समकालीन जनमत
तस्वीर-राजेश कुमार
जनमत

क्या पीएम को भारत के सबसे बुरे मानवीय संकट की रत्तीभर भी परवाह है?

ज्योति पुनवानी

( स्वतंत्र पत्रकार ज्योति पुनवानी का यह लेख 19 मई को ‘रेडिफ.काॅम’ में प्रकाशित हुआ है. समकालीन जनमत के पाठकों के लिए हम इसका हिन्दी अनुवाद प्रस्तुत कर रहे हैं. हिन्दी अनुवाद दिनेश अस्थाना ने किया है. )


अपने घरों के लिये जीविका कमानेवाले ‘आत्मनिर्भर’ कामगारों के एक पाॅलीथीन के बैग में खिचड़ी के लिये कतारबन्द होने या हजारों कि.मी. की यात्रा मात्र बिस्कुट के पैकेट के भरोसे करने की खबर भी प्रधानमंत्री को विचलित नहीं कर पायी।

क्या आपको नोटबन्दी-संकट के दौरान बैंक के बाहर रोते हुये एक बूढ़े फौजी की फोटो याद है ? वह चेहरा 2016 के अन्त और 2017 के प्रारम्भ में अधिकांश भारतीयों को लगे आघात का चेहरा बन गया था, उस समय 500 और 1000 रुपये के नोटों की शक्ल में हमारी 86 प्रतिशत नकदी को अमान्य घोषित कर दिया गया था।

वर्तमान लाॅकडाउन के कई चेहरे हैंः हाथ में फोन लेकर रोता हुआ एक आदमी; सीमेंट मिक्सर से बाहर आते हुये मजदूर… ये सभी पुरुष और महिलायें वही हैं जिन्होंने हमारे शहरों का निर्माण किया है।
16 मई 2014 को अपार बहुमत के साथ नरेन्द्र दामोदरदास मोदी प्रधानमंत्री बने थे। उनके छः वर्षों के शासनकाल में सिर्फ एक सरकार के फैसलों के चलते भूख, बेरोजगारी और आतंक से त्रस्त मजदूरों का शहरों से यह दूसरा पलायन है।

सीधे सरकारी नीतियों के चलते गरीबों के अपने जीवन से हाथ धोने का भी यह दूसरा मौका है।

नोटबन्दी ने 150 भारतीयों की जानें ली थी। कोरोनावायरस के लाॅकडाउन ने- कोरोना ने नहीं- अबतक 119 भारतीयों की जानें ली है।

नोटबन्दी के साथ ही कठोर पाबन्दियाँ भी आयी थीं और पुराने नोटों को नये से बदलने के लिये एक के बाद एक कई निर्देश जारी किये गये थे। नतीजतन नकदी आधारित छोटे-छोटे धन्धे चैपट हो गये,  उन्हें बन्द करना पड़ा और मजदूर शहर छोड़कर भागने लगे।

नोटबन्दी की मार किसानों पर भी पड़ी। उनका सारा लेन-देन नकदी में ही था, ग्रामीण क्षेत्रों में बैंक और ए0टी0एम0 नदारद थे, तो हुआ यह कि वे अपने पुराने नोटों को लेकर फटफटाते रह गये, नये नोट पाने का उनके पास कोई जरिया नहीं था।

इन सबसे अछूता केवल वही वर्ग रह गया जिनके एक से ज्यादा बैंक खाते थे, जिनके पास डेबिट कार्ड थे और जो पहले से ही नकदी रहित लेन-देन करते थे, अर्थात एक छोटा सा उच्चवर्ग।

नोटबन्दी की व्यथा चौतरफा थी, देर तक रही और मीडिया द्वारा इसे व्यापक प्रचार मिला। सोचा यह गया था कि सरकार को इससे सीख मिली होगी कि अगली बार कोई बड़ा निर्णय लेने से पहले क्या नहीं करना चाहिये।

इसके बावजूद, अगले साढ़े तीन साल में, कुछ भी नहीं बदला, चाहे वह निर्णय की घोषणा करने का तरीका हो, चाहे इसके लागू करने का तरीका हो या चाहे परिस्थितियों से लाभ उठाने का तरीका हो।
और इस बार भी तकलीफ उठानेवाले वही, बड़ी संख्या में गरीब ही हैं।

घोषणा

कोरोना वायरस की महामारी का मुकाबला करने के लिये राष्ट्रव्यापी लाॅकडाउन की घोषणा उसी तरह जल्दीबाजी में की गयी जैसे नोटबन्दी की की गयी थी।

वह घोषणा 8 नवम्बर, 2016 को रात में 8 बजे की गयी थी, माने अपने जीवन भर की कमाई को रद्दी कागज़ बन जाने से बचाने के लिये लोगों को केवल चार घंटे का समय दिया गया था।

लाॅकडाउन की घोषणा 24 मार्च, 2020 को रात में 8 बजे की गयी और उसे मध्यरात्रि से प्रभावी होना था।
अपनी आर्थिक गतिविधियों को रोकने की तैयारी करने के लिये करोड़ों लोगों को केवल चार घंटे का समय दिया गया।

तैयारी

सरकार की किसी तैयारी का कोई अता-पता न तो उस बार था न इस बार है।

उस समय पर्याप्त मात्रा में नये नोट नहीं छापे गये थे; 2000 रुपये के नये नोट ए0टी0एम0 खाँचे में फिट नहीं आ रहे थे; स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति के चलते बैंकों में कर्मचारी पहले से ही कम थे और उनके ऊपर अचानक हताश-परेशान लोगों का भार आ गया, लोग अपने पुराने नोट जमा करने की जल्दी में थे; रबी की बुवाई का सीज़न चल रहा था……..।

इस बार भी प्रधानमंत्री ने अचानक राष्ट्रव्यापी लाॅकडाउन की घोषणा कर दी, रोज कमाने वालों को कोई आश्वासन नहीं दिया गया जबकि सबको पता था कि इसकी सबसे बुरी मार उन्हीं लोगों पर पड़ेगी। किराया चुकाने और मकान खाली करवाने से मना करने के लिये कोई अध्यादेश पारित नहीं किया गया (न्यूजीलैंड ने ऐसा किया था; इंगलैंड ने ऋण वसूली के लिये सम्पत्ति की कुर्की पर रोक लगा दी थी)।

कर्मचारियों का वेतन रोकने और तालाबन्दी को अपराध घोषित नहीं किया गया।

सबको मुफ्त राशन उपलब्ध कराने जैसा जनकल्याण का मामूली कदम भी नहीं उठाया गया जबकि इसके लिये कोई नया कानून बनाने की जरूरत ही नहीं थी।

इसे आजतक लागू नहीं किया गया है। अपने घरों के लिये जीविका कमानेवाले ‘आत्मनिर्भर’ कामगारों के एक पाॅलीथीन के बैग में खिचड़ी के लिये कतारबन्द होने या हजारों किमी की यात्रा मात्र बिस्कुट के पैकेट के भरोसे करने की खबर भी न तो प्रधानमंत्री को विचलित कर पायी और न ही खाद्य एवं आपूर्ति मंत्री को।
महामारी पर काबू पाने के लिये लाॅकडाउन जरूरी था। लेकिन इस महामारी से मुकाबले में लगे स्वास्थ्यकर्मियों को आवश्यक बुनियादी सुविधायें उपलब्ध कराने की दिशा में कोई कदम नहीं उठाये गये।
19 मार्च तक मास्क और दस्तानों का निर्यात जारी रहा।

प्रिवेन्टिव वीयर मैन्यूफैक्चरर्स एसोसियेशन आफ इंडिया के चेयरमैन ने शिकायत की है कि उनके अनुरोध के बावजूद, ऐन लाॅकडाउन तक सरकार ने जरूरी पी0पी0ई0 की संख्या और उनकी गुणवत्ता को लेकर कोई साफ तस्वीर नहीं दी थी।

पी0पी0ई0 के अधिकांश निर्माता छोटे स्तर पर काम करते हैं; माँग को पूरा करने के लिये अधिक संख्या में उत्पादन किये जाने से उनकी क्षमता प्रभावित हुयी है। उन्हें पहले से इसके बारे में क्यों नहीं बताया गया ?

क्रियान्वन

लाॅकडाउन के लागू किये जाने का तरीका एक बार फिर नोटबन्दी की याद दिला देता है।
उस बार सारा दारोमदार बैंकों और पुलिस पर डाल दिया गया था। अपने ही धन को लेकर हैरान-परेशान लोगों के साथ कोई हमदर्दी नहीं दिखायी गयी।

एक माँ जिसे अपने बेटे के कैंसर के इलाज के लिये नकदी की जरूरत थी उसे 2000 रुपये, एक रुपये के सिक्कों की शक्ल में दिये गये। उसका यह अनुरोध, कि अस्पताल उन सिक्कों को स्वीकार नहीं करेगा, यह कहते हुये ठुकरा दिया गया कि ‘इसे ही लेना होगा, लो चाहे न लो’। सिक्कों का थैला इतना भारी था कि उसे वह धन घर ले जाने के लिये अपने कैंसर के रोगी बेटे को ही बुलाना पड़ा।

कुछ राज्यों को यदि छोड़ दिया जाय तो इस बार लाॅकडाउन लागू करने का काम भी पुलिस के जिम्मे छोड़ दिया गया और उसने इसे अपने ढंग से ही लागू करायाः क्रूरता और बलपूर्वक। अब तक दो लोग पुलिस की लाठियों से मरे हैं और दो उनकी लाठियों के खौ़फ़ से।

आखिरी पैंतरा 

एक चौथी समानता भी है।

नोटबन्दी के लिये शुरू में बताया गया था कि यह कालेधन पर रोक लगाने की कोशिश है। बाद में प्रधानमंत्री इसके गुण गाते हुये यह बताने लगे कि नकदी रहित अर्थव्यवस्था प्राप्त करने का यह एक साधन है।

मोदी पहले लक्ष्य का प्रयोग करते हुये गरीबों को यह समझाने में सफल रहे कि वे जो भी कष्ट झेल रहे हैं, धनी लोगों को भुगताने के लिये वे जरूरी थे।

इसका दूसरा निशाना अनौपचारिक अर्थव्यवस्था थी और औपचारिक क्षेत्र को मजबूत बनाने के लिये थी; यह योग्यतम की उत्तरजीविता को सुनिश्चित करने की सोची-समझी योजना थी। यह कार्य इस पूरी जानकारी के साथ किया गया था कि अनौपचारिक क्षेत्र में 83 प्रतिशत लोग कार्यरत हैं।

इस लाॅकडाउन में भी पिछले हफ्ते अचानक एक मोड़ दिखायी पड़ा है।

लाॅकडाउन के शुरू होने के साथ ही रातोंरात बेरोजगार हो गये मजदूर शहरों से भागने लगे, अब वे शहर अवसरों का स्वर्ग नहीं रह गये थे। उनमें से कुछ तो यह भी कह रहे थे कि अपने गाँवों में रूखा-सूखा खाकर जिन्दगी गुजार लेंगे पर वापस नहीं आयेंगे।

कुछ लोग मजदूरों की इस स्वाभाविक प्रतिक्रिया का अवांछित लाभ उठा रहे हैं।

इन वापस आ रहे मजदूरों का स्वागत सबसे पहले उ0प्र0 के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने किया। उ0प्र0 आये एक मजदूर का कहना हैः ‘हम वापस मुम्बई क्यों आयेंगे? योगी जी हमें नौकरी देंगे।’

उसे यह नहीं मालूम कि योगी जी के दिमाग में क्या है।

योगी सरकार इस बात पर लार टपका रही है कि चीन और वियतनाम से जो विदेशी निवेश बाहर निकलेगा उ0प्र0 उसके लिये बेहतर विकल्प प्रस्तुत कर सकता है। उसके लिये सस्ता श्रम उपलब्ध कराने की गर्ज से योगी सरकार ने फटाफट श्रम कानूनों में व्यापक परिवर्तन कर डाले हैं ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि इन निर्माण-हबों से मजदूर चिपके रहेंगे, बिना किसी श्रम-अधिकार के।

सात दूसरे राज्यों ने बड़ी तत्परता से उनका अनुसरण कर लिया।

दूसरी ओर महाराष्ट्र के वरिष्ठ शिवसेना मंत्री भी अपने राज्य से प्रवासी मजदूरों के पलायन पर अपना उल्लास छुपा नहीं पा रहे हैं। उन्हें लगता है कि यह ‘धरती पुत्रों’ के लिये उन्हें विस्थापित कर देने का सुनहरा मौका है। याद रहे, उनकी पार्टी का मूल उद्देश्य भी यही था।

केन्द्र ने अपने तईं अर्थव्यवस्था के पुनरोद्धार का बहाना लेकर रक्षा और ऊर्जा जैसे संवेदनशील क्षेत्रों का व्यापक स्तर पर निजीकरण करने की घोषणा कर दी है।

इन सबके बीच क्या मजदूरों की आकांक्षाओं का कोई मतलब है?

न तो राज्य और न ही प्रधानमंत्री, पूरे दावे के साथ कुछ कहने की स्थिति में हैं।

नोटबंदी-संकट के दौरान प्रधानमंत्री ने गरीबों के कष्टों को बारहा स्वीकार किया पर उन्हें यह कह कर समझा लिया गया कि भ्रष्ट अमीरों को उनके कालेधन से वंचित कर दिये जाने के लिये गरीबों को ये कष्ट उठाने ही पड़ेंगे।

और उन्होंने ठीक यही किया। अपने अपार कष्टों के बावजूद, यह जानते हुये भी उनकी तरह बैंकों के बाहर कोई करोड़पति कतार में नहीं खड़ा हुआ था, उन्होंने आगामी चुनावों, खासकर सबसे महत्वपूर्ण उ0प्र0 विधानसभा के चुनावों में मोदी को अपार बहुमत से जिताया।

इस बार के कष्ट और भी व्यापक हैं।

सिर्फ औपचारिक क्षेत्रों के ही नहीं, बल्कि सारे मजदूर प्रभावित हुये हैं। अपने घरों की ओर पैदल या कंटेनरों में ठुँस कर जाते हुये मजदूरों की तस्वीरें; मालगाड़ी और राजमार्गों पर तेज भागती ट्रकों के नीचे दब कर या थकान से गिरकर मरते हुये मजदूर भारत के लाॅकडाउन के स्थायीभाव बन गये हैं।

किसी ने ऐसा तो नहीं चाहा था।

इसके बावजूद प्रधानमंत्री ने इसे गरीबों का ‘त्याग और तपस्या’ कहा है जिसके चलते भारत धनी देशों की तुलना में महामारी का बेहतर ढंग से सामना कर सका है।

क्या ये मजदूर और उनके परिवार वाले भी इस बात से सहमत हैं कि उनकी बेवज़ह दिक्कतें राष्ट्र के लिये उनका ‘त्याग और तपस्या’ रही हैं?

Related posts

Fearlessly expressing peoples opinion