समकालीन जनमत
कविता

अमरजीत कौंके की कविताओं में आम आदमी का जीवन और संघर्ष प्रमुखता से झलकता है।

निरंजन श्रोत्रिय


अमरजीत कौंके मूलतः पंजाबी भाषा के कवि हैं। उन्होंने पंजाबी-हिन्दी के बीच अनुवाद की महत्वपूर्ण आवाजाही की है। इन सबके साथ वे हिन्दी के भी समर्थ और संवेदित और सहज संप्रेषणीय कवि हैं। उनकी कविता में आम आदमी, उसका जीवन और संघर्ष प्रमुखता से झलकता है। वे तो यहाँ तक मानते हैं कि किसी भी कविता का पहला शब्द आम आदमी ही लिखता है।

पहली कविता ‘बूढ़ी औरत, कविताएँ और मैं’ में कविता की सहजता और सम्प्रेषणीयता का महत्व बताया गया है। कवि-सम्मेलन के इस दृश्य-बंध में स्वेटर बुनती महिला द्वारा सलाइयों के प्रचलन और कविता की क्लिष्टता के बीच सह-सम्बन्ध है। जितनी दुरूहता है उतनी ही तेज सलाइयाँ…ऊन के गोले की हलचल। इस हलचल को एक सहज अभिव्यक्ति शांत कर ऊन के गोले को एक खरगोश में तब्दील कर देती है। कविता में आमजन का सुख-दुःख दिखाना किसी कवि का टेबल-वर्क नहीं होता। इसके लिए कवि को उन अनुभवों का साक्षात्कार भी करना होता है।

‘कविता का पहला शब्द’ इसी जरूरी पक्ष को लेकर है। कवि आमजन के जीवन की बारीकियों को दूर बैठकर नहीं, उनके पास जाकर, उनसे दो-चार होकर महसूसना चाहता है। आम आदमी का फलसफा और धारणा (परसेप्शन) उसके सतत संघर्ष से ही उपजते हैं। ‘अमीर काॅलोनियों में’ शहर की पाॅश काॅलोनियों में पसरे सन्नाटे को केन्द्र में रखा गया है। यह दरअसल स्वार्थ, आत्मकेन्द्रितता और शुष्कता का सन्नाटा है। दरअसल यह एक प्रवृत्ति है जो अब शहरों तक ही सीमित न रह कर छोटे कस्बों तक पहुँच गई है। गोया हम लोगों से नहीं कुछ मतलबपरस्तियों से घिरे हैं।

‘कुछ हो’ कविता में एक अवसाद छितरा हुआ है। कवि यहाँ आवाज़ की खोज में भटक रहा है। आवाज़ कैसी भी हो मगर हो ज़रूर! दरअसल आवाज़ जीवन्तता का प्रतीक है। चूड़ियों की छनछन, पायल की रूनझुन और विमान या टिटहरी की आवाज़ के जरिये खामोशी के जंग लगे ताले खोलने की पेशकश है।

‘मुझे जीने दो’ कविता में संन्यास, मृत्युबोध और जिजीविषा के बीच के द्वन्द्व को चित्रित किया गया है। कविता एक दार्शनिक भाव से शुरू होकर अंततः जीवन की खोज के क्लाईमेक्स तक पहुँचती है-‘ मैं जीऊँगा/ अपनी कविता में/ मैं अपने बच्चों में/ फिर उनके बच्चों में जीऊँगा।’

‘मज़दूर’ कविता में श्रमशील व्यक्ति के किंचित अवकाश की अनुभूति है। अपनी ही बनाई दीवार की छाँह में कुछ पलों का सुस्ताना दरअसल मज़दूर की आगामी पाली की ही तैयारी है। यहाँ श्रम से हुई थकान को दूर करने के बजाए अगले श्रम-घंटों की तैयारी अधिक है।

‘सफ़र ……’ शीर्षक की दोनों कविताओं में यात्रा पर जाने और यात्रा से लौटने के दृश्य हैं। सफर पर जाते समय कितना ही सामान समेटा जाए यह अहसास हमेशा बना रहता है कि ‘कहीं कुछ छूट गया है।’इस ‘कुछ’ का छूटना कविता में कई अर्थ लिए हुए है।

सफर से लौटने वाली दूसरी कविता पहली का विलोम है। जो तरतीब सफर पर जाते वक्त थी घर लौटने की आपाधापी में बेतरतीबी में बदल जाती है। दरअसल इन सामानों की तरतीबी के साथ यात्रा पर जाने या लौटने की मनोदशा गुंथी हुई है।

‘उत्तर आधुनिक आलोचक’ कविता के कन्टेन्ट और तेवर पर एक तंज है। हालांकि इस कविता की अंतर्वस्तु और शीर्षक को लेकर सवाल उठाए जा सकते हैं। ‘यकीन’ विद्रूपताओं के खिलाफ मनुष्य की पहल और जीत के भरोसे की कविता है। इस लड़ाई में कवि के हथियार बच्चों के होठों पर बाँसुरी और हाथों में पुस्तकें हैं। ‘मैं बस इतना करूँगा’ के क्लाईमेक्स के जरिये कवि अपना यही दृढ़ विश्वास व्यक्त करता है। विषम को संगीत और शब्दों से भी सम बनाया जा सकता है, कवि का अभिप्राय है।

‘मुट्ठी भर रोशनी’ भी इस हताश समय में कहीं जग रही उम्मीद की कविता है। अभी धरती पर फसलों ने लहलहाना नहीं छोड़ा है। किसान अभी भी लोकगीत गुनगुना रहे हैं। यहाँ तक कि-‘ फूलों में लगी है/ एक दूसरे से ज़्यादा/ सुगंधित होने की ज़िद/ इस बारूद की गंध के खिलाफ।’

कवि को इन सब पर इतना भरोसा है कि वह -‘और इतना काफी है’ जैसी पंक्ति से कविता का क्लाईमेक्स रचता है। अमरजीत कौंके की रचनाधर्मिता का प्रमुख स्वर भले ही पंजाबी भाषा हो, उनकी हिन्दी कविताएँ भी उन्हें एक सजग, संवेदित और जनपक्षधर्मी कवि के रूप में प्रस्तुत करती हैं।

 

अमरजीत कौंके की कविताएँ

1. बूढ़ी औरत, कविताएँ और मैं

छोटी-सी महफ़िल थी
पढ़ी जा रही थी कविताएँ
बड़ी-बड़ी समस्याओं को सुलझाती
शब्दों के चक्रव्यूह में
श्रोताओं को उलझाती

एक कोने में बैठी
वह बूढ़ी औरत
डाल रही थी स्वेटर के फंदे
ऊन का गोला
उसकी गोद में
नन्हें-से खरगोश की भांति खेलता
कविताएँ उसके सिर के
ऊपर से गुजरती
बहुत सहज बुनती रही वह सलाइयाँ
ऊन का गोला उसकी गोद में
नन्हें खरगोश की भांति उछलता

फिर मेरी बारी आई
मैंने पढ़ी कविता की पहली पंक्ति
फिर दूसरी
फिर तीसरी

मैंने देखा
ऊन का गोला उछलने से थम गया
मेरे सीधे सादे शब्द सुन कर
हैरान हुई वह बूढ़ी औरत
हाथों में मटकाती सलाइयाँ रोक कर
वह सुनने लगी मेरी कविताएँ

ऊन का गोला
किसी छोटे-से खरगोश की भांति
अब उसकी गोद में
दुबका पड़ा था।

 

2. कविता का पहला शब्द

मैं ईंटें पकाते
मज़दूरों के पास गया
मैं गया सड़कों पर
तारकोल बिछाते
लोगों के पास

खेतों में फसलें बोते
किसानों से मिला मैं
दूर नहर किनारे
पशु चराते चरवाहों के पास बैठा
सुनता रहा गीत उनके

गाँवों को जाने वाली बसों में बैठा मैं
आम लोगों के पास
चैपाल में देर तक बैठा
सुनता रहा अंगारों की तरह दहकती
उनकी बातें

मैं गया आम लोगों के बीच
सीधे-सादे अनपढ़ लोगों के बीच
उनकी बातें सुनकर
मजाक सुनकर उनके
सुनकर उनकी नोंकझोंक
और ज़िंदगी के बारे में
उनका फलसफा
हैरान रह गया मैं

और मेरा यह विश्वास
हुआ और भी दृढ़
कि किसी भी कविता का
पहला शब्द
आम लोग लिखते हैं
और कोई भी कविता
सबसे पहले
साधारण आदमी के मन की
धरती से फूटती है।

 

3. अमीर काॅलोनियों में

अमीर काॅलोनियों में
बच्चे सड़कों पर
गंेद बल्ला नहीं खेलते
औरतें घरों की छतों पर
कपड़े नहीं सुखातीं
नहीं खरीदतीं रेहड़ी वाले से सब्ज़ी
करती नहीं चीज़ों के मोलभाव

अमीर काॅलोनियों में
दीवारों से
शोर बाहर नहीं आता
कहीं कोई हँसी
न रोने की आवाज़ सुनती है
किसी के लड़ने-झगड़ने का
पता नहीं चलता कुछ भी
कंक्रीट की दीवारें
सब कुछ अपने भीतर जज़्ब कर लेती हैं

अमीर काॅलोनियों में लोग
सीले ठंडे कमरों में
रहने के आदी होते हैं
वे टूटते हैं
पहले दुनिया से
फिर परिवार से
और आखिर में
अपने आप से भी
टूट जाते हैं लोग

टूट जाते हैं
और खुद को
दीवारों के भीतर
कैद कर लेते हैं

अमीर कालोनियाँ
धीरे-धीरे
पथराटों में
परिवर्तित हो रही हैं।

 

4. कुछ हो

रात जब गहरा जाए
और मैं जागता होऊँ
तो मेरा दिल करता है
कि कोई बोले
रात के होठों पर
जंग लगा ताला कोई खोले

मेरा दिल चाहता है
कुछ हो
दूर किसी छत पर
बच्चे के रोने का शोर
चूड़ियों की छन-छन
पायल की रूनझुन
कहीं अर्धस्वप्नमयी अवस्था में बुुदबुदाए कोई

कोई आवाज़ हो
अचानक आकाश में
गुजर जाए कोई विमान
या सिर के ऊपर से
उड़ती निकल जाए कोई टिटहरी
पास की सड़क पे दनदनाता
वहाँ ही गुजरे कोई

कहीं कुछ सुनाई तो दे
माँ की ममता भरी आवाज़
बाप की कोई मीठी-सी झिड़की
तुम्हारा वह उम्र भर इंतज़ार करने का वादा
हवा में गूँज जाए फिर से

कुछ तो हो
चंदा ही कुछ पल पास आ बैठे
नज़दीक गिरे कोई टूटा हुआ तारा
वेश बदल कर घड़ी दो घड़ी के लिए
पास आ बैठे हवा

मैं इंतज़ार करता हूँ
कि कहीं कुछ हो
जो तोड़ दे रात की
ये अंधी खामोशी

लेकिन कुछ नहीं होता

उसी तरह मुस्कुराता है चाँद
आकाश में लटका
पास से झूम कर गुजर जाती है
ठंडी हवा
और सोई दीवारें खड़ी रहतीं
सिर झुकाए

बेचैन-सा मैं
बदलता रहता हूँ करवटें
इस अंधी रात की खामोशी को
तोड़ने के लिए।

 

5. मुझे जीने दो

रोज़ रात को
मेरे भीतर सिद्धार्थ जागता

सपने में मुझे अर्थी लिए जा रहे
लोग दिखते
और हड्डियों में बदला बुढ़ापा दिखाई देता
और मेरे भीतर से
सिद्धार्थ अंगड़ाई लेता
कहता-
चल मुक्ति की खोज कर
आदमी मिटता मिटता मिट जाता है
और पैरों के निशान भी
मिटा देती है वक़्त की रेत

मैं बेचैन-सा होकर
खिड़की से झांकते
आकाश की ओर देखता
तो सामने पिता का उदास चेहरा
और मुझसे पाँव न उठाया जाता

मेरी यशोधरा निश्चिन्त किसी ख्वाब में खोई
मेरा राहुल किसी सपने में मुस्कुराता
सिद्धार्थ कहता-
चल अमरत्व की तलाश में निकल
आदमी मिटता मिटता मिट ही जाता है
एक दिन

मैं फिर
उदासी की दलदल में धँसता
बेबसी मोह और बेचैनी की
दोधारी तलवार पर चलता
द्वन्द्व में भटकता
शून्य में लटकता
कभी टूटता कभी जुड़ता
कभी चलता कभी मुड़ता

फिर अचानक
मेरे भीतर से कोई इल्हाम होता
और मेरे भीतर से
‘मैं’ जागता

बोधिवृक्ष के नीचे बैठे
मैं सिद्धार्थ से कहता-
मुझे जीने दो
मैं जीऊँगा
जैसे फूल खिलता
और मुरझा जाता है

मैं जीऊँगा
अपनी कविता में
मैं अपने बच्चों में
फिर उनके बच्चों में जीऊँगा

तुम मुझे जीने दो…..।

 

6. मज़दूर

खाना खा कर
दीवार की छाया में
सुस्ता रहा है
मज़दूर

आधे दिन का थका हारा
आधे दिन के साथ
लड़ने के लिए
तैयार हो रहा है

अभी उठेगा वह
सपने झटक कर
लौट आएगा
दूर गाँव के पीपल की
घनी छाँव से उठकर

आधे दिन के साथ
लड़ने के लिए
बिलकुल तैयार हो जाएगा
मज़दूर।

 

7. सफर पर जाते समय

सफर पर जाते समय
घर से निकलता हूँ जब
लगता है जैसे
कुछ छूट गया है

रूमाल
पेन
घड़ी
सब कुछ तो है मेरे पास
लेकिन फिर भी लगता है
जैसे कहीं कुछ छूट गया है

रह गया है ख़्याल कोई
मेज पर पड़ा
किसी किताब में छिपा
अहसास कोई रह गया है
पुरानी कमीज की जेब में
रह गया है विचार कोई
शब्दकोश में छूट गया है
शब्द कोई

सब कुछ कहाँ साथ
ले जा पाता है आदमी…।

 

8. सफर से लौटते वक़्त

सफर पर जाता हूँ
तो बहुत सलीके से रखता हूँ
कपड़े, टूथब्रश, पुस्तकें
जोर लगा कर करता हूँ
बैग बंद

मैं लौटता हूँ
तो ठूँसता हूँ
बैग में कपड़े बेतरतीब
कुरता, पाजामा, तौलिया
मैला रूमाल, जुराबें
टूथब्रश रह जाता है
गुसलखाने में पड़ा
बेतरतीब चीजें लेकर
लौटता हूँ घर।

 

9. उत्तर आधुनिक आलोचक

जब मैंने
भूख को भूख कहा
प्यार को कहा प्यार
तो उन्हें बुरा लगा

जब मैंने
पक्षी को पक्षी कहा
आकाश को कहा आकाश
वृक्ष को वृक्ष
और शब्द को शब्द कहा
तो उन्हें बुरा लगा

परन्तु जब मैंने
कविता के स्थान पर
अकविता लिखी
औरत को
सिर्फ़ योनि बताया
रोटी के टुकड़े को
चाँद लिखा
स्याह रंग को
लिखा गुलाबी
काले कव्वे को
लिखा मुर्गाबी

तो वे बोले-
वाह! भई वाह!!
क्या कविता है।

 

10. यकीन

इस मौसम की
बदसूरती के खिलाफ
मैं इतना करूँगा

कि मैं उखाड़ कर फेंक दूँगा
गमलों में उगे तुम्हारे कैक्टस
और बोऊँगा इस मिट्टी में
सूरजमुखी के बीज
तुम देखोगे
कि इसी मिट्टी में
जहाँ उगे थे तुम्हारे
कंटीले कैक्टस
वहीं उगेंगे सूरजमुखी
जो इन अँधेरी रातों में
देंगे चेतना के
बंद दरवाजों पर दस्तक

इस मौसम की
बदसूरती के खिलाफ
मैं इतना करूँगा
कि मैं अपने घर में पालूँगा
एक कोयल
जिसकी आवाज़ टकराएगी
इन काली खबरों से
और यकीन है मुझे
कि लौटेगी विजयी होकर
इस मौसम की
बदसूरती के खिलाफ

मैं अपने बच्चों के
होठों पर बांसुरी
और हाथों में पुस्तकें रखूँगा

मैं बस इतना करूँगा।

 

11. मुट्ठी भर रोशनी

सब कुछ खत्म नहीं हुआ अभी

शेष है अब भी
मुट्ठी भर रोशनी
इस तमाम अँधेरे के बावजूद
खेतों में अभी भी
लहलहाती हैं फसलें
पृथ्वी की कोख
अब भी तैयार है
बीज को पौधा बनाने के लिए

किसानों के होठों पर
अभी भी
लोकगीतों की ध्वनियाँ
नृत्य करती हैं
फूलों में लगी है
एक दूसरे से ज़्यादा
सुगंधित होने के ज़िद
इस बारूद की गंध के खिलाफ

शब्द अपनी हत्या के बावजूद
अभी भी सुरक्षित हैं कविताओं में

और इतना काफी है….।


कवि अमरजीत कौंके, जन्मः 27 अगस्त 1964, लुधियाना में, शिक्षाः एम.ए., पी-एच.डी. (पंजाबी)। सृजनः पंजाबी भाषा में कई कृतियाँ प्रकाशित। हिन्दी में ‘मुट्ठी भर रोशनी’, ‘अँधेरे में
आवाज़’, ‘अंतहीन दौड़’, ‘बन रही है नई दुनिया’ प्रकाशित। हिन्दी से पंजाबी और
पंजाबी से हिन्दी में अनुवाद की 35 पुस्तकें प्रकाशित। ‘प्रतिमान’ नामक पंजाबी पत्रिका का संपादन।

पुरस्कारः साहित्य अकादमी, दिल्ली से अनुवाद पुरस्कार। भाषा विभाग, पंजाब द्वारा
‘मुट्ठी भर रोशनी’ पर सर्वोत्तम पुस्तक पुरस्कार एवं गुरू नानक देव विश्वविद्यालय के सम्मान।

संप्रतिः स्वतंत्र लेखन

सम्पर्कः सम्पादक- प्रतिमान, 718, रणजीत नगर, ए- पटियाला-147 001 (पंजाब)

मोबाइलः 98142 31698

ई-मेलः pratimaan@yahoo.co.in

 

टिप्पणीकार निरंजन श्रोत्रिय ‘अभिनव शब्द शिल्पी सम्मान’ से सम्मानित प्रतिष्ठित कवि,अनुवादक , निबंधकार और कहानीकार हैं. साहित्य संस्कृति की मासिक पत्रिका  ‘समावर्तन ‘ के संपादक . युवा कविता के पाँच संचयनों  ‘युवा द्वादश’ का संपादन  और शासकीय महाविद्यालय, आरौन, मध्यप्रदेश में प्राचार्य  रह चुके हैं. संप्रति : शासकीय स्नातकोत्तर महाविद्यालय, गुना में वनस्पति शास्त्र के प्राध्यापक।

संपर्क: niranjanshrotriya@gmail.com

 

 

 

 

 

 

 

 

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