कोरस के फेसबुक लाइव ‘स्त्री-संघर्ष का कोरस’ में बीते रविवार 5 जुलाई को डॉ. स्नेहलता नेगी ने ‘स्त्री स्वतन्त्रता के संबंध में आदिवासी समाज’ विषय पर अपनी बात रखी। स्नेहलता जी दिल्ली विश्वविद्यालय में पढ़ाती हैं तथा देश-विदेश में हो रहे आदिवासी विमर्श से गहरा ताल्लुक रखती हैं।
कोरस की ओर से पूछे गए प्रश्नों के जवाब में उन्होंने आदिवासी स्त्री का बड़ा ही अनोखा चित्र हमारे सामने रखा जो कि आदिवासी समाज और उनकी स्त्रियों के बारे में आम सोच के बिल्कुल उलट है। उन्होंने कहा कि आदिवासी समाज और उन पर हो रहे शोध का क्षेत्र काफी विस्तृत है लेकिन हम यहाँ ‘आदिवासी समाज में स्त्री-स्वतंत्रता’ के मुद्दे को ही केंद्र में रखेंगे l वे पूछती हैं कि जब आप आदिवासी समाज और उनकी स्त्रियों पर विचार करते हैं तो आपके मन में कैसे चित्र उभर कर आते हैं ? आम तौर पर अर्धनग्न या कपड़े बस एक किस्म से शरीर पर लपेटे हुए कुछ स्त्रियाँ या कुछ पुरुष, कुछ ऐसी ही तस्वीरें जेहन में उभरती हैं। इन्हें देखकर हमारे मन में दो तरह के विचार उठते हैं; एक, उनकी गरीबी का; दूसरा, उनकी स्व्च्छंदता का। स्नेहलता कहती हैं कि ये पूर्णतः हमारे अपने विचार हैं, एक बनी-बनाई सोच जिसका सच होना कतई जरूरी नहीं है।
सिनेमा में हमेशा उन्हें गरीब-लाचार दिखाया जाता है, यहाँ तक कि मुख्यधारा के हिंदी साहित्य में भी अक्सर आदिवासी समाज का एक खास नकारात्मक चित्रण देखने को मिल जाता है और इन्हें आधार बनाकर आदिवासी समाज के बारे में जो धारणा बनती है ज़्यादातर भ्रान्तिमय और गलत होती है। किसी भी समाज को समझने के लिए ज़रूरी है कि हम उन पर हो रहे शोध को अपने ज्ञानार्जन का जरिया बनाएं जिससे कि उनके जीवन और सामाजिक–तंत्र के विभिन्न पहलुओं को ठीक तरह से समझ सकें। वे जोर देकर कहती हैं कि मुख्यधारा के समाज के लिए आदिवासी हाशिये के लोग हो सकते हैं, पर अपने समाज में वे ही मुख्यधारा हैं। उन्हें समझने के लिए ज़रूरी है कि हम उनके लिखे साहित्य को पढ़ें, उनके बीच जाएँ, उनसे एक किस्म का संपर्क स्थापित करें।
एक तरफ यह समझा जाता है कि आदिवासी स्त्रियाँ बड़े खुले विचार की होती हैं, वहीं दूसरी तरफ यह कहा जाता है कि आदिवासी पिछड़े हुए हैं और विकास नहीं चाहते। वे बेहद हिंसक प्रवृत्ति के होते हैं। यह एक समाज के बारे में हमारी दोहरी मानसिकता को दिखाता है। जिसे हम अक्सर हिंसा कह देते या समझ लेते हैं, वह अपने संरक्षण के लिए भी तो हो सकता है। आप अगर आदिवासी साहित्य को पढ़ने की कोशिश करेंगे तो देखेंगे कि उनमें आदिवासी स्त्रियों का चित्रण इस सोच के बिलकुल ही विपरीत है। आदिवासी स्त्रियाँ श्रमशील हैं। वे पुरुषों से कंधे से कन्धा मिलाकर चलती हैं किन्तु मुख्यधारा का साहित्य उनके दुःख या तकलीफों को प्रोडक्ट की तरह बेचता नज़र आता है। अखबारों की सुर्ख़ियों में उनका शोषण ज़रूर देखने को मिलता है पर उनका श्रम कहीं किसी सुर्खी में या उनके अपने साहित्य से इतर साहित्यों में मुश्किल से ही देखने को मिलता है। स्नेहलता जी कहती हैं कि आप ध्यान से देखें तो आपको कहीं न कहीं आदिवासी स्त्री म्यूजियम में कैद होती हुई- सी नज़र आती है।
दूसरा सवाल -क्या आदिवासी स्त्रियाँ भी किसी तरह का लैंगिक -भेदभाव अपने समाज में अनुभव करती हैं ? इस पर वे कहती हैं कि यह कहना बेईमानी होगी कि वे इससे बिलकुल अछूती हैं, पर यह कहा जा सकता है कि मुख्यधारा की स्त्रियों की तुलना में उनकी स्थिति कई गुना बेहतर है। आदिवासी समाजों में श्रम के विभाजन जैसा कुछ नहीं है। वहाँ स्त्री-पुरुष सभी कामों में एक साथ हैं। स्त्रियों का दायरा केवल घर तक सीमित नहीं हैं बल्कि घर से बाहर वे हर कार्य में पुरुषों के समानांतर हैं। वहाँ श्रम का सम्मान है। अपनी ज़मीन, अपनी फसल पर काम करने में किसी भी व्यक्ति को कोई झिझक महसूस नहीं होती, फिर वह चाहे किसी भी ऊँचे से ऊँचे ओहदे पर कार्यरत क्यों न हो, जबकि मुख्यधारा के समाज में शारीरिक श्रम का वो सम्मान नहीं है।
आदिवासी स्त्रियों की आर्थिक और सामाजिक स्थिति के बारे में पूछे जाने पर स्नेहलता जी बताती हैं कि चूँकि महिलाएं श्रम से जुडी हुई हैं, इसलिए वह आर्थिक रूप से स्वतंत्र हैं और यही कारण है कि वे अपना निर्णय लेने के लिए भी आज़ाद हैं। अर्थ का तंत्र उनके हाथों में है इसलिए आर्थिक रूप से वे ही परिवार की धुरी हैं। मुख्यधारा के समाज की पुरानी रूढ़िवादी परम्पराएं और प्रथाएं स्त्रियों के विकास के रास्ते में आती रही हैं।
सुनने में आता है कि आदिवासी समाज की परम्पराएं मुख्यधारा के समाज से ज्यादा आधुनिक हैं, ये कितना सच है ? इस पर डॉ. नेगी विवाह का उदाहरण देते हुए बताती हैं कि आदिवासी समाज में स्त्रियों को अपना वर चुनने का पूरा अधिकार है। वर ढूंढने नहीं जाना पड़ता है, बल्कि अगर कोई पुरुष किसी स्त्री से विवाह करना चाहता है तो उसका परिवार पूरे गाजे-बाजे के साथ हाथ मांगने उस स्त्री के घर आता है। स्त्रियों पर यह रिश्ता थोपा नहीं जाता। विवाह उनकी रज़ामंदी से ही हुआ करता है। यहाँ खाप पंचायत जैसी स्थिति नहीं होती। अगर कोई स्त्री अपनी इच्छा से किसी से भी विवाह कर लेती है तो माता-पिता या परिवार उसका बहिष्कार नहीं करता। इसके साथ ही हमारे यहाँ दहेज़ जैसी भी कोई प्रथा नहीं है, बल्कि इसके विपरीत वर-पक्ष एक किस्म का वधू-मूल्य लड़की को देता है, जो कि ज़मीन या धन के रूप में हो सकता है। कोई भी स्त्री अगर अपने विवाह से सुखी नहीं है या रिश्ते में किसी प्रकार की कोई अनबन होती है तो वह उस रिश्ते को निभाने के लिए बाध्य भी नहीं की जाती। वह पुनर्विवाह करने के लिए भी आज़ाद है, जिसमेंं कि जो भी दूसरा पति होगा वो उस महिला का वधू-मूल्य उसके पूर्व-पति को लौटा देता है। यही वजह है कि यहाँ बेटी का जन्म कोई बोझ नहीं समझा जाता। विवाह में बिदाई के वक़्त बेटी को ससुराल तक छोड़ने कुछ चार सौ–पाँच सौ लोग साथ जाते हैं, ऐसा शायद ही किसी समाज में देखने को मिलेगा। भविष्य में यदि उस स्त्री के साथ उसके ससुराल में कुछ अन्याय होता है, तो ये सभी चार–पाँच सौ लोग उसके इन्साफ के लिए उसके साथ खड़े हो जाते हैं। इस तरह की प्रथाओं से महिलाओं को एक तरह से सुरक्षा का एहसास कराया जाता है। इसके साथ ही अगर स्त्रियाँ चाहें तो वे ताउम्र बिना विवाह के भी रह सकती हैं और इस तरह के निर्णय से समाज को कोई आपत्ति नहीं होती। स्त्री स्वतन्त्रता से जुड़ी एक महत्वपूर्ण बात यह भी है कि आदिवासी स्त्रियों में सुहाग की निशानी जैसा कुछ नहीं होता, उन्हें पायल, बिछुआ या बिंदी, सिंदूर की कोई बाध्यता नहीं है। वे मानती हैं कि इस तरह की निशानियाँ गुलामी का प्रतीक हैं ।
आगे अपनी बातचीत में स्नेहलता कहती हैं कि ऐसा नहीं है कि आदिवासी समाज में किसी प्रकार की कोई बुराई नहीं है तथा वहाँ किसी सुधार की आवश्यकता नहीं है। वे बताती हैं कि वहाँ स्त्रियों को संपत्ति का अधिकार नहीं प्राप्त है। ऐसे में जब कोई स्त्री विवाह नहीं करती है तो यदि वह आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर नहीं है तो उसके माता-पिता की मृत्यु के बाद उसे पर मुश्किलों का सामना करना पड़ता है, खासकर तब जब परिवार में भाइयों से अच्छे सम्बन्ध न हों। डायन प्रथा को भी वे संपत्ति पर अधिकार को लेकर स्त्री-पुरुष के बीच के झगड़े की ही देन बताती हैं। स्त्री-पुरुष सम्बन्ध और महिलाओं के प्रति घरेलू हिंसा या लिंग आधारित हिंसा के मुद्दे पर आते हुए वह बताती हैं कि आदिवासी समाज में बलात्कार की घटनाएं भी नहीं सुनने को मिलती। उसका कारण यह है कि उनके समाज में दोनों ही लिंगों के बीच शुरू से ही एक सहज परस्पर संवाद कायम रहता है।
मुख्यधारा के समाज से आदिवासी समाज का सम्बन्ध उनके लिए अगर लाभदायक रहा है तो हानिकारक भी रहा है। शिक्षा ने अगर उन्हें एक तरफ प्रगतिशील बनाया है तो दूसरी तरफ से उन्हें सांस्कृतिक गुलामी भी दी है। वे कहती हैं कि जब तक आपकी भाषा और संस्कृति संरक्षित हैं, तब तक आप गुलाम नहीं होते। आदिवासी समाज में ज्ञान का स्वरूप व्यवहारिक है। वहाँ जो पहाड़ हैं वे आपको झुककर चलना सिखाते हैं, तन कर नहीं।
आदिवासी समाज और उनकी महिलाओं के प्रति समाज का रवैया या सोच हम कैसे परिवर्तित कर सकते हैं? इस प्रश्न के जवाब में वे कहती हैं कि उसके लिए आपको उन्हें सुनने, उन्हें मंच देने की ज़रूरत है। आदिवासी समाज के लोग शर्मीले होते हैं, भोले होते हैं, उसका कारण है कि सरलता और सादगी आदिवासी समाज का अभिन्न अंग है।वे मानते हैं कि कोई भी रीति- रिवाज़ मनुष्य से ऊपर या उससे बड़े नहीं हैं। वो भोले हैं, मूर्ख नहीं हैं। आदिवासी स्त्रियाँ प्रगतिशील हैं और निरंतर संघर्षरत हैं। इसका प्रमाण आप आदिवासी स्त्रियों के पर्यावरण संरक्षण से जुड़े बड़े आन्दोलनों में सहज ही देख सकते हैं। ऐसा भी नहीं है कि आदिवासी महिलाएं आज लिखना शुरू कर रही हैं, बल्कि 1930-31 से वे लिख रही हैं। उदाहरण के तौर पर आप रोज़ केरकेट्टा , ऐलिस एक्का या ग्रेस कुजूर का लेखन ले सकते हैं। इन सभी नामों को स्नेहलता जी बातचीत के दौरान कई बार लेती हैं और उनके लेखन पर चर्चा भी करती हैं और साथ ही साथ यह बताती हैं कि आज भी इनका लिखा साहित्य बड़ी मुश्किल से पढ़ने को उपलब्ध हो पाता है। अक्सर यह भी कहा जाता है कि आदिवासी साहित्य में सौन्दर्यबोध नहीं है। हमें समझना होगा कि उनका अपना एक सौंदर्य है जिसे हम परंपरागत पैमाने से नहीं जांच सकते।
(प्रस्तुति: मीनल गुप्ता)