समकालीन जनमत
रेखा चित्र-राकेश कुमार दिवाकर
जनमत

प्रवासी मजदूरों की दुर्दशा देश की सामूहिक मानवता पर एक बदनुमा धब्बा है

शाश्वत सिन्हा

 

2002 ई0 में जब मोदी गुजरात के मुख्यमंत्री थे तब वहाँ कत्लेआम हुआ था। इसी वज़ह से सोनिया गाँधी ने उन्हें ‘‘मौत का सौदागर’’ कहा था। ठीक यही कांड दिल्ली में भी दुहराया गयाण् इस बार वह प्रधानमंत्री हैं और उनके पुराने सहायक अमित शाह गृहमंत्री। गुजरात (2002) और दिल्ली (2020) मोदी के स्मारक हैं। और मोदी सरकार के लिये ईश्वर ने कोविड-19 का संकट एक सुअवसर के रूप में दे दिया है।

इस समय भारत में विश्व की क्रूरतम तालाबन्दी थोप दी गयी है। सत्ता में बैठे ऐसे लोगों की अन्तरात्मा को क्या कहा जाय कि प्रवासी मजदूर रेल की पटरियों पर कट रहे हैं, वे अपने घरों को पैदल जाते हुये सड़कों पर मर जा रहे हैं, काम छिन जाने से वे भूख से मर जा रहे हैं और वर्तमान संकट से उत्पन्न निराशा और अपने अस्तित्व की अवमानना के कारण वे आत्महत्या कर रहे हैं, पर उनके चेहरे पर शिकन तक नहीं आती। लोगों के कष्टों से उन्हें कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता। अपनी एकतरफा मन की बात में मोदी कभी भी करोड़ों प्रवासी मजदूरों की दुर्दशा और अमानवीय स्थितियों का जिक्र नहीं करते।

मजदूरों के समस्त अधिकारों और सुरक्षाओं से उन्हें वंचित करके बंधुआ मजदूर बना देने के लिये इस संकट को ‘मास्टरस्ट्रोक’ बनाने का इससे बेहतर मौका और क्या हो सकता है ? विभिन्न राज्यों में उनके क्षत्रप मजदूरों के जीवन और स्वाभिमान के इस अमानवीय दहन को और अधिक दहका रहे हैं। इन मजदूरों को केवल वोट बैंक के तौर पर बरदाश्त किया जाता है, और ज्यों ही वोट बैंक के तौर पर उनकी उपयोगिता समाप्त हो जाती है, वे वापस गुलाम बन जाते हैं। महान हिन्दुत्व की परियोजना को यह खूब रास आता है, गुलाम मजदूर वर्ग की पीठ पर ही उसका अस्तित्व सम्भव होता है, और उसके बदले में स्थापना होती है सर्वाधिक हिंसक, असमान, जाति आधारित समाज की। और इसी लक्ष्य की प्राप्ति हेतु अनवरत और संवेदनाशून्य प्रयास जारी है।

प्रवासी मजदूरों के संकट ने भाजपा/आर0एस0एस0/हिन्दुत्व गिरोह के असली इरादे को बेनकाब कर दिया है- उन्हें आमतौर पर हिन्दुओं की कोई परवाह नहीं है, उनका कुल उद्देश्य है एक ऐसे वर्ग आधारित समाज को औपचारिक और कानूनी स्वरूप प्रदान करना जिसमें देश के अधिकांश संसाधनों पर नियंत्रण आमतौर पर बुर्जुआ वर्ग का निर्माण करने वाले ऊँची जाति के हिन्दुओं का हो और वही स्थायी रूप से शासक बने रहें। दलित-शोषित मजदूर वर्ग के पास इस बुर्जुआ वर्ग की सर्वोच्च सत्ता को चुनौती देने का कोई मौका छोड़ा ही न जाय। इस परियोजना में जाति आधारित धार्मिक वर्जनायें बेहतरीन ढंग से कारगर हो जाती हैं जहाँ हिन्दू समाज के धार्मिक ग्रंथों और विधिक अवधारणाओं द्वारा प्राकृतिक श्रम-विभाजन को घनीभूत कर दिया गया है। इस समय जारी अधिसंरचना की दूसरी अभिव्यक्ति है मुसलमानों के विरुद्ध साम्प्रदायिकता, लोगों के मौलिक और संवैधानिक अधिकारों में कटौती करते समय हिन्दुओं की एक बड़ी आबादी को उनके खिलाफ़ नफ़रत के चलते अपना मुँह बन्द रखने के लिये इसे एक सशक्त निश्चेतक के रूप में प्रयुक्त किया जा सकता है। वास्तविक शक्ति तो बहुसंख्यक पर नियंत्रण द्वारा आती है; नफ़रत भरी हिंसा और अल्पसंख्यक आबादी के खिलाफ़ राजनीति श्रम-सम्बन्धों के वास्तविक मुद्दों से बहुसंख्यक आबादी का ध्यान भटकाने के मामूली औजार हैं।

हिटलर ने जर्मनी में इसे सफलतापूर्वक अंजाम दिया था, वहाँ जब उसने यहूदियों के खिलाफ़ नफ़रत को संस्थागत कर दिया तो जर्मन समझ रहे थे कि वे राष्ट्र की एक महान सेवा कर रहे हैं। द्वितीय विश्वयुद्ध में जर्मनी की तबाही के बाद ही उन्हें समझ में आया कि जब फासीवाद को मजबूत किया जा रहा था उस समय यहूदियों का विरोध उन्हें इससे दूर रखने का एक औजार मात्र था। भारत में भी इस समय ऐसा ही कुछ हो रहा है।

अधिकांश प्रवासी मजदूर निचले या पिछड़े तबके के गरीब हिन्दू परिवारों से आते हैं, यही दूसरे समुदायों के मजदूरों को मिलाकर भारत में सर्वहारा वर्ग का निर्माण करते हैं। अर्थव्यवस्था के मंथन के लिये जरूरी अधिकांश भौतिक श्रम इसी वर्ग के लिये आरक्षित होता है। मानसिक श्रम करनेवाले लोग आमतौर पर उच्चवर्ग के और मुख्यतः ऊँची जाति के हिन्दू होते हैं। जातिभेद का गठबंधन अधिकांशतः वर्गभेद से होता है और इसकी बेशर्म नुमाइश का बायस प्रवासी मजदूरों के मौजूदा संकट से ज्यादा सटीक कुछ हो ही नहीं सकता।

बुर्जुआ वर्ग उनसे छुटकारा नहीं पा सकता पर साथ ही वह उनको जीने भर की मजदूरी भी नहीं देना चाहता। मुनाफा उसी श्रम से आता है; मार्क्स के शब्दों में वे जो भारी अतिरिक्त मूल्य पैदा करते हैं उसी से बुर्जुआ/ऊँची जातियों के लिये सुख-सुविधा के समस्त भौतिक संसाधन सम्भव होेतेे हैं और उन्हें लगता है कि ये संसाधन उन्हीं की कमाई के हैं और वे उनके हकदार हैं। इन मजदूरों के अबाध शोषण और अमानवीयकरण के बिना इस तरह का वर्गभेद सम्भव ही नहीं है। फिर भी संविधान के अभिलेख में समानता के कुछ मुखौटे तो हैं ही और उन्हीं को हमारे देश की महानता का द्योतक बताया जाता है, पर अब हिन्दू फासीवादियों को वह मुखौटा भी असह्य हो गया है और वे उसे चिन्दी-चिन्दी करने के लिये अपने नाखून तेज कर लगे हैं। गुलामी उनका कुत्सित स्वप्न है। उनके पूँजीवादी दोस्त श्रम-अधिकारों और मानवाधिकारों का सम्पूर्ण समापन चाहते हैं; यह कोई आसान परियोजना नहीं है, इसलिये साम्प्रदायिकता के लबादे में विभ्रान्ति एक जरूरी बुराई हो जाती है, अन्यथा निम्न वर्ग पर जातीय हिंसा इतनी सघन हो जायेगी कि बहुसंख्यकों के लिये उसे दरकिनार करना मुश्किल हो जायेगा। जातीय एवं साम्प्रदायिक हिंसा की अनिवार्य परिणति है मृत्यु, परन्तु यह वर्ग आधारित समाज के फलने-फूलने के लिये जरूरी है। ये ‘मौत के सौदागर’ मानव जीवन के प्रति अपनी अन्तरात्मा की पुकार से जरा भी विचलित नहीं होते।

कोविड-19 के संकट ने पूँजीवाद की बखिया उधेड़ कर रख दी है। अपने अकूत संसाधनों द्वारा विश्व में सबसे धनी, पूँजीवाद का मशालची अमेरिका सबसे अधिक मौतों और निरंतर बढ़ते संक्रमण के साथ सामने खड़ा है। एक माह तक की बन्दी के बाद भी ग्राफ का कर्व नीचे नहीं आया है, मौतों और संक्रमितों की संख्या रोज-ब-रोज बढ़ते हुये 13 लाख से आगे निकल गयी है। जब एक छोटा सा साम्यवादी राज्य केरल इसे नियंत्रित कर सकता है तो अमेरिका क्यों नहीं ? विश्व के इस सबसे बड़े पूँजीवादी देश ने अपने संसाधनों को मात्र कुछ हाथों में केन्द्रित होने दिया है और अपने नीचे के वर्गों के साथ किसी भी धन का साझा करने से मना कर दिया है।

इस महामारी से सर्वाधिक प्रभावित कौन है ? कोरोना वायरस समाज के सभी वर्गों को एकसमान रूप से प्रभावित कर रहा है, यह सोच सन्तोषप्रद तो है पर भ्रामक है। हमारे समाज का सबसे गरीब और संवेदनशील वर्ग- मजदूर वर्ग, जो समस्त सामाजिक या आर्थिक सुरक्षाओं से वंचित है, इससे सर्वाधिक प्रभावित है। यह वह आबादी है जो जीवन और मृत्यु की दैनन्दिन आवश्यकताओं के चलते सामाजिक दूरी या स्वास्थ्य और सुरक्षा सम्बन्धी दूसरी सावधानियाँ बरत सकने में असमर्थ है। उन्हें रोज कुँआ खोदना और रोज पानी पीना है। वे गन्दी चालों, झुग्गियों और दूसरी घनी बस्तियों में रहते हैं जहाँ उन्हें स्वच्छ पीने के पानी और साफ-सफाई की मूलभूत आवश्यकताओं के लिये जद्दोज़हद करना पड़ता है।

यह कहानी दो विश्वों की है- खाये-अघाये लोगों और महरूम लोगों की। अगर वे रोेज काम नहीं करेंगे तो जल्दी ही भूखों मर जायेंगे। दुनिया के किसी हिस्से में यह उतना साफ नहीं दिखायी देता जितना भारत में, यहाँ प्रवासी मजदूरों की दुर्दशा किसी देश की सामूहिक मानवता पर एक बदनुमा धब्बा है।

ऐसे में मजदूर वर्ग का यह परम कर्तव्य है कि वे संगठित हों और आतताइयों को उखाड़ फेंकें। ऊपरी तौर पर उन्हें बँटा रखने के लिये पैदा किये गये बनावटी सामाजिक विभेदों को अपने भले के लिये उन्हें पूरी दृढ़ता के साथ मिटाना होगा और वर्गीय एका कायम करनी होगी। पूँजीवादी अर्थतंत्र के लिये उनका आधार अपरिहार्य है, यह कुछ राज्यों द्वारा मजदूरों को घर जाने पर रोक लगाने से एकदम साफ हो गया है। मजदूर वर्ग के बिना अर्थव्यवस्था का पहिया रुक जायेगा, और आगे बढ़ ही नहीं सकेगा। यह मजदूर वर्ग की ताकत है, वह वर्ग जिसकी हमेशा अनदेखी की गयी है, जिसे हाशिये पर रखा गया है और हमेशा अपमानित किया गया है। सम्भ्रान्त शासक वर्ग का चेहरा बेनकाब हो चुका है। यदि साम्यवादी दल अपने सिद्धान्तों पर दृढ़ हैं तो शासक वर्गों की तरह ही कोविड-19 उन्हें भी ऐसे संघर्ष का नेतृत्व करने और वर्ग शोषण के जुये को उतार कर फेंक देने का अप्रतिम अवसर प्रदान करता है।

 

( लेखक अमेरिका में रहते हैं. उनसे shashwat.ds@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है. इस लेख का अंग्रेजी से हिन्दी अनुवाद दिनेश अस्थाना ने किया है )

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