समकालीन जनमत
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महामारी के उद्यमी

महामारी का दौर है. दमन का दौर है. झूठ का दौर है. भूख का दौर है. ये सत्ताधारियों के ‘जुमले’ नहीं हैं. आज की सच्चाईयां हैं और इन सच्चाईयों को दफ्न करने की कोशिशें जारी हैं. जिन्हें जारी रखने की कोशिश केंद्र की सत्ता पर सवार सरकार कर रही है.

देश में मजदूर भूखों मर रहें हैं. वे सड़कों पर बेवतन हो कर रह गए हैं और सरकार है कि राष्ट्रवादी बनी हुई है. राष्ट्रवादी बने रहने के लिए ही सरकार और मीडिया की जुगलबंदी ने इसे मुसलमानों के मत्थे मढ़ दिया. इसके तीन फायदे सरकार को हुए – एक, महाममारी पर सरकार की हर तरह की नाकामी को अल्पसंख्यकों के मत्थे मढ़ दिया. दूसरे, इस महामारी बहाने मुसलमानों को गिरफ्तार किया गया और उन पर भाजपा समर्थकों द्वारा हमले हुए जिससे ‘राष्ट्रविरोधी मुसलमानों’ के प्रति भाजपा की जीरो टोलरेंस वाली छवि मजबूत हुई.

इस महामारी में सरकार ने और भी अपना हित साधन किया. अपनी आलोचना करने वाले बुद्धिजीवियों को गिरफ्तार किया. तीसरी आंदोलनकारियों पर काले कानून लादे. जब जनता मौत के खौफ में है. सरकार देश के लोकतंत्र को भी काल के गाल में ठेलती जा रही है. मतलब इस महामारी को भी सरकार ने लोकतंत्र के खिलाफ एक अवसर के रूप में इस्तेमाल कर लिया. इस महामारी के भी उसने कपटपूर्ण फायदे उठाए. यही महामारी के उद्यमी का चरित्र है.

जब आपदाएं आती हैं तो ये जो उद्यमी हैं, जिनके खून में बिजनेस है, मोटा माल बनाने में लग जाते हैं. अमरीका को ही देखिए – पहले विश्वयुद्ध में उसने कैसे पैसे बनाए. उन हथियारों को बेच कर जिनका काम ही इंसानियत का खून चखना है. वही अमेरिका आज महामारी में भी भारत को मिसाईल बेच रहा है. जबकि वह खुद दूसरे देशों के चिकित्सकीय उपकरणों को हथिया रहा है.

हम उलट कर असली बात बोलते हैं – जहान है तो जान है. जहान मतलब यह पूंजीवादी अर्थव्यवस्था और यह बात ग्लोबल सत्य है क्योंकि यह बात भारत वर्ष में ही नहीं अमरीका में भी कही जा रही है कि जान से कीमती अर्थव्यवस्था है. ऐसा लगता है कि हमारे प्रधानमंत्री के रगों में बहने वाले ‘बिजनेस’ और अमरीकी बनियों की रगों में बहने वाले इस ‘बिजनेस’ का ब्लड ग्रुप एक ही है. ‘जहान है तो जान है’ – इस वाक्य को वेद वाक्य घोषित कर दिया जाना चाहिए क्योंकि हम यह नहीं चाहते कि कोई यह कहे कि विश्व गुरू के नज़रों से यह वाक्य रह गया था.

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