समकालीन जनमत
स्मृति

राकेश दिवाकर: जिसमें चांद की शीतलता और सूरज का ताप था

स्मृति दिवस 18 मई के अवसर पर


वह रंगों की दुनिया में जीता था। लिखित शब्द भी उसे जैसे खुद को रंग देने के लिए प्रेरित करते थे। पिछले लगभग पच्चीस वर्षों में उसने सैकड़ों कविता पोस्टर बनाए। उसे रमाकांत द्विवेदी ‘रमता’, विजेंद्र अनिल, नवारुण भट्टाचार्य, पाश, गोरख पांडेय, वीरेन डंगवाल, मंगलेश डबराल की कविताएं बहुत पसंद थीं। पसंद तो उसे गालिब और कबीर भी थे, पर उसने बेहिचक यह स्वीकार किया था कि उनके शेर और दोहे उसे याद नहीं रहते, लेकिन वान गॉग और पिकासो की पूरी जीवनी पता नहीं कैसे याद है।

वह विचारों के साथ रंगों की दुनिया में आया था। उसके रंग और रेखाएं बड़ी गहरी और स्पष्ट हैं और वे दर्शक को किसी तरह के विभ्रम में नहीं डालतीं, बल्कि उनसे दो टूक बातें करती हैं, उनसे बहस और संवाद करती हैं। पिछली सदी के आखिरी चरण में आरा जैसे शहर में उसने चित्रकला के कुछ छात्रों के साथ मिलकर ‘कला-कम्यून’ नामक एक समूह बनाया था, जिसमें कलाकार एक साथ रहते थे और कला सृजन करते थे। उसने स्वयं लिखा है कि वे कला में एक वैकल्पिक संस्कृति की स्थापना के लिए जीतोड़ कोशिशें कर रहे थे। बगैर किसी संरक्षण और प्रश्रय के ताबड़तोड़ रचना और उसका प्रदर्शन करते हुए जैसे एक जुनून के हवाले थे। इस विशाल महाद्वीप का यह छोटा सा शहर उनके लिए पूरी दुनिया की तरह था। इस छोटे से शहर के किसी कोने में प्रदर्शनी करते हुए वे महसूस करते थे कि पूरी दुनिया उनकी है। वह मानता था कि कला क्षेत्र अनंत संघर्ष का क्षेत्र है।
सामान्य घर-परिवार और ग्रामीण परिवेश से निकले प्रतिभाओं की तरह ही राकेश दिवाकर ने भी निरंतर लगन और संघर्ष के बल पर चित्रकार के साथ-साथ आधुनिक और समकालीन चित्रकला के गहरे अध्येता के रूप में अपनी पहचान बनायी। मेरे जानते उसके समकालीनों में कम ही लोग होंगे, जिनका विश्व की आधुनिक चित्रकला का इतना गहरा ज्ञान होगा। मेरे लिए उसका अघोषित निर्देश था कि चित्रकला पर कोई नयी किताब आयी हो तो उसे खरीद लूं। आज एक साल हो गया, जब भी चित्रकला से संबंधित कोई किताब देखता हूं, तो उसकी याद आ जाती है। फेसबुक मेमोरी उसके चित्रों, रेखांकनों, कविताओं, कविता-पोस्टरों से भरी हुई हैं। प्रायः वे आंखों के सामने आ जाती हैं और अब भी प्रासंगिक लगती हैं। आरा आर्ट कॉलेज से फाइन आर्ट से स्नातक करने के बाद जब विश्वविद्यालय ने उसकी डिग्री को मान्यता देने से इनकार कर दिया था, तो उसने अपने साथियों के साथ कानूनी लड़ाई लड़कर डिग्री हासिल की थी। उसके बाद भोजपुर के पवना हाई स्कूल में कला शिक्षक के रूप में उसकी नियुक्ति हुई थी। 18 मई 2022 को बाइक से स्कूल जाते वक्त ही उसे एक बालू लदे ट्रैक्टर ने कुचल दिया था और हम सबने एक प्रतिभाशाली चित्रकार और संस्कृतिकर्मी को हमेशा के लिए खो दिया।


भोजपुर जिले के प्रतापपुर गांव में 2 अगस्त 1978 को फौजी राममोहन सिंह के परिवार में राकेश का जन्म हुआ था। उसकी मां का नाम रामकालो देवी था। नाम के अनुरूप ही राकेश के स्वभाव में चांद-सी शीतलता और सूरज-सा ताप था। भोजपुर के सामाजिक न्याय और समानता के लिए जारी क्रांतिकारी संघर्ष ने उसकी चेतना को गढ़ा था। अन्याय और असमानता के खिलाफ उस नौजवान का आक्रोश किसी गलत दिशा में भी जा सकता था, पर इसी बीच उसने आरा के आर्ट कॉलेज में दाखिला लिया। मुझे याद है कि उसकी पहली पेंटिंग जो मैंने देखी वह अंजनी पुत्र को पवन सुत बताने पर सवाल उठाने वाली थी। एकदम शुरुआती पेंटिंग थी, कला की दृष्टि से बेहद कमजोर, पर विचार के स्तर पर बहसतलब।
राकेश चित्रकला को कैलेंडर या कमरों के लिए सस्ता शो पीस बनाने का पक्षधर नहीं था और न ही कला को व्यापारिक दिमाग वाले अरबपतियों के निवेश की चीज बनाने का पक्षधर था, जहां कुछ कलाकार महंगे ब्रांड बना दिये जाते हैं। उसकी मुख्य चिंता यह थी कि चित्र एक वैचारिक कला के तौर पर जनता तक कैसे पहुंचे। उसके लिए चुनौती यह थी कि चित्रकला को जनसंस्कृति का अंग कैसे बनाया जाए। बाजारवादी प्रवृत्तियों से ग्रस्त चित्रकला का उसने हमेशा विरोध किया। लोकसंस्कृति के नाम पर प्रगतिविरोधी या रूढ़िग्रस्त चेतना वाले चित्र उसे कतई पसंद नहीं थे। उसने चित्रों की पहली सीरिज भोजपुर और बिहार में बेगुनाह बच्चों, महिलाओं, दलित और खेत मजदूरों के कत्लेआम के विरोध में बनाया और कई स्थानों पर उन चित्रों की प्रदर्शनी लगायी। उसने मेहनतकश जनता की अथाह पीड़ा, संघर्ष और आकांक्षा को अपने चित्रों में मूर्त किया। इसी संदर्भ में कोरोना महामारी के दौरान बनाए गए उसके चित्र और कविताओं की भी बरबस याद हो आती है। उसके प्रमुख चित्र-शृंखलाओं में सिस्टम, प्रकृति और मनुष्य, साइकिल सवार लड़कियां, डाउटर एंड डेमोक्रेसी हैं। स्त्रियों की आजादी के संघर्ष को उसने अपनी कला में प्रमुख रूप से जगह दी।


कला शिक्षक बनने से पहले राकेश ने आजीविका के लिए एक-दो निजी स्कूलों में अध्यापन कार्य किया था और एक अखबार में काम किया था, परंतु आर्थिक संघर्ष के दौरान भी कला के प्रति उसके दृष्टिकोण में कोई बदलाव नहीं आया था।
राकेश दिवाकर और उसके साथियों ने अपनी चित्रकला को जनता के सवालों से जोड़ा। चाहे सड़क निर्माण का सवाल हो, अपराध और दमन के मामले हों या युद्धोन्माद की राजनीति हो, राकेश दिवाकर ने उसके विरुद्ध चित्रकला को प्रतिरोध का माध्यम बनाया। जरूरत के अनुसार कार्टून पोस्टर भी बनाये। बेशक चित्रकला राकेश के सृजन के केंद्र में थी। वह बिहार के स्तर पर चित्रकारों का संगठन बनाने की कोशिश भी कर रहा था। लेकिन उसका दखल सृजन के दूसरे क्षेत्रों में भी था। चित्रकला के साथ ही उसने रंगकर्म की दुनिया में भी कदम रखा था। भोजपुर आंदोलन के संस्थापक जगदीश मास्टर पर केंद्रित महाश्वेता देवी द्वारा लिखित उपन्यास ‘मास्टर साब’ के नाट्य मंचन के दौरान उसके द्वारा शहर की दीवारों पर बनाये गयी बड़ी-बड़ी वाल पेंटिंग्स ने नाटक के संदेश को दर्शकों तक पहुंचाने और उसके प्रति उनको आकर्षित करने में अहम भूमिका निभायी थी। उस नाटक का आमंत्रण-पत्र भी उसकेे एक स्केच से बना था। उसने स्वयं उसमें मास्टर साहब के एक साथी शिक्षक का अभिनय किया था। पिछले कुछ वर्षों में राकेश ने समकालीन युवा चित्रकारों और मूर्तिकारों की कला पर जो समीक्षाएं लिखीं, उसने कलाप्रेमियों का ध्यान अपनी ओर खींचा। उसने अपने गुरु मिलन दास, दिनेश कुमार के साथ-साथ चित्रकार यूसुफ की कला पर भी समीक्षाएं लिखीं। मोहम्मदाबाद, गाजीपुर के चित्रकारों की संस्था ‘संभावना कला मंच’ के चित्रकार राजकुमार उसकी समीक्षाओं की पुस्तक प्रकाशन की योजना में लगे थे, पर इसी दौरान कैंसर से उनका निधन हो गया। लेकिन ‘संभावना कला मंच’ के चित्रकार राकेश की इस पुस्तक के प्रकाशन की तैयारी में लगे हुए हैं। इसमें लगभग चालीस कलाकारों की कला की समीक्षाएं हैं। राकेश ने इसके अतिरिक्त कई कला-प्रदर्शनियों और साहित्यिक गोष्ठियों की रिपोर्ट, साहित्यिक पुस्तकों की समीक्षाएं और चित्रकला से संबंधित वैचारिक टिप्पणियां भी लिखी थीं।
राकेश ने अपनी कला के बारे में लिखा है- ‘‘…दुनिया में व्याप्त लाख बदसूरती के साथ ही कुछ खूबसूरती भी शेष है। यही खूबसूरती, यही कौंधती रौशनी, दुनिया को सुंदर बनाने की यही कशमकश, यही मानवीय अभिलाषा, यही सुंदर स्वप्न मेरे चित्रण का आधार बना। इसको संप्रेषित करने के लिए युवा स्त्री, युवा पुरुष, बच्चों की आकृति, बकरी, बैल, गधा आदि की आकृति, साइकिल, हंसिया, लाठी, मध्य भूमि में शेर की आकृति, तोप, स्टैचू ऑफ लिबर्टी, महात्मा गांधी, महात्मा बुद्ध की आकृति तथा पृष्ठभूमि में संसद भवन, उच्चतम न्यायालय की आकृति, गिरते ढहते महल-किले, संस्कृति की प्रतीक अजंता एलोरा में बने चित्र व मूर्ति आदि के माध्यम से मैंने संघर्ष के, नव सृजन के सौंदर्य बोध को संप्रेषित करने की कोशिश की है। वर्णयोजना में लाल रंग की प्रमुखता है। साथ ही सफेद व काले रंगों को मिलाकर प्राथमिक रंगो की विभिन्न छटाओं से चित्र में संघर्ष व सृजन का वातावरण निर्मित करने की कोशिश मैंने की है। चित्रों में उड़ती चिड़िया, कल्पना की उड़ान है। मेरी आकृतियां जड़ हो चुकी व्यवस्था रूपी तमाम चौखटे से बाहर निकलने का प्रयत्न करती हैं। एक ख़ूबसूरत दुनिया की रचना करना चाहती है। मेरे सारे चित्र लगभग इसी विचार के इर्द-गिर्द घूमते हैं। तमाम राष्ट्रों में सरकारें मानवीय आजादी और मानवाधिकार का हनन कर रही हैं। बल पूर्वक शासन करने की कोशिश हर सरकार करती है। इसके विरोध में मेरे चित्र खड़े हैं। साइकिल सवार लड़कियां जैसे धार्मिक एवं राजनीतिक दोनों तरह की बाड़ेबंदी को तोड़ देना वाली हैं। हिंसक व्यवस्था के प्रतीक शेर उनकी उड़ान को रोक देना चाहते हैं। इस उड़ान को रोकने के लिए तमाम तकनीकी विकास और विध्वंसक हथियार का इस्तेमाल शासक वर्ग करता है। दुनिया की इस बदसूरती को ठीक करने के लिए दुनिया के चेहरे को खूबसूरत करने के लिए, जो सपने देखे जा रहे हैं, जो संघर्ष किये जा रहे हैं, वह मेरे चित्रण के विषय बनते हैं।’’

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