समकालीन जनमत
पुस्तक

मानव श्रम का इतिहास

2019 में मंथली रिव्यू प्रेस से पाल काकशाट की किताब ‘हाउ द वर्ल्ड वर्क्स: द स्टोरी आफ़ ह्यूमन लेबर फ़्राम प्रीहिस्ट्री टु द माडर्न डे’ का प्रकाशन हुआ । लेखक के मुताबिक किताब का विस्तृत फलक महत्वाकांक्षी है । उन्हें लगा कि इतिहास के भौतिकवादी सिद्धांत पर इस समय बहुत कम किताबें हैं इसलिए इतिहास की किताब न होने के बावजूद इसमें एक के बाद एक आने वाले समाजार्थिक रूपों का विश्लेषण है । एडम स्मिथ और मार्क्स की तर्ज पर लेखक ने आजीविका के लिए निर्मित आर्थिक ढांचों के विकासक्रम को परखने की कोशिश की है ।
 इस काम के लिए उन्होंने तमाम ऐसे इतिहासकारों, अर्थशास्त्रियों और समाज विज्ञानियों के लेखन से मदद ली है जिन्होंने इतिहास के बारे में भौतिकवादी नजरिया विकसित करने में योग दिया है और उसे सबको समझ आने लायक तरीके से प्रस्तुत किया है । जो कहानी लेखक ने सुनाई है उसमें मनुष्य के पुनरुत्पादन के साथ तकनीक, सामाजिक प्रभुत्व और श्रम विभाजन की अंत:क्रिया प्रकट होती है ।
पहले अध्याय में विषय की रूपरेखा खींची गई है । इसके बाद किताब के दूसरे अध्याय में शिकारी संग्राहक से खेती करने वाले में मनुष्य के बदलने की कहानी है । इसे लेखक अब तक के मानव इतिहास का सबसे बड़ा सामाजिक बदलाव मानते हैं । यह संक्रमण न तो आसान था, न ही तात्कालिक रूप से लाभदायक था इसलिए इसका कारण समझना बेहद मुश्किल है । इस संक्रमण के बाद भोजन के अतिरिक्त संसाधनों की उपलब्धता के चलते आबादी का घनत्व काफी तेजी से बढ़ा । इसके साथ ही प्रवास और उपनिवेशीकरण की प्रक्रिया शुरू हुई जिसके निशानात हमारी बोलने की भाषाओं में मौजूद हैं ।
पुरातत्व से पता चलता है कि प्रथम कृषक समाजों की संरचना समतामूलक थी लेकिन फिर प्राचीन सभ्यताओं के उदय के साथ वह समाप्त हो गई । इलाका दर इलाका गुलामी नजर आने लगी । इन गुलामों को बेचने लायक वस्तुओं के उत्पादन के लिए मजबूर किया जाता था । इन वस्तुओं की बिक्री के चलते अंतर्राष्ट्रीय व्यापार, मुद्रा और बैंक व्यवस्था का उदय हुआ ।
तीसरे अध्याय में इसी गुलाम अर्थतंत्र की आंतरिक संरचना का विवेचन है । साथ ही लेखक ने उनके बाजारों और पुनरुत्पादन की प्रक्रियाओं का वर्णन किया है और बाजार की कमी और मानव संसाधन की बरबादी को इसकी जड़ता का कारण बताया है । इसी अर्थतंत्र में मुद्रा का जन्म हुआ जिसके मुताबिक वस्तुओं की कीमत उनके बनाने में लगे श्रम के अनुपात में हुआ करती थी । उनका कहना है कि कीमत के निर्धारण में मांग और आपूर्ति के सिद्धांत के मुकाबले यह सिद्धांत अधिक सटीक है । दुनिया के अलग अलग भागों में गुलाम अर्थतंत्र का उदय अलग अलग समय पर हुआ लेकिन एक समय के बाद उनका अवसान कृषक अर्थतंत्र में हुआ । इसमें किसी एक परिवार के भरण पोषण हेतु अपेक्षाकृत पर्याप्त खेत के टुकड़े पर जमीन के मालिकों या फौजियों का कब्जा हुआ करता था ।
चौथे अध्याय में इन अर्थतंत्रों की पुनरुत्पादन प्रक्रिया, खेत में कार्यरत किसानों के शोषण और इसके कारगर होने पर विचार किया गया है । इन्हें आधुनिक पूंजीवाद से अधिक अतार्किक और अक्षम मानने के पूर्वाग्रह का लेखक ने खंडन किया है ।
पांचवां अध्याय सबसे बड़ा है और उसमें पूंजीवादी आर्थिक व्यवस्था पर ठहरकर विचार किया गया है । उनका कहना है कि कीमत का श्रम सिद्धांत पूंजीवाद में भी लागू होता है लेकिन सामानों की बिक्री मजदूरी की लागत पर मुनाफ़ा जोड़कर की जाती है । असल में तकनीक या मशीन के इस्तेमाल ने मशीन मालिकों का दबदबा कायम करने में मदद की । इसमें तकनीक, मुनाफ़ा और मजदूरी की अंत:क्रिया का विश्लेषण विस्तार से हुआ है । लेखक का मानना है कि अगर मजदूर आजाद हों और उनका वेतन ठीक ठाक हो तो तकनीकी प्रगति की रफ़्तार भी तेज होती है । इसी प्रसंग में जनसंख्या वृद्धि और परिवार के ढांचे के साथ पूंजीवाद की अंत:क्रिया का विवेचन भी हुआ है ।
 असल में पूंजीवाद के आरम्भ और परवर्ती दौर में पूंजीवादी समाजों की स्थिति इस मामले में भिन्न रही । उन्नीसवीं सदी में जनसंख्या विस्फोट के चलते उपनिवेशों का विकास हुआ जहां जाकर यूरोप के लोगों ने कब्जा किया । इसके चलते देशों के भीतर मजदूरों की तंगी होने लगी । इससे मुनाफ़े में गिरावट आयी और निवेश में ठहराव आया । पूंजीवाद के अस्तित्व पर ही संकट उपस्थित हो गया । लेखक ने एक ऐसा दावा किया है जिसके विवादास्पद होने की उम्मीद है । उनका कहना है कि लोकप्रिय मान्यता के विपरीत बीसवीं सदी में तकनीकी प्रगति की रफ़्तार तेज रही थी, वर्तमान सदी में तो यह रफ़्तार सुस्त पड़ी है । इससे संकेत मिलता है कि पूंजीवाद के दिन अब लद गये हैं ।
पूंजीवाद के विकल्प के रूप में समाजवादी अर्थतंत्र का उदय हुआ जिसकी समीक्षा छठवें अध्याय में की गयी है । तकनीक के लिहाज से बिजली को समाजवादी रूपांतरण का एक जरूरी अंग माना गया था । दूसरा जरूरी अंग जनता थी जिसकी तादाद जन्म दर, मृत्यु दर और परिवार के ढांचे पर निर्भर थी । पूंजीवादी अर्थतंत्र में निवेश के लिए उपलब्ध अधिशेष निजी मुनाफ़े पर निर्भर होता है । इसके मुकाबले समाजवादी अर्थतंत्र में उपभोक्ता वस्तुओं और निवेश वस्तुओं के बीच उत्पाद का योजनाबद्ध विभाजन किया जाता है । किसी भी समाजवादी अर्थतंत्र में अधिशेष के उत्पादन की खास गतिकी रही है । इसके लिए तीव्र वृद्धि दर की जरूरत पड़ती है । ऐसी वृद्धि दर सोवियत संघ में सत्तर के दशक तक और चीन में हाल हाल तक मौजूद रही है । किताब में इस वृद्धि के बुनियादी सिद्धांत को प्रस्तुत किया गया है जिसके आधार पर पचास साल तक इन देशों में आर्थिक कामयाबी बनी रही थी । पश्चिमी दुनिया में सोवियत संघ में बड़े पैमाने पर उपभोक्ता वस्तुओं के उत्पादन के तथ्य को छिपाया जाता है । इस सवाल पर लेखक ने उपभोक्ता बाजार के सोवियत प्रबंधन का जिक्र करते हुए उनकी मजबूरी का भी उल्लेख किया है जिसके चलते वे मूल्य के नियम से पार नहीं पा सके और मुद्रा उनके अर्थतंत्र में बनी रही । इसमें यूरोप के समाजवादी मुल्कों के बिखराव की प्रक्रिया की भी समीक्षा की गयी है ।
 किताब का अंत भविष्य के अर्थतंत्र पर सोच विचार से हुआ है । कार्बन मुक्त अर्थतंत्र से पैदा होने वाली सीमाओं की चर्चा भी अंतिम अध्याय में की गयी है । इस कसौटी पर कम्युनिस्ट अर्थतंत्र की सम्भावना तलाशी गयी है । लेखक का कहना है कि किताब पर मार्क्स का प्रभाव बहुत गहरा है फिर भी कुछ मामलों में उन्होंने मार्क्सवाद से अलग रास्ता पकड़ा है । यह प्रकरण समाज में तकनीक की भूमिका से जुड़ा है । मार्क्स के लेखन में तो तकनीक की सामाजिक भूमिका बहुत अधिक है । बाद में बीसवीं सदी के पश्चिमी मार्क्सवादी सिद्धांतकार इस मामले में मार्क्स के रुख को लेकर कुछ शर्मिंदा रहने लगे थे । असल में इन मार्क्सवादियों की बौद्धिक रचना मानविकी और समाज विज्ञान में हुई थी । वे लोग विज्ञान के रुख को लेकर सशंकित रहते थे । उनमें गणितीय पद्धतियों के इस्तेमाल को लेकर गहरी हिचक मौजूद थी । बाद में इसके बरक्स मार्क्सवादियों का ऐसा समूह सामने आया जो विज्ञान और गणितीय विश्लेषण के मामले में असहज नहीं था । लेखक ने उत्पादन पद्धति के इतिहास के वर्णन में इस रुख से मदद ली है । प्रत्येक अर्थतंत्र का परिचय देने के लिए लेखक ने सबसे पहले तकनीक और उसके बाद जनांकिकी पर ध्यान दिया है । उनका मानना है कि तकनीक और आबादी से शेष चीजें तय होती हैं । शायद इसीलिए इस किताब के अधिकांश समीक्षकों ने इसे ऐतिहासिक भौतिकवाद की जोरदार वकालत माना है ।

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