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रामनिहाल गुंजन: शब्द संस्कृति के साधक

जन्मदिवस (9 नवंबर) पर

(रामनिहाल गुंजन : जन्म – 9 नवम्बर 1936 , मृत्यु – 19 अप्रैल 2022)

वरिष्ठ आलोचक रामनिहाल गुंजन का आज 86 वां जन्मदिवस है। इसी साल 19 अप्रैल को उनका निधन हुआ। वे पेशेवर साहित्यकार थे। उनके लिए लिखना और पढ़ना जिंदगी जीने का जरिया था। यह प्राणवायु की तरह था। वे चार पुत्रों के पिता थे। अपने जीवन काल में ही उन्होंने तीन जवान पुत्रों को मरते हुए देखा। जहां ऐसी त्रासदियां जीवन से विरक्ति पैदा करती हैं, वही गुंजन जी ने इनका बहादुरी से सामना किया। यह साहित्य के प्रति उनका सरोकार और लगाव था जो उन्हें चट्टान की तरह अडिग रखा। उन्हें जिलाये रखा।  दो साल पहले गुंजन जी के तीसरे पुत्र का लखनऊ पीजीआई में इलाज चल रहा था और इलाज के दौरान ही उसका निधन हो गया। उनके लिए इस आघात से उबरने का तरीका भी साहित्य था।

रामनिहाल गुंजन जीवन के अन्तिम समय तक सक्रिय थे। उनसे बातचीत से कभी नहीं लगा कि उनके दिल दिमाग पर उम्र का कोई प्रतिकूल प्रभाव है। उनकी याददाश्त बिलकुल दुरुस्त थी। हमारी स्मृति से गायब बहुत सी चीजें उनके यहां मौजूद थी। इसमें वे हमारी मदद भी करते। सृजन के धरातल पर भी वे बहुत सक्रिय थे। ‘समकालीन कविता का सौंदर्यशास्त्र’  की पांडुलिपि तैयार हो गई थी। वे प्रगतिशील आलोचक अलख नारायण पर एक किताब के संपादन में लगे थे। ग्यारह गजलकारों की गजलों को लेकर ‘गजल एकादश’ पुस्तक तैयार कर रहे थे। वे नरेश सक्सेना की कविताओं पर काम कर रहे थे। इसके साथ ही आठवें दशक के कवियों की कविताओं पर काम करने की उनकी योजना थी। लोक संस्कृति में भी उनकी रुचि थी। पिछले साल नवंबर 2021 में लोकरंग से संबंधित किताबें और पत्रिकाएं कथाकार सुभाष चन्द्र कुशवाहा  से मंगवाई। नये विषय की तलाश और उसका अध्ययन उनकी आदत में शामिल था।

रामनिहाल गुंजन के लेखन की शुरुआत कविता से हुई थी। पहली कविता का शीर्षक ‘कवि’ था। यह स्थानीय मासिक पत्र ‘नागरिक’ में 1955 में छपी। उसके बाद तो लिखने-पढने का सिलसिला शुरू हो गया। शुरू में उन्होंने गीत और नवगीत भी लिखे। बाद में गजलें भी लिखीं। 1970 आते-आते हिन्दी साहित्य की जमीन बदलने लगी थी। यह लघु पत्रिका आंदोलन का दौर था। बड़े शहरों से ही नहीं छोटे-छोटे कस्बों से लघु पत्रिकाएं निकलने लगी थीं। आजादी से स्वप्नभंग-मोहभंग साहित्य को नया वैचारिक आवेग प्रदान कर रहा था। आधुनिकतावाद-अराजकतावाद से साहित्य वाम-जनवादी दिशा ग्रहण कर रहा था। आरा जनवादी धारा का एक महत्वपूर्ण साहित्यिक केंद्र था। उथल-पुथल भरे इस दौर से जो वैचारिकी आ रही थी, उसका असर गुंजन जी पर भी पड़ा। उन्होंने 1970 में ‘विचार’ नाम से ही पत्रिका की शुरुआत की। भले ही उसके कम अंक निकले लेकिन लघु पत्रिकाओं से उनका जीवन्त जुड़ाव जीवन पर्यंत बना रहा। लघु पत्रिकाओं को अपनी लेखनी से सींचते रहे।

1972 में बलिया से मैं ‘युवालेखन’ पत्रिका निकालने की योजना बना रहा था। इस प्रक्रिया में जिन प्रमुख रचनाकारों से संपर्क हुआ और साथ मिला, उनमें रामनिहाल गुंजन, अनिल सिन्हा, विजेन्द्र अनिल, रामेश्वर प्रशांत, निरंजन, निर्भय मल्लिक, कृष्ण कुमार चंचल, विश्व मोहन आदि प्रमुख थे। गुंजन जी ने पत्रिका प्रकाशन के सम्बन्ध में न सिर्फ बहुमूल्य सुझाव व अपनी रचना दी बल्कि विजेन्द्र अनिल, वेदनन्दन, अरविन्द गुप्त आदि से रचनात्मक सहयोग भी दिलवाया। पत्रिका के पहले अंक में उनकी कविता छपी। यह अमेरिकी साम्राज्यवाद के खिलाफ वियतनामी जनता के मुक्ति संग्राम को लेकर है। 1972 में लिखी इस कविता को उद्धृत करना आवश्यक है।  इससे उनके सरोकार और वैचारिकी को समझा जा सकता है। कविता का शीर्षक है ‘वियतनाम की याद में’। वे कहते हैं – ‘सेना की एक टुकड़ी रेंगती हुई/युद्ध के मैदान से लौटती है/और संचार माध्यमों को लांघती हुई/निकल जाती है/घाटियों से होते हुए/उन खेतों में/जहां मजदूर और छोटे किसान/अपने अपने कृषि यंत्रों के सहारे/तैयारी में लगे हुए हैं/उनके दिमाग में कौंधता है – आजादी का अर्थ/ और वे बारी-बारी से/अपने मिट्टी सने हाथों में/हथियार संभालते हैं और/युद्ध के मैदानों से लौटे हुए सैनिकों के साथ/प्रस्थान करते हैं उन्हीं मैदानों की ओर/जहां आजादी के गीत गाते हुए/हजारों सैनिक कब्रों में सो गए हैं’।

इस कविता में गुलामी के खिलाफ आजादी की उत्कट आकांक्षा की अभिव्यक्ति है। यह दौर है जब साम्राज्यवाद-पूंजीवाद के विरुद्ध तीसरी दुनिया की जनता मुक्तिसंग्राम चला रही थी तथा भारतीय परिवेश में भी ‘मुक्त होबो मातृभमि’ की गूंज थी। गुंजन  जी की वैचारिकी की निर्मिति में इन सबकी बड़ी भूमिका है। समाज, साहित्य, जीवन आदि को देखने का उनका नजरिया वैज्ञानिक व मार्क्सवादी होता गया। इसी नजरिए से उन्होंने भारतीय से लेकर विश्व साहित्य का अध्ययन किया और विपुल साहित्य की रचना की। इसमें कविता, आलोचना, अनुवाद, संपादन आदि शामिल है।

रामनिहाल गुंजन के चार कविता संग्रह है। वे हैं: बच्चे जो कविता से बाहर हैं (1989), इस संकट काल में (1999), समयांतर तथा अन्य कविताएं (2015) तथा समय के शब्द (2018)। वे अपने पांचवें कविता संग्रह ‘दिल्ली तथा अन्य कविताएं’ के प्रकाशन की तैयारी में थे। उल्लेखनीय है कि पिछले दिनों उन्होंने दिल्ली सीरीज से कई कविताओं की रचना की थी। ये कविताएं रामकुमार कृषक के संपादन में प्रकाशित पत्रिका ‘अलाव’ में छपी थीं। गुंजन जी की समझ थी कि सम्पूर्ण कवि-कर्म मूलतः सामाजिक कर्म हुआ करता है जिसमें कवि और जनसमुदाय के बीच संवाद होता है। उनकी कोशिश थी कि ‘कविता को कलावाद के घेरे से मुक्त कर उसे वैचारिक संघर्ष का वाहक’ बनाया जाय। यही कविता का अत्मसंघर्ष था और यह उनके यहां कभी शिथिल नहीं हुआ। उन्होंने अपने को प्रगतिशील व क्रान्तिकारी परम्परा से जोड़ा। उनकी कविता की दुनिया में भगत सिंह, अशफाक, बिस्मिल हैं तो वहीं आचार्य शुक्ल, भिखारी ठाकुर, निराला, राहुल, शमशेर, मुक्तिबोध, परसाई, नवारुण, गोरख पाण्डेय,  धूमिल आदि हैं। वे वर्तमान से अवश्य रूबरू थे परन्तु इतिहास को कभी विस्मृत नहीं किया। ‘भोजपुर’ कविता में वे  कहते हैं ‘पुरानी विरासत को जीता हुआ भोजपुर/आज भी है नवीन, चिर नवीन।’ दुनिया में जिस तरह की आधुनिकता की मार पड़ रही है, उससे क्या भोजपुर बच पायेगा? यह सवाल था, फिर भी उन्हें उम्मीद थी कि भोजपुर में जन संघर्षों की जो सलिला प्रवाहित है, वह इसे कभी आत्मग्रस्त नहीं होने देगी। भोजपुर भोपाल नहीं बन पायेगा। इस उम्मीद को हमने जमीनी सच्चाई बनते देखा भी। भोजपुर में रचना और विचार के आन्दोलन को बढ़ती उम्र के बाद भी गुंजन जी ने  आगे बढ़ाने में कोई कसर नहीं छोड़ी। यह उनकी चिन्ता और चिन्तन में हमेशा मौजूद रहा। वहां की साहित्यिक गतिविधियों में उनकी सक्रिय उपस्थिति थी। उल्लेखनीय है कि मृत्यु से छ दिन पहले उन्होंने सुधीर सुमन को बताया भी कि अपने मकान की ऊपरी मंजिल में विचार-विमर्श का केन्द्र बनाने की योजना है। उसका नाम भी ‘विचार प्रकाशन’ सोच रखा था। इसके लिए निर्माण कार्य चल भी रहा था कि उनका निधन हो गया।

रामनिहाल गुंजन ने आलोचना और विचार के क्षेत्र में जिस तरह और जितना काम  किया, उससे उनकी प्रमुख पहचान आलोचक की बनी। इस क्षेत्र में उनका विशिष्ट कार्य है। एक दर्जन के आस-पास उनकी आलोचनात्मक कृतियां हैं। वे है: विश्व कविता की क्रांतिकारी विरासत (1988), हिंदी आलोचना और इतिहास दृष्टि (1988), रचना और परंपरा (1989), राहुल सांकृत्यायन: व्यक्ति और विचार (1995), निराला: आत्मसंघर्ष और दृष्टि (1998), शमशेर नागार्जुन मुक्तिबोध (1999), प्रखर आलोचक रामविलास शर्मा (2000), हिंदी कविता का जनतंत्र (2012), कविता और संस्कृति (2013), आचार्य रामचंद्र शुक्ल और हिन्दी नवजागरण (2018)। हाल में उनकी कृति ‘विश्व साहित्य चिन्तन: विविध आयाम’ आई।

गुंजन जी की साहित्य दृष्टि विश्व दृष्टि है। उनका सरोकार न सिर्फ अपने समाज, राष्ट्र, भाषा और साहित्य से रहा है बल्कि विश्व की व्यापक जनता और उसके साहित्य से है। जनकवि या जनता के कवि की उनकी शर्त व्यापक दृष्टि के साथ अपने जनपद  का कवि होना है। उनके लिए नागार्जुन, केदार, त्रिलोचन ऐसे ही कवि हैं। गुंजन जी की मान्यता रही है कि ‘हिन्दी कविता जनवादी परंपरा और उसकी मुख्यधारा से जुड़कर ही अपनी सीमा का विस्तार कर सकेगी’। उनका स्वयं का हिन्दी की प्रगतिशील-जनवादी धारा से जुड़ाव था।

रामनिहाल गुंजन की आलोचना का फलक काफी विस्तृत है। उन्होंने आचार्य रामचन्द्र शुक्ल और डॉ रामविलास शर्मा के आलोचना कर्म पर विचार किया है। वहीं, नामवर सिंह की आलोचना दृष्टि से वे बहस करते हुए मिलते हैं। माखनलाल चतुर्वेदी, दिनकर, पंत, निराला, नागार्जुन, शमशेर, केदार,  त्रिलोचन, मुक्तिबोध के साथ परवर्ती कवियों जैसे रघुवीर सहाय, सर्वेश्वर, केदारनाथ सिंह, कुमारेन्द्र, शलभ, धूमिल आदि पर उन्होंने विचार किया है। राहुल और निराला के व्यक्तित्व और उनके आत्मसंघर्ष पर  भी लिखा है। गुंजन जी ने विश्व के जनवादी और मार्क्सवादी साहित्यकारों पर भी लिखा है। 2021 में आई उनकी नई कृति ‘विश्व साहित्य चिंतन: विविध आयाम’ में ऐसे 16 आलेख हैं। इसमें विश्व कविता की विरासत और सोवियत काव्य परंपरा के मूल्यांकन के साथ जार्ज थामसन, ब्रेख्त, लू शुन, प्रेमचंद, पाब्लो नेरूदा, फैज, एंटोनियो ग्राम्शी,  हावर्ड फास्ट, जार्ज लुकाच, गैब्रियल मार्खेज, एरिक हॉब्सबॉम आदि उनके विचार व चिंतन के केन्द्र में हैं। गुंजन जी विश्व साहित्य के गंभीर अध्येता थे तथा हिन्दी की जनवादी साहित्य परंपरा के लिए इसे जरूरी मानते थे। इसी प्रक्रिया में उन्होंने विदेशी साहित्य का अनुवाद किया। जार्ज थामसन की मशहूर कृति ‘मार्क्सिज्म एण्ड पोएट्री ’ का ‘मार्क्सवाद और कविता’ नाम से आई जिसका अनुवाद और संपादन उन्होंने किया। इसी तरह ग्राम्शी की किताब ‘माडर्न प्रिंस एंड अदर राइटिंग्स’ के चुने हुए निबन्धों का ‘साहित्य, संस्कृति और विचारधारा’ नाम से अनुवाद और संपादन किया।

रामनिहाल गुंजन ने अनेक पुस्तकों व पत्रिकाओं का संपादन भी किया। उनकी संपादित पुस्तकें हैं: वेदनंदन समग्र (2000), भगवती राकेश: कुछ यादें, कुछ रचना प्रसंग (2001), लिखने वालों को मेरा सलाम (विजेंद्र अनिल का गजल-संग्रह), विजेंद्र अनिल होने का अर्थ (2012), नागार्जुन: रचना प्रसंग और दृष्टि आदि। उन्होंने रामचन्द्र शुक्ल शोध संस्थान, वाराणसी की शोध पत्रिका ‘नया मानदंड’ के सात महत्वपूर्ण अंकों, जो हिन्दी के विशिष्ट लेखकों पर केन्द्रित था, का भी संपादन किया। ये लेखक थे: रामवृक्ष बेनीपुरी, नलिन विलोचन शर्मा, सुरेंद्र चौधरी, यशपाल, भीष्म साहनी, रांगेय राघव और चंद्रभूषण तिवारी।

इस तरह रामनिहाल गुंजन के लेखन का क्षेत्र काफी बृहद रहा है। उन्होंने कई विधाओं में सृजन किया। नेट, मेल, व्हाट्स एप, फेसबुक, सोशल मीडिया तथा सूचना क्रांति के वर्तमान युग में भी वे हाथ से लिखते थे और वही प्रकाशन के लिए भेजते भी थे। यह गुंजन जी की रचना की गुणवत्ता थी कि उनकी हाथ से लिखी रचनाएं भी संपादक स्वीकार करते तथा उन्हें प्रकाशित करते। वे लोगों से संपर्क व संवाद के लिए मोबाइल का इस्तेमाल करने लगे थे। इसके साथ ही वे चिट्ठियां भी लिखते थे। उनकी खूबी थी कि कोई किताब या पत्रिका मिलने पर अपनी राय पोस्ट कार्ड के माध्यम से अवश्य देते। लेखक के लिए सरोकार और वैचारिक प्रतिबद्धता को वे जरूरी मानते थे। उनकी समझ थी कि लेखक का एक पक्ष होता है और उस पक्ष के साथ मजबूती से उसे खड़ा होना चाहिए। उन्होंने स्वयं को भी लेखन तक सीमित नहीं रखा था और साहित्यिक व सामाजिक गतिविधियों में उनकी सक्रियता थी।

1970 के बाद का दौर साहित्यिक हलचलों से भरा रहा है। एक तरफ हिंदी लेखकों को संगठित करने के प्रयास शुरू हुए, वहीं स्वतंत्र रूप से भी लेखकों के वृहद सम्मेलन आयोजित किए गए। गुंजन जी राज्य सचिवालय, पटना में आ चुके थे। उन दिनों साहित्य जगत में कुमारेन्द्र पारसनाथ सिंह, रामनिहाल गुंजन और जितेंद्र राठौर की त्रयी मशहूर थी। इसकी छवि नक्सलवाद से प्रभावित लेखकों की थी। इस दौर की दो विशिष्ट साहित्यिक परिघटनाओं की चर्चा जरूरी है। पहली, ‘सिर्फ’ पत्रिका (संपादक – नंदकिशोर नवल) की ओर से पटना में लेखकों  का बृहद सम्मेलन और दूसरी, इमरजेंसी के दौरान 1976 में हावड़ा-कोलकाता मे ‘अभिव्यंजना’ पत्रिका (संपादक – डॉक्टर मीरा सिन्हा व आनंद सिन्हा) की ओर से ‘जन साहित्य सम्मेलन’ का आयोजन था। इस त्रयी की इनमें सक्रिय व हस्तक्षेपकारी उपस्थिति थी। कुमारेंद्र जी की चर्चित कविता ‘एक सूरज मां के लिए’ को लेकर ‘स्वाधीनता’ के संपादक और ‘कलम’ के संरक्षक अयोध्या प्रसाद सिंह से उनकी बहस हो गई। अयोध्या प्रसाद जी इस कविता के अंत को बदलना चाहते थे। उनका तर्क था कि नक्सलवादी आंदोलन लगभग समाप्त हो गया है। उसका कोई प्रभाव नहीं रहा। इसलिए इन पंक्तियों की कोई सार्थकता नहीं है। गुंजन जी का तर्क था की प्रतिरोध यदि वास्तविक है तो वह कभी समाप्त नहीं होता। वह भूमिगत जरूर हो जाता है या कुछ समय के लिए परिदृश्य से ओझल हो सकता है। इसलिए इन पंक्तियों के रहने का औचित्य है। इसका एक ऐतिहासिक महत्व है। बाद में यह कविता अपने मूल रूप में ‘कलम’ में छपी। गुंजन जी के जीवन में वैचारिक दृढ़ता के ऐसे उदाहरण मिलते हैं।

1973 में बांदा सम्मेलन से लेखकों को संगठित करने की शुरुआत हुई। 1974 में सुलतानगंज (भागलपुर) में बिहार राज्य प्रगतिशील लेखक संघ का सम्मेलन हुआ और 1975 में गया में उसका राष्ट्रीय सम्मेलन। उन दिनों प्रलेस का रुख सत्ता समर्थक था तथा उसने इमरजेंसी का समर्थन किया था। गुंजन जी इस संघ में शामिल नहीं हुए। बाद में जब जन संस्कृति मंच का निर्माण हुआ, तो वे उसमें शामिल हुए। उन्हें बिहार राज्य इकाई का अध्यक्ष बनाया गया और इस उत्तरदायित्व का उन्होंने निर्वहन किया। वर्तमान में वे मंच के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष थे। जीवन में सादगी और व्यवहार में सहजता उनका खास गुण था। आत्म प्रचार के इस युग  में बिना शोर किए अपना काम करते जाने में उनका यकीन था। उन्होंने अपनी किताब ‘विश्व साहित्य चिंतन’ की भूमिका में लिखा है कि ‘आज के लेखकों के लिए जरूरी है कि वे लेखकीय कर्म को गंभीरता से लें और बकौल मुक्तिबोध ‘‘रचना विवेक’’ का सहारा लें’। गुंजन जी का रचना संसार और उनका जीवन इस कथन को चरितार्थ करता है। अविवेक, कोरी भावुकता, उतावलापन तथा रहस्यमयता के बरक्स लेखकीय गंभीरता, व्यवहार में सहृदयता और रचना विवेक के वे अप्रतिम उदाहरण हैं। उनका सृजन शब्द-साधना है। उन्हें शब्दों की ताकत और सामर्थ्य पर भरोसा था। अपनी कविता ‘किताबें’ में वे कहते हैं – ‘किताबें खोलती हैं/हमारे आस-पास की दुनियाओं के बंद दरवाजे/दिखाती हैं/अजीबोगरीब तस्वीरें/जिंदगियों की/….आदमी रहता है जिन्दा/अपने सपनों के साथ ही/और किताबें उसमें/जगाती हैं नये-नये सपने/….वे होती हैं अच्छी गवाह/अपने समय और समाज की/उनमें दर्ज होते हैं किस्से/क्रूर शासकों के/आतंक और शोषण-उत्पीड़न के/….इस बदले हुए समय में भी/किताबें कर रही हैं अपना जरूरी काम।’

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