समकालीन जनमत
शख्सियत

हम लड़ेंगे कि लड़ने के बगैर कुछ भी नहीं मिलता

सुशील सुमन


पाश से हमारा पहला परिचय ‘हम लड़ेंगे साथी’ कविता से हुआ। एक कविता-पोस्टर पर पहली बार इस कविता की कुछ काव्य-पंक्तियाँ पढ़ने को मिली थीं। शायद इस कविता की आख़िरी पंक्तियाँ –

हम लड़ेंगे
कि लड़ने के बगैर कुछ भी नहीं मिलता
हम लड़ेंगे
कि अभी तक लड़े क्यों नहीं
हम लड़ेंगे
अपनी सज़ा कबूलने के लिए
लड़ते हुए मर जानेवालों
की याद ज़िंदा रखने के लिए
हम लड़ेंगे साथी

यह प्रथम परिचय ही अमिट छाप छोड़ने के लिए काफ़ी था। हम पाश के प्रेम में पड़ चुके थे। इस कवि को और ज़्यादा पढ़ने-जानने की लालसा तीव्र हो चुकी थी। इसी क्रम में जब पाश के साहस, संघर्ष और शहादत के विषय में जाना, तो बदन से लेकर रूह तक में एक ऐसी झुरझुरी हुई, जो अब भी पाश को पढ़ते हुए या याद करते हुए हमारे नसों में दौड़ जाती है। दूसरी कविता जिसे पढ़ने का अवसर मिला, वह थी- ‘सबसे ख़तरनाक’। इस कविता का जादू भी सिर चढ़कर बोलने लगा। एक पाठ के बाद, दूसरा, तीसरा… और फिर अबतक इस कविता का गाहे-बगाहे पाठ करने का अंतहीन सिलसिला चलता ही जा रहा है। बाद में मुझे श्री रणवीर संस्कृत विद्यालय में अध्यापन के दिनों में इस कविता को पढ़ाने और नयी पीढ़ी के छात्रों को पाश से परिचय कराने का भी अवसर मिला। कौन ऐसा पाठक होगा, जिसने इस कविता को एकबार पढ़कर छोड़ दिया होगा! त्रिलोचन कहा करते थे कि अच्छी कविताओं की प्राथमिक विशेषता होती है कि आप उसे एक पाठ करके नहीं छोड़ सकते। वह आपको फिर से, बार-बार अपने पास बुलाएगी। पाश की अनगिनत कविताओं के साथ मैंने इस बात को महसूस किया है।

पाश की कविताओं की किताब को पढ़ने का जब तक अवसर नहीं मिला, तब तक इसी तरह से एक-एक कर उनकी चर्चित कविताओं से परिचय होता गया, और वे कविताएँ मेरी प्रिय कविताओं की सूची में शामिल होती गयीं। यदि याद करूँ तो ‘घास’, ’23 मार्च’, ‘संविधान’, ‘भारत’, ‘हाथ’, ‘मैं विदा लेता हूँ’ जैसी कई कविताओं को पढ़ने का मौका समय-समय पर मिलता रहा, लेकिन पाश की कविताओं की कोई किताब लम्बे समय तक मेरे हाथ नहीं आई थी। यह बहु प्रतीक्षित अवसर तब मिला, जब 2011 में प्रो. चमन लाल द्वारा अनूदित और सम्पादित किताब ‘सम्पूर्ण कविताएँ :पाश’ का पेपरबैक आधार प्रकाशन ने प्रकाशित किया। इस किताब में पाश के तीनों कविता संग्रह क्रमशः ‘लौह कथा’ (1970), यानी जब पाश की अवस्था मात्र बीस वर्ष की थी, ‘उड्डदे बाजाँ मगर'(1974) और ‘साडे समियाँ विच'(1978) की कविताएँ तो संकलित हैं ही, साथ ही उनकी बिना शीर्षक की अप्रकाशित उपलब्ध सारी कविताएँ भी संकलित हैं। इसके साथ-साथ भूमिका के अलावा पाश पर केंद्रित तीन महत्त्वपूर्ण आलेख भी इस किताब में संकलित हैं, जिन्हें पढ़कर यह पता चलता है कि इस पुस्तक के प्रकाशन की योजना के क्रम में ही ये आलेख लिखे गए। ये तीनों लेख पाश की काव्ययात्रा और पाश की कविताओं की अर्थवत्ता पर ठीक से प्रकाश डालते हैं। पहला आलेख नामवर सिंह का है, जिसे उन्होंने ‘पंजाबी का लोर्का’ शीर्षक से लिखा है। इस लेख का आरम्भ नामवर जी लोर्का की कविता ‘एक बुलफाइटर की मौत पर शोकगीत’ के ज़िक्र के साथ करते हैं, जिस कविता को सुनकर जनरल फ्रैंको ने लोर्का की आवाज़ को बन्द करने का आदेश दिया था। इस घटना के आलोक में नामवर सिंह ने लिखा है- “कविता पर — फिर वह शोकगीत ही क्यों न हो, फासिस्ट प्रतिक्रिया! पाश के रूप में पंजाब को भी एक लोर्का मिला था जिसकी आवाज़ खालिस्तानी जुनून ने बन्द कर दी और वह भी संयोग से उस समय सैंतीस साल का ही जवान था, लोर्का की तरह। नामवर सिंह ने अपने इस संक्षिप्त, किन्तु सारगर्भित लेख में पाश की कई कविताओं को उद्धृत करते हुए पाश की कविताओं के महत्वपूर्ण पक्षों को रेखांकित किया है। ‘हाथ’ शीर्षक कविता की चर्चा करते हुए वे लिखते हैं –
“वह हाथ कट गया है जिसने पंजाबी में ‘हाथ’ जैसी कविता लिखी। ‘हाथ’ पर एक कविता तुर्की कवि नाज़िम हिकमत ने भी लिखी थी। उसके बाद तो ‘हाथ’ पर कई कविताएँ लिखी गयीं। लेकिन पंजाबी के पाश के ‘हाथ’ का अपना ख़ास तेवर है –

हाथ अगर हों तो
‘हीर’ के हाथों से ‘चूड़ी’ पकड़ने के लिए ही नहीं होते
‘सैदे’ की बारात रोकने के लिए भी होते हैं
‘कैदो’ की बाहें तोड़ने के लिए भी होते हैं
हाथ श्रम करने के लिए ही नहीं होते
लुटेरे हाथों को तोड़ने के लिए भी होते हैं

इस तरह पूरी कविता ‘द्वन्द्व’ सिद्धांत पर रची हुई एक मुकम्मल इंसान की तस्वीर है।”

जैसा कि हम सभी जानते हैं कि पाश केवल कवि नहीं थे, बल्कि एक प्रखर एक्टिविस्ट भी थे। एक सक्रिय राजनीतिक कार्यकर्त्ता की कविताओं पर बहुत बार राजनीतिक नारा भर बनकर रह जाने का खतरा मंडराता रहता है। लेकिन पाश की कविताओं को पढ़ते हुए यह पता चलता है कि उनकी अधिकांश कविताएँ इस खतरे से बची हुई हैं। प्रखर राजनीतिक स्वर से सम्पन्न होने के बावजूद , वे काव्यात्मक विन्यास में कतई कमजोर नहीं हैं। केदारनाथ सिंह ने ‘पाश की कविता: लोहा और रेशम के तारों से बुनी एक दुनिया’ शीर्षक लेख में पाश की इस विशेषता को रेखांकित करते हुए लिखा है – “यह एक सुपरिचित तथ्य है कि कवि पाश की पैदाइश एक आंदोलन के गर्भ से हुई थी। वे न सिर्फ़ एक गहरे अर्थ में राजनीतिक कवि थे, बल्कि सक्रिय राजनीति कर्मी भी थे। ऐसे कवि के साथ कुछ खतरे होते हैं, जिनसे बचने के लिए यथार्थ-चेतना के साथ-साथ एक गहरी कलात्मक चेतना, बल्कि कला का अपना एक आत्मसंघर्ष भी ज़रूरी होता है। पाश की कविताएँ इस बात का साक्ष्य प्रस्तुत करती हैं कि उनके भीतर एक बड़े कलाकार का वह बुनियादी आत्मसंघर्ष निरंतर सक्रिय था, जो अपनी संवेदना की बनावट, वैचारिक प्रतिबद्धताएं और इन दोनों के बीच के अंतर्संबंध को निरंतर जाँचता-परखता चलता है।”

प्रो. चमनलाल ने अपने आलेख ‘पाश की काव्य-यात्रा’ में पाश के कवि की शुरूआत से लेकर उनकी शहादत तक की यात्रा पर विस्तार से लिखा है। पाश का जब पहला कविता-संग्रह प्रकाशित हुआ, तब वह जेल में थे। इस पहले संग्रह से ही पाश की बहुप्रसिद्ध हो गए थे और पंजाबी के अग्रणी कवियों में उनकी गिनती होने लगी थी। चमनलाल जी ने पंजाबी के सुप्रसिद्ध और अत्यंत लोकप्रिय कवि शिव कुमार बटालवी से पाश की तुलना करते हुए लिखा है कि दोनों की ही मृत्यु 37 वर्ष की अल्पायु में हो गई थी, लेकिन दोनों की कविताओं के एप्रोच में बहुत बड़ा अंतर था। प्रो.चमनलाल लिखते हैं कि “… शिव बटालवी ‘मौत की शान’ के शायर थे और पाश उसके मुकाबले ‘ज़िन्दगी की शान’ के शायर बनकर आए। ‘हमें तो जोबन रुत में मरना’ शिव के साहित्य व जीवन का लक्ष्य था और उन्होंने शराब में डूबकर 37 वर्ष की अल्पायु में मौत की गोद में जाकर यह लक्ष्य पूरा कर लिया। लेकिन उसी समय पाश ज़िन्दगी की शान और संघर्ष की कविताएँ लेकर साहित्य-मंच पर आए और उन्होंने अपनी कविता से पंजाबी पाठकों की मनोवृत्ति को शिव बटालवी की मौत की संवेदनाओं से आज़ाद कर एक खूबसूरत ज़िन्दगी हासिल करने के संघर्ष की ओर मोड़ दिया। इस नाते पंजाबी साहित्य में पाश का एक ऐतिहासिक महत्त्व है।”

पाश की कविताएँ केवल पंजाब की समस्याओं तक सीमित नहीं है। उनकी अनेक कविताएँ राष्ट्रीय राजनीति से लेकर वैश्विक राजनीति तक की बहुत तीव्र स्वर में पोल खोलती हैं। उदाहरण के लिए उनके पहले संग्रह ‘लौह कथा’ में संकलित ‘संदेश’ शीर्षक कविता को देख सकते हैं। इस कविता में पाश लिखते हैं –

“वाशिंगटन
यह जलावतन अपराधियों का झुंड
आज तुम्हें कलंकित करने चला है
यह उन डकैतों से भी बदनाम
और भगोड़ी जुंडली है
जिन्होंने तीन सदियों तक हमारे खेतों का गर्भपात किया”

इस तरह की कई कविताएँ पाश के यहाँ हैं, जिनमें वैश्विक सत्ता-संरचना की साजिशों का पर्दाफाश करती हैं।

पाश एक सच्चे कम्युनिस्ट थे, इसलिए उन्होंने अपने भीतर के या कम्युनिस्ट पार्टियों के भीतर के अंतर्विरोधों पर भी खुलकर लिखा। ‘कामरेड से बातचीत’ शीर्षक लम्बी कविता पाश की इस साहसिक और ईमानदार काव्य-चेतना को ठीक से अभिव्यक्त करती है। उन्होंने न केवल फासिस्टों के विरुद्ध साफ़गोई से लिखा, बल्कि भारत की कम्युनिस्ट पार्टियों के समझौतों और लिजलिजेपन पर भी उसी प्रखरता के साथ लिखा है। अपनी प्रसिद्ध कविता ‘हमारे समयों में’ वे लिखते हैं –

“यह शर्मनाक हादसा हमारे ही साथ होना था
कि दुनिया के सबसे पवित्र शब्दों ने
बन जाना था सिंहासन की खड़ाऊँ —
मार्क्स का सिंह- जैसा सिर
दिल्ली की भूल-भुलैयों में मिमियाता फिरता
हमें ही देखना था
मेरे यारो, यह कुफ्र हमारे ही समयों में होना था ”

पाश की कविताओं से गुज़रते हुए पाठक को क़दम-क़दम पर उनकी महत्ता और अनिवार्यता का एहसास होता जाता है। उनकी काव्यात्मक संवेदना इतनी आवेगमयी है कि उनकी कविता का अनुवाद भी मूल की तरह लगने लगता है। जो पाठक पढ़ता है, उसे वे उसी की भाषा के कवि लगने लगते हैं। रामजी राय ने ‘हमारे समय का कवि: पाश’ शीर्षक लेख के आख़िर में इस ओर संकेत करते हुए बहुत ठीक लिखा है कि “… जिन्होंने उनकी बाद की लिखी ‘कुएँ’, ‘धर्मदीक्षा के लिए विनयपत्र’ या फिर सिख विरोधी दंगों के बाद ‘बेदखली के लिए विनयपत्र’ और सबसे बढ़कर ‘सबसे ख़तरनाक’ कविताएं पढ़ी होंगी, वे समझ सकते हैं कि मुक्तिबोध के बाद सम्भवतः पाश ही वह कवि हैं, जिन्होंने अपने समय से सबसे गहरी और तगड़ी मुठभेड़ की है। यही वजह है कि उनकी कविता न केवल भाषा की सीमा लांघ गई बल्कि वे उसी भाषा के कवि बन गए जिस भाषा में उन्हें पढ़ा जा रहा हो।”

यही कारण है कि हिन्दी कविता के पाठकों की चेतना को झकझोरने में भी पाश की कविताओं की अहम भूमिका है। सचाई तो यह है कि पाश की कविताओं से हिन्दी के पाठकों का ऐसा रिश्ता बना कि कभी लगा ही नहीं कि पाश हिन्दी के कवि नहीं हैं। हिन्दी की नक्सलबाड़ी कविता की प्रखरता और सम्पन्नता में पाश की कविताएँ भी शामिल हैं। रामजी राय ने उसी आलेख ‘हमारे समय का कवि:पाश’ की शुरूआत में ही यह लिखा है कि “नक्सलबाड़ी आंदोलन भले ही बंगाल में फूटा, उसे अपना कवि पंजाब में मिला। अवतार सिंह पाश के रूप में। संयोग देखिए कि पाश की पहली कविता भी 1967 में ही छपी, जिस वर्ष नक्सलबाड़ी का आंदोलन फूटा। फिर तो ‘नक्सलबाड़ी’ और ‘पाश’ दोनों जैसे अभिन्न हो गए।” हिन्दी पट्टी के वाम आंदोलन को धार देने में, विश्वविद्यालयों में विद्यार्थियों की चेतना को निर्मित करने में, प्रतिरोध की संस्कृति को विस्तार देने में हिन्दी के किसी भी कवि से कम बड़ी भूमिका पाश की कविताओं की नहीं है, बल्कि हमें यह स्वीकार करना चाहिए कि कहीं ज़्यादा है।

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