समकालीन जनमत
जनमत

यह  मनुष्य होने का समय है

संभव है, इस शीर्षक से कइयों को आपत्ति हो क्योंकि इसकी अर्थ ध्वनि में हमारे ‘मनुष्य’ होने पर प्रश्न है। दशकों से एक हिंदी फिल्म की गीत पंक्तियां और हिंदी के प्रतिष्ठित कवि की काव्य पंक्तियां निरंतर परेशान करती रही हैं। 21वीं सदी के दो दशक बीत चुके हैं फिर भी 1966 की हिंदी फिल्म ‘बादल’ में जावेद अख्तर लिखित और मन्ना डे का गाया यह गीत क्यों याद आता है ‘अपने लिए जिए तो क्या जिए/तू जी ए दिल जमाने के लिए’। अगर हम सब जमाने के लिए जीते होते तो साठ के दशक में यह यह गीत क्यों लिखा जाता? इससे भी वर्षों पहले हिंदी कवि यह क्यों लिखता ‘वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे’।
फिल्मी गीत में मनुष्य के लिए जीने और हिंदी कविता में मनुष्य के लिए मरने की बात क्यों कही गई है? जीना और मरना दोनों मनुष्य के लिए बीसवीं शताब्दी में ही नहीं, उसके बहुत-बहुत पहले भी, सैकड़ों- हजारों वर्ष पहले ऐसी मिलती-जुलती अनेक पंक्तियां देखने-पढ़ने को मिलेंगी जो बार-बार हमें यह कहती रही हैं कि हमें मनुष्य के लिए जीना और मरना चाहिए। अगर हम सब एक दूसरे के लिए जीते मरते होते तो ऐसी पंक्तियां क्यों लिखी जाती? क्यों लिखा-कहा जाता कि एक मनुष्य को दूसरे मनुष्य के संबंध में सोचना चाहिए, उसकी चिंता करनी चाहिए। प्रश्न मनुष्य की मनुष्यता का है और यह सवाल हमें केवल अपने से पूछना चाहिए कि क्या हम सचमुच मनुष्य हैं। क्या हम दूसरों की चिंता करते हैं? दूसरों को गले लगाते हैं या उसका गला घोटने में लगे होते हैं?
क्या किसी भी जीव-जंतु ने कभी अपना गुण स्वभाव बदला है? कीड़े-मकोड़े से लेकर बाघ-हाथी तक? क्या सभ्यता के विकास के साथ-साथ मनुष्य ने अपने गुण स्वभाव का नाश नहीं किया है ? शरीर से मनुष्य होना क्या वास्तविक अर्थों में मनुष्य होना है ? मनुष्य की काया महत्वपूर्ण है या उसका स्वभाव ? मनुष्य की पहचान उसकी मनुष्यता से है या इससे अलग उस सबसे जिससे उसने सफलता की मंजिल हासिल की है ? चीटी से हाथी तक किसी ने अपना गुण धर्म नहीं बदला। बदला केवल मनुष्य ने। उसने अपना गुणधर्म विकसित ना कर दूसरों के गुणधर्म ग्रहण किए। कुत्ते से पूंछ हिलाना सीखा और गिरगिट से रंग बदलना।
आज की राजनीति को गिरगिटी राजनीति कहना क्या किसी भी तरफ से गलत है? मनुष्य ने बहुत सारे जीव-जंतु से उसके गुण लिए और अपने गुण कम किए। मनुष्य से मनुष्यता घटती गई। वह दूसरों के लिए कम और अपने लिए कहीं अधिक जीता गया। एक मनुष्य की सबसे बड़ी परीक्षा उसके मनुष्य होने में है।
शरीर से हम सब मनुष्य हैं पर यह कहना सही नहीं होगा कि अपने स्वभाव आचरण से भी हम सब मनुष्य हैं। काया की अपनी माया है। हमारी स्वबद्धता हमारी मनुष्यता को निगलती जाती है। माक्र्स यहीं हमारे लिए प्रेरणा पुरुष हैं। उन्होंने अच्छी तरह समझाया है कि धन किस प्रकार हमारे संबंधों को खाता जाता है, पूंजी किस तरह हमारी मनुष्यता का भक्षण करती है। पूंजीवाद पर बार-बार प्रहार इसी मनुष्यता के रक्षार्थ है। सत्ता व्यवस्था के समक्ष यह सवाल प्रमुख है कि वह किसके लिए है? किसके लिए है यह राज्य यानी स्टेट? यह प्रशासन? यह न्याय व्यवस्था? ये सरकारें? ये राजनीतिक दल? ये सब किसके लिए है? क्या हम ऐसे प्रश्नों के चाबुक से बच सकते हैं ?
लॉक डाउन के बाद के वे दृश्य हमारे सामने हैं। हजारों-लाखों की संख्या में दिल्ली-मुंबई, अमदाबाद, बेंगलुरु आदि महानगरों से अपने गांव-घरों की ओर पैदल जाते लोग! यह दृश्य हमें विचलित करता है, स्तब्ध करता है, परेशान करता है। स्त्रियों की गोद में, पुरुषों के कंधों पर उनके बच्चे हैं, सर पर बैग है। वे सब पैदल जा रहे हैं। दो-चार सौ किलोमीटर से 18 सौ किलोमीटर तक। वे मनुष्य हैं या नहीं ? हम जो उन्हें देख रहे हैं, मनुष्य हैं या नहीं? हाईवे पर हजारों की संख्या में पैदल जाते लोग जिनमें बीमार और रुग्ण भी हैं। ताली-थाली बजाने के बाद क्या हमने अपना सिर भी पीटा है ? हम सब जो शहरों में रह रहे खाते-पीते लोग हैं, उन्हें अपनी आंखों से देख रहे हैं या मन से भी ?
अक्सर हम ‘मन की बात’ करते हैं, क्या मन से दूसरों को देखते हैं, उसके समीप भी रहते हैं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने बिना किसी पूर्व तैयारी के 4 घंटे के भीतर पूरे देश को लॉक डाउन कर दिया। कोरोना से बचने के लिए यह आवश्यक था पर इतनी बड़ी घोषणा के पहले उन्होंने कुछ भी नहीं सोचा। बिना किसी तैयारी के लॉक डाउन की घोषणा कर दी गई। इस घोषणा में प्रधानमंत्री की चिंता है। 1 जनवरी 2020 को भारत की जनसंख्या एक अरब 38 करोड 72 लाख 97 हजार 452 थी। प्रधानमंत्री की घोषणा के बाद यह आबादी कुछ और अधिक थी जो लाॅक डाउन से प्रभावित हुई। मात्र साढ़े तीन घंटे का समय सबको मिला और रात के 12 बजे के बाद पूरा भारत लॉक डाउन हो गया।
दिल्ली की आबादी लगभग दो करोड़ है। दैनिक मजदूरी पर जीवन यापन करने वालों की संख्या वहां लाखों में है। लॉक डाउन से नगरवासी कम प्रभावित हुए। मध्यवर्ग पर इसका प्रभाव अधिक नहीं पड़ा। करोड़ों की संख्या में दैनिक मजदूर इससे प्रभावित हुए। फैक्ट्रियां बंद हो गई। दुकानें बंद। दैनिक मजदूरी समाप्त हो गई। खाने को लाले पड़े। जिन शहरों में वे वर्षों से रह रहे थे वहां उनका कोई नहीं था। उनके लिए जो भी थोड़ी-बहुत व्यवस्था की गई, वह बाद में की गई। लाॅक डाउन के साथ ही यह घोषणा भी की जा सकती थी कि किसी को भी बाहर जाने की जरूरत नहीं है। सरकार उनके खान-पान की व्यवस्था करेगी। राज्य सरकारें भी ऐसी घोषणा कर सकती थीं। ऐसा कुछ भी नहीं हुआ।
प्रधानमंत्री की घोषणाएं नोटबंदी से घरबंदी-देशबंदी तक एक ‘शाॅक’ की तरह है। यह झटका सबको बर्दाश्त नहीं होता। उन्हें संभलने के लिए समय नहीं मिलता। नोटबंदी के समय भी ऐसा ही हुआ। नोटबंदी से लाखों लोग प्रभावित हुए। 100 से अधिक लोग मरे। घरबंदी-देशबंदी से लाखों-करोड़ों लोग प्रभावित हुए हैं। भूखे व प्यासे लोग अपने गांव घरों की ओर पैदल निकल पड़े। यह संपन्न लोगों का ‘मॉर्निंग वॉक’ नहीं था। सैकड़ों किलोमीटर पैदल जाना ऐसे ही नहीं हुआ। उनका भरोसा टूटा, उनका लौटना सामान्य घटना नहीं है। यह दुर्घटना है। प्रधानमंत्री ने उनसे क्षमा मांगी है पर उनमें से कई रास्ते में ही मर गए। भूख से 8 वर्ष का बच्चा मरा। उसके पिता भी दिवंगत हुए। वे सब भारतवासी थे। हमारे आपके समान मनुष्य थे। कोरोना वायरस से अभी तक जितने लोग मरे हैं लगभग उतने ही लोग पैदल गांव-घर लौटते हुए मर गए। वे पदयात्री नहीं थे। वे हताश और निराश थे। उनका कहीं कोई नहीं था। वे मतदाता भी थे। आरंभ में उन्हें न रुकने को कहा गया न उनके मुफ्त भोजन की व्यवस्था की गई। सरकार बाद में जगी पर भरोसे की टूटने के दर्द को कैसे समझा जाए ? उन पर कीटनाशकों तक का छिड़काव हुआ। उन्हें बंद कर ताला भी लगाया गया। वह जिन बसों पर सवार हुए थे उनमें से कई बसों ने बीच में ही उन्हें उतार दिया। पुलिस पर हताशा व क्रोध में सूरत, गुजरात में उन्होंने पथराव भी किया। पुलिस ने उन पर आंसू गैस के गोले छोड़े।
2018 में भारत में 720 जिले थे। प्रत्येक राज्य के जिलाधीशों को यह निर्देश दिया जा सकता था कि वे घोषणा कर सबको आश्वस्त करें कि सरकार उनके भोजन की व्यवस्था करेगी। ऐसा कुछ कहीं भी नहीं हुआ। विदेशों से भारतीय नागरिकों को देश लाने की व्यवस्था की गई पर अपने नागरिकों को बसों द्वारा उनके गांव-घर पहुंचाने की कोई व्यवस्था नहीं की गई। जो कुछ व्यवस्था बाद में की भी गई वह विशेष कारगर नहीं हो सकी। ऐसा दृश्य हममें से किसी ने कभी पहले नहीं देखा था।
कोरोना से मौत और भूख से मौत में अंतर है। करोड़ों नागरिकों की सबसे बड़ी बीमारी भूख है। करोड़ों की संख्या में भारतीय नागरिक गरीबी रेखा से नीचे हैं। उनकी पहली चिंता पेट की है। कोरोना की बाद की है। सुप्रीम कोर्ट ने कामगारों के पलायन को कोरोना से कहीं ज्यादा बड़ी समस्या माना है। प्रवासी मजदूरों की संख्या काफी है। गांव-घर लौटने वालों के लिए अब गांव मोहल्ले भी ‘सील’ किए जा रहे हैं। दिल्ली के आनंद विहार, गाजियाबाद के बॉर्डर की भीड़ और हाईवे पर हजारों की संख्या में जाते हुए लोगों को हम सबने देखा है। जो असुरक्षित है, भूखा है, हताश-निराश है, वह मनुष्य है और हम सब जो उन्हें देख रहे हैं, मनुष्य हैं। मनुष्य बने बने रहने का कोई एक समय नहीं है पर यह समय निश्चित रूप से हमारे आपके मनुष्य बने रहने का है। दूसरों के संबंध में सोचने और अपनी क्षमता के अनुसार जितना कुछ कर सकते हैं उतना करने का है।
हमारे समय में मनुष्य की पहचान उसकी धन-संपदा से, पद-प्रतिष्ठा से, संपर्क-रसूख से है, मनुष्यता से नहीं। मनुष्य ने स्वयं अपनी मनुष्यता का भक्षण किया है। यह समय यह देखने का है कि कोई भूखा ना मरे। लाॅक डाउन से प्रभावित लोगों के पास भोजन पहुंचे, अन्न पहुंचे, रुपए पहुंचे। सरकार की अपनी भूमिका है और सब कुछ सरकार के भरोसे छोड़ कर हम खर्राटे नहीं ले सकते। हमें स्वयं अपनी मनुष्यता की रक्षा करनी है। यह परीक्षा की घड़ी है जिसमें या तो हम उत्तीर्ण होंगे या अनुत्तीर्ण। भारतीय मध्यवर्ग दूसरों की सहायता करने में सक्षम है। उसे और उदार होना होगा। मनुष्य को और मनुष्य होना होगा।
मनुष्य बने रहना साधारण कार्य नहीं है। सुविधाजीवियों के लिए यह कठिन है फिर भी यह हमारी चाह पर निर्भर है। सहायता करना, दान देना महत्वपूर्ण नहीं है। महत्वपूर्ण है मनुष्य होना। मनुष्य होकर ही हम एक दूसरे की रक्षा कर सकते हैं। ‘सर्वे भवंतु सुखिनः’ मात्र कथन नहीं है। यह कर्म के लिए भी हमें अभिप्रेरित करता है। मनुष्य होने के लिए स्वार्थ का त्याग आवश्यक है। कोरोना संकट सबको शिक्षित कर रहा है। मनुष्य बना रहा है। ‘सोशल डिस्टेंसिंग’ गलत पद है। सही पद है ‘फिजिकल डिस्टेंस’। सामाजिक दूरी नहीं शारीरिक दूरी जरूरी है। कोरोना से बचने के लिए नव उदारवादी अर्थव्यवस्था से ‘सामाजिक दूरी’ का संबंध स्थापित किया जा सकता है क्योंकि यह व्यवस्था समाज और सामाजिकता के विरुद्ध है। हम सब इसी अर्थव्यवस्था में जी रहे है।
कोरोना वायरस केवल वायरस नहीं है। बाद में संभवत यह देखा-समझा जाएगा कि ‘कोरोना इकनामिक्सस’, ‘कोरोना पालिटिक्स’’, ‘कोरोना साइकोलॉजी’, ‘कोरोना कल्चर’ और ‘कोरोना फियर’ भी है। फिलहाल इसे छोड़कर फिर उसी विचार बिंदु पर लौटे कि अभी सबसे बड़ी जरूरत हमारे मनुष्य होने की है, जो दूसरों की चिंता करें। लाॅक डाउन के कारण रोजगार से वंचित लोगों की सहायता करें और अपनी शक्ति सामथ्र्य के अनुसार दूसरों के साथ खड़ा हों। सरकार जो करती हैं, करेंगी। हम जो कर सकते हैं, वह करें। कोरोना का प्रभाव तात्कालिक ही नहीं दूरगामी भी होगा। अर्थव्यवस्था के लड़खड़ाने पर सामान्य लोगों का संकट कहीं अधिक बढ़ेगा। अगर हम सचमुच मनुष्य हो जाएं, तो बहुत सारे संकटों का समाधान हो जाएगा।
कोरोना महामारी के बाद नव उदारवादी अर्थव्यवस्था पर फिर प्रश्नचिन्ह लगेंगे, यह विचार भी होगा कि इस ग्लोबल बीमारी-महामारी का ‘ग्लोबल इकोनामी’ से कोई संबंध बैठता है या नहीं। यह सब बाद की बातें हैं। फिलहाल सबसे बड़ी बात ऐसे समय में हमारे मनुष्य होने और बने रहने का है। उदारवादी अर्थव्यवस्था ने हमसे मनुष्यता भी छीनी है। उसके बगैर हम जी नहीं सकते, स्वस्थ नहीं हो सकते। इस कोरोना से बच जाएं पर किसी दूसरी ‘कोरोना’ अर्थात मनुष्यता के हरण-अपहरण की चपेट में न आ जाएं, कौन गारंटी देगा? यह हमारे मनुष्य होने का समय है।

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