कोरोना महामारी ने हर तबके पर अलग -अलग तरह से प्रभाव डाला है. इसमें ‘ नया मजदूर ‘ वर्ग भी है. बाज़ारीकरण के इस दौर में सस्ती क़िस्तों पर ज़िन्दगी आरामतलबी के साथ जी पाने की आदत, इस देश के आईटी सेक्टर, बैंकिंग, मैनेजमेंट, मल्टी-नेशनल कंपनियों से लगायत विभिन्न क्षेत्रों में काम करने वाले लोगों को लग चुकी है . ऐसे में गाड़ी से लेकर घर तक और घर के अन्दर लगे उपकरण और सभी प्रकार की सुख-सुविधाओं का इंतज़ाम आसान किश्तों में कर लेने वाले इन लोगों के लिए यह सोच पाना भी असंभव था कि ऐसी भी कोई स्थिति उनके सामने कभी आ सकती है, जब बाज़ार की इन “बेहद आसान” किश्तों को भर पाना उनके लिए मुश्किल हो जायेगा . यह वर्ग इस देश का “नया मजदूर” वर्ग है, जो आजकल बेहद तनावपूर्ण स्थिति में है .
एक तरफ हम देख ही रहे हैं कि इस संकट के काल में दिहाड़ी मजदूरों और उनके परिवारों का क्या हाल हो रहा है . सरकार की तमाम कोशिशों के बाद भी भूख से मरने वालों की संख्या कहीं कम होती नज़र नहीं आ रही . वहीं इस “नए मजदूर” वर्ग के लिए भी जीवन कठिनतर होता चला जा रहा है . नौकरियां न जाएँ , इस डर से घर पर ही बैठे लोग पूरी निष्ठा से काम कर रहे हैं, नौकरी चली गयी तो यह जो क़िस्तों की बुनियाद पर बसाई गयी व्यवस्था है कहीं वह धाराशायी न हो जाये . एक नौकरी गयी तो इस वक़्त में दूसरी नौकरी भी कहीं मिल पायेगी या नहीं ? ये एक बड़ा सवाल है , क्यूंकि कंपनियां भी अब धीरे-धीरे अपने हाथ खींच रही हैं , कोई कहती है कि वेतन का 25% ही देना मुमकिन है तो कोई कहती है कि आप स्वयं ही अपना “रेजिग्नेशन लेटर” भेज दीजिये क्यूंकि आगे का वेतन देना संभव नहीं हो पायेगा.
कंपनियों के कांट्रेक्ट में तो यह बात लिखी भी होती है कि ऐसी किसी आपदा में वे आपके साथ साइन किया गया यह कांट्रेक्ट “डिजॉल्व” यानी समाप्त भी कर सकती हैं . इसके चलते आप उनपर किसी तरह कोई दबाव भी नहीं डाल सकते कि वे आपकी माँगों को पूरा ही करें .
इस वर्ग के लिए तो सरकार की तरफ से भी कोई ख़ास मदद आती नहीं दिख रही . न तो ये गरीब वर्ग है, जो फिलहाल भूख से मर रहा है और न ही ये वे लोग हैं जिनको सरकार किसी किस्म की आर्थिक मदद देने वाली है. लाकडाउन का बढ़ना इनकी स्थितयों को बद से बदतर की ओर ले जा रहा है . इस व्यवस्था में अपेक्षाकृत ज्यादा आय वाले इस वर्ग को भी किसी विशेष किस्म की आर्थिक सुरक्षा नहीं मिली हुई है, यह बात आज प्रत्यक्ष है. आर्थिक दृष्टि से यह नए किस्म के मजदूर भी उतने ही असुरक्षित हैं जितना की असल मजदूर वर्ग होता है .
बाज़ार की इन क़िस्तों के जंजाल में बुरी तरह से फंसे हुए युवाओं की बेचैनी इस आपदा के काल में साफ़ देखी जा सकती है . इस जाल से बाहर निकल पाने का कोई संभव उपाय इस समय कहीं नज़र आता नहीं दिख रहा . क्या आने वाले वक़्त में भारत भी 2008 के “द ग्रेट अमेरिकन रिसेशन” के जैसी ही आर्थिक मंदी का दौर देखने वाला है ? अगर ऐसा है तो देश के इस संख्या में ठीक-ठाक बड़े वर्ग का क्या हश्र होने वाला है, इस पर विचार करना अनिवार्य हो जाता है.
बेरोज़गारी का वह मंज़र कितने परिवारों का जीवन संकट में डाल उनको नष्ट कर सकता है, यह सब सवाल ज़ेहन में रोज़ उठते हैं . यह वक़्त, यह आपदा इस देश की नई पीढ़ी को ठहरकर सोचने का समय भी दे रही है और शायद सोचने पर मजबूर भी कर रही है कि क्या वह आगे आनेवाले समय में वे अपने लिए यह किश्तों और उधारों पर चलने वाला जीवन और उसे चलाने वाली यह व्यवस्था चुनना चाहेंगे या उन्हें एक दूसरी नई व्यवस्था की ज़रूरत है ?