समकालीन जनमत
कविता

देवव्रत डंगवाल की कविताएँ प्रतिरोध और उम्मीद की खोज हैं

विपिन चौधरी


युवावस्था मनुष्य के जीवन की सबसे बेचैन अवस्था है. इसी दौर में भी प्रतिरोध के स्वर अधिक तेज़ होने लगते हैं और नकार के नैन नक्श पैने होकर अपना आकार लेने लगते हैं. इसी अवस्था में ही प्रतिरोध की उत्कंठ भावना की भेंट चढ़ते जाते हैं उसके युवा मन के भीतर कायदे से तराशे हुए सपने, जब वह अपने आसपास के त्रस्त समाज को घायल अवस्था में देखता है. उसी पल उसकी कलम की स्याही ललकार उठती है.
एक शोर उठाना है हवाओं में चारों ओर
अभी तो एक आज़ाद लम्बी साँस लेना बाकी है
जितनी भी हुई है लड़ाई अब तक
उसका परिणाम निकलना बाकी है

हम सब जानते हैं कि संसार भर में सैंकड़ों बच्चे दारुण परिस्थितियों में अपनी आँखें खोलते हैं. अपने आसपास होने वाले युद्धों की विभीषिका को झेलते हुए ही उनका बचपन बीतता है. अपनी आखों के सामने हिंसा की बर्बरता को देखते हुए उनके भीतर कैसा तूफान शोर मचा रहा होता है इसका अंदाज़ा लगाया जाना मुश्किल नहीं है.
उन्हें दिलासा दिया जाता है कि एक दिन युद्द खत्म होता तब शांति और सुकून के दिन आएंगे और उनका भविष्य जगमग होगा. मगर तब तक उन बच्चों में इतनी चेतना आ जाती है कि वे जान लेते हैं उनके आसपास घिर आए अंधेरे ने अपना कद निकाल लिया है और वे उनके तरह आने वाले प्रकाश को हर हाल में ढक लेंगे.

हमारे देश में भी लोकतंत्र के नाम पर काफ़ी दुष्चक्र रचे जा रहे हैं. लोकतंत्र जिसका काम कानून की मदद करने का है वह हर रोज़ घिनौने खेल खेल रहा है. मगर देवव्रत जैसे जागरूक युवाओं की नज़र से कुछ भी छिपा नहीं रहता.

वे ललकार के बीच से प्रेम और उम्मीद के पलों को खोज ही जाते हैं. देवव्रत की कविताएँ न केवल हवा के रुख को पहचानती हैं बल्कि वे प्रेम की कोमलता की तह तक भी जाती हैं.

जहाँ देवव्रत का कवि मन देश के भूगोल को बदलने को तत्पर है वहीं वह प्रेम और स्नेह के दामन का साथ भी चाहता है उसकी ये ही प्रखर और मधुर अनुभूतियाँ ही बेहतरी की उम्मीद जगाती हैं. उसके जैसे युवा कवि मन ही आज हमारे समाज की उर्वर शक्ति बन सकते हैं यह कहने में कतई अतिशयोक्ति नहीं है.

देवव्रत की कविताएँ

1.
अभी नहीं
अभी नहीं बुझी है बारूद भरी आँख
नहीं निगला गया है हलक से शोलों को
अभी बाकी बची है अस्मत औरत की तलवार उठने को

इतना कमज़ोर नहीं हुआ है बचपन
कि भस्म हो जाये पेट की आग से ही
अभी नहीं कटे हैं
टूटे हुये छालों भरे हाथ
वो हाथ जो इस वक़्त सिर्फ़ हथियार उठाने लायक हैं
और किसी लायक नहीं

एक शोर उठाना है हवाओं में चारों ओर
अभी तो एक आज़ाद लम्बी साँस लेना बाकी है
जितनी भी हुई है लड़ाई अब तक
उसका परिणाम निकलना बाकी है

अभी नहीं
अभी तो कुछ समय है मौत मे
अभी तो मौत से कुछ पहले का समय है

अभी कई बहाने हैं कहने के
नहीं जलाया जा सका है पूरी तरह
इतिहास की फड़फड़ाती हुई ज़ुबान को
अभी तो दुनिया के नक्शे का भूगोल बदलना बाकी है

जलती हुई रेत को इकट्ठा करके
तूफ़ान उठाना है
अभी तो जो कुछ भी है जैसा भी है धरती पर
उसका ठीक उल्टा होना बाकी है

समय के चक्के की गति इतनी तेज़ नहीं
कि नहीं लाँघी जा सके इंसान के कदमों से
नहीं उड़ा है गुस्से का अंगार चिमनियों से धुआँ बनकर
अभी मुरझाई हुई फसलों की जड़ों पर
जमे हुये खून का बहना बाकी है
अभी तक जो कुछ भी नहीं हुआ है दरअसल
अब केवल वही होना बाकी है
ज़िन्दगी का मक़सद बदलना बाकी है
मतलब बदलना बाकी है

अभी नहीं
अभी तो कुछ समय है मौत मे
अभी तो मौत से कुछ पहले का समय है ।

 

2.
जज़्बात ठहरने लगे दिल में गुबार होने तक
कहानी ख़त्म हो गई मेरा किरदार होने तक

यूँ ही तैरते – तैरते मैं थका तो नहीं था
समुन्दर सूख गया मेरे पार होने तक

सैकड़ों सफ़हे फाड़े तो एक ग़ज़ल कही जाकर
एक उम्र निकल गई मेरी फनकार होने तक

एक घूँट ही पिया था तेरी यादों से कुछ पहले
कुछ करार तो लूंगा ही बेकरार होने तक

कातिल से इश्क़ है सो कु ए यार की अदालत में
सू ए दार ही रहते हैं गुनहगार होने तक

दुश्मन ए जां है देव दुनिया से कोई रिश्ता
सौ बार टूटता है दिल ऐतबार होने तक

 

 

3.
कलम ही उठाओ शहर के बीचों बीच
अफसाने बनाओ शहर के बीचों बीच

सदाएं देते थे इंसाफ़ की जो छुप–छुप कर
ज़रा उनको बुलाओ शहर के बीचों बीच

फासला लंबा है मंदिर ओ मस्जिद के दरमियां
कोई मयखाना खुलवाओ शहर के बीचों बीच

जानता हूं इस आग के लगने का सबब
मुझको भी जलाओ शहर के बीचों बीच

पसीने की महक चांद पर न रोटी की खुशबू
अब पांव उठाओ शहर के बीचों बीच

ना हो डर अगर हथेली के जल जाने का
तो एक चराग जलाओ शहर के बीचों बीच

अपने ही कत्ल पर सवाल पूछना हो तो
शहर के बीच में आओ, शहर के बीचों बीच

मिटाओ खून के धब्बे, बुझाओ आग की लपटें
शहर को शहर बनाओ शहर के बीचों बीच

 

4.
मन चंचल मन मचल रहा, पाए कोई न ठोर
जो मैं तापूँ अगन घड़ी देख देख सब ओर
रात राख सी छूटे है हाथ लगे न कोए
सुर संगत सी भटक रही बोल कहाँ किस ओर

प्रेम मरुथल पार कहाँ चल बदरा चल घनघोर
अब के बरस तो ऐसे बरस तन मन हो जाए सराबोर

तोये बताऊँ मेघ राज जी प्रीत जगत का जोड़
रीत रिवाज सबहूँ रख छोड़े, तो पाऊं चितचोर
ताऊ-भाऊ बैठे रहें, जान समझ सब बूझ
अपनी करनी ठाने हैं हुकुम चलावें जोर

छोड़ चुकी घर का आँगन जोडू अब पी से डोर
अब के बरस तो ऐसे बरस तन मन हो जाए सराबोर

दुनिया इतनी देखि मैंने दो ऊँगल चौखट से
लोक लाज को चाट रहे हैं बर्तन जो झूठन के
सखियाँ तरसें सपनों को पार कभी घूँघट के
प्रीत लगावें परदेसी से लांग कभी आँगन के

भरदे सबके सूने आँचल,तर जाए मन उस ओर
अब के बरस तो ऐसे बरस तन मन हो जाए सराबोर

मैं पंछी अब उड़ती जाऊं जोऊँ बाट गगन के
अपने साचें मे ढाल लूंगी गीत मेरे साजन के
उबल रही हूँ इतने पल से करके अपनी मन के
बरस पड़ूंगी मैं एक दिन संग तेरे बादल बनके

नये तराने बुनकर लादे, मै नाचूं बनके मोर
अब के बरस तो ऐसे बरस तन मन हो जाए सराबोर

 

5.

हाँ मैं आंदोलन जीवी हूँ
हाँ हाँ आंदोलन जीवी हूँ

मैं गांधी की लाठी हूँ
मैं गाँव गाँव चलने वाला
शोषण की कच्ची गलियों तक
मैं पाँव पाँव चलने वाला
जहाँ बात चले अधिकारों की
विरोध में हर सरकारों की

मैं सड़कों पर बिछने वाली
सब ललकारों की सीढ़ी हूँ
हाँ मैं आंदोलन जीवी हूँ
हाँ हाँ आंदोलन जीवी हूँ

मैं भगत सिंह का सपना हूँ
मैं हर गरीब का अपना हूँ
जो सुभाष ने माँगा था
मैं उस खून का कतरा हूँ

मैं बिरसा , फूले, अंबेडकर
झंडे थामे आगे बढ़कर
मैं खुलके कहता हूँ तुमको
तुम हो तानाशाही हिटलर
मैं हूँ जे पी की आवाज़ें
मैं मजदूरों की हड़तालें
न छुपा रहूँगा मैं डरकर
हक़ मांगूंगा मैं मेहनत कर

सत्ता के काले अंधियारे में
जलने वाली तिल्ली हूँ
हाँ मैं आंदोलन जीवी हूँ
हाँ हाँ आंदोलन जीवी हूँ

नर्मदा बचाओ का वंशज
चिपको आंदोलन का रक्षक
निडर निर्भया की पुकार
तो मचा रहा हूँ हाहाकार
मैं दे दूंगा अपना तन मन
मैं हूँ अन्ना का आंदोलन

मैं हूँ दलित, आदिवासी
चाहे मुझको दे दो फांसी
मैं जे एन यू मैं जाधवपुर
मैं आगे बढ़ने का अवसर
मैं मांग रहा हूँ रोजगार
चाहूँ मिट जाए भ्रष्टाचार
मैं पढ़ने वालों के संग हूँ
मैं लड़ने वालों के संग हूँ

रात के अत्याचारों से
लड़ने वाली दोपहरी हूँ
हाँ मैं आंदोलन जीवी हूँ
हाँ हाँ आंदोलन जीवी हूँ

तुम चाहे बात करो मन की
मैं बात करूँगा जन जन की
मुझसे ही खड़ा है लोकतंत्र
लड़ते जाना बस एक मंत्र

जब तक न मिल जाएं अधिकार
रोटी शिक्षा और रोजगार
ख़त्म भी हों सब अत्याचार
इसलिए लगता हूँ पुकार

भारत के भव्य इतिहास की
आने वाली पीढ़ी हूँ
हाँ मैं आंदोलन जीवी हूँ
हाँ हाँ आंदोलन जीवी हूँ

 

6.
मेरे रहगुज़र अब इश्क़ का इज़हार करते हैं
मेरे गमगुसार अब इस जहां से प्यार करते हैं

मौसमों को बदलने का हुनर सीखकर हम
एक उजड़े हुए चमन को गुलज़ार करते हैं

कुछ दफ्न भी हुए हैं इस राह चलते – चलते
सो हम भी अपनी बारी का इन्तजार करते हैं

इंसां से मोहब्बत की और खुदा से बैर रखा
ये खता है तो इसको बार – बार करते हैं

खुशी के लिए अपनी जां संभाल रखी है
सुकूं के लिए अपनी जां निसार करते हैं

तेरा भी उतना हिस्सा जितना है किसी और का
जानेजां हम तो ऐसे ही प्यार करते हैं ।

7.
कितने बादल ज़ुल्मतो के साथ देखेंगे
कितनी लहू की बरसती बरसात देखेंगे

हुक्मरां बढ़ रहे हैं हाथों मे ले जलते चराग
अब तो दिन दोपहर को हम रात देखेंगे

सियासी तलवार ये ना राम ना हुसैन की
आप यूँ बेफ़िक्र हैं की जात देखेंगे

हैसियत के नाप से बँटती यहाँ पर रोटियाँ
चारागर भूखों के पहले दाँत देखेंगे

एक नगरी में अँधेरी राजा चौपट हो गया
जो सुना कराते थे अब वो बात देखेंगे

छुप के जो मोहरें गिराई हैं जहाँ पर देखना
कल वहीं पर सब तुम्हारी मात देखेंगे

कल तलक फिरंगियों को दूर तक धक्का दिया
अबके फ़ासीवाद की औक़ात देखेंगे ।

 

8.
मासूमियत से आपने चेहरा उठाए रखा है
खुद के नशे में आपने हमको डुबाए रखा है

देखिए ना दिन भी जागा ही रहा है रात तक
चांद और सूरज को भी अपना बनाए रखा है

उदास था मौसम कि फिर आपका चेहरा दिखा
आपने हर फूल को तबसे खिलाए रखा है

हंस रही हैं आप जबसे बारिशें होने लगीं
बादलों को आपने तबसे रुलाए रखा है

चांद सा चेहरा किसी का आँख में तारे सजे
आपने हर झूठ को अब सच बनाए रखा है

काम धंधा छोड़कर बस लिख रहा है आप पर
आपने भी ‘देव’ को शायर बनाए रखा है।

 

9.
चिता पे मेरी मुझे लिटाओ मैं मर चुका हूँ
कोई ख़ुशी का गीत गाओ मैं मर चुका हूँ

मेरी वो यादें , शरारतें , कुछ गज़ल के पन्ने
कहीं पे रखो और भूल जाओ मैं मर चुका हूँ

हर आदमी से गुज़र चुका हूँ मैं थक चुका अब
मुझे फरिश्तों के बीच लाओ मैं मर चुका हूँ

मेरा तमाशा जो देखते थे गली में आकर
अब अपने-अपने घरों को जाओ मैं मर चुका हूँ

एक हसीन लड़की वो राह मेरी जो देखती है
कोई तो जाकर उसे बताओ मैं मर चुका हूँ

मैंने लिखा है कुछ, बहुत कुछ भी रह गया है
कोई तो मेरी कलम उठाओ मैं मर चुका हूँ

 

10.
दो मकाँ जल रहे हैं हर इक मकाँ को छोड़कर
ए ज़मीं जायें कहाँ हम इस जहाँ को छोड़कर

जुल्म हद से बढ़ चुका और खौफ़ से हम तरबतर
जिस्म सारा चीखता है एक जुबां को छोड़कर

हर तरफ खंजर चले हैं आह तो कर आदमी
खून पत्थर बन ना जाये ज़िस्मों जां को छोड़कर

इतिहास के पन्नो मे क्या लिख दें वही इतिहास कि
कट गए सारे सीपाही शहन्शां को छोड़कर

ऐसे किस्सागो हैं बैठे सामने अवाम के
चुटकुले सब सुनाते हैं दास्तां को छोड़कर

मुल्क की तस्वीर को जैसे भी हो सीधा करो
बुलबुलों की बात हो अब गुलसितां को छोड़कर

 

11.

नाम जल रहा है, गुमनाम जल रहा है
कल तक छुपा था जो वो सरेआम जल रहा है

आग लगी हुई है इंसाफ़ के तराजू पर
शरीफ़ जल रहा है, बदनाम जल रहा है

दिन दहाड़े बस्ती में मुफ्लिस का झोपड़ा
कल तक था सुर्खियों में अब आम जल रहा है

फनकार भी किसको कहें ये मंज़र देखकर
शायर खड़े हुए हैं कलाम जल रहा है

हर किस्म के तूफान में जलता था जो चराग अब
न सुबह जल रहा है न शाम जल रहा है

देव अब चलें तो क्या सोचकर चलें भला
रस्ता जल रहा है जब मुकाम जल रहा है रहा है


 

कवि देवव्रत डंगवाल की कलम नई है. इन्होंने दून विश्विद्यालय से अंग्रेज़ी में एम.ए. किया है। 14/06/1994 को देहरादून में जन्में देवव्रत रंगकर्मी हैं और सांस्कृतिक टीम संगवारी से सम्बद्ध हैं।
सम्पर्क: 9667916569
ईमेल: dangwaldevvrat@gmail.com

 

टिप्पणीकार विपिन चौधरी समकालीन स्त्री कविता का जाना-माना नाम हैं। वह एक कवयित्री होने के साथ-साथ कथाकार, अनुवादक और फ्रीलांस पत्रकार भी हैं.

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