जिस देश में सदियों से भक्ति की स्थापित परंपरा के समानांतर वैकल्पिक धाराएं पूरब से पश्चिम, उत्तर से दक्षिण तक चाहे वह सामाजिक, राजनीतिक अथवा धार्मिक ही क्यों न हों, बहती रही है और आज भी लोक में उसके जीवंत की स्मृतियां बसतीं हैं। जो रूढ़ियों, सामाजिक असमानताओं पर चोट करती हैं। अक्क महादेवी से मीरा तक विद्रोही हो जाती हैं। इसी देश में लोक के धार्मिक-सामाजिक उत्सव का एक प्रभुत्वशाली, बहुसंख्यक, राज्य प्रायोजित-बाजार समर्थित रूप देखना हो तो आइए महाकुंभ 2025, इलाहाबाद नहीं प्रयागराज में आपका स्वागत है।
पूरा शहर पिछली बार अर्ध कुंभ- दिव्य कुंभ 2019 में ही एक बड़े धार्मिक अनुष्ठान के लिए साधु- संतो, धार्मिक मिथकों, हिंदू देवी- देवताओं की मूर्तियों से सजा ही दिया गया था। इस बार भी मूर्तियों पर नए रंग रोगन, शहर की दीवारों पर ऐसे ही तमाम पेंटिंगों के साथ नए बने फ्लाईओवरों के खंभों से लेकर लैंपपोस्टों पर कहीं शंख, कहीं घड़ा, कहीं त्रिशूल तो कहीं मोर पंख जगमगा रहे हैं। वह चाहे सरकारी बिल्डिंग हो या विश्वविद्यालय की दीवारें या बैंकों की। इसके साथ हजारों की संख्या में सनातन गर्व महाकुंभ पर्व या सामाजिक एकता से लेकर डिजिटल महाकुंभ तक की बड़ी-बड़ी होर्डिंग्स प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्री की तस्वीरों के साथ शहर से लेकर मेला क्षेत्र में अटी पड़ी हैं। शहर में कहीं-कहीं इलाहाबाद की कुछ राजनीतिक और साहित्यिक हस्तियों की पेंटिंग भी मिल जाएगी हालांकि उनमें से पिछली बार भी जवाहरलाल नेहरू नहीं थे जबकि शास्त्री जी थे। हाँ, पिछली बार 1857 के इलाहाबाद में क्रांति के नायक मौलवी लियाक़त अली की पेंटिंग, जो पिछली बार नवाब यूसुफ रोड पर डीआरएम आफिस के पास थी, वह नहीं है। आजादी की दोनों लड़ाईयों के प्रति आरएसएस की विचारधारा को ऐसे भी समझा जा सकता है। ज़रूर इंडियन प्रेस चौराहे से बालसन चौराहे की तरफ चलें तो दोनों तरफ की दीवारों पर वैज्ञानिकों, संगीतकारों, गायकों, लेखकों और खेल की हस्तियों की पेंटिंग्स बनी हैं। नहीं है इस बार तो आज़ादी के दीवानों की पेंटिंग्स। गवर्नमेंट प्रेस की दीवार पर जो चंद्रशेखर आज़ाद की पेंटिंग 2019 में बनी थी, उसका रंग रोगन तक नहीं किया गया। यहाँ तक कि हाई कोर्ट के सामने बने फ्लाई ओवर के खम्भे अभी रंगे ही जा रहे हैं लेकिन उनमें से कुछ पर जो चित्र बने हैं वे भी साधु संतों, देवी देवताओं के ही दिख रहे हैं। संविधान या अम्बेडकर की कोई पेंटिंग वहाँ नहीं दिखती।
एक और खास बात यदि आप शहर से लेकर मेले में देखें तो इस बार भगवान राम नहीं बल्कि शंकर जी की पेंटिंग और मूर्तियों, होर्डिंग्स की भरमार है। क्या आपको नहीं लगता कि ये अगला एजेण्डा है। अयोध्या के बाद काशी का।
एक ऐसा मेला जिसका इतिहास सनातन या ब्राह्मण धर्म के अलावा विभिन्न धार्मिक मत- मतान्तरों का रहा हो, जिसका ज्ञात ऐतिहासिक प्रमाण भी धर्म सभा के रूप में सम्राट शीलादित्य हर्षवर्धन के समय (617- 647) के मिलते हैं, जो हर 5 साल पर संगम के तट पर होता था और तब महामोक्ष परिषद कहा जाता था और इसका विस्तार से वर्णन भी प्रसिद्ध चीनी यात्री और विद्वान व्हेनसांग के विवरण में मिलता है कि उसमें ब्राह्मण धर्म के और वैष्णव, शैव मातावलंबी से लेकर बौद्ध, जैन जो उस वक्त थे, सभी शामिल होते थे। ऐसे मेले को अब केवल सनातन गर्व की संस्कृति में जैसे तब्दील किया गया है, यानी आज की तारीख में उग्र हिंदुत्व की राजनीतिक संस्कृति के रूप में, उसे कला रूपों से भी समझा जा सकता है।
मेले के भीतर जिस तरह प्रवचनों के नाम पर जहर उगला जा रहा है उसकी बात तो जाने दीजिए लेकिन सत्संग के नाम पर हिंदी फिल्मी धुनों पर सजे धजे मेकअप में पूरे मंच की साज सज्जा, लाइट साउंड जैसे कोई आध्यात्मिक बात नहीं हिंदी फिल्मों की फोटो कॉपी नाच-गाने से भरपूर फिल्म चल रही है और वह भी सजीव।
कहां तो हमारी भक्ति परंपरा इसी हिंदी पट्टी में कबिरा यह घर प्रेम का से लेकर अपने घर का पर्दा कर ले मैं मीरा बौरानी जैसी रही और जीवंत है और कहां भक्ति की संस्कृति का यह बाजार सजा है। 1915 के हरिद्वार के कुंभ में शामिल हुए महात्मा गांधी ने तब कहा था कि यहां लाखों लोग आए हैं इसलिए निश्चित रूप से नहीं कह सकता पर शायद ही किसी को आध्यात्मिक शांति मिली हो।
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अब जरा एक नजर राज्य और केंद्र के संस्कृति विभाग मंत्रालय पर भी डाल लें। भारत सरकार का संस्थान उत्तर मध्य क्षेत्र सांस्कृतिक केंद्र का कला ग्राम का पंडाल सेक्टर 7 में भव्य और विराट रूप में स्थित है, एक और सेक्टर 22 में भी है। यहां राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय की रेपेट्री की एक बड़ी टीम, जिसमें 70-80 लोग हैं, दो बस और दो ट्रक में नाटक की प्रॉपर्टी समेत पहुंचे हैं। वे शाम को नाटक समुद्र मंथन करते हैं। नाटक में इसके लेखक सूत्रधार खुद नाट्यशास्त्र के लेखक भरत मुनि को ही बताया जा रहा है और उसे दुनिया का पहला नाटक घोषित कर दिया गया है। क्या पता कल को ब्रह्मांड का ही पहला नाटक कह दिया जाए। इस नाटक के निर्देशक चितरंजन मिश्र और लेखक आसिफ अली हैदर हैं। प्रतिभाशाली अभिनेताओं, अच्छे निर्देशन और चुस्त स्क्रिप्ट व अधुनातन तकनीक की सहायता से समुद्र मंथन की पूरी कथा जितने भव्य रूप में सामने आती है, वह हजारों दर्शकों को आश्चर्य और प्रशंसा के भाव से भर देती है। तालियों की गड़गड़ाहट है और मिथक को इतिहास बनाने का प्रोजेक्ट जारी है।
गायन की शास्त्रीय से लेकर उपशास्त्रीय और हिंदी फिल्मों से ज्यादा चर्चित हुए गायकों के आने का क्रम शुरू हो गया है। शंकर महादेवन, कविता कृष्णमूर्ति, उषा उत्थुप जैसे तमाम लोगों से लेकर कैलाश खेर तक। सूत्रों के हवाले से सूचना मिली कि शंकर महादेवन को फीस के रूप में 14 लाख का भुगतान किया गया इसलिए उन्होंने मात्र तीन गीत/भजन ही गाए। उत्तर मध्य क्षेत्र सांस्कृतिक केंद्र अपने कार्यक्रमों और आयोजन स्थल पर की गई साज सज्जा, लाइट साउंड आदि पर कुल कितना खर्च कर रहा है इसका कोई भी आधिकारिक आंकड़ा उपलब्ध नहीं है।
स्थानीय टीमों की हालत
दूसरी तरफ शहर के मुख्य मार्गों और चौराहों पर जिधर से होकर कुंभ के मेले में जाने वाले लोग आएंगे, वहां जगह-जगह उत्तर प्रदेश के संस्कृति विभाग ने पंडाल लगाए हैं और मेला के सेक्टर एक में गंगा नाम से उनका भारी पंडाल सजा है। उनके भी बजट का कोई आधिकारिक आंकड़ा नहीं मिलता। चौराहों पर लगे पंडालों में आमतौर पर विभिन्न जिलों से आई वहां की स्थानीय टीमें हैं जो लोक गायन की टीमें हैं। 23 जनवरी को ऐसी ही कुछ टीमों से मैंने बात की। यज्ञ नारायण पटेल और साथी करछना इलाहाबाद, मेडिकल चौराहे पर सत्याशुं पटेल व साथी अयोध्या, बालसन चौराहा भारद्वाज पार्क पर, विष्णु यादव व साथी पत्थरगिरजा (निकट प्रयागराज जंक्शन), संजय लाल यादव (जो प्रसिद्ध बिरहा गायक बालेश्वर यादव के शिष्य भी हैं) व साथी लखनऊ, सिविल लाइंस पैलेस सिनेमा के सामने अपनी प्रस्तुति दे रहे थे।
इन सभी टीमों को उत्तर प्रदेश संस्कृति विभाग ने बुलाया है। सबको दो दिन जगह बदलकर अपना कार्यक्रम देना है। शाम 3:00 बजे से 7 से लेकर 8:00 बजे तक यह लोग गायन करते हैं। इन सभी टीमों ने एग्रीमेंट पर दस्तखत किए हैं लेकिन इस दो दिन का उन्हें कितना पैसा मिलेगा, प्रोफेशनल फीस के रूप में और आवागमन के खर्चे के रूप में, इसका कॉलम नहीं भरवाया गया है। केवल अकाउंट डिटेल और टीम के लोगों के नाम व संख्या भरवा ली गई है। और अधिकारियों ने कहा है कि बाद में आपका पैसा आपके अकाउंट में भेज दिया जाएगा। यानी कि ये टीमें स्वयं अपना पैसा खर्च करके आई हैं। हां, उनके रहने की व्यवस्था संस्कृति विभाग ने की है। इन सब टीमों से भी भजन गवाए जा रहे हैं, चाहे वह जिस शैली में गाएं। बस अपवाद स्वरूप संजय लाल यादव ने समाज सुधार संबंधी जैसे स्त्री समानता के गीत गा रहे हैं और जब मैं उनके एक मित्र से उनके बारे में पूछ रहा था तो यह जानने पर कि मीडिया से हैं, उन्होंने एक गीत ‘पढ़ा लिखा ए बाबू, कलमिए में जान बा ’ गाया।
मैं आगे बढ़ा तो यही सोचता जा रहा था कि क्या विडंबना है, कलाकार का गीत कहीं और जा रहा है और कलाकार खुद बिना शर्त समर्पण किए हुए है। यही है इस दौर के महाकुंभ की संस्कृति जो ताकतवर के आगे झुकती है, कमजोर से आत्मसमर्पण करवाती है। अपारदर्शिता इसका गुण है और एकता समरसता की बातें विज्ञापन हैं। हाँ, ज्ञान की वृद्धि के लिए कुंभ को लेकर राजर्षि पुरुषोत्तम दास टंडन मुक्त विश्वविद्यालय ने उत्तर प्रदेश की राज्यपाल आनंदीबेन पटेल के ‘अनुरोध’ पर छ: महीने के सर्टिफिकेट कोर्स के लिए विद्वानों के अथक प्रयासों से डेढ़ महीने में सिलेबस तैयार करके उन्हें समर्पित कर दिया है।
कुंभ यानी घट में क्या है कौन जाने ? पर इतना तय है कि घट में अमृत रूपी ज्ञान नहीं है।
नोट- लेखक की अर्धकुम्भ 2019 पर आधारित रपटों पर सम्पादित किताब, ‘दिव्य कुम्भ 2019’, नवारुण प्रकाशन, जनसत्ता अपार्टमेंट, गाजियाबाद से प्रकाशित है।
सम्पर्क-9811577426