समकालीन जनमत
ज़ेर-ए-बहस

जिंदगी मायने रखती है !

इस समय पूरी दुनिया कोरोना संकट से गुजर रही है। कोरोना ने पूरी दुनिया को प्रयोगशाला में बदल दिया है। हर शय लिटमस टेस्ट से गुजर रही है। तमाम मानदंड रेत के महल की तरह भरभरा कर धराशायी हो रहे हैं। कई प्रतिमान ढकोसला से लगने से लगे हैं। ओढ़ी मनुष्यता संपूर्ण विद्रूपता से प्रकट हो चुकी है। दुनिया का सबसे पुराना लोकतांत्रिक देश अमरीका नागिरक अधिकार को सुरक्षित रखने में नाकामयाब साबित हुआ है। यकीन बढ़ता जा रहा है कि विश्वास छलावा के अतिरिक्त कुछ नहीं। जिंदगी नश्वर है, मगर उसका गाढ़ा अहसास अब हो रहा है। हमारा समय नश्वरता के बोध से बोझिल होता जा रहा है।

इस लेख के लिखे जाने तक कुछ भी नहीं थमा है। अमरीका की सड़कों पर अभी भी भगदड़ मची हुई है। हजारों लोग सड़कों पर प्रदर्शन करते दिख रहे हैं। वे निर्भिक हो गए हैं। उन्हें न पुलिस का डर रह गया है, न कोरोना का। आक्रोश इतना भयानक रूप ले चुका है कि वहाँ के राष्ट्रपति तक को व्हाइट हाऊस में सबसे गहन सुरक्षित जगह पर रखना पड़ा। हम जानते हैं कि अमरीका कोरोना के प्रबल चपेट में है। यह देश एक लाख से अधिक नागरिकों को खो चुका है। ऊपर से जार्ज फ्लॉयड की पुलिस के हाथों मौत और राष्ट्रपति ट्रंप का आंदोलनकारियों के खिलाफ राष्ट्रीय सुरक्षाकर्मियों को उतारने की बात ने स्थिति को बद से बदतर बना दिया है।

यह कैसा समय है कि अधिकांश देश के राजनेता वास्तविक कारणों पर बात करने की जगह अनर्गल मुद्दों पर माथा पीट रहे हैं। स्वयं राष्ट्रपति सही कारण की चर्चा नहीं कर रहे। वे मान रहे हैं कि आंदोलन के पीछे वामपंथी शक्तियों का हाथ है। सुगलता अमरीका, सु-अवसर की भूमि (Land of opportunity) वाले नारे को झुठलाकर उससे बहुत दूर निकल आया है। बहरहाल वहाँ के 40 शहरों में कर्फ्यू लगा दिया गया है। अब अमरीका की पहचान नस्लवादी देश के रूप में पुख्ता होती जा रही है। दुनिया के तमाम देशों में जाति, नस्ल, धर्म और रंग के आधार पर होने वाली घटनाएं बढ़ती जा रही हैं। निश्चित ही दुनिया खराब तब्दीली के दौर से गुजर रही है।

फिलहाल अमरीका के हालिया हिंसा की बात करते हैं।
हुआ कुछ यूं था – 25 मई को अफ्रीकन-अमेरिकन मूल के जार्ज फ्लॉयड को एक ग्रॉसरी स्टोर में धोखाधड़ी के आरोप में पुलिस द्वारा पकड़ा गया। कहा जाता है कि फ्लॉयड के हॉथ लॉक डाऊन के कारण तंग हो चले थे। जिस दुकान की शिकायत पर उसे हिरासत में लिया गया था, वहाँ का वह नियमित ग्राहक था। कभी-कभार उधारी भी चलती थी उसकी। मतलब दुकानदार और उसके बीच विश्वास का रिश्ता बन चुका था। इसी विश्वास के बल पर वह, वहाँ से कुछ सामान लिया और उधारी चुकाने की बात कहा। मीडिया में आई खबरों के अनुसार इस बार वह पुराना वाला दुकानदार कहीं गया था। नया दुकानदार फ्लॉयड की उधारी वाली बात को खारिज कर दिया, जिसके कारण दोनों में कहासुनी हो गई। दुकानदार ने पुलिस को खबर कर दिया। मौके पर पुलिस अधिकारी डेरेक चोवेन आया। उसने जॉर्ज फ्लॉयड को हथकड़ी पहनाई और उसे जमीन पर लिटाकर उसकी गर्दन को 8 मिनट 46 सेकंड तक अपने घुटनों से दबाए रखा। जॉर्ज चिल्लाता रहता रहा और निवेदन करता रहा, “मुझे छोड़ दिया जाए मैं साँस नहीं ले पा रहा।” पुलिस अधिकारी ने उसे घुटने से दबाए रखा। इससे जॉर्ज की सांसें रुक गईं और उसकी मौत हो गई। इस घटना का वीडियो वायरल होते ही पहले अश्वेत फिर अमरीका के मानवतावादी श्वेत भड़क उठे।

जैसाकि ऊपर कहा गया है कि दुनिया में हिंसा बढ़ती जा रही है। मासूमों को मार कर आनंदित होना नशे की तरह बढ़ती जा रही है। केरल के साइलेंट वैली फ़ॉरेस्ट में एक गर्भवती जंगली हाथी मानव क्रूरता का शिकार हो गई। हथिनी के मुंह में पटाखे से भरा अनानास फट गया। उसके सारे मसूड़े बुरी तरह फट गए और वह खा भी नहीं पा रही थी। आखिरकार बेजुबान हाथी की मौत हो गई। पेट का बच्चा भी मर गया। कहा जाता है कि हाथी भूखी थी। किसी ने पटाखे से भरा अनानास खिला दिया। गर्भवती हाथी की तरह फ्लॉयड भी निहंग, लाचार और अश्वेत था। लाचार चाहे पशु हो या इंसान, उसे मारना बहुत आसान होता है (हो गया है)।

अश्वेतों के खिलाफ हिंसा के मामले में अमरीका प्रदर्शन हमेशा से उम्दा रहा है। दास प्रथा (काले-गोरों का भेद), पूंजीवादी असंतोष और क्षेत्रीय वैमनस्य के कारण एक तरह की असंतुलन की स्थिति वहाँ हमेशा से रही है । पूंजीवाद के प्रबल दबाव, उभरते जनांदोलनों और रंगभेद के प्रबल चपेट में फंसा अमरीका, जब 4 मार्च 1789 को अपना संविधान लागू किया तो, यह घटना पूरी दुनिया के लिए एक उम्मीद की तरह थी। फिर भी यह संविधान समतामूलक मूल्यों को आत्मसात नहीं कर पाया था। संविधान में निम्न प्रगतिशील एवं आधुनिक मनुष्य और समाज को निर्मित करने वाली परिस्थितियों को शामिल नहीं किया गया था –
1 – महिलाओं को मतदान का अधिकार ।
2 – दासों को स्वतंत्रता के अधिकार से दूर रखा गया था।
3 – संविधान के द्वारा पूंजीपतियों के हक को पुख्ता किया गया था।
4 – राष्ट्रपति चुनाव की प्रक्रिया जटिल थी।

महिलाओं और दासों के प्रति अमरीका के संविधान निर्माताओं का रवैया दुराग्रह पूर्ण था। इन दोनों वर्गों के प्रति अमरीका का श्वेत पूंजीपति वर्ग संदेह करता था। यही कारण है कि जब संविधान लागू हुआ तो अमरीका के हर स्त्री-पुरुष को समान अधिकार नहीं मिल पाया। लैंगिक समानता और दास प्रथा की समाप्ति के लिए वहाँ की औरतों और दासों को एक बार फिर लड़ना पड़ा।

दासों को अपनी किस्मत बदलने के लिए राजनीतिक द्वंद्व का सामना करना पड़ा, जिसके लिए दक्षिणी और उत्तरी अमरीका को कई बार आमने – सामने आना पड़ा तथा 1861 से लेकर 1865 तक गृहयुद्ध तक लड़ना पड़ा। इस युद्ध में छ: लाख अमरीकी सैनिक अपने ही देश में अपनी ही जनता से लड़कर अपनी जान गँँवा बैठे। युद्ध में बड़ी संख्या में नागरिकों को भी हताहत होना पड़ा होगा, जिसका अभिलेख सहज उपलब्ध नहीं है।

अमरीका में नस्लभेद के अंश इतिहास के साथ – साथ साहित्य, कला और सिनेमा (सेलमा और द ग्रेट डिबेटर) से प्राप्त होते हैं। आइए थोड़ा इस पोस्टर की ओर नज़र दौड़ाई जाए। यह पोस्टर सन 1866 में एक चुनाव के दौरान अमरीका के अखबारों में छापा गया और दीवारों पर लगाया गया था। इसमें कहा गया है कि नीग्रो लोगों को अब उनके मताधिकार के प्रयोग करने से रोका नहीं जा सकेगा। यदि कोई उन्हें रोकता है तो वह अपराधी माना जाएगा। कानून बनने के बाद भी श्वेतों और अश्वेतों के मंच में भेद किया गया। समय भले बीतता रहा मगर दो नस्लों का भेद न मिट पाया।

The two platforms” From a series of racist posters attacking Radical Republican exponents of black suffrage, issued during the 1866 Pennsylvania gubernatorial race.

गौरतलब है कि अभी दो महीने पहले ही अर्थात 21 मार्च को पूरे विश्व में अंतर्राष्ट्रीय नस्लीय भेदभाव उन्मूलन दिवस मनाया गया। हम जानते हैं कि दक्षिण अफ्रीका के शार्पविले में नस्लभेदी कानून का शांतिपूर्ण खिलाफत करने के दौरान 21 मार्च, 1960 को पुलिस द्वारा आग लगाकर 69 लोगों को मार डाला गया था। इस जघन्य नस्लीय हिंसा के खिलाफ और नस्लीय हिंसा के रोकथाम के लिए अंतर्राष्ट्रीय नस्लीय भेदभाव उन्मूलन दिवस की परिकल्पना की गई। इस वर्ष इसकी थीम ‘मिटीगेटिंग एंड काउंटरिंग राइज़िंग नेशनलिस्ट पोपुलिज़्म एंड इक्सट्रीम सुपरमेसिस्ट आईडियोलॉजी’ (Mitigating and countering rising nationalist populism and extreme supremacist ideologies) है।

नस्लवाद कम तो नहीं हुआ। हाँ, जाति और रंग पर आधारित राष्ट्रवाद और अलगाववाद ने पूरी दुनिया को अपनी चपेट में ले लिया है। विदेशियों से घृणा (ज़ेनोफोबिया) और असहिष्णुता तेज़ी से बढ़ रही है। जिस तरह अमरीका में अफ्रीकी मूल के लोगों और भारतीयों को तंगनजरी का सामना करना पड़ता है, उसी तरह महाराष्ट्र और दक्षिण भारत के दूसरे राज्यों में उत्तर भारत के मजदूरों से नफरत किया जाता है।

ऊपर नस्लीय  फांक के कम न होने की बात कही गई है। इस अंतराल की वजह से अतीत में एक बार अमरीका को गृह युद्ध का सामना करना पड़ा था। मार्टिन लूथर किंग जैसे अश्वेत नेता का मर्डर इसी कारण हुआ। लोग कह रहे हैं कि इस समय जो हालात अमरीका में हैं, वे बहुत भयावह संकेत देते हैं। हमें यह जान लेना चाहिए कि अमरीका में हुए गृहयुद्ध के तत्कालीक कारण क्या थे। क्या आज के हालात को अतीत के हालात से मिलान करके कुछ निष्कर्ष निकाल सकते हैं। इसके लिए यदि अमेरीका के इतिहास में बहुत दूर न भी जाएं तो भी थोड़ी दूर की वैचारिक यात्रा करने मात्र से बहुत कुछ साफ हो जाता है।

सन 1860 अमेरीका के इतिहास में विशेष महत्व रखता है क्योंकि इसी साल रिपब्लिकन उम्मीदवार अब्राहम लिंकन चुनाव जीते। वे सन 1861 में राष्ट्रपति के पद पर आसीन हुए। रिपब्लिकन पार्टी ने दास प्रथा के समापन का भरोसा दिया था। क्योंकि यह पार्टी स्वतंत्र श्रम की विचारधारा में विश्वास रखती थी। दक्षिण अमरीका के राज्य पूंजीवाद व्यवस्था पर आधारित थे। इसीलिए लिंकन की जीत दक्षिण के राज्यों को अशुभ सूचक प्रतीत हुई। उन्हें लगा कि यह जीत उनके आर्थिक हितों के अनुकूल नहीं है। दासों की आजादी से उनका साम्राज्य नष्ट हो जाएगा। दक्षिण अमरीका के राज्यों में विद्रोह के तेवर उभरने लगे मगर पहली प्रतिक्रिया कैरोलिना राज्य द्वारा की गयी और उसने संघ से अलग होने की घोषणा कर दी। फरवरी, 1861 तक मिसीसिपी, फ्लोरिडा, अलबामा, जॉर्जिया, लुसियाना व टेक्सास ने भी संघ से संबंध विच्छेद कर जेफरसन डेविस को अपना राष्ट्रपति नियुक्त कर दिया। एक देश में दो–दो राष्ट्रपति हो गए। इसी दुविधा में वहाँ गृहयुद्ध की शुरूआत हो गई। युद्ध का आगाज दक्षिणी कैरोलिना से सुम्टर के किले पर बम फेंक कर किया गया। खैर, जैसाकि ऊपर दर्शाया गया है कि संघ छ: लाख सैनिकों और कई लाख नागरिकों को खोकर स्थिति पर काबू कर लिया और दास प्रथा को गैर-कानूनी घोषित कर दिया गया। निश्चित रूप से अश्वेत गुलामों के लिए यह एक बड़ी जीत थी। फिर भी आगे की नागरिक अधिकारों को सहज सुलभ करने के लिए वहॉ के अश्वेतों को अभी लंबी लड़ाई लड़नी थी, जो वे लड़े। लड़ाई खत्म नहीं हुई है। वे (अश्वेत) अब भी लड़ रहे हैं। जार्ज फ्लॉयड के मर्डर को उसी दिशा में हुए एक शहादत के रूप में ग्रहण किया जाना चाहिए।

अब्राहम लिंकन और डोनााल्ड ट्रंप में अद्भुत वैषम्य के साथ–साथ आश्चर्यजनक समानता भी है। दोनों राजनेता एक ही राजनीतिक  दल से संबंध रखते हैं। अब्राहम लिंकन जहाँ दास–प्रथा उन्मूलन के लिए जाने जाते हैं, वहीं हालिया अमरीकी राष्ट्रपति श्वेत गौरव प्रभावी बनाने के लिए जाने जाते हैं। ट्रंप कई बार जता चुके हैं कि वे श्वेत रंगी अमरीकियों को ज्यादा पसंद करते हैं। यही कारण है कि अमरीका में हिंसा के आँकड़ों में अभूतपूर्व उछाल आया है। केवल गत वर्ष अर्थात सन 2019 में वहाँ गोलीबारी की 250 से ज्यादा घटनाएं हुई हैं। इन घटनाओं में 522 लोग अपनी जान गंवा चुके हैं और दो हजार से ज्यादा घायल हुए हैं।

इस साल अमेरिका में औसतन हर रोज इस तरह की एक से ज्यादा घटना हुई हैं। इन घटनाओं को अंजाम देने वालों में अधिकतर श्वेत मूल के अमरिकियों की संलिप्तता रही है। पीड़तों में अश्वेत, भारतीय, नीग्रो या दूसरे धर्म के लोग शामिल रहे हैं। आज इससे शायद ही कोई संवेदनशील व्यक्ति इंकार कर सकता है कि जिस तरह भारत में गत कुछ सालों से धार्मिक और जातिवादी हिंसा में वृद्धि हुई है और एक खास तरह के राष्ट्रवाद का उभार हो रहा है ठीक उसी तरह अमेरिका में ट्रम्प के आने के बाद दक्षिणपंथी उग्र श्वेत राष्ट्रवाद की भावना ने मजबूत आधार हासिल कर लिया है। दक्षिणपंथी राष्ट्रवाद को समझने के लिए कुछ घटनाओं पर सरसरी निगाह डालना जरूरी है।

इतिहास के अवलोकन से पता चलता है कि दक्षिणपंथी श्वेत राष्ट्रवाद के उभार की शुरुआत द्वितीय विश्वयुद्ध के होने से पहले ही एक आंदोलन के रूप में शुरू हुई थी जो के.के.के कहलाती थी। इसका संस्थापक विलियम जोज़ेफ़ था, जो एक श्वेत अमेरिकी नागरिक था। इस तरह की संस्थाएं दूसरे देशों में भी स्थापित हुईं, जो आज खूब फल-फूल रही हैं।

के. के. के. का पूरा उच्चारण कू क्लक्स कलान ( Ku Klux Klan ) है। यह संगठन अमेरिका के अश्वेत नागरिकों को श्वेत नागरिकों के समान मौलिक अधिकार दिए जाने का कट्टर विरोधी था। संगठन का मुख्य उद्देश्य श्वेत नस्ल की सत्ता और वर्चस्व को स्थापित करना था। इस विचारधारा के कारण हज़ारों अश्वेत अमेरिकी नागरिक आतंकवाद का शिकार हुए। स्थिति इतनी खराब हो गई कि आत्मरक्षा और अश्वेत नागरिक अधिकार को बनाए-बचाए रखने के लिए 1950 और 1960 के दशक में अश्वेत अमेरिकी पादरी मार्टिन लूथर को एक अहिंसात्मक आंदोलन शुरू करना पड़ा। सुस्त कौमों की तरह अमरीका के अश्वेतों नें मार्टिन लूथर किंग और उनके आंदोलन को बहुत गंभीरता से नहीं लिया। पहले इस आंदोलन के प्रति श्वेत अमरीकी सुस्त से रहे। लेकिन जब मार्टिन लूथर की निर्मम हत्या हो गई, तब अमरीका के अश्वेतों में जागरूकता आई और के.के.के. जैसे कट्टरवादी संगठन का अंत हुआ। लेकिन उसकी विध्वंसकारी विचारधारा का ज़हर आज भी वहाँ सामाजिक रूप से लोगों को प्रभावित कर रहा है और अमेरिका में 9 /11 की घटना के बाद उसमें इस्लामोफ़ोबिया के तत्व को आत्मसात करके अब और भी ज्यादा पैना और घातक हो चुका है।

यह महज़ इत्तेफ़ाक़ नहीं हो सकता कि न्यूज़ीलैंड जैसे शांतिप्रिय देश के शहर (क्राइस्टचर्च) में मस्जिदों पर हमला करने वाला आतंकवादी ब्रेंटन टैरेंट (श्वेत) ने आतंकी हमला करने से पहले अपना घोषणापत्र ‘दि ग्रेट रिप्लेसमेंट’ तैयार करता है, जिसमें उसके द्वारा अमरीका के हालिया राष्ट्रपति को श्वेत पहचान का प्रतीक बताया जाता है। बिल्कुल इसी शैली में टेक्सास के वॉलमार्ट में एक श्वेत सिरफिरा पैट्रिक क्रुसियस गोलीबारी करता है। वालमार्ट में तबाही मचाने के पहले वह सिरफिरा भी एक घोषणापत्र जारी करता है और इसमें कहता है कि यह हमले “टेक्सास में लातिन अमेरिकियों के आक्रमण” का जवाब है। उदाहरणों की कमी नहीं है क्योंकि नफरत की नई फसल लहलहारही है।
ऐसे में मार्टिन लुथर किंग का 28 मार्च, 1963 को वाशिंगटन में दिया गया वह संबोधन एक बार फिर याद आने लगता है – ‘मेरा एक सपना है कि एक दिन ऐसा आएगा, जब अमेरिका की धरती पर नस्लवाद और रंगभेद की सारी खाइयां पाट दी जाएंगी, मुश्किलों के पहाड़ मिट जाएंगे, ऊबड़-खाबड़ रास्ते समतल हो जाएंगे और इस दिव्य दृश्य को अमेरिका का हर बाशिंदा, चाहे वह किसी भी रंग या नस्ल का हो, साथ-साथ देखेगा।’ क्या अमरीका की सड़कों पर आंदोलन करने वालों की कोशिशें मार्टिन लूथर किंग के सपने को साकार कर पाएंगी ?

(जनार्दन  हिंदी एवं आधुनिक भारतीय भाषा विभाग,
इलाहाबाद विश्वविद्यालय में सहायक प्राध्यापक हैं ।)

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