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किसान आन्दोलनः आठ महीने का गतिपथ और उसका भविष्य-सात

जयप्रकाश नारायण 

किसान आन्दोलन का नया मोर्चा- गाजीपुर बार्डर 

किसान धीरे-धीरे दिल्ली की सीमा पर जम रहे थे। पश्चिमी उत्तर प्रदेश में  मजबूत जनाधार वाली महेंद्र सिंह टिकैत के नेतृत्व में बनायी गयी भारतीय किसान यूनियन है, जिसकी अगुवाई मूलतः उनके बेटे नरेश और राकेश टिकैत  करते हैं।

किसानों के दिल्ली के पड़ाव का असर उनके ऊपर भी  पड़ा और भारतीय किसान यूनियन के सैकड़ों ट्रैक्टर किसानों  से लदे  दिल्ली की तरफ बढ़ने लगे।

जिसमें मुख्यतः शामली, मुजफ्फरनगर, मेरठ और बागपत के किसान थे।  उत्तर प्रदेश की सरकार ने उत्तर प्रदेश और दिल्ली की सीमा के पास गाजीपुर बॉर्डर पर उनके जत्थे को रोक दिया।

कुछ झड़पें और टकराव के बाद किसान वहीं जम गये। एक तीसरा मोर्चा गाजीपुर बॉर्डर पर किसानों का खुल गया ।

इस मोर्चा के खुलते ही दिल्ली तीन तरफ से किसानों के घेरे में आ गयी। विदित हो, कि कवाल टाउन की घटना को केंद्र करके आर एस एस और भाजपा ने बहुत मजबूत और व्यापक हिंसक संप्रदायिक अभियान चलाया था, जिसके प्रभाव में किसान यूनियन भी आने से अपने को नहीं बचा पायी थी।

भारतीय किसान यूनियन का आधार लंबे समय तक हिंदू और मुस्लिम जाट किसानों का संयुक्त मंच रहा है, लेकिन दंगों की लहर और तीव्रता इतनी ज्यादा थी, कि भारतीय किसान यूनियन उसके प्रभाव में आने से नहीं बच सकी और किसानों की एकता बिखर गयी।

इन दंगों में  साठ से ऊपर मुस्लिम किसान मजदूर मारे गए थे और सत्तर हजार के आसपास विस्थापित हुए थे।

इस घटना से भाजपा को उत्तर प्रदेश और देश की सत्ता हड़पने का मौका तो मिला लेकिन किसानों की ताकत यानी किसान यूनियन की ताकत बिखर गयी।

जिसका फायदा गन्ना बहुल इलाका होने के कारण चीनी मिलों के मालिकों ने उठाया।  पिछले सात वर्षों से गन्ने के भाव में कोई वृद्धि नहीं हुई ।

यही नहीं, गन्ना मूल्य का भुगतान भी किसानों को समय पर संभव नहीं हो पा रहा था । दूसरी तरफ मुस्लिम मजदूरों का बड़ा हिस्सा जो किसानों के खेतों में काम करता था, उसके दंगे की चपेट में आने से कृषि  के लिए मजदूरों का प्रवाह रुक गया था ।

कृषि उत्पादों की बिक्री और उनका उचित मूल्य न मिलने से किसानों में एक आंतरिक खलबली थी। कृषि के लिए लाये गये इन कानूनों ने उस इलाके के किसानों को एक होने में उत्प्रेरक का काम किया।

इस प्रकार गाजीपुर का किसान मोर्चा किसान आंदोलन का एक और मजबूत दुर्ग बन गया।  जीवन की कठिनाई और आर्थिक संकट ने पश्चिमी उत्तर प्रदेश में  सांप्रदायिक रूप से बँटे  किसानों को एक मंच पर ला दिया ।

आंदोलनकारी किसानों के साथ  पुलिस और भाजपाई गुंडों के टकराव और झड़पों की खबरों से आकाश गूंजने लगा था ।

भारतीय समाचारों से लेकर अंतरराष्ट्रीय समाचारों में किसान आंदोलन की गूंज एक प्रमुख आवाज के रूप में सुनाई देने लगी थी।

इस आवाज ने भारत के किसानों में  आंदोलनात्मक वातावरण बना दिया। राजस्थान, गुजरात और महाराष्ट्र से आ रहे किसानों को हरियाणा के भाजपा सरकार ने राजस्थान-हरियाणा के बॉर्डर पर रोक दिया।

शाहजहांपुर के  बॉर्डर पर किसानों ने एक मोर्चा और खोल दिया, जहां हजारों की तादाद में किसानों ने इकट्ठा होकर नया पड़ाव डाला ।

थोड़े समय  बाद मथुरा से दिल्ली आने वाले रास्ते पर पलवल में भी किसानों ने एक मोर्चा खोला । इस तरह किसानों के विभिन्न मोर्चे दिल्ली के चारों तरफ लगने लगे ।

शुरू में सरकार ने दमन और आतंक का वातावरण बनाने और किसानों को भयभीत करके वापस लौट जाने की रणनीति अपनाई। लेकिन राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय समर्थन और किसानों के दृढ़ निश्चय के सामने सरकार को अपनी नीति बदलनी पड़ी।

किसान भी यह महसूस कर लिए थे, कि यह लड़ाई लंबी चलेगी। किसान नेताओं और किसानों के पड़ावों से एक स्वर से खबरें आ रही थी, कि हम छः महीने की तैयारी करके चले है।

राशन, पानी, अनाज, पैसा, संसाधन के साथ किसान एक स्थाई आंदोलनकारी मोर्चा बनाने में जुट गये। सहानुभूति, सहयोग, समर्थन का जो राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय माहौल बना, उसने भारत सरकार को पहली बार किसी आंदोलन के समक्ष पीछे हटना पड़ा और अपनी रणनीति बदलनी पड़ी।

कुछ समय के लिए युद्ध थमता सा दिखा और  सीधे टकराव की जगह राजनीतिक वैचारिक संघर्षों की दिशा में मुड़ गया। आगे किसान नेताओं तथा सरकार के बीच में  वैचारिक राजनीतिक और कूटनीतिक संघर्ष शुरू होना था, जिस पर भारत के किसान आंदोलन के भाग्य का फैसला होना है।

माना जाता है, कि जब युद्ध के मैदान में समस्याएं हल नहीं होती हैं, तो युद्धरत शक्तियों को वार्ता के मंच पर आना ही होता है और यह हुआ। लेकिन, इतिहास को तो यही नहीं रुकना था, उसे आगे बहुत ही जटिल रास्ते से बढ़ना था।
(अगली कड़ी में जारी)

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