जयप्रकाश नारायण
अरुणाचल प्रदेश से त्रिपुरा तक 1643 किमी. म्यांमार और 4057 किमी. चीन से सटे पहाड़ियों, घाटियों और मैदानों के बीच बसे 164 से ज्यादा जनजातियों वाला पूर्वोत्तर के प्रांत भारत के सबसे खूबसूरत दर्शनीय भू भागों में से एक हैं। जल-समृद्ध नदियों के जाल और प्राकृतिक संपदा से भरपूर इलाके लंबे समय से अशांत और हिंसा से बिद्ध हैं। नयनाभिराम प्रकृतिक सौंदर्य वाले इस क्षेत्र को अनवरत किसी न किसी बहाने हिंसा, आगजनी, लूटपाट, नफरती विभाजन और टकराव से गुजरना पड़ता है। लेकिन यह हिंसा और आपसी टकराव प्रायः पूंजी की चाकर धूर्त राजसत्ता द्वारा प्रायोजित व निर्मित रहा है।
सात बहनों के बतौर जाना जाने वाला यह इलाका जहां सभ्यता का संग्रहालय है, वही संस्कृतियों का खूबसूरत गुलदस्ता भी है। भारत की कई भाषाओं का उत्स और आदिम मानव समूहों के बसेरों की यह जमीन है। जिसे, पूंजी की लूट और मुनाफे की हवस ने आज खून और मांस के जलते बदबूदार बूचड़खाने में बदल दिया है। आए दिन किसी न किसी जनजाति समूह और सरकारी अर्धसैनिक बलों से लेकर सेना और कबीलाई मिलिटेंट मिलिशिया के बीच टकराव होते रहते हैं। जिसे 2014 में केंद्र की सत्ता में आने के बाद संघ-भाजपा सरकार ने भयानक दुःस्वप्न में बदल दिया है।
अभी थोड़े दिन पहले असम पुलिस और मेघालय के लोगों के बीच टकराव में निर्दोष आदिवासी मारे गये थे। उसके बाद असम और मिजोरम की सीमा पर हिंसक झड़पों में भी अनेकों जानें गयीं।
इस इलाके में लोकतांत्रिक सवालों के साथ-साथ अलगाववादी विद्रोहियों के संघर्षों का लंबा इतिहास रहा है। 1954- 55 में सबसे पहले नगा पहाड़ियों से नगा विद्रोहियों का संघर्ष शुरू हुआ। जो आज तक किसी न किसी रूप में किसी न किसी इलाके और जनजातियों के बीच सरकार विरोधी चरित्र लिए जिंदा है। समय-समय पर इन विद्रोहियों के साथ सरकार के समझौते होते रहे हैं। असम आंदोलन से लेकर नगा, कुकी, मिजो, बोडो, मैती विद्रोहियों तक से सरकार ने अनेक तरह के समझौते किए। युद्ध विराम हुए। जिन समझौतों का पालन कुछ समय तक दोनों पक्ष करते हैं। लेकिन बदली हुई परिस्थिति में बनी सरकारें इन समझौतों को अपने राजनीतिक हितों के मातहत रखती हैं या समझौतों से पीछे हट जाती हैं। जिस कारण विद्रोह की चिंगारी अलग-अलग इलाकों में सुलगती रहती है।
भारत का यह वह इलाका है जहां लंबे समय से राष्ट्रीय सुरक्षा कानून से लेकर यूएपीए, आफ्सपा जैसे अमानवीय कानून लागू हैं। जो किसी स्वस्थ लोकतंत्र के लिए काले धब्बे की तरह हैं।
मणिपुर में चले इरोम शर्मिला शर्मिला के आफ्सपा विरोधी अनशन ने दुनिया का ध्यान अपनी तरफ खींचा था। इसलिए मणिपुर के कुछ इलाके में इस कानून में थोड़ी ढील दी गई है।
मणिपुर का ताजा घटनाक्रम और पूर्वोत्तर
पूर्वोत्तर के 3 राज्यों में अभी चुनाव संपन्न हुआ है। जहां 2 राज्यों में बुरी तरह से हारने के बाद भी भाजपा ने केंद्रीय सत्ता का दुरपयोग कर सरकार में हिस्सेदारी कर ली। किसी तरह त्रिपुरा चुनाव जीत लेने के बाद भाजपा सरकार द्वारा प्रायोजित लंपट गिरोहों ने विरोधी मतदाताओं के ऊपर कहर बरपा किया। हजारों एकड़ रबड़ के बागान के खेत जला दिए गए। गांव के गांव हमले के शिकार हुए । जिसमें कई लोगों के मारे जाने की खबरें हैं। 500 से ज्यादा लोग घायल हुए। जिन्हें अस्पतालों में भर्ती कराया गया। इस घटना की जांच के लिए वामपंथी और कांग्रेसी सांसदों का एक दल त्रिपुरा गया। तो उनके ऊपर राज्य प्रायोजित लंपट गिरोहों द्वारा हमले कराए गए। संसदीय दल को किसी तरह बचा कर निकाला जा सका ।
जब से भाजपा सरकार आई है जातीय और सामूहिक सफाई का अभियान जारी है। पत्रकारों और मानवाधिकार संगठन पर जो इस बर्बरता की खबर इकट्ठा करने या कवर करने गए, उन पर काले कानून लादे गए।
कहने का अर्थ यह है कि जब से सात बहनों वाले इलाके में संघ भाजपा ने अपनी पैठ मजबूत की है । तब से वे लगातार खूंखार और हिंसक होते गये हैं। सभी तरह के लोकतांत्रिक विरोध को दबाया गया और लंपट गिरोहों को बढ़ावा देखकर विपक्ष की आवाज को कुचलने की कोशिश हुई । असम से शुरू हुई यह परिघटना अब पूरे पूर्वोत्तर में स्थाई रूप लेती जा रही है।
पूर्वोत्तर राज्यों में 1990 के बाद जो शांति का माहौल बन रहा था। उसे नष्ट कर दिया गयाहै । मणिपुर की ताज़ा घटनाएं संघ-नीत भाजपा सरकार की भारत निर्माण की विघटनकारी दिशा का स्वाभाविक परिणाम है।
मणिपुर की भौगोलिक स्थिति को देखें यह राज्य इंफाल वैली के इर्द-गिर्द 10 पहाड़ियों से घिरा हुआ खूबसूरत फुटबॉल स्टेडियम जैसा दिखता है। जो मनोरम पहाड़ियों, जंगलों से भरा है । इंफाल शहर के इर्द-गिर्द उपजाऊ इंफाल वैली है। जिसमें मणिपुर की आबादी का करीब 54% हिस्सा रहता है। जो मणिपुर के सम्पूर्ण क्षेत्रफल का 10% भूभाग है। शेष 90% इलाका पहाड़ों से घिरा हुआ है जहां करीब 46% आबादी रहती है।
इंफाल वैली मेइती या मैती जनजाति का निवास है, जो मणिपुर की आबादी का 53% है। पहाड़ियों में नागा और कुकी जनजाति के लोग रहते हैं। जो मणिपुर के संपूर्ण आबादी का 46,54% है। जहां मेईती जनजाति में इकतालिस प्रतिशत हिंदू हैं। वहीं कुकी और नागा अधिकांशतः इसाई हैं। मेईती जनजाति में भी कांग्ला जनजाति आती है। जिसमें 8.3% मुस्लिम हैं।
मणिपुर के अधिकांश संसाधनों, राजनीतिक संस्थाओं और रोजगार में मेइती जाति का वर्चस्व है । 60 सदस्यीय विधानसभा में 40 विधायक मेइती जाति से आते हैं । शेष सदस्यों में कुकी, नागा और अन्य जनजातियों के लोग हैं । मुख्यमंत्री एन बीरेन सिंह मेइती जन जाति से आते हैं।
मणिपुर में अन्य 34 पंजीकृत उप जनजातियां हैं। इस तरह मणिपुर जनजातियों का एक संग्रहालय है। जहां 1947 के पहले तक अधिकांश जनजातियां आपसी एकता, सद्भाव के साथ अपने-अपने इलाकों में रहती आ रही है।
अभी हुई घटनाओं के दो प्रमुख कारण हैं।
एक- बीरेन सिंह सरकार ने आरक्षित वन क्षेत्र में गवर्नमेंट लैंड सर्वे कराने का फैसला किया। जिसके द्वारा रिजर्व फॉरेस्ट लैंड को आदिवासी समुदाय से खाली कराने का अभियान शुरु किया। (उत्तर प्रदेश में आप इस बात को समझने के लिए तराई के लखीमपुर, पीलीभीत, बहराइच और सोनभद्र, मिर्जापुर, चंदौली जिले के आदिवासी इलाकों में चलाए जा रहे भू-माफिया विरोधी अभियान को देख सकते हैं। जहां हजारों किसान और आदिवासी पीढ़ियों से रह रहे हैं। जिन्हें वन भूमि पर अवैध कब्जा करने के नाम पर उजाड़ा जा रहा है।) जबकि कुकी और नागा जनजाति के लोग 1966 के बनअधिनियम को खत्म करने के लिए लंबे समय से लड़ रहे थे। लेकिन सोची-समझी योजना के तहत बीरेन सिंह ने आदिवासी जीवन में हस्तक्षेप करने का फैसला किया।
जिसका उद्देश्य था, मेइती जनजाति के वर्चस्व का विस्तार करते हुए पहाड़ी इलाकों के जंगल जमीन खनिज तक उनकी पहुंच बढाना। चूंकि मणिपुर में मेइती जनजाति का रोजगार से लेकर अन्य चीजों पर कब्जा रहा है और सरकारें प्रत्यक्षत: उनके पक्ष में खड़ी रहती हैं। इसलिए ऐतिहासिक कारणों से कुकी और नागा जनजाति का मेईतियों से विरोध रहा है।
मणिपुर में भाजपा की सरकार बनने के बाद संघ परिवार ने नफरती विभाजनकारी खेल प्रारंभ किया। संघ की नीति रही है कि वर्चस्वशाली परंपरा, विचार, धर्म और संस्कृति को अल्पसंख्यक और कमजोर संस्कृतियों के खिलाफ खड़ा करना। अल्पसंख्यकों और गैर हिंदू जनजातियों की संस्कृतियों को अलगाव में डालना तथा उनके ऊपर वर्चस्वशाली संस्कृति को थोपने की कोशिश करना।
इसके लिए विभाजन, नफरत, दुष्प्रचार, ऐतिहासिक घटनाओं की तोड़-मरोड़ और आधुनिक संदर्भ में नफरती व्याख्या कर सामाजिक टकराव को विस्तारित करना। जिससे हिंदुत्व की परियोजना को आकार दिया जा सके।
चूंकि अधिकांश मेईती जन जाति के लोग हिंदू हैं।इसलिए बीरेन सिंह सरकार ने मेइती संस्कृति, भाषा और विचार को अन्य जनजातियों पर थोपने की कोशिश की। जिससे नगा, कुकी जन जातियों, (जो अधिकांश ईसाई हैं) में शंकायें पैदा हुईं और शांतिप्रिय वातावरण में जहर घुलने लगा।
मेईती भाषा भारतीय संघ के आठवीं अनुसूची में स्वीकृत है। लेकिन इस पर भी संघ के लोगों को संतोष नहीं हुआ और उन्होंने मणिपुर पर अपना कब्जा करने के लिए दो हथियारों का प्रयोग किया । जिससे हिंदुत्व-कारपोरेट गठजोड़ के उद्देश्यों की पूर्ति के लिए पहाड़ियों और जंगलों के खनिज संपदा, जल, जंगल, जमीन से कुकी और नगा जनजातियों को बेदखल किया जा सके।
इसके लिए मुख्यमंत्री बीरेन सिंह ने लैंड सर्वे अभियान शुरू किया। अभियान की शुरुआत चूड़ाचांदपुर जिले से की गई।
चूड़ाचांदपुर जिला इंफाल से 63 किमी दूर है। यह जिला कुकी जनजाति बहुल है। संरक्षित वन क्षेत्र का क्षेत्रफल 490 वर्ग किलोमीटर है। जो 3 जिलों में चूड़ा चांदपुर, विष्णुपुर और नओमी तक फैला है।
1966 के वन अधिनियम द्वारा इसे रिजर्व फॉरेस्ट लैंड घोषित किया गया था। जिसका विरोध आदिवासी लंबे समय से करते आ रहे हैं ।
सबसे पहले चुड़ाचांदपुर जिले के न्यू लमका टाउन से जमीन खाली कराने का विरोध शुरू हुआ। इंडीजीनस ट्राईबल्स लीडर्स फोरम (आईटीएलएफ) नामक संगठन ने गवर्नमेंट लैंड सर्वे के खिलाफ 28 अप्रैल को 8 घंटे बंद का ऐलान किया। इसी दिन मुख्यमंत्री बीरेन सिंह को न्यू लमका टाउन में एक उद्घाटन के लिए आना था।
27 अप्रैल की रात को कार्यक्रम स्थल पर तोड़फोड़ और आगजनी की घटनाएं हुई। जिसने 28 अप्रैल को कुकी और पुलिस के बीच विरोध की शक्ल ले ली। जो 3 मई तक आते-आते जातीय हिंसा में बदल गया। मेइती और कुकी-नगा आमने- सामने आ गए।
भाजपा की अगुवाई वाले सत्ताधारी गठबंधन में शामिल कुकी पीपुल्स एलायंस ने आदिवासियों की बेदखली को अमानवीय बताया। इसे तत्काल रोकने की मांग की और अभियान की निंदा की। साथ ही कुकी समुदाय के सबसे सशक्त संगठन कुकी ईनपी मणिपुर( केआईएम)ने भी मोर्चा खोल दिया और शांतिपूर्ण रैली आयोजित की। लेकिन कांगपोकपी जिले में हिंसा हो गई।
नगा, कुकी सहित 33 मान्यता प्राप्त जनजातियों के रिहायशी इलाके में 73.34% वन क्षेत्र आते हैं। 3 मई को सभी 10 पहाड़ी जिलों में ट्राइबल साॅलीडाॅरटी मार्च की घोषण आल ट्राईबल स्टूडेंट यूनियन मणिपुर ने किया था। इस मार्च के बाद स्थिति बिगड़ गई।पुलिस, सेना, असम राइफल्स, आर ए एफ के जवान तैनात करने पड़े।
केंद्र सरकार ने चार मई को अनुच्छेद 355 को हटा कर(ईवोक) सारी शक्ति अपने हाथ में ले ली। इसी दिन राज्यपाल ने भी अपनी मोहर लगा दी। 4 मई को शूट एंड साइट का आदेश जारी किया गया। जिसके बाद भारी पैमाने पर झड़पों की खबर आ रही हैं। भीड़ ने एक भाजपा विधायक के घर पर हमला किया और उसे पीट पीट कर अधमरा कर दिया।
इस बिगड़ते माहौल को संभालने में सरकार ने बहुत देर कर दी । ऐसा भी हो सकता है कि परिस्थिति को बिगड़ते देने में संघ और भाजपा ने अपनी राजनीतिक महत्वाकांक्षा पूरी होते देखी हो। यह तो स्पष्ट है कि जो कुछ भी हो रहा है, भाजपा सरकार की नीतियों के स्वाभाविक परिणाम स्वरुप हो रहा है।
खबरों के अनुसार अब तक 54 लोग मारे जा चुके हैं। गैर सरकारी सूत्र मृतकों की संख्या ज्यादा बता रहे हैं।17 से ज्यादा चर्चों को जला दिया गया है। 10 हजार से ज्यादा लोग विस्थापित हुए है। अभी भी हिंसा रुकने का नाम नहीं ले रही है। विभिन्न समुदायों संस्थाओं के साथ चर्चों के बिशप और शांति चाहने वाले लोगों की तरफ से हिंसा रोकने की अपीलें आ रही है।
संघ-भाजपा प्रचार तंत्र और उसके तर्क
छुटभैया भाजपा नेता और गोदी मीडिया की तरफ से एक किस्सा, झूठ गढ़ा जा रहा है, कि मुख्यमंत्री बीरेन सिंह म्यांमार से आने वाले घुसपैठियों और पहाड़ी क्षेत्र में मादक द्रव्यों के कारोबारियों से लड़ रहे हैं। वन संरक्षण कानून लागू करने का मकसद है, कि पहाड़ों और जंगलों में अफीम की खेती में लगे कारोबारियों को नेस्तनाबूद करना। इसलिए उनको हटाने की साजिश रची जा रही है।
जबकि हकीकत यह है, कि घुसपैठियों की सरकार द्वारा घोषित संख्या 7000 के आसपास है। जहां तक मादक द्रव्य यानी अफीम के उत्पादन का सवाल है, तो अभी तक भारत में किसी भी भाजपाई राज्य के मुख्यमंत्री की साख मादक द्रव्यों की तस्करी के संजाल को तोड़ने की नहीं रही है। भाजपा का मजबूत गढ़ गुजरात ही इस समय भारत का सबसे बड़ा मादक द्रव्य सप्लाई केंद्र हो गया है और जिसमें संघ-भाजपा सरकार द्वारा लाभार्थी कारपोरेट अडानी का पोर्ट संलिप्त रहा है। इसलिए इस तरह के तर्कों पर किसी को भी यकीन नहीं हो रहा है।
केंद्र सरकार की खतरनाक चुप्पी
मोदी सरकार और राज्य के मुख्यमंत्री की तरफ से अभी तक शांति की अपील नहीं की गई है। गृह मंत्री चुप है। उनके तरफ से कोई प्रयास होते हुए नहीं दिखाई दे रहा। प्रधानमंत्री कर्नाटक चुनाव में केरल की प्रोपोगंडा फिल्म पर बातें तो कर रहे हैं, लेकिन मारे जा रहे आदिवासियों के लिए उनके दिलों में कोई हमदर्दी दिखाई नहीं देती। ऐसा लगता है कि भाजपा और संघ के पदाधिकारियों का पूर्वोत्तर के लोगों के प्रति कोई मानवीय सरोकार नहीं है।
दूसरा कारण, यह सब कुछ जो हो रहा है इसकी पृष्ठभूमि मार्च से ही बनना प्रारंभ हो गई थी। जब 27 मार्च को मणिपुर उच्च न्यायालय ने राज्य सरकार को आदेश दिया कि 4 हफ्ते में विचार कर मेईती समुदाय को एसटीएससी और ओबीसी में आरक्षण का सुझाव केंद्र सरकार को भेजें। यह न्यायालय का सरासर गैर कानूनी कदम था । जो उसके अधिकार क्षेत्र में आता ही नहीं।( यह फैसला न्यायपालिका की सत्ता की इच्छा के प्रति झुकाव को दर्शाता है)।
मेईती लोगों का कहना है कि 1947 के पहले उन्हें एसटी-एससी और ओबीसी का दर्जा प्राप्त था। लेकिन बाद में उन्हें इससे निकाल दिया गया । भाजपा सरकार आने के बाद सरकार को टकराव का नया मुद्दा मिल गया। भाजपा से संबंधित संगठनों ने मणिपुर हाई कोर्ट में रिट दायर करके मांग की कि मेइती समुदाय को एससी, एसटी या ओबीसी श्रेणी में लिया जाना चाहिए।
मेईती समुदाय के अलावा सभी समुदायों को मणिपुर में एससी, एसटी का दर्जा प्राप्त है।
चूंकि मेइती संपन्न और खुशहाल हैं। इनका इंफाल वैली की उपजाऊ जमीन के 90% भूभाग पर कब्जा है, जहां लीची और आम जैसे फल पैदा होते हैं। मणिपुर में हर जगह मेईतिओं का वर्चस्व दिखाई देता है। इसलिए कुकी, नगा सहित सभी 33 पंजीकृत जनजातियां के साथ इनका आंतरिक अंतर्विरोध है।कोर्ट के फैसले इन जनजातियों को सशंकित कर दिया। उन्हें लगा कि बचे-खुचे अवसर भी अब उनसे छीन लिये जाएंगे।
हिल एरिया कमेटी एक संवैधानिक संस्था है। जिसके अध्यक्ष बीजेपी के विधायक हैं। उसने भी न्यायालय के फैसले का विरोध किया और कहा कि फैसला अमानवीय है।
27 मार्च को न्यायालय का आदेश आया। सरकार चुप रही और 19 अप्रैल को इसे लागू कर वेबसाइट पर अपलोड कर दिया। सरकार के इसी कार्रवाई से पैदा हुए असंतोष ने 27 अप्रैल को हिंसक रूप ले लिया। इस विरोध के कारण चूड़ाचांदपुर जिले में मुख्यमंत्री की सभा को रोक दिया गया। जहां से हिंसा की शुरुआत हुई।
सम्पूर्ण घटनाक्रम से स्पष्ट है, कि जो लैंड सर्वे की कारवाई और न्यायालय में मेईती जाति के लिए एससी-एसटी की मांग वाली याचिका सोच-समझकर डाली गई थी। जिससे शांतिपूर्ण मणिपुर को अशांत किया जा सके । पहले से सरकार को पता था, कि इन कदमों से टकराव बढ़ेगा और विभाजनकारी ताकतों को लाभ होगा।
इस तरह की राजनीतिक परिस्थिति संघ परिवार के लिए हर समय फायदेमंद रही है। गुजरात, कर्नाटक, उत्तर प्रदेश, बिहार, कश्मीर कहीं भी चले जाइए संघ परिवार ने ताकतवर समूहों को उकसा कर और उनके संस्कृति, धर्म, विचार, व्यवहार को कमजोर समूहों पर थोपकर स्थाई तनाव और विभाजन पैदा करने का षड्यंत्र रचा है।
मणिपुर की घटना भी इसी बात का संकेत दे रही है। जहां मैईती हिंदुओं की आकांक्षाओं को उकसाया गया। उनकी पहाड़ी एरिया में आदिवासियों की जमीन तक पहुंच बढ़ाने की नीतियां ली गई। गैर जरूरी लैंडसर्वे कर कई जिलों में सैकड़ों आदिवासी परिवारों को उजाड़ दिया गया। उनके घर ढहा दिए गए। उन्हें उनके पुश्तैनी वास स्थान से विस्थापित कर दिया गया। चूंकि आदिवासी स्वायत्त इलाकों में रहते हैं और उनके अंदर लंबे समय से मिलिशिया तथा हथियारबंद संगठन सक्रिय रहे हैं। जिनके साथ कुछ शर्तों के साथ सरकारें युद्ध विराम करती रही है। वीरेन सरकार ने 10 मार्च को कुकी समुदाय के साथ हुए मनमोहन सरकार के समय के युध्दविराम को खत्म करने का एकतरफा ऐलान किया।
मणिपुर सरकार के इन सभी कदमों से कुकी आदिवासियों के प्रतिरोध ने हिंसक रूप लेना शुरू कर दिया। अंत में सरकार ने सेना, पुलिस, अर्धसैनिक बलों का प्रयोग कर संपूर्ण परिस्थिति को खूनी संघर्ष की दिशा में मोड़ दिया है। जिससे एक बार फिर मणिपुर के विद्रोह की आग में झुलसने का खतरा है। जिससे राज्य में रह रहे विभिन्न आदिवासी जनजातियों में आपसी एकता भाईचारा का ध्वंस कर दिया है।
पूर्वोत्तर भारत विविधाताओं भरा है। जहां कदम-कदम पर वेशभूषा, रहन-सहन, खान-पान, गीत-संगीत के हजारों रंग मिल जायेंगे। जिनका सम्मान और संवर्धन किसी भी लोकतांत्रिक देश की एकता की बुनियादी शर्त है। इनमें आपसी सहयोग, समन्वय और सहभागिता द्वारा ही एकता बढायी जा सकती है।
लेकिन संघ परिवार तो इसी का दुश्मन है। संघ परिवार संस्कृति, भाषा, धर्म, रीति-रिवाज के नाम पर आपसी टकराव बढ़ाकर ही जिंदा है। वह विविधता के टकराव को संस्थाबंद्ध करता है और टकराव को संस्थानिक स्वरूप देकर राज्य की संस्थाओं को इस आधार पर पुनर्गठित करता है। राज्य के अंदर कमजोर जातियों, जनजातियों और अल्पसंख्यकों के धर्म-संस्कृति और विचार के प्रति नफरत और घृणा पैदा करता है। जिससे सामाजिक टकराव को बढ़ाया जा सके और राज्य के अंतर्गत उसे संस्थानिक रूप दिया जा सके।
संघ परिवार की इन्हीं नीतियों के कारण लोकतांत्रिक मूल्यों और संस्थाओं का क्षरण होता है। राष्ट्र-राज्य की आंतरिक एकता कमजोर होती है। अंततोगत्वा लोकतांत्रिक राज्य सैन्य राज्य में बदल जाता है। कश्मीर का अनुभव देखा जा सकता है। जहां लद्दाख के बौद्ध संघ-भाजपा द्वारा थोपी गई तानाशाही से ऊब गए हैं। जो कभी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रभाव में थे, अब आंदोलित हो रहे हैं और मांग कर रहे हैं कि जम्मू कश्मीर की पुरानी स्थिति बहाल की जाय। जम्मू के लोग भी अब संघ और भाजपा की नीतियों से ऊबने लगे हैं और वहां कश्मीरी पंडितों द्वारा लोकतांत्रिक प्रतिरोध की नई इबारत लिखी जा रही है।
पूर्वोत्तर भारत का भविष्य
पूर्वोत्तर भारत के पिछले 75 वर्षों की भौतिक स्थिति के विश्लेषण से आप समझ सकते हैं कि किसी भी राष्ट्र राज्य के एकीकरण के लिए सैन्यवादी प्रयोग स्थाई परिणाम नहीं देते। 1947 -48 के दौर में भारत के एकीकरण के लिए पूर्वोत्तर भारत में जो दिशा ली गई थी। उसने वहां की जनता में भारतीय गणराज्य के प्रति शंका और दूरी पैदा की थी। लंबे लोकतांत्रिक व्यवहार द्वारा पूर्वोत्तर में यह कोशिश हुई थी की सैकड़ों जनजातियों में फैले अविश्वास और नफरत को दूर किया जाए। लोकतांत्रिक संस्थाओं में जनजातियों की भूमिका और भागीदारी बढ़ाई जाए। विकास में उनकी सह भागिता हो और पारदर्शी राज्य प्रणाली के द्वारा उनके विश्वास को वापस किया जाए ।
लेकिन पिछले 9 वर्षों में संघ-भाजपा की केंद्र और राज्य सरकारों ने अलग-अलग नीतियां लाकर पूर्वोत्तर के राज्यों में अलगाव को और मजबूत किया है। उनकी भारतीय संघ से दूरी बढ़ाई है। आंतरिक टकराव की परिस्थितियों को सचेतन विकसित किया है। विभिन्न जातियों संस्कृतियों में विभेद और टकराव को बढ़ाया है। जिससे पूर्वोत्तर में अलग-अलग कारणों से टकराव के नए-नए इलाके बनते जा रहे हैं।
मणिपुर की घटनाएं जिस बात का संकेत दे रही हैं। वह हमारे देश के लोकतांत्रिक भविष्य के लिए निश्चित ही चिंताजनक संकेत है। संघ-भाजपा की फौलादी पकड़ से पूर्वोत्तर को मुक्त करके ही अब स्थाई शांति कायम करना संभव होगा।
लोकतांत्रिक जगत और भारत के विपक्ष को इस इस बात का ध्यान रखना चाहिए के पूर्वोत्तर भारत सीमावर्ती राज्य है। यहां किसी भी तरह की अशांति भारत की एकता और अखंडता के लिए चुनौती बन सकती है । इसलिए उनको हर कीमत पर शांति और लोकतंत्र बहाली की जिम्मेदारी अपने कंधे पर लेनी होगी।
फ़ीचर्ड इमेज गूगल से साभार