों के दमघोंटू धुएं
सहयात्रियों की उबासी भरी नींद
ट्रैक्टरों की कानफोडू खड़खड़ाहट
और सनकियों के धक्के शामिल होते हैं।
बदली,बादल,बरसात और चमचमाती सड़क 
सब बेकार की बातें है…
हम तो बस खूबसूरती की तलाश में
सफर पूरा कर लेते हैं।”

ज्योति की भाषा अनेक स्थानों पर कठोर हुई है। उसमें निष्ठुरता आयी है, निष्प्रियता आयी है, लेकिन एक कोमलता भी है। वह अपनी भाषा से औज़ार का भी काम ले सकती हैं और उसी से लिख सकती हैं प्रकृति को सुंदर प्रेम पत्र। ज्योति मौसम को हथेलियों से छू सकती हैं, उसे हृदयागत कर सकती हैं, पुनः अपनी भाषा में ढाल सकती हैं। ज़रूर इस बनती हुई बहुस्तरीय भाषाई दुनिया में से किसी को ज्योति अपने लिए अर्जित ही कर लेंगी।

‘समय’ जैसे दार्शनिक एवं जटिल विषय को अपनी कविताओं में एक स्त्री के नज़रिए से लिखने की कोशिश करती हैं। वे लिखती हैं कि ‘उनका समय जादूगर नहीं है लेकिन उस से बढ़कर सम्मोहन का कप्तान है’।
वैसे तो ज्योति की कविताओं की कोई विशेष प्रवृत्ति अभी लक्षित नहीं की जा सकती लेकिन ज्योति अपनी कविताओं में

नवीनता को दर्ज़ करेंगी, ऐसी उम्मीद करती हूँ। उनकी जितनी भी कविताओं से मैं गुज़री हूँ कह सकती हूँ उनकी कविताएँ अभी अपना आकार लेती हुई कविताएँ हैं। लेकिन आगे चलकर ज्योति ज़रूर अपने तरह की, अपनी बोली- बानी की एक प्रमुख कवि के रूप में हमारे सामने होंगी।

ज्योति के पास जो सुंदर दृष्टि है, उससे वे सुंदर दृश्य-विधान, सुंदर बिंब-विधान एवं भविष्य का सुंदर स्वप्न दर्ज़ करेंगी।

ज्योति की कविताएँ

1. उम्र और अनुभव

28 की उम्र तक लोगों ने उसपर इतने एहसान किये
कि उस एवज में हर गलती के नीचे उसके दस्तखत थे
जो गलतियां उसकी थी या कि नहीं थी
जो गलतियाँ उसकी हो सकती थी या कि नहीं हो सकती थी…

इत्तेफाक देखिए कि उसने उम्र के हर पड़ाव पर
किसी न किसी से जी भर नफरत की
ऐसी कि पास रहते लोगों को
सुबह उठकर देखने से बचती रही
दूर रहते लोगों के नाम पर
मुँह बिचकाती रही
इस तरह वह महान मानवीयता में
सेंध लगाती रही हमेशा…

उसे शायद भान था कि
प्रेम रिक्त जीवन में
मन और मान को इस कदर निचोड़ा जाता है
कि सत्ताओं के बीच उसकी कराह ठहाका लगे
और देखने वाले ईष्यालु हो गश खाये कि
हाय!हमारी किस्मत यूं अच्छी क्यों नहीं?

बाद के दिनों में उसने गौर किया कि
किसी छोटे बच्चे को लगता है कि
रो लेने से सारी जि़द पूरी होती है
और बहुत सी स्त्रियों को लगता है कि
रो लेने से सारे दुःख बह जाते हैं….
पर जि़द करता बच्चा माँ की सख्ती से परास्त होता है
और रोती स्त्रियाँ दुःख के जटिल शिक्षकपने से टकराती रहती है
इस तरह दोनों अधूरे मन को तकिये के नीचे दबा सो जाते हैं…!!

अब जब वह 29 पूरा करने वाली है
वह प्रेम के बारे में सोचती है
जो उसे उद्दंडता अधिक लगता है

प्रेम पढ़ने-लिखने-करने कि कोशिश में
वह गल्प लिखती है
हर बार जिसका सार यही होता है कि
बहुत सी लड़कियाँ तालेबन्द पेटियों में स्वाभिमान ढ़ोती हैं
जिसमें बाज़दफा दीमक लग जाते हैं
पर कई दफा पेटियों में पड़ा मान
ऊचक के कंधे पर भी बैठ जाता है
और उसे उतारने के चक्कर में
कंधे छीलते…..लहूलूहान होते रहते हैं!!

2. जो जिन्दा रहे तो वोटर बनेंगे..

मैं पूछ रही कि
वक्त की आब का कालापन
कहीं तुम्हारी आंखों का कालापन तो नहीं?
वैसे तो तुम ना अंधे हो, ना होने का नाटक करते हो
पर तब भी मुझे तुम्हारी पुतलियाँ सफेद दिख रही
और लग रहा कि आंखों का बाकी हिस्सा चीटियाँ चाट गयी हैं…!!

मैंने सुना था कभी कि महाराजाओं के राज में
कसक और चहक के आंसूओं में
कसक का हिस्सा ज्यादा होता है
और मूल्य उसका थोक के भाव होता है
शायद इसीलिए तुम और तुम्हारे नुमाइंदे
आवाम के सामने आंसूओं के बनिया बने फिरते हैं..!!

अच्छा एक बात बताओ!
मैं अपने बच्चे से यह कैसे कहूंगी कि
उसका मुल्क सारे जहाँ से अच्छा है..
क्योंकि उसे तो जन्मते ही कमरे की कैद मिली है
और उसे भरपूर दुलराने से पहले
मुझे तमाम एहतियात बरतने पड़ते हैं..
खैर!जाने दो!
जानती हूँ तुम जवाब में जेलखाना दिखाओगे…!!

अच्छा! सुनो तो सही!
तुम्हें अपनी फौज़ लाशों के ढ़ेर पर तैयार करनी है
इसलिए तुम्हारी मन की बातें
चूहेदानी में लगी रोटी जैसी लगती है
कि चूहे ने लार टपकायी और पटाक से पकड़ा गया!
अरे! नाराज़ मत हो..
मैं नहीं कह रही
यह तो बदला माहौल कह रहा…!!

पता नहीं तुमने देखा या नहीं
पर पहाड़ियों का शिखर भीतर घावों से नीला पड़ा हुआ हैं
और नदियाँ शर्म से सूखी रेत हुई जा
रही
और वो धरा!
उसे तो मैंने कल ही फुसफुसाते सुना कि
काश! मैं बंजर होती..!!

खैर! छोड़ो इन फिजूल बातों को..
तुम ना बस अपनी कुर्सी से चिपके रहना
ताकि कहीं कबूतरों का झुंड इसे ले ना उड़े..
बाकि हमारा क्या है…
हम जो जिन्दा रहे तो
फिर से वोटर बनेंगे
अलाने,फलाने, चिलाने, ढेकाने की
जय-जय करेंगे…!!

3. गर्भस्थ शिशु के लिए…

सुनो मेरे बच्चे
तुम जो अगर बेटी होकर आना
तो मेरी माँ की तरह आना
कि जुबां थोड़ी खुली रखना
और तुम जो बेटा होकर आना
तो मेरे पिता की तरह आना
कि थोड़ी सहनशीलता बचायें रखना

तुम अगर बेटी होकर आना
तो अपने स्वाभिमान को आँसुओं की
अन्तिम बूंद की तरह बचाये आना
कि जिसके गिरने की आशंका ही
धरती का भूगोल बदल दे
और जो बेटा होना तो
अपने अहं को कॉलर के मैल की तरह रगड़कर धोते आना
कि कभी अपना दुःख छिपाने के लिए
तुम्हें गुस्से की ओट ना लेनी पड़े..
तुम जो बेटी होकर आना
तो ऊसर जमीन पर पारिजात होना
कि जिसकी भीनी महक दूर सिवान तक फैलती जाये
और जो बेटा होना तो
पत्थर पर दूब होना
कि उम्मीदों की टिमटिमाहट कभी
मद्धिम ना पड़े…!

तुम जो बेटी होकर आना
तो अपने मिज़ाज में ज़रा सी सख्ती लेकर आना
और जो बेटा होना तो
अपनी सख्ती में नीमभर नरमी बचायें आना
कि तुम्हारा बस जरा-जरा सा ऐसा होना
मेरे थके पैरों के लिए
नदी की सिक्त सुकूनी रेत होना होगा…
जहाँ बैठकर मैं तुम्हारे स्वागत के लिए
क्रोशिए की झालरें बुन सकूंगी..!!

4. मानवीय होने के लिए…

प्रेम रहे या ना रहे
सहानुभूति बची रहनी चाहिए
कम से कम इतनी
कि चक्कर खाती कमजोरी से भरी स्त्री को
दिया जा सके हाथों का सहारा…

सुनती हूँ कि स्त्री होना
माया,ममता और मोह से पहचाना जाना है
तो मानवीय होने के लिए
इतनी संवेदनशीलता तो बची रहनी चाहिए
कि लड़खड़ा कर गिरती किसी स्त्री के
गर्भस्थ शिशु का हालचाल पूछा जा सके

मैं यह महसूसती हूँ कि
खुश रहने के लिए दूसरों से उम्मीद करना
खुद के प्रति बेईमानी है
पर फिर भी यह उम्मीद
इतनी तो बची रहनी चाहिए
कि हम उखड़ती साँसों के बीच
करीबी कहे जाने वालों से
माँग सके एक गिलास पानी…

बाँधे गये संबंधों की नाराजगी
बहुत भारी लगती है
इतनी जितनी दर्द से बोझिल सिर पर
एक बोरी आटा लाद देना
और कहना कि रास्तें में कोई नुकसान ना हो
सही-सलामत घर पहुंचा देना यह…!!

5. सृजन की संभावना

मैं सोचती हूँ कि
जीवन में इतनी खूबसूरती तो होनी ही चाहिए
जैसे किसी लहलहाती तुलसी के चौरे में
किसी बिरवे के पनपे की संभावना..!

पर जब मैं अलगनियों में अटकी
कपड़े की पिनों को देखती हूँ
तो लगता है जैसे तमाम किस्म के लोगों को
एक साथ टाँका गया है
जिनकी एकदूसरे से भरपूर तनातनी है…!

मैं निस्तब्ध रह गई जब मैंने देखा
कि बिल्लियों ने कई सारी छिपकलियों को नोच
आँगन को कब्रिस्तान बना दिया है
कबूतरी का नवजात बच्चा गिरकर मर गया है
और रोज रात छत पर बैठा बंदर
भयानक आवाज़ में रोने लगता है…!

मैं ज़रा भविष्य के प्रति आशंकित भी हूँ
क्योंकि मेरी चार साल की बेटी
मुझसे बुढ़ियों की तरह बात करती है
और मुझे उसको बच्चों की तरह सुनना पड़ता है
बावजूद कि हमें अपनी उम्र के फासलों का आभास है…

अब मैं सोचती हूँ कि चश्में देखकर
लोगों की उम्र का अंदाज़ा लगाना थोड़ा आसान है
पर आँखें देखकर अनुभव को
अंदाज़ना
कुछ ऐसा है जैसे भविष्य और जीवन के सूक्ष्म फर्क को रेखांकित कर
भयावह कल्पनाओं से बाहर निकलना…
और सृजनात्मक सुन्दरता के लिए
इतनी जगह बचाये रखना
कि अंडें देने के लिए छिपकलियां
ब्रशदानी को भी चुन सकें…!

6. मैं एक अधूरा मकान हूँ

मैं चौखट के बाहर
उतरते चप्पलों की तरह हूँ
कि जरूरत मेरी सबको है
पर इज्ज़त किसी की नज़र में नहीं…!

पर ये उम्मीदें!
ढ़ीठ घासों जैसी तो होती हैं
नोचें-फेकें जाने की नियति से भिज्ञ
हमेशा उग ही आती हैं
किसी न किसी कोनें-अतरें में…!

हम्म ! उस दरवाजे को मैनें चुना था
जिसके बाहर तख्ती लटकी थी
कि यहाँ बोलती स्त्रियों का प्रवेश निषेध है
पर साँसो की धीमी रफ्तार भी
इस दरवाजे की चूलें हीला देगी
इसका आभास था मुझे…!

और अब मैं
सबकी दृष्टि में एक अधूरा मकान हूँ
जिसके पुनर्निर्माण में कुशल कारीगरों की फौज खड़ी है
पर इसकी एक भीत बार-बार ढह जाती है
और यह बिखर कर बचने की कवायद है…….
कि बिखरने में भी एक शोर है…!!

7. बूढ़ी होती पत्र-पेटियां

बूढ़ी होती पत्र-पेटियां
वर्तमान की सबसे उपेक्षित वस्तु है
इनकी साँसें बस चंद कदमों की दूरी पर
मटमैले पन्नों में कैद है..
इनकी उदासियाँ ऐसी हैं
जैसे किसी उदास रात का कोई उदास सपना

बूढ़ी होती पत्र-पेटियाँ
अब अभिशप्त हैं अपनी राह लौट जाने को
इनकी चाह में कहीं किसी पत्र की आहट नहीं
बस एक उनींदापन है…
जिसमें बेचैन करवटें… डरा हुआ मन
और पानी के घूँट भरती सदियों लम्बी रातें हैं….!!
………………………!

8. नन्हीं कविताएँ

1- मैं आजकल पानी के पुल बना रही
अधिक तरल,झक्क पारदर्शी
ताकि एकदम नन्हीं बूँद भी महसूस सके
जलते पैरों की तपन,फूटे हुए छाले,फटी बिवाइयाँ
और जीवन संघर्ष में घिस चुके पैरों की आहट….!!

2- बच्चे का चेहरा रंगता पिता
मुतमईन था कि यह रंग छूट जायेगा
चेहरा रंगवाता बच्चा
आश्वस्त था कि उसे अभी कई रंग परखने हैं…..!!

3- कलम और चाय एक दूजे से बतिया रहे थे
चाय ने कहा- मैं निठल्लों की आदत हूँ
कलम ने कहा- और मैं बेरोजगारों का शगल!
पर दोनों की एक बात पर सहमति थी
कि वे अमीरों का रौबदार शौक हैं……..!!

4- तमाम असहमतियों के बीच
उनका समूह जोर-जोर से बहस कर रहा था
पर एक-दूसरे का हाथ पकड़कर……….!!

5- मेरे एकांत में संगीत और तुम घुले-मिले हो
जिसकी गूँजें ऊँची दीवारों और
बन्द दरवाजों के पार भी तैरती हैं
बिल्कुल वायलिन की नाजुक धुन की तरह…..!!

6- मुझे तुमसे प्यार है और मैं यह मानती हूँ
पर मुझे खुद से भी प्यार है
जो मैं ठीक तरह से जानती हूँ
यकीं करो यह उतना बुरा नहीं
जितना तुम समझते हो……..!!

7- मद्धिम हिज्जे लिखने की सजा में
पेंसिल की चमड़ी छीली हुई…उधड़ी हुई थी
मुझे लगा सब्जी के तेज नमक ने
फिर कहीं रार मचायी है….
फिर कहीं सिंक में बहते पानी के साथ
आँखों का खारा पानी बह रहा है…..!!

9. चीख में कविताएँ खोजना

मुझे निर्दोष साबित करता मेरा हलफनामा
मेरे हाथ में है
कि कल रात आग में झुलसती
झुंड की झुंड मधुमक्खियों की चीख के लिए
मैं जिम्मेदार नहीं

पर तुम इसके पीछे की साजिश को
आसानी से सूँघ सकते हो
कि चीख में कविताएँ खोजते
कवियों के समूह ऐसे ही निर्मित होते हैं।

10. यह कविता नहीं है

टेम्पों में बैठे टकराते सिरों के बीच
नमक तेल चुपडी रोटी का स्वाद लेता परिवार
सभ्यता और असभ्यता के भय से परे है।

धधकती चिताओं के बीच घुंघरुओं की झंकार से
मसानी उत्सव मनाती शापित नगरवधुओं के लिए
शकुन अपशकुन उनके पैरों की उडती हुई धूल है।

आँगन से उठने वाले एक जून धुएँ के लिए
मरी हुई गाभिन गाय का सौदा करना
बेबस पंडित को धर्म और अधर्म के
कटघरे से बाहर खडा करता है।

जवान होती बिटिया के सुरक्षित भविष्य के लिए
उसे अधेड के खूँटे बाँधते लाचार बाप के लिए
इज्जत-बेइज्जत जैसे शब्द बेमानी हैं।

ये महज चंद दृश्य नहीं है
बल्कि एक चिग्घाडती डुगडुगी है
जो ढकोसलों की कथरी में लिपटे
ठेकेदार के घर के बाहर बज रही है।

अरे नहीं!यह कोई कल्पना भी नहीं
बल्कि घिसी हुई लीक पर उग आये काँटे हैं
जो अंध काफिले को तेजी से चुभ रहे हैं।

नहीं यह कविता तो कत्तई नहीं
बल्कि भस्म होती भय की पारम्परिक पोथियाँ हैं
जिनकी उडती राख मुक्ति गीत गुनगुनाती है
और अवशेष ढहती अपाहिज दुनियाँ का
इकलौता सच्चा गवाह बनता है।

11. एक उम्र का आउट होना..

हाँफती हुई उम्र की 29वीं सीढ़ी पीछे छोड़ती लड़की
कि आंखें वह कोटरें हैं जिसमें उल्लूओं का बसेरा है
चेहरे पर बेतहाशा बढ़ती झाईयां यह याद दिलाने के लिए पर्याप्त हैं कि
जो दरवाजा तुमने बहुत दिन से खुला रखा है
उसके पीछे झोल लग गये हैं
और यह जो तुम्हारे सिर के बेतहाशा सफेद होते गिरते बाल हैं
यह अब तुम्हारी मर्जी है कि तुम इसे दुःख मानों या सुख…

और अब जब तमाम चीजों के लिए  तुम सोख्ता बनी हो
तब पहाड़ जैसे जीवन में यह याद करने की भी फुरसत नहीं होगी
कि कब पैरों ने खड़े होने में बगावत की थी
कब पीठ करवट बदलने से रुठ गई थी
तब तक तुम यह जान भी जाओगी कि
इसे ही मन-मिजाज का तुक मिलाने की कला कहते हैं…!

उम्र की सीमाओं को तेजी से लांघते वक्त
तुम्हें यह महसूस तो होगा ही
निराशाओं, असमंजसों और बेहतरी की उम्मीद में लिए गये
तमाम बड़े निर्णय गलत निर्णय भी हो जाते हैं
कि जिनपर पछताना शर्मसार होना है
कि तुम जुबानी जंग की हर हार को मौन स्वीकृति दोगी..!

इस उम्र तक तुम्हारे बचाये हुए मित्रों के पास
धैर्य तो होगा पर समय नहीं
कि उनकी उंगलियां अपनी ही उलझनों में लिथड़ी मिलेंगी
कि कुछ अभिन्न छूट जाने की रिक्तता सबमें होगी…

बहरहाल!उम्र का 29वां अंक पार करते वक्त क्षणांश ठहर जाना
कि बाजरे के खेतों में उड़ते झुंडभर तोतों को जीभर देखना…
और नानी के पनडब्बे से पान और कत्था चुराने की चाह का बच जाना
नाजायज मत मानना
कि चारपाई के नीचे छुपकर
आइने में जीभ और होंठ की लालिमा निहारने को
एकदम नागवार मत समझना..!!

(कवयित्री ज्योति तिवारी मूलतः उत्तरप्रदेश के चंदौली की रहने वाली हैं फिलवक्त गाजीपुर,उत्तर प्रदेश में रह रही हैं। 
शिक्षा-काशी हिंदू विश्वविद्यालय से बी.ए. और एम.ए., बी.एड.  इलाहाबाद से।इग्नू से अनुवाद में डिप्लोमा। पॉन्डिचेरी से पुनः इंग्लिश से एम.ए. कर रही हैं । संपर्क : jyotitiwari403@gmail.com

टिप्पणीकार अनुपम सिंह जन संस्कृति मंच  दिल्ली की राज्य सचिव हैं । दिल्ली विश्वविद्यालय से  हिन्दी में पीएचडी हैं और समकालीन हिंदी कविता का उभरता हुआ चर्चित नाम हैं । संपर्क : anupamdu131@gmail.com)

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