समकालीन जनमत
साहित्य-संस्कृति

केस हिस्ट्री: मुश्ताक़ अहमद यूसुफ़ी

यह “निबंध-नुमा भाषण या भाषण-नुमा निबंध” मुश्ताक़ अहमद यूसुफ़ी की अंतिम रचना “शाम-ए-शेर-ए-याराँ” से लिया गया है। इसे उन्होंने ‘पाकिस्तान सोसाइटी ऑफ़ फ़िज़ीशियंस’ के वार्षिक डिनर में मुख्य अतिथि के रूप में 3 मार्च 1988 को पढ़ा था। उस ज़माने में वे लन्दन में रहते थे। इसलिए यूसुफ़ी डॉक्टरों को संबोधित करते हुए लन्दन के अपने अनुभवों के साथ-साथ अपनी विभिन्न बीमारियों के कारण चिकित्सकों से अपने दीर्घ संबंध के कई छोटे-छोटे स्वतन्त्र प्रकरण सुनाते हैं। अतः कभी-कभी इस रचना में नैरन्तर्य के अभाव का आभास होता है। लेकिन यह रचना हास्य, व्यंग्य और गंभीर गुफ़्तगू से परिपूर्ण है और इसमें भी यूसुफ़ी की रचना शैली की पूरी चमक-दमक और बुद्धिमत्ता मौजूद है। दूसरी रचनाओं की तरह इसमें भी ‘मिर्ज़ा’ को बार-बार उद्धृत किया गया है। ‘मिर्ज़ा’ जिनका पूरा नाम ‘मिर्ज़ा अब्दुल वदूद बेग’ है, यूसुफ़ी के मित्र या हमज़ाद (छायापुरुष) के रूप में उनकी अधिकतर रचनाओं में मौजूद होते हैं। यह पात्र अपने ऊटपटांग विचारों और विचित्र दलीलों के लिए जाना जाता है। यूसुफ़ी अपनी अकथनीय, उत्तेजक और गुस्ताख़ाना बातें मिर्ज़ा की ज़ुबान से कहलवाते हैं। ये किरदार हमें मुल्ला नसरुद्दीन की याद दिलाता है।

बात से बात निकालना, लेखनी के हाथों में ख़ुद को सौंपकर मानो केले के छिलके पर फिसलते जाना अर्थात विषयांतर, हास्यास्पद परिस्थितियों का निर्माण, अतिश्योक्तिपूर्ण वर्णन, किरदारों की सनक और विचित्र तर्कशैली, एक ही वाक्य में असंगत शब्दों का जमावड़ा, शब्द-क्रीड़ा, अनुप्रास अलंकार, हास्यास्पद उपमाएं व रूपक, अप्रत्याशित मोड़, कविता की पंक्तियों का उद्धरण, पैरोडी और मज़ाक़ की फुलझड़ियों व हास्य रस की फुहारों के बीच साहित्यिक संकेत व दार्शनिक टिप्पणियाँ, और प्रखर बुद्धिमत्ता यूसुफ़ी साहब की रचना शैली की विशेषताएँ हैं। उनके फ़ुटनोट भी बहुत दिलचस्प होते हैं। इस निबंध में यूसुफ़ी साहब की रचना शैली की अनेक विशेषताएँ विद्यमान हैं।—–अनुवादक )

कुछ वाक्य देखें:
1. मैंने भी सारी उम्र डॉक्टरों से अपने रोगों की स्थिति बिना कमीबेशी किये बयान की है, लेकिन कपड़े उतारे बिना डॉक्टरों से गुफ़्तगू करने का यह पहला अवसर है!
2. बक़ौल मिर्ज़ा अब्दुल वदूद बेग मुझे हर दर्द और कष्ट का निजी अनुभव है, सिवाय प्रसव पीड़ा के! वह मेरी नैसर्गिक मजबूरी है। हार्ले-स्ट्रीट के स्पेशलिस्ट ऐसे बहुरोगीय मरीज़ों को ललचाई नज़रों से देखते और एक दूसरे के पास फ़ुटबॉल के “पास” की तरह भेजते रहते हैं!
3. ख़ुदा जाने यह कथन मिर्ज़ा अब्दुल वदूद बेग का अपना है या इसमें कुछ हेरफेर हुई है। कहते हैं कि अब तुम जिन नज़रों से मुसल्लम मुर्ग़ी को देखने लगे हो, वैसी नज़रों के लिए तुम्हारी बीवी बरसों से तरस रही है!
4. बायालोजी भी कभी मेरा विषय नहीं रहा। मेरा ताल्लुक़ तो उस भोली-भाली नस्ल से रहा है जो सच्चे मन से सोचती है कि बच्चे बुज़ुर्गों के दुआओं से पैदा होते हैं!
5. साहिबो, हास्य-लेखक की मुसीबत यह है कि कोई भी उससे गंभीर बात सुनने का रवादार नहीं। जबकि वास्तविकता यह है कि हास्य-लेखक से अधिक गंभीर और सतर्क लेखक मुश्किल से मिलेगा। जो बावला हास्य-लेखक हँसी-हँसी में काम की और बुद्धिमत्ता की बात न कर सके उसकी दन्त-प्रदर्शक हँसी अभी कच्ची और कला अभी तक अपरिपक्व है। रोक होंठों पे इसे और ज़रा थाम अभी।
6. किसी देश की आर्थिक स्थिति में स्थिरता, प्रगति, विस्तार और शक्ति का अंदाज़ा इससे नहीं लगाया जा सकता कि उसके अमीर कितने अमीर हैं, बल्कि यह देखा जाता है कि ग़रीब कितने ग़रीब हैं। किसी समाज के सभ्य और कल्याणकारी होने को परखने की कसौटी यह है कि वह अपने कमज़ोर, पीछे रह जाने वाले, दुखी और ग़रीबी की रेखा से नीचे ज़िन्दगी बसर करने वाले लोगों के साथ कैसा सलूक करता है।
7. यह और बात कि राष्ट्रीय बजट में जो रक़म स्वास्थ्य और चिकित्सकीय सुविधाओं के लिए आवंटित की जाती है वह हास्यास्पद बल्कि हृदयविदारक हद तक छुद्र है। जहाँ तक प्राइवेट सेक्टर का सम्बन्ध है तो मुझे यह कहने के लिए माफ़ी माँगने या किसी से अनुमति लेने की ज़रुरत नहीं कि एक दो नहीं, बल्कि ज़्यादातर प्राइवेट क्लीनिक और अस्पताल अब अस्पताल कम और टक्साल ज़्यादा लगते हैं। ऐसी टक्साल जो चौबीस घंटे रूपया बनाती और उगलती है।
8. इन अंग्रेज़ों को तो ढंग से प्रेम करना भी नहीं आता। प्यार और फ़र्स्ट-एड में फ़र्क़ नहीं कर सकते! ऐसा लगता है कि mouth to mouth resuscitation दे रहे हों! हमारे यहाँ तो इस तरह सिर्फ़ तुख़्मी (बीजू) आम चूसे जाते हैं!
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तारीख़ तो मुझे याद नहीं। जनवरी का अंतिम या फ़रवारी का पहला हफ़्ता होगा। कराची में वह मौसम होगा जिसे भले दिनों में गुलाबी जाड़ा कहते हैं। और लन्दन में (जहाँ मैं हूँ) शरद ऋतु का जोबन। अर्थात बादल, बिजली, बारिश, बर्फ़बारी और वह कड़ाके की सर्दी जो मुहावरे के अनुसार रूई दूईI से जाती है। मगर अंग्रेज़ रूई की जगह गर्म पानी की बोतल इस्तेमाल करते हैं। हंगेरियन हास्य लेखक जॉर्ज माइक्स कुछ और ही कारण बताता है। उसका विचार है कि अंग्रेज़ स्वभावतः, विशेष रूप से यौवन संबंधों में, बिल्कुल भावहीन, और ठंडा बर्फ़ होते हैं। सेक्स के बजाय हॉट वाटर बॉटल से काम चलाते हैं! माइक्स 1938 से इंगलिस्तान में रह रहा है और लहू गर्म करने के एंग्लोसैक्सन तरीक़े और लिहाफ़ के भीतर के भेदों से ज़रूर परिचित होगा।
देखिये, ज़िक्र मौसम का हो रहा था, गर्म बोतल बीच में आ पड़ी। यह कहना कि लन्दन में सूर्यास्त साढ़े तीन बजे ही हो जाता है, ग़लत-बयानी होगी। इसलिए कि अस्त तो उस स्थिति में होगा, जब कभी उदय हुआ हो! दोपहर को कभी निकलता है तो आधी रात का दिया दिखता है। सूरज का काम घड़ी से लिया जाता है। यानी घड़ी देखकर सुबह, दोपहर और शाम मान लेते हैं। साढ़े ग्यारह बजे ज़ोहर (दोपहर की नमाज़) साढ़े तीन बजे मग़रिब (सूर्यास्त की नमाज़) और साढ़े पाँच बजे इशा (रात की नमाज़) होजाती है! मैंने कराची में एक नमाज़ी दोस्त से पूछा, क्या मैं सात बजे तहज्जुद1 पढ़के, कमरा ओढ़के सो सकता हूँ? साफ़ कन्नी काटते हुए फ़रमाया, ‘कमरा ओढ़ के सोने से क्या तात्पर्य है?’ निवेदन किया, लन्दन में कमरे क़ब्र का नक़्शा सामने रखकर बनाए जाते हैं! मतलब यह कि एक साधारण कमरे की लम्बाई, चौड़ाई और ऊँचाई बल्कि नीचाई इतनी होती है कि लिहाफ़ की गुंजाइश नहीं रहती! दिन के बारह बजे अगर दफ़्तर की बत्तियाँ बुझा दी जाएँ तो हाथ को क़लम सुझाई न दे। संभवतः इसीलिए अंग्रेज़ दोपहर के खाने को डिनर कहते हैं! ऐसे में बस यही जी चाहता है कि
इस तरह सुबह न हो, शाम न हो, रात न हो
जिस तरह सुबह हुई, शाम हुई, रात हुई
तो ऐसी ही ऋतु और कड़कड़ाते अंधेर घुप जाड़े का समाँ था, मगर घड़ी दिन के बारह बजा रही थी कि कराची से एक कृपालु ने फ़ोन पर सूचित किया कि यह तय हुआ है कि आपको तीन मार्च को पाकिस्तान फ़िज़ीशियंस और सर्जन्स के वार्षिक डिनर में भाग लेना है और मुख्य भाषण भी पढ़ना है, इसलिए कि आप मुख्य अतिथि होंगे। भोज-निमंत्रण अपनी जगह, लेकिन यह मुख्य-अतिथि वाली बात यूँ भी समझ में आती है कि डेढ़-दो सौ उत्कृष्ट व प्रतिष्ठित नश्तर-बाज़ सर्जनों के समूह में जो डिनर का बेताबी से इंतज़ार कर रहे हों, अगर एक चिर-रोगी को हिदायत व नसीहत या वसीयत करने के लिए खड़ा कर दिया जाए तो उस दुखियारे की मुख्य हैसियत में कोई संदेह नहीं, अलबत्ता उसके मानसिक स्वास्थ्य को ईर्ष्या-योग्य नहीं कहा जा सकता। polyps, oesophagitis, स्पॉन्डिलाइटिस, आँखों की जलन, दिल की धमनियों में रुकावट—-
मैं तमाम दर्द ही दर्द हूँ, कहूँ क्या कि दर्द कहाँ उठा
समय के अभाव के कारण सम्पूर्ण सूचि पेश नहीं कर सकता। बक़ौल मिर्ज़ा अब्दुल वदूद बेग मुझे हर दर्द और कष्ट का निजी अनुभव है, सिवाय प्रसव पीड़ा के! वह मेरी नैसर्गिक मजबूरी है। हार्ले-स्ट्रीट के स्पेशलिस्ट ऐसे बहुरोगीय मरीज़ों को ललचाई नज़रों से देखते और एक दूसरे के पास फ़ुटबॉल के “पास” की तरह भेजते रहते हैं! इन हालात में डॉक्टरों के इस स्वास्थ्यदायी समूह में इस इकलौते मरीज़ को मुख्य-अतिथि के बजाए मुख्य-मरीज़ कहा जाए तो सम्मानित करने के अतिरिक्त यथार्थ के निकट भी होगा।
मैंने इस भव्य समारोह को उत्कृष्ट सर्जनों का समूह कहा है, मसीहाओं का समूह कहने से केवल टेक्निकल कारणों से परहेज़ किया है। हज़रत ईसा तो केवल ‘क़ुम-बेइज़्निल्लाह’2 (अल्लाह के हुक्म से जी उठ) कहकर मुर्दों को ज़िन्दा कर दिया करते थे। नश्तर, लेज़र, चाक़ू, scalpel और धारधार उपकरण प्रयोग करने की ज़रुरत नहीं पड़ती थी।
पुरानी कहावत है कि ‘अव्वल तआम, बादहू कलाम’ (पहले भोजन, उसके बाद गुफ़्तगू)। प्रबंधकों ने शायद यह क्रम किसी विशेष कारण से बदल दिया है। उन्हें संभवतः यह आशंका थी कि बढ़िया डिनर के बाद भाषण सुनकर कोई मुँह का मज़ा ख़राब नहीं करना चाहेगा। मैं ख़ुद भी अपनी गणना वक्ताओं की श्रेणी में नहीं करता। इसलिए कि मेरा असल और स्थाई सम्बन्ध तो उस बेज़ुबान और उत्पीड़ित वर्ग से है जिसे ‘आदरणीय श्रोतागण’ के सम्मान से नवाज़ा जाता है। फिर कुर्सी पर जकड़के बिठा दिया जाता है—जड़वत व निश्चेष्ट। सिर्फ़ हाथ इस्तेमाल करने की अनुमति होती है। वह भी सिर्फ़ अनवरत जम्हाइयों को रोकने और ताली बजाने के लिए! अक्सर डॉक्टर साहिबान ताकीद करते हैं कि खाने के बाद कोई ऐसा काम नहीं करना चाहिए जिससे ज़ेहन पर ज़ोर पड़े। अलबत्ता भाषण देने और ताली बजाने में कोई हर्ज नहीं क्योंकि भाषण का शुमार निद्राकारी वस्तुओं में होता है, जबकि एकाध झपकी लेने वाले श्रोता ताली से हड़बड़ा के जाग उठते हैं। इन दोनों क्रियाओं से भोजन के पाचन में मदद मिलती है। अगर भाषण, श्रोताओं के धैर्य व श्रवण का पैमाना छलक पड़ने के बाद भी जारी रहे, तो सज्जन पुरुष नींद में डूबी नशीली आँखों से वक्ता को तकने लगते हैं और महिलाएँ बार-बार चूड़ियाँ ज़ोर से छनकाकर घड़ी देखती हैं। कुछ महिलाएँ तो घड़ी को झुनझुने की तरह हिला-हिलाकर देखती हैं कि मनहूस चल भी रही है या बंद हो गई। जो वक्ता इन सारी बातों का नोटिस न ले और भाषण जारी रखे उससे डरना चाहिए। इसलिए कि वह निश्चित रूप से कोई बड़ा मंत्री होगा या उससे भी आगे की वस्तु!
देखिये, अपनी ही बात कटती है। जल्दी में मेरी क़लम से भी “सज्जन पुरुष” निकल गया। न जाने किस अत्याचारी ने यह कुढब शब्द-योजना गढ़ी है जो आजकल हर समारोह में सुनने में आती है। सज्जन कहना काफ़ी नहीं समझा जाता। सज्जन के साथ पुरुष की पख (पाबंदी) से प्रकट होता है कि कुछ सज्जन ऐसे भी हैं जो पुरुषों की श्रेणी से निष्कासित हैं। या फिर कुछ महिलाएँ ऐसी हैं जो वाक़ई सज्जन हैं!
कुछ दवाएँ खाने से पहले और कुछ खाने के बाद खाई जाती हैं। लेकिन सच पूछिए तो भाषण न तो भोजन पूर्व अच्छा न भोजनोपरांत। ख़ाली पेट तो गाना भी अच्छा नहीं लगता। गाना ही नहीं, ख़ाली पेट तो हुकूमत के ख़िलाफ़ ढंग से नारा भी नहीं लगाया जा सकता। ऐसे-वैसे सपने तक आने बंद हो जाते हैं। सारांश यह कि ख़ाली पेट सिर्फ़ ख़ून टेस्ट कराया और आपसे ऑपरेशन कराया जा सकता है। एक बार हमें महिलाओं के एक बड़े समूह को डिनर से पहले संबोधित करने का संयोग हुआ। जिस हाल में हमें भाषण देने के लिए खड़ा किया गया, उससे संलग्न हाल में भोजन का प्रबंध था। चार-पाँच मिनट तो अंधाधुंध संबोधन के जोश में बीत गए। उसके बाद हमें ऐसी सुगन्धें आने लगीं जिनसे हमारी एकाग्रचित्तता, भाषण के नैरन्तर्य और उच्चारण में विघ्न पड़ने लगा। ख़ैर, शाही टुकड़ों और केसरिया क़ोरमे, की महक तो हम बर्दाश्त कर गए, लेकिन सीख़ कबाब के धुआँ-मय बार्बी-क्यू झोंके ने हमें कुछ इसलिए भी निढाल कर दिया कि हमने दोपहर का खाना नहीं खाया था। फिर जब हमारी फ़ेवरिट डिश यानी पुलाव की लपट आई तो हमारे salivary glands यानी लार- ग्रंथियों का कार्य इतना तेज़ हो गया कि शब्द काल्पनिक स्वाद में लिथड़कर ज़ुबान से लिपट गए। श्रोताओं का हाल हमें मालूम नहीं था, ख़ुद हमारा जी बोलने को नहीं चाह रहा था। हमने पानी का घूँट पीते हुए सेक्रेटरी महोदया से कहा कि “देवी, इन सुगंधों की मुझ में ताब नहीं। मैं इस तरह भाषण नहीं दे सकता।” वे कुछ और समझीं! अंग्रेज़ी में कहने लगीं, “आप थोड़ा सब्र से काम लीजिये। मै युवा महिलाओं को seductive perfumes लगाने से भला कैसे रोक सकती हूँ?”
क्षुधावर्धक सुगंधों से हमारी हालत कुछ इसलिए भी बिगड़ी कि जिन चार अलग-अलग खानों के नाम अभी गिनवाए हैं वे चार अलग-अग बीमारियों और शिकायतों की वजह से हम पर हराम (वर्जित) कर दिए गए हैं। हमें किसी डॉक्टर से कोई शिकायत नहीं। लेकिन साहिबो, हक़ीक़त यह है कि बक़ौल मिर्ज़ा, दुनिया में जितनी भी लज़ीज़ चीज़ें हैं, उनमें आधी तो मौलवी साहिबान ने हराम करदी हैं, और बाक़ी आधी डॉक्टर साहिबान ने!
ख़ुदा जाने यह कथन मिर्ज़ा अब्दुल वदूद बेग का अपना है या इसमें कुछ हेरफेर हुई है। कहते हैं कि अब तुम जिन नज़रों से मुसल्लम मुर्ग़ी को देखने लगे हो, वैसी नज़रों के लिए तुम्हारी बीवी बरसों से तरस रही है!
मैं अक्सर कहता हूँ किसी वृद्ध व रोग ग्रस्त व्यक्ति, यानी मेरे हमउम्र से कभी उसकी तबीयत का विस्तृत हाल नहीं पूछना चाहिए। इसलिए कि अगर उसने अपने सम्पूर्ण रोगों व व्याधियों को गिनवाना शुरू कर दिया तो एक घंटे में भी सूची समाप्त नहीं होगी। दिल में जमा हुई भड़ास भी जैसी निकलनी चाहिए वैसी नहीं निकल पाएगी। संक्षिप्त कुशल-क्षेम पूछने पर अगर वह “आपका आशीर्वाद है” कह दे तो इसे आस्था की अभिव्यक्ति समझना चाहिए, न कि उसकी वास्तविक स्थिति व मनोदशा। दाई से पेट छुपाने के, कहावती और वास्तविक रूप में, एक से अधिक माक़ूल या नामाक़ूल कारण हो सकते हैं। लेकिन डॉक्टरों से कोई पर्दा नहीं। मैंने भी सारी उम्र डॉक्टरों से अपने रोगों की स्थिति बिना कमीबेशी किये बयान की है, लेकिन कपड़े उतारे बिना डॉक्टरों से गुफ़्तगू करने का यह पहला अवसर है!
मैंने डॉक्टर नक़वी से पूछा “मुझे किस विषय पर बोलना है?” फ़रमाया “डॉक्टर दिन भर सिम्पोज़ियम में गंभीर गुफ़्तगू से उकता जाएँगे। जिस विषय पर आपका जी चाहे बोलें। जितनी देर चाहें बोलें। बस संजीदा और गंभीर गुफ़्तगू से परहेज़ ज़रूरी है!” साहिबो, हास्य-लेखक की मुसीबत यह है कि कोई भी उससे गंभीर बात सुनने का रवादार नहीं। जबकि वास्तविकता यह है कि हास्य-लेखक से अधिक गंभीर और सतर्क लेखक मुश्किल से मिलेगा। जो बावला हास्य-लेखक हँसी-हँसी में काम की और बुद्धिमत्ता की बात न कर सके उसकी दन्त-प्रदर्शक हँसी अभी कच्ची और कला अभी तक अपरिपक्व है। रोक होंठों पे इसे और ज़रा थाम अभी।
मैंने बहुत सोचा, दिन भर के थके-हारे डॉक्टरों से किस विषय पर बात की जाए। कुछ समझ में न आया। रही रोगों और मेडिकल साइंस से मेरी जानकारी तो वह बस इतनी और ऐसी है जैसे कोई रात के अंधेरे में शेर से अकस्मात मुठभेड़ के बाद उससे जानकारी का दावा करे! मतलब यह कि मेरा सारा ज्ञान उन रोगों तक सीमित है जिन से ग्रसित होने का निजी अनुभव है जो मेरा दिल दहलाने के लिए काफ़ी है। मैं इस अनुभव में वृद्धि और विस्तार के लिए प्रार्थना नहीं करूँगा।
पुराना मुक़दमेबाज़ आधा वकील होता है और चिररोगी आदमी पूरा मायावीI। बायालोजी भी कभी मेरा विषय नहीं रहा। मेरा ताल्लुक़ तो उस भोली-भाली नस्ल से रहा है जो सच्चे मन से सोचती है कि बच्चे बुज़ुर्गों की दुआ से पैदा होते हैं! यह नस्ल अपनी करतूतों को बुज़ुर्गों का चमत्कार समझती है और जनसंख्या की आधिकता से पैदा होने वाली समस्याओं को, ख़ुदा माफ़ करे, ईश्वर का वरदान समझती है। उस ज़माने में फ़िल्मों तक का यह हाल था कि अव्वल तो चुम्बन व आलिंगन की नौबत ही नहीं आती थी, लेकिन अगर पब्लिक की माँग पर कोई नाज़ुक मुक़ाम आ ही जाए तो वहीं सीन काटकर सफ़ेद कबूतरों का एक जोड़ा दिखाया जाता था जो एक दूसरे से चोंच में चोंच मिलाये बैठा होता! विश्वास कीजिए हमारी पूरी पीढ़ी इन दो कबूतरों की छाया में पलकर जवान हुई। लन्दन में हम जहाँ दस वर्ष से रहते हैं, फ़िल्म या टीवी पर रात गए कोई ऐसा-वैसा सीन दिखाते हैं तो हमें बहुत ग़ुस्सा आता है कि यह हमारे ज़माने में क्यों न दिखाया गया! ऐसे अवसर पर अपनी तरफ़ के भोले कबूतर बुरी तरह याद आते हैं। इन अंग्रेज़ों को तो ढंग से प्रेम करना भी नहीं आता। प्यार और फ़र्स्ट-एड में फ़र्क़ नहीं कर सकते! ऐसा लगता है कि mouth to mouth resuscitationII दे रहे हों! हमारे यहाँ तो इस तरह सिर्फ़ तुख़्मी (बीजू) आम चूसे जाते हैं! हमारी फ़िल्मों में आज भी अगर ग़लती से हीरो का कुर्ता भी हीरोइन की उंगली को छू जाए तो वह गज़ भर ऊँची छलाँग लगाके चीख़ती है “जान कढ लई बेईमाना ” और निकटतम दरख़्त के तने से लिपट जाती है। फिर हीरो उंगली पकड़ते-पकड़ते अंगूठी पहना देता है। उसके बाद अंग्रेज़ी मुहावरे के अनुसार: they lived happily everafter। लेकिन स्पेन की परियों की कहानियों में इस स्थिति को यूँ बयान किया जाता है कि फिर वे दोनों आनंदमय जीवन व्यतीत करने और रोज़ाना तीतर खाने लगे।
मैं निवेदन यह कर रहा था कि मैंने साइंस नहीं पढ़ी। उस ज़माने में इसका फ़ैशन भी नहीं था। हमारा विचार था कि जो अरसिक लड़के साहित्य और शेरो-शायरी समझने की योग्यता नहीं रखते वे साइंस ले लेते हैं! बायलोजी और एनाटोमी की जो थोड़ी-बहुत जानकारियाँ हम बचपन में रखते थे वे सारी-की-सारी मोहल्ले के बुज़ुर्गों की गालियों से निचोड़ी गई थीं! गालियाँ क्या थीं बस सरल व सहज उर्दू में डॉक्टरों की टेक्स्टबुक Gray’s Anatomy का रेखाचित्र सा खींच देते थे! उनके सामने अंग्रेज़ों की गालियाँ दूध पीते बच्चों की गूँ-गाँ और कबूतरों की गुटुर-गूँ मालूम होती है। किसी बुद्धिमान का कथन है जो थोड़ी-बहुत मिलावट के बाद मिर्ज़ा ने हम तक पहुँचाया है। वह यह कि आदमी कैसा ही बहुभाषीय हो, गाली, गाने, और गिनती के लिए मातृभाषा ही इस्तेमाल करता है। हमारे बड़े-बड़े अर्थशास्त्री अपनी रिपोर्टें, लेख, और भाषण अंग्रेज़ी में लिखते हैं, लेकिन यक़ीन से कह सकता हूँ कि अपनी तनख़्वाह के नोट मातृभाषा में ही गिनते होंगे।
ऐसे मौक़ों पर वर्तमान परिस्थितियों पर धाराप्रवाह, तीव्र और तेज़ाबी टिप्पणियों से मिनमिनाते-मिमियाते भाषणों में जान सी पड़ जाती है और एक-दो बार तालियाँ बजने की संभावनाएँ इतनी अन्धकारमय नज़र नहीं आतीं। मगर यह न मेरी गली है, न अंग।
कुछ ख़याल आया था वहशत का कि सहरा जल गया3
सहरा की जगह सफ़हा (पृष्ठ) पढ़ें तो अर्थ स्पस्ट हो जाएगा। मैं राजनीतिक समस्याओं पर न गहरी दृष्टि रखता हूँ न दृष्टिकोण। लेकिन वर्तमान परिस्थितियों को आराम कुर्सी पर बैठा कनखियों से ज़रूर देखता रहता हूँ। सच बोलने को आधा ईमान समझता हूँ। आधा इसलिए कहा कि जेल में निवास करने में कभी कोई रुचि नहीं रही। अख़बार पढ़के जैसे और लोग जी जलाते हैं मैं भी रोज़ाना बड़ी पाबंदी से जी जला लेता हूँ। पढ़ने का ज़िक्र आया तो यह निवेदन करता चलूँ कि जबसे लन्दन आया हूँ, यानी दस साल से, आँखों में जलन रहने लगी है। शुरू में तो मैं इस ख़ुशफ़हमी का शिकार रहा कि शायद यूरोप की निर्वस्त्रता और अल्प-वस्त्रता पहले-पहल देखने से इस फ़क़ीर की आँखों पर strain पड़ा है जो दर्शन की अधिकता से इंशाअल्लाह दूर हो जाएगा। लेकिन जब तकलीफ़ इतनी बढ़ी कि टीवी पर महारानी की तस्वीर देखकर भी आँखों में मिर्चें सी लगने लगीं तो डॉक्टर से संपर्क किया। उसने कहा कि तुम्हारे tear glands (विलाप-ग्रंथियाँ) बिल्कुल सूख गई हैं। मिर्ज़ा कहते हैं कि यह तकलीफ़ तुम्हारे मानसिक squint अर्थात वक्र-दृष्टता और विक्षिप्त-वक्तता का परिणाम और दंड है। उन्हीं का कथन है कि समझदार आदमी नज़र हमेशा नीची और नीयत ख़राब रखता है! वे यह भी कहते हैं कि मर्द की आँख और औरत की ज़ुबान का दम सबसे आख़िर में निकलता है! ख़ैर इसका तो निजी अनुभव जब होगा तब देखा जाएगा। फ़िलहाल artificial tears अर्थात अश्रु-उत्प्रेरक बूँदें आँखों में डालनी पड़ती हैं। यह दवा बछड़े के ख़ून से बनती है। अब कहीं जाके समझ में आया कि हमारी शायरी में जो ख़ून भरी आँखों और ख़ून के आँसू रोने का ज़िक्र है तो इसका क्या औचित्य है। हमारी आँख से हर चार घंटे बाद बछड़े के ख़ून के आँसू टपकते हैं! लेकिन जैसे ही पाकिस्तान आकर वर्तमान परिस्थितियों और अख़बारों का अध्ययन करता हूँ तो tear glands बिना दवा के आपीआप बड़ी तेज़ी से काम करने लगते हैं।
मैं ग़ौर ही कर रहा था कि किस विषय पर गुफ़्तगू की जाए कि अचानक एक शेर याद आ गया:
‘अनीस’ जमा हैं अहबाब हाल-ए-दिल कह दे
फिर इल्तिफ़ात-ए-दिल-ए-दोसताँ रहे न रहे4
ख़याल आया कि क्यों न अपनी बीमारी, अपने चिकित्सकों की निपुणता और आपसी संबंधों और अनुभवों के बारे में अनौपचारिक बातें की जाएँ। अगर बेध्यानी या रवारवी (जल्दी) में कहीं गंभीर हो जाऊँ तो इंसान समझकर माफ़ कर दीजियेगा। इसे मेरी केस हिस्टरी समझ लीजिए कि यही इसका शीर्षक भी है। वैसे मुझे इसका एहसास है कि जिस मरीज़ को अपने मर्ज़ के ज़िक्र में मज़ा आने लगे उसे hypochondriac कहते हैं। व्यक्ति ही नहीं, कभी-कभी देश भी hypochondriac हो जाते हैं। उन्हें इलाज से ज़्यादा अपनी बीमारियों के अतिश्योक्तिपूर्ण वर्णन में मज़ा आने लगता है!
फ़क़ीर की यह नाक़ाबिल-ए-रश्क (ईर्ष्या-अयोग्य) सेहत कोई नई बात नहीं। हज़रत हफ़ीज़ जालंधरी की शायरी की तरह
यह अर्ध सदी का क़िस्सा है, दो चार बरस की बात नहीं
अल्हम्दुलिल्लाह, भरी जवानी में भी हमारा हाल और हुलिया ऐसा नहीं रहा कि किसी ख़ातून का ईमान डावाँडोल हो! इतना ज़रूर है कि शादी हमने अपनी बीवी की पसंद की की। मगर उस ज़माने में उनकी नज़र 6- थी और वे ज़िद में ऐनक नहीं लगाती थीं। इस घटना यानी निकाह के फ़ौरन बाद ऐनक लगाने लगीं! इसपर एक और घटना याद आई। यह 25 बरस पहले का क़िस्सा है। अफ़सोस कि ‘आतिश’ पच्चीस बरस पहले भी जवान न था5। जब उम्र 27-28 की थी तो यह हाल था कि अगर कोई यूँ ही कह देता कि आप तो 25-26 के लगते हैं तो ख़ुशी से अपनी खद्दर की शेरवानी में फूले नहीं समाते थे, और अब यह हाल है कि जब तक कोई 20-25 बरस की डंडी न मारे, बिल्कुल ख़ुशी नहीं होती! बहरहाल ऐसे ही कम-उमरी के दिनों का ज़िक्र है, एक दिन मैं अपने दायें हाथ की हथेली पर ठोड़ी रखे, कुछ उदास सा, कुछ सोच में गुम अपने दफ़्तर में बैठा था कि पुराने दोस्त और बैंक के सहकर्मी आलिम हुसैन साहब आ निकले। वह बहुत शांत, विनम्र, कमगो और ग़ैर-जज़्बाती आदमी हैं। ईद पर भी नए कपड़े नहीं पहनते। कहते हैं “घरेलू बजट असंतुलित हो जाता है। ज़रूरी नहीं कि त्योहारी हर्षोल्लास की अभिव्यक्ति सिर्फ़ नए पाजामे और रेशमी इज़ारबंद ही के ज़रिए की जाए!” सबने देखा कि अपनी शादी के दिन भी बैंक में बैठे लेजर्स चेक करते रहे। किसी ने आश्चर्य जताया तो कहने लगे कि ख़्वाहमख़्वाह भावुक होने से फ़ायदा? जो होना है सो हो जाएगा।
हमें चिंतित व उदास देखा तो बोले “आज आप कुछ ज़्यादा ही उदास नज़र आते हैं!” कुछ ज़्यादा की क़ैद इसलिए भी ज़रूरी थी कि ख़ुद को उदास रखने के लिए हम किसी संगीन ट्रैजेडी या माक़ूल वजह का इंतज़ार नहीं करते। बस हैं तो हैं।
मैंने कहा “आलिम साहब, मेरे सर में जो बाल काले हैं वे तेज़ी से गिर रहे हैं और जो मज़बूत हैं वे सफ़ेद हो रहे हैं। यह पता नहीं चलता माथा कहाँ ख़त्म होता है और सर कहाँ से शुरू होता है। मुँह धोते समय समझ में नहीं आता कहाँ से शुरू करूँ। अगर इसी रफ़्तार से बाल गिरते रहे तो—- ? बस यही सोच-सोचकर डिप्रेशन हो रहा है।”
वे कुछ देर सोच में पड़ गए। फिर अपनी हथेली की हमारे सर से तुलना करते हुए बिल्कुल मैटर-ऑफ़-फ़ैक्ट स्वर में बोले “यूसुफ़ी साहब, जब आपका सर fully thatched था, यानी सारा सर बालों से ढका था तो क्या कभी उनसे आपको कोई फ़ायदा पहुँचा?”
वह दिन है और आज का दिन, हमने अपने आपसे सुलह करली और जाके न आने वाली चीज़ का ग़म करना छोड़ दिया।
एक चीनी कहावत है कि ज़िन्दगी में उदासियाँ तुम्हारे सर पर मंडलाती रहेंगी। उनको अपने बालों में घोंसला न बनाने दो।
आपको मुश्किल से कोई ऐसा व्यक्ति मिलेगा जिसे बचपन में डॉक्टर बनने और दुखी मानवता की मुफ़्त सेवा करने की इच्छा न रही हो। यूँ तो मैं स्टीम से चलने और धुवाँ छोड़ने वाली रेलगाड़ी का इंजन ड्राइवर बनना चाहता था, लेकिन छोटी बहन की दो rag dolls ( कपड़े की गुड़ियाँ जिनके अन्दर रूई ठूँसी गई थी) के क़लम-तराश चाक़ू से इमरजेंसी ऑपरेशन करके रसौली निकाल चुका था। मैं इस समारोह में भाग लेने के लिए लन्दन से रवाना हो रहा था तो “जंग लन्दन” में एक नामवर पाकिस्तानी संगीतकार का इंटरव्यू नज़र से गुज़रा, जिसमें उन्होंने कहा था कि उनका क़व्वाल बनने का क़तई इरादा न था। वह तो डॉक्टर बनना चाहते थे। मगर ख़ुदा ने उन पर बड़ी मेहरबानी की। जैसे ही उन्होंने सत्तरहवें बरस में क़दम रखा और अच्छे-बुरे का विवेक पैदा हुआ, तो उन्हें हर रात एक सच्चा सपना आने लगा जिसमें उन्हें डॉक्टरी से दूर रहने और क़व्वाली को कला व पेशे के रूप में अपनाने का निर्देश व शुभ समाचार मिला। हम यह पढ़कर बहुत ख़ुश हुए, क्योंकि डॉक्टरी पेशे के बारे में हम पक्का निर्णय इस दैवीय हस्तक्षेप के बिना ही ले चुके थे! इसमें संदेह नहीं कि हम दोनों को डॉक्टर न बनाकर अल्लाह ने हम पर बड़ी मेहरबानी की, बल्कि सच तो यह है कि औरों पर भी बड़ी मेहरबानी की। इंटरव्यू में महोदय ने इस बात की तरफ़ भी इशारा किया कि अगर वह ख़ुदा-नाख़्वास्ता डॉक्टर बन जाते तो चंद साल पहले उनकी जो ताजपोशी हुई थी वह कैसे होती? डॉक्टरों में ताजपोशी तो दरकिनार, दस्तारबंदी की भी रस्म नहीं। डॉक्टर तो आम तौर पर पब्लिसिटी और नाम व ख्याति से बेनियाज़ (निर्लिप्त) होते हैं। बल्कि सर्जन तो मुँह पर ढाटा बाँधकर ऑपरेशन करते हैं ताकि मरीज़ और उसके उत्तरजीवी पहचान न पाएँ! आजकल अमन व शान्ति की स्थिति ऐसी बिगड़ी है कि अगर कोई सर्जन इस हुलिए में किसी बैंक में पहुँच जाए तो कैशियर्ज़ दीवार की ओर मुँह करके “हैंड्सअप” खड़े हो जाएँगे और ‘सिपुर्दम बतू सरमाया-ए-ख़ेश’ (अपना माल तुम्हारे सिपुर्द करता हूँ) कहकर दूसरों का माल तीसरे के सिपुर्द करदेंगे! बैंकिंग का आजकल यही मतलब व कार्यपद्धति समझी जाती है! हमारी समझ में नहीं आता कि डाकू हज़रात “—– हज़रात हमने नैतिक कारणों से नहीं, भय के कारण लिखा है—-जीप, क्लाशनिकोफ़, टी टी पिस्तौल, बैलाकलावा (balaclava), ढाटे आदि की झंझट में क्यों पड़ते हैं। सीधे-सीधे इन्वेस्टमेंट कम्पनी क्यों नहीं खोल लेते?
सिर्फ़ संगीत-सम्राट और उसकी ताजपोशी पर बात नहीं रुकती। जैसा कि मैं एक और अवसर पर निवेदन कर चुका हूँ, हमारे यहाँ, जीवन के सभी क्षेत्रों और पेशों, विशेष रूप से संगीत और अन्य कलाओं में बादशाहत का राज रहा है। मीर तक़ी ‘मीर’ ख़ुदा-ए-सुख़न (शायरी के ख़ुदा) और ग़ालिब ख़ुसरू-ए-इक़लीम-ए-शायरी (कविता-जगत के सम्राट) तो हमेशा से थे। हसरत मोहानी रईसुल-मुतग़ज़्ज़लीन (ग़ज़ल के सरदार) माने गए। अलमलूक की शायरी मुलूकुल-कलाम (सर्वश्रेष्ठ कविता) मानी गई।
और तो और, एक हास्य-लेखक को (नाम क्या लूँ, कोई अल्लाह का बंदा होगा) एक साहित्य सम्मलेन में “हास्य-व व्यंग्य-सम्राट” की बेजोड़ उपाधि से सम्मानित किया गया! हास्य-लेखक के प्रशंसक व प्रेमी यह भूल गए कि हास्य-लेखक एक अनुपम फ़ाल्सटाफ़6 तो हो सकता है, मगर हम उसके सर पर घंटियों वाली fool’s-cap के बजाय King Henry IV का शाही ताज नहीं रख सकते!
इधर संगीत जगत में हम किसी को ग़ज़ल-सम्राट की उपाधि देते हैं और किसी को संगीत-सम्राज्ञी की! एक संगीत-सम्राट यानी गायकों के गायकवाड़, राजाओं के महाराजाधिराज भी हुए हैं। चश्म-ए-बददूर, हम एक प्रजा-मित्र ग़ज़ल-सम्राज्ञी भी रखते हैं और अल्लाह सदाबहार मलिका-ए-तरन्नुम (स्वर-सम्राज्ञी) के साए को हम बुज़ुर्गों के सर पर उनकी रहती जवानी तक क़ायम रखे कि वे हर साल दुखी मानवता के लिए अस्पताल स्थापित करने की घोषणा करके हम दुखियारों की बीमारी की हवस को और एक साल तक भड़काए रखती हैं (नवीनतम जानकारी के अनुसार एक परी-चेहरा और चंचल गायिका को “मेलोडी क्वीन” की उपाधि दी गई है। उनके निष्णात होने में संदेह नहीं कि उनके थिरकते संगीत में लुड्डी और मेलोडी दस्तो-गरेबाँ (गुत्थम-गुत्था) बल्कि ज़ेर-ए-गरेबाँ [गले के नीचे] साफ़ नज़र आती हैं!) निराशा व निस्तेजिता की उम्र को पहुँची हुई एक अभिनेत्री जिनके पास, हमारी ही तरह, सिवाए भावनाओं के अब कोई ज़ाहिरी ख़ूबी बाक़ी नहीं रही, भावना-सम्राज्ञी कहलाती हैं! संगीत और अभिनय पर ही निर्भर नहीं, शायर भी अपनी महबूब7 (प्रेयसी) को ‘शाह-ए-ख़ूबाँ’, ‘बादशाह-ए-हुस्न’, ‘शाह-ए-शमशाद-क़दां’, ‘ख़ुसरू-ए-शीरीं-दहनाँ’ कहते आये हैं। हमारी सदियों पुरानी शाह-पसंदी और बंदगी की तान “संतरी”, “बादशाह” और “ बादशाहों” पे आनके टूटती है! असल बात यह है कि जब तक हम अपने प्रशंसा-पात्र के सर पर शाही ताज न रखदें और उसके हाथ पर दासता का प्रण न लेलें, हमारी श्रद्धा व समर्पण की भावना की तुष्टि नहीं होती।
यादों का भला हो, यह 1963-64 ई. की बात है, जब फ़ील्ड मार्शल अय्यूब ख़ान देश के स्याह व सफ़ेद और ख़ाकी के इकलौते मालिक थे। हमारे दोस्त इब्न-ए-इंशा और तुफ़ैल जमाली ने थियोसोफ़िकल हाल में, ग़ज़ल-सम्राज्ञी के रूप में, एक कवित्री मिस बुलबुल की शानदार ताजपोशी का प्रबंध किया। ताज असली इम्पोर्टेड टीन का assembled in Pakistan था। महोदया का निजी सौन्दर्य उनकी कविता के दोषों पर दृष्टि डालने में बाधा बन रहा था। जिस ज़माने का यह ज़िक्र है, उनकी सुन्दरता के सूर्य को टिकटिकी बाँधकर देर तक देखा जा सकता था। मतलब यह कि ग्रहण लग चुका था। जिस तरह कुछ लोग जवानी के जोश में दीवारें और क़ानूनी हदें फलांगने के बाद ऑर्थोपेडिक केस बन जाते हैं, उसी तरह महोदया संतुलन, तुक, मात्रा और छंद की प्रतिबद्धता और रुकावटें फांदकर अपनी कविता और ख़ुद को लहुलुहान कर चुकी थीं। अफ़सोस उस ग़ज़ल-सम्राज्ञी के साम्राज्य का अय्यूब ख़ान की सरकार के साथ पतन हो गया। इसलिए कि दोनों के नौरत्नों में सभी मुल्ला दोप्याज़ा और चुटकले बाज़ बीरबल निकले, अबुल फ़ज़ल, फ़ैज़ी, और टोडरमल कोई न था।
उपर्युक्त प्रतिभा संपन्न गायक का दावा है कि उन्होंने क़व्वाली के माध्यम से वह तबलीग़ी कारनामा अंजाम दिया है जो बड़े-बड़े लोग क़ानूनों के माध्यम से न कर सके।
इतने बढ़िया डिनर के बाद वाद-विवाद न सिर्फ़ बे-मौक़ा बल्कि स्वास्थ्य के लिए हानिकारक होगा। लेकिन संक्षेप में इतना निवेदन करना ज़रूरी समझता हूँ कि इस्लाम किसी माध्यम से फैला या न फैला हो, तबले, सारंगी और बाजमाअत (सामूहिक) तालियों से हरगिज़ नहीं फैला। अलबत्ता दावे के दूसरे हिस्से यानी हमारे क़ानून के प्रभाव के अभाव से एक हद तक मैं भी सहमत हूँ। Draconian laws अपनी फ़ौलादी कठोरता, निष्पक्षता और निर्ममता के लिए मशहूर हैं। कहा जाता है कि Draco अपने क़ानून ख़ून से लिखता था, जबकि हम अपने नियम व क़ानून मगरमछ के आँसुओं से लिखते हैं! मैं यह इल्ज़ाम नहीं लगा सकता कि ख़ुदा-ना-ख़्वास्ता हम बेज़मीर हैं। हक़ीक़त यह है कि ज़मीर तो हम ज़रुरत से कहीं ज़्यादा बड़ा रखते हैं, लेकिन इससे हर समय नूराकुश्तीI लड़ते रहते हैं। बहरहाल क़व्वालों की एक चिकित्सकीय सेवा को डॉक्टर साहिबान को भी स्वीकारना होगा। आपकी जानकारी में है कि मलेरिया, मच्छरों, मुख़ालिफ़ों (विरोधियों), मौलवियों के ख़िलाफ़ जो ज़ोरदार मुहिम हुकूमत ने चलाई वह कामयाब हुई। अलबत्ता मच्छरों से हुकूमत को शिकस्त और शर्मिंदगी उठानी पड़ी! मलेरिया आज सुबह के सिम्पोज़ियम में चर्चा का विषय भी रहा है। मच्छर अब इतने सख़्त-जान और immune हो गए हैं कि किसी भी कीटनाशक स्प्रे से नहीं मारते, इस भाषण तक मच्छरों की जितनी भी अकस्मात मौतें हुई हैं वे सिर्फ़ क़व्वालों की तालियों से हुई हैं!
क़व्वाल ख़ुदा-ना-ख़्वास्ता डॉक्टर बन जाते तो आज़ादी से हाथ धो बैठते। क़व्वाल हज़रात को खुली छूट है कि अमीर ख़ुसरो के कलाम में ‘दाग़’ देहलवी के शेर के पैवंद इस तरह लगायें कि अमीर ख़ुसरो और दाग़ देहलवी दोनों छिप जाएँ। सिर्फ़ मीरा बाई का दोहा और क़व्वाल जीवित व कालातीत रहें और हमेशा गाते रहें। ग़ालिब के शेर में अगर छंद-भंग हो जाए तो उसे “अजी हाँ”, “अल्लाह!” या सही मौक़े की खाँसी और बेमौक़े की “वाह” से इस तरह दूर करदें कि कवि की आत्मा देखती रह जाए! डॉक्टर बेचारे को तो हर समय यह चिंता रहती है कि मरीज़ मर न जाए। क़व्वाल हज़रात इसकी ज़िम्मेदारी लेते हैं कि कोई शायर न बचे! साधारण क़व्वालों को साथ ख़ून माफ़ हैं।
यहाँ एक बिल्कुल ताज़ा घटना बयान होने के लिए कुलबुला रही है। हुआ यूँ कि एक बेसुरा गायक बड़ी अच्छी ग़ज़लों की रेड़ मार रहा था, और जैसा कि आजकल फ़ैशन सा बन गया है, बीच-बीच में अपनी गायकी की काल्पनिक ख़ूबियों और नज़ाकतों पर अपना ही सर धुनता और टिप्पणी करता जाता था। उस ज़ालिम ने गाने की ऐसी शैली आविष्कार की थी कि बड़े-से-बड़े शायर का अच्छे-से-अच्छा शेर बिल्कुल बेतुका व अनर्गल मालूम होने लगता! उस महफ़िल में अहमद फ़राज़ साहब भी विराजमान थे। उन्हें संबोधित करते हुए कहने लगा “फ़राज़ साहब, अब मैं आपकी ग़ज़ल गाऊँगा। बात यह है कि अब मैं सिर्फ़ ज़िन्दा शायरों का कलाम गाता हूँ।”
“जी हाँ, मरों को क्या मारना!” फ़राज़ साहब ने फ़रमाया।
एक और घटना याद आ रही है जो बहुत पुरानी होने के बावजूद ज़ेहन में बिल्कुल ताज़ा है। 1953-54 ई. का ज़िक्र है। मैं पीर इलाहीबख़्श कॉलोनी के एक बे-वाटर व गटर के दो कमरों वाले मकान में रहता था। डॉक्टरों ने अल्सर निदान किया था। जो कुछ भी था, महीने की अंतिम तारीख़ों में कुछ ज़्यादा ही सताता था। बस दर्द का एक सब्र-आज़मा (धैर्य-परीक्षक) दायरा था:
वह सुबह से ले शाम तक ऐंठन की शिकायत
और शाम से ले सुबह तक वह गैस की गुड़गुड़
कुछ दवाएँ जो मैंने इस्तेमाल कीं उन्होंने मर्ज़ के कीटाडुओं के लिए अमृतजल का काम किया। मेरे माननीय ससुर साहब ने जो बेहद विश्वसनीय, धर्मनिष्ठ और परहेज़गार बुज़ुर्ग थे, मुझसे स्नेहपूर्वक कहा “ मैं तुम्हें एक हकीम साहब को दिखाना चाहता हूँ। मस्जिद में नमाज़ के बाद अक्सर मुलाक़ात होती है। अल्लाह ने हाथ में शिफ़ा (रोग-मुक्ति) बख़्शी है। यूनानी इलाज अपनाने में कोई हर्ज नहीं।”मैंने अपने स्तर पर हकीम साहब के बारे में जानकारी हासिल की तो बहुत अच्छी रिपोर्टें मिलीं। मसलन एक साहब ने कहा कि “वे मरीज़ का हाल बिल्कुल नहीं सुनते। नब्ज़ पर हाथ रखते ही मर्ज़ की सारी अवस्थाएँ और मरीज़ के तमाम करतूत बयान कर देते हैं! मेरी नब्ज़ पर हाथ रखते ही कह दिया कि रान पर एक दाद है। नाक की हड्डी टेढ़ी है। तीन दिन का क़ब्ज़ लिए फिर रहे हो।” हमें तो उनकी उपचार-पद्धति में स्पष्ट रूप से ईश्वरीय ज्ञान की मिलावट नज़र आई। दूसरे साहब ने कहा नब्ज़ से पहले क़ारूरा (मूत्र) देखते हैं और क़ारूरे पर एक उचटती सी नज़र डालते ही मरीज़ की तनख़्वाह और बच्चों की संख्या का बिल्कुल सही अंदाज़ा कर लेते हैं। तीसरे व्यक्ति ने जो मेरा ही हमउम्र था चतावनी दी कि हकीम साहब अपने दोनों हाथों से मरीज़ के दोनों हाथों की नब्ज़ एक साथ देखते हैं। दायें हाथ की नब्ज़ से शरीर के प्रमुख अंग-तंत्रों के दोषपूर्ण कार्यों का हाल बताते हैं, और बाएँ हाथ की नब्ज़ से चाल-चलन की चार्जशीट!
देखा आपने। उच्च व निम्न, प्रमुख व अप्रमुख की विशिष्टता और अंतर चिकित्सा में भी प्रवेश कर गया। कुछ अंग-तंत्र प्रमुख अंग-तंत्र कहलाते हैं। हमें तो प्रकट रूप से इसकी यही वजह मालूम होती है कि बिगड़े प्रमुखों की भांति सारी व्यवस्था में बिगाड़ उन्ही के कारण होता है!
मैं जिस समय ससुर साहब के साथ दवाख़ाने पहुँचा तो हकीम साहब सब्ज़ हरी जाफ़री (जाली) वाले बरामदे में हुक़्क़े की नब्ज़ यानी मुँहनाल पर हाथ रखे बैठे थे। हमें आते देखा तो हुक़्क़ा गुड़गुड़ाने लगे। यह हुक़्क़े की स्थाई संगत का ही असर होगा कि ख़ुद बोलते तो इस तरह गुड़गुड़ाने लगते कि पहली मुलाक़ात में पता नहीं चलता था कि हुक़्क़ा बोल रहा है या वे ख़ुद! इसे (हुक़्क़े के नैचे के आगे लगी) चाँदी की मुँहनाल को हर समय मुँह में दबाए रखने का नतीजा ही कहना चाहिए कि अब अगर हुक़्क़ा हटा दिया जाता तो, और मुँह बंद हो तब भी, दोनों होंठों के बीच एक स्थाई सूराख़ या खाँचा सा नज़र आता था, जिसे अब सिर्फ़ इस तरह बंद किया या भरा जा सकता था कि वही मुँहनाल अपने पैदा किये हुए सूराख़ में फ़िट कर दी जाए। उनकी ऐनक के फ़्रेम में बिल्लौर (काँच) के दो पेपरवेट जड़े थे, जिनके कारण उनकी लाल डोरों वाली आँखें तिगुनी बड़ी और उतनी ही ग़ुस्सीली नज़र आती थीं। वे बहुत बददिमाग़ बताए जाते थे। उन्होंने क़ारूरा देखा और बड़े अर्थपूर्ण अंदाज़ में “हूँ!” कहा। फिर नब्ज़ देखने के लिए हाथ बढ़ाया। मैंने दायाँ हाथ प्रस्तुत किया और बाएँ को डर के मारे पतलून की जेब में रख लिया। दायाँ हाथ छोड़कर कहने लगे बायाँ निकालो!
नब्ज़ पर हाथ रखते ही इस तरह उछल पड़े जैसे हमारा हाथ शॉक मर रहा हो। फिर अपना सर पकड़कर बैठ गए। ससुर साहब को संबोधित करते हुए फ़रमाया कि मैं साहबज़ादे के साथ एकांत चाहता हूँ! आप दूसरे कमरे में इंतज़ार कीजिए। यह सुनते ही मेरे ससुर साहब का चेहरा लाल और मेरा पीला हो गया। वे इंतज़ार करने के बजाय तेज़-तेज़ क़दमों से घर वापस चले गए। हकीम साहब ने दोबारा नब्ज़ देखी। फिर कलाई पकड़के मुझे खींचा और मेरा कान अपने मुँह के इतने निकट ले आए कि हुक़्क़े की मुँहनाल मेरे नथुने में दाख़िल हुआ चाहती थी। बेहद रहस्यपूर्ण अंदाज़ में फुसफुसाते हुए फ़रमाया “ जिगर का काम ख़राब है।”
मेरे वहमोगुमान में भी न था कि जिगर की तथाकथित हरकत इस तरह बदनामी का कारण बनेगी। मैं हकीम साहब से उलझने लगा कि जनाबे-वाला! मुझे पेट की तकलीफ़ है। endoscopy करा चुका हूँ।
फ़रमाया “बायोसकोपी अपनी जगह, मगर क़ारूरा (मूत्र) कुछ और कहता है।”
उन्होंने नुस्ख़ा लिखकर मेरे एक हाथ में क़ारूरा और दूसरे में उसी रंग की अर्क़-ए-बादियान (सौंफ़ का रस) की बोतल थमा दी तो मैंने तक़रीबन रूहांसे होकर कहा कि अगर मेरा जिगर ही ख़राब था तो आपने मेरे ससुर को क्यों अलग कमरे में बैठने को कहा? आपकी मुझपर बड़ी कृपा होगी अगर आप उनको कम-से-कम यह बता दें कि मेरा सिर्फ़ जिगर ख़राब है।
वे बात की तह तक पहुँच गए। ऐनक उतारते हुए कहने लगे, “बरख़ुरदार, मैं नुस्ख़े लिखता हूँ। चाल-चलन का सर्टिफ़िकेट नहीं देता।”
वह दिन है और आजका दिन, मुझे किसी हकीम से संपर्क करने की हिम्मत नहीं हुई। माननीय व पूजनीय हकीम सईद साहब से मुझे पुरानी श्रद्धा है। उनकी निपुणता का क़ायल और वज़ादारी (परंपरा निर्वहन) पर मुद्दतों से मुग्ध हूँ। कई बार उनसे इलाज कराने को जी चाहा। मगर विश्वसनीय मरीज़ों से मालूम हुआ कि वे भी दोनों हाथों से दोनों नब्ज़ें देखते हैं!
लगातार छह साल तक गर्दन और तीसरी और चौथी वर्टेब्रा (रीढ़ की हड्डी) की फ़िज़ियोथेरैपी कराने के बाद मुझे कुछ लोगों ने मशवरा दिया कि जब रूपया और डॉक्टर दोनों जवाब देदें तो होमियोपैथी से बहुत फ़ायदा होता है। मैं होमियोपैथी के ख़िलाफ़ नहीं। पक्ष में हूँ। मेरा विचार है कि जो रोग बिना दवा के भी दूर हो जाते हैं, उनका होमियोपैथी से बेहतर कोई इलाज नहीं! यहाँ बहुत से सज्जन ऐसे होंगे जो स्वर्गीय नियाज़ साहब से परिचित होंगे। नियाज़ साहब जो वित्तमंत्री स्वर्गीय शोएब साहब के भाई थे, बहुत सीनियर ब्यूरोक्रैट थे और उच्च पदों पर आसीन रह चुके थे। जिस ज़माने का यह ज़िक्र है उन दिनों वे हैदराबाद में कमिश्नर थे। फ़ुर्सत के समय में होमियोपैथी की प्रैक्टिस करते थे। फ़ीस कुछ नहीं लेते थे, बल्कि दवा भी मुफ़्त देते थे। कोठी के सामने क्यू लगा रहता था। इक्का-दुक्का ही सही, मरीज़ों में वे ग़रज़मंद भी शामिल होते थे जो सिर्फ़ पहुँच और मेलजोल बढ़ाने के लिए किसी फ़र्ज़ी बीमारी का इलाज कराने आते थे।
बदलकर मरीज़ों का हम भेस ग़ालिब
तमाशा-ए- अहल-ए-मतब देखते हैं6
एक बार नियाज़ साहब तीन-चार दिन के लिए दौरे पर निकले। वापसी पर शाम को अपने मतब (दवाख़ाने) में बैठे। दवाओं का बक्स खोला तो सब शीशियाँ ख़ाली निकलीं। पता चला कि उनकी अनुपस्थिति में एक तीन साल का बच्चा सारी दवाइयाँ खा गया। नियाज़ साहब ख़ुद कहते थे कि मैंने उसी दिन और उसी लम्हे होमियोमैथी से तौबा करली कि जिस चिकित्सा-पद्धति की दवाएँ ऐसी हों कि पूरा बक्स खा जाने के बाद भी तीन साल के बच्चे को कुछ न हुआ, उसकी प्रैक्टिस करके अपना लोक-परलोक ख़राब नहीं करना चाहता।
देखिये, मेरा मक़सद होमियोपैथी का मज़ाक़ उड़ाना नहीं, बल्कि मैं बहुत गंभीरता से यह दिखाना चाहता हूँ कि होमियोपैथी की दवाएँ बिल्कुल हानिकारक नहीं होती हैं, बशर्तेकि आपकी उम्र तीन साल से ज़्यादा न हो! सच तो यह है कि अप्रैल में तीसरी बार एंजियोग्राफ़ी कराने से पहले मुझे लन्दन में एक नामी होमियोपैथ से संपर्क करना है। वे साहब एशियन हैं। अंग्रेज़ों का भूगोल भी अजीब है। वे अरब को अरब, जापानी को जापानी, ईरानी को ईरानी, अफ़ग़ानी को अफ़ग़ानी कहते हैं। सिर्फ़ उपमहाद्वीप भारत व पाकिस्तान के रहने वालों को एशियन कहते हैं! जैसे कि अरब, जापान, ईरान या अफ़ग़ानिस्तान दरअसल एशिया में नहीं हैं! या इन मुल्कों की तरह पाकिस्तान अपना अलग अस्तित्व नहीं रखता! साहिबो, जब दिल, नज़र, और ज़र्फ़ (पात्रता) तंग हो जाएँ तो भूगोल भी सिमट जाता है। मुल्क और रजवाड़े सिकुड़कर तिरस्कार और उपेक्षा के बेनाम डुबकूँ-डुबकूँ टापू दिखलाई देते हैं!
वह होमियोपैथ डॉक्टर लगातार तीस बरस से कहानियाँ लिख रहे हैं और लगातार ख़राब लिख रहे हैं। ग़नीमत है कि अप्रकाशनीय होने के अलावा अप्रकाशित भी हैं। जिन साहब के माध्यम से उन तक पहुँचने की स्थिति पैदा हुई, उनकी ज़ुबानी उन्होंने यह इच्छा व्यक्त की, बल्कि शर्त लगा दी कि मुझे उनकी ( सुधारातीत) कहानियों के पुनरावलोकन और सुधार के अतिरिक्त प्रस्तावना भी लिखनी होगी। मैंने कहला भेजा कि प्रस्तावना तो किसी प्रोफ़ेसर या आलोचक से लिखवाइए। अलबत्ता पुनरावलोकन और सुधार इस शर्त पर मुमकिन है कि किसी को बताया न जाए कि मैंने सुधार किया है। महोदय बात की तह को पहुँच गए। जवाब में कहला भेजा कि मुझे यह मंज़ूर है। मगर इस शर्त पर कि यूसुफ़ी साहब भी अभी या आइन्दा किसी को यह न बतलाएँ कि मैंने उनका इलाज किया है। वे ठहरे लाइलाज। अकारण मेरी बदनामी होगी।
हमारे देश में अनगिनत समस्याएँ हैं। लेकिन हम कुछ इतने मजबूर और संसाधनविहीन भी नहीं। समस्या की सही definition (व्याख्या व स्पष्टीकरण) में ही उसके हल के स्पष्ट संकेत मिल जाते हैं। एक पल के लिए इस पहलू पर भी ज़रा ग़ौर कीजिए कि हर इंसान की तरह हर देश को भी उसके हौसले और सहार के हिसाब से परीक्षाओं से गुज़ारा जाता है। हर समस्या हमारे लिए एक व्यक्तिगत और सामूहिक चुनौती है। इंसान का हर दुःख हमें उसके उपचार और अच्छे सलूक का अवसर प्रदान करता है। किसी देश की आर्थिक स्थिति में स्थिरता, प्रगति, विस्तार और शक्ति का अंदाज़ा इससे नहीं लगाया जा सकता कि उसके अमीर कितने अमीर हैं, बल्कि यह देखा जाता है कि ग़रीब कितने ग़रीब हैं। किसी समाज के सभ्य और कल्याणकारी होने को परखने की कसौटी यह है कि वह अपने कमज़ोर, पीछे रह जाने वाले, दुखी और ग़रीबी की रेखा से नीचे ज़िन्दगी बसर करने वाले लोगों के साथ कैसा सलूक करता है। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि जब तक हमारे देश का यह बिछड़ा और पिछड़ा हुआ वर्ग आगे नहीं बढ़ता, हमारा समाज आँखों पर असंवेदनशीलता के खोपेI चढ़ाए स्वनिर्मित अंधेरों में भटकता और दूसरों को भटकाता फिरेगा। एक अफ़्रीक़ी कहावत है कि जंगल में हाथियों के झुण्ड की रफ़्तार का निर्धारण सबसे तेज़ दौड़ने वाला हाथी नहीं करता, बल्कि सबसे सुस्त-क़दम और लद्धड़ हाथी करता है!
अभी कुछ महीने पहले की घटना है। मैंने लन्दन के अख़बारों में पढ़ा कि ब्रतानिया के एक छोटे से क़स्बे में एक ग़रीब और बेरोज़गार आदमी का बच्चा लापता हो गया। दो दिन तक उस क़स्बे के तमाम छोटे बड़े सारा काम-काज छोड़कर सुबह से शाम तक बच्चे की तलाश में मारे-मारे फिरे। स्थानीय पुलिस के अलावा दूसरे ज़िलों की पुलिस भी, सैकड़ों की संख्या में, तफ़्तीश और तलाश में शामिल हो गई। दो दिन तक एक सरकारी हेलीकॉप्टर सारे इलाक़े के ऊपर चक्कर लगाता रहा। तीन दिन तक राष्ट्रीय अख़बारों में और रेडियो और टीवी पर एक ग़रीब आदमी की गुमशुदगी को प्राइम टाइम में विस्तृत कवरेज दी गई। इसी तरह पिछले दिनों गहन देखभाल के वार्ड में नर्सों की कमी के कारण एक सामान्य नागरिक की तीन-चार महीने की बच्ची के दिल का ऑपरेशन कई हफ़्तों तक स्थगित होता रहा। इस पर अख़बारों और बी.बी.सी. ने जो सरकार की अपनी संस्था है, वाइटहाल को प्राइम मिनिस्टर मिसेज़ थैचर समेत सर पर उठा लिया। अदालत में मुक़दमा दायर हुआ। पार्लियामेंट में बहस हुई। पब्लिक दबाव इतना बढ़ा कि दो दिन बाद उस बच्ची का ऑपरेशन करना पड़ा। उपर्युक्त दोनों दुर्घटनाओं में पूरा देश एक ग़रीब आदमी के दुःख दर्द में शरीक और बेचैन रहा। किसी ने यह नहीं पूछा कि वह इंग्लिश बोलता है या स्कॉटिश या वेल्श। रोमन कैथोलिक है या प्रोटोस्टेंट। लेबर पार्टी से ताल्लुक़ है या कंज़रवेटिव पार्टी का समर्थक है। कहीं आइरिश तो नहीं? एक पल के लिए भी उसकी सामाजिक या आर्थिक हैसियत उसके मौलिक अधिकारों में बाधा नहीं बनी। अब एक ही क्षण के लिए इसकी तुलना अपने प्यारे वतन के हालात से कीजिए। यहाँ हम रोज़ाना भाषाई, साप्रदायिक और प्रान्तीय बखेड़ों और टकराव की ख़बरें, दुर्घटनाएँ और इलाज के योग्य बीमारियों में इंसानी जानों की बर्बादी की रिपोर्टें पढ़ते हैं और उसे नियति का हिस्सा और रोज़ाना की सामान्य बात समझकर अख़बार और अपने ज़ेहन का पन्ना पलटकर स्पोर्ट्स और स्टॉक की ख़बरें पढ़ने लगते हैं। हम बहुत व्यस्त हैं। हमारे पास उदास रहने और शोक मनाने के लिए कोई समय नहीं है। तेरा लुट गया शहर भंभोर सिसिए बे ख़बरे!
एक ज़िन्दा, ज़िम्मेदार और सभ्य समाज की यह पहचान है कि अगर वह किसी के दुःख दर्द का इलाज नहीं कर सकता तो उसमें शरीक हो जाता है।
किसी भी देश की चिकित्सकीय सुविधाओं की उपलब्धि और स्तर को इस तरह नहीं जाँचा जाता कि उसके संपन्न वर्ग को इलाज-उपचार के कैसे उच्च और आधुनिकतम संसाधन प्राप्त हैं, बल्कि यह देखा जाता है कि आम आदमी की पहुँच में कितनी और कैसी सुविधाएँ हैं। दौलतमंद और विशेषाधिकृत वर्ग तो विदेश जाकर भी इससे कहीं बेहतर सुविधाएँ प्राप्त कर सकता है और करता है। विदेश में इलाज पर जो रक़म सरकारी और ग़ैरसरकारी तौर पर हर साल ख़र्च होती है वह एक सतर्क अनुमान के अनुसार तीन बड़े अस्पतालों के बजट से ज़्यादा है! यह और बात कि राष्ट्रीय बजट में जो रक़म स्वास्थ्य और चिकित्सकीय सुविधाओं के लिए आवंटित की जाती है वह हास्यास्पद बल्कि हृदयविदारक हद तक छुद्र है। जहाँ तक प्राइवेट सेक्टर का सम्बन्ध है तो मुझे यह कहने के लिए माफ़ी माँगने या किसी से अनुमति लेने की ज़रुरत नहीं कि एक दो नहीं, बल्कि ज़्यादातर प्राइवेट क्लीनिक और अस्पताल अब अस्पताल कम और टक्साल ज़्यादा लगते हैं। ऐसी टक्साल जो चौबीस घंटे रूपया बनाती और उगलती है। सरकारें आईं भी और चली भी गईं, मगर एक पुराने मुहावरे की तरह, परनाला वहीं, यानी जनता के सर पर गिरता रहा। सरकारी आँकड़ों से साबित किया जाता है कि बीमार का हाल अच्छा है। WHO की रिपोर्टों के हवाले दिए जाते हैं। फ़ाइव इयर प्लान पर हाथ रखकर हलफ़ उठाये जाते हैं। आंकड़े और रिपोर्टें अपनी जगह, मगर माफ़ कीजिये, क़ारूरा कुछ और कहता है!
चिकित्सा और उपचार को पहले दिन से पेशा कम और मिशन ज़्यादा माना जाता रहा है। चलिए सैद्धांतिक रूप से ही सही। लेकिन चिकित्सा पर ही बात समाप्त नहीं होती, व्यावहारिक रूप से हर पेशे के लक्ष्य और मूल्य बहुत बदल गए हैं। अब किसी भी पेशे का पहला और आला मक़सद बयान करने के लिए सिर्फ़ ‘पेशे’ के ‘प’ अक्षर पर ‘ऐ’ की मात्रा लगाकर इसके निकम्मे अक्षर ‘श’ को ‘स’ से बदल देना पड़ेगा! अक्सर ख़याल आता है, क्या यह मुमकिन नहीं कि डॉक्टरों का एक Time Bank हो जिसमें हर डॉक्टर एक सुनिश्चित व निर्धारित ‘समय’ का दान दे। हफ़्ते में एक दिन सही, एक घंटा भी बहुत होगा। एक केन्द्रीय संस्था इस दान और स्वैक्षिक सेवाओं को एक सुनियोजित शिड्यूल`के अंतर्गत संगठित रूप दे सकती है जो ग़रीब और निराश्रित मरीज़ों के इलाज-उपचार की मुफ़्त सुविधाओं की ज़मानत ले।
सफल व सौभाग्शाली लोगों की दो क़िस्में हैं। दुनिया से कुछ लेने वाले और दुनिया को कुछ देने वाले। जब एक दिन अचानक उम्र की नक़दी, बक़ौल इब्न-ए-इंशा, ख़त्म हो जाएगी, धड़कन-धड़कन कूच नगाड़ा बाजेगा और बंजारा लाद चलेगा, तो उसे सुपुर्द-ए-ख़ाक करने वाले यह नहीं देखेंगे कि इस दुनिया से क्या कुछ लिया। सवाल यह होगा दुनिया को क्या देके जा रहा है। उस दिन लेने वाला टोटा घाटा पाएगा और देने वाला सफल होगा। आख़िर एक छोटा सा बीज दुनिया से क्या लेता है? यही मिट्टी, पानी और हवा जो समस्त अजैविक पदार्थों व वनस्पतियों को भी उपलब्ध है, और गंदी व बदबूदार खाद जिससे घिन आती है। मगर वह देता क्या है? वह फूल बनकर मिट्टी का सारा क़र्ज़—-रंग, ख़ुशबू, हरियाली और फूलों की मुस्कान के रूप में लौटा देता है। ख़ुद मिटकर सैकड़ों बीजों को जन्म देता है। उसका एक-एक बीज अपने गर्भ में कई सौ हज़ार फूलों और चमनों को जन्म देने की क्षमता रखता है।
कैसे ख़ुशनसीब हैं वे लोग जो दुःख की इस घाटी में चमन सजाने और उन्हें सींचने का प्रबंध करते हैं। हमारे यहाँ हर बच्चा डॉक्टर बनने और दुखी मानवता की सेवा करने का सपना देखता है। मैं भी यह सपना देखा करता था। पर मैं भटककर चौथी दिशा में निकल गया जहाँ ज़रा क़दम या नज़र चूक जाए तो आँख और दिल पत्थर के हो जाते हैं। मैं ख़्वार व ख़राब व ख़स्ता होने और इज़्ज़त गँवाने के लिए सूदखोरों की गली में जा निकला। पर मेरे अन्दर अब भी जो बच्चा वक़्त-बे-वक़्त बचपन के खिलौने के लिए मचलता है, वह आपको रश्क भरी नज़रों से देखता है। अपनी सुन्दर सेवाओं से दुःख और दर्द को अपनी आँखों के सामने दूर होते देखना बड़े सम्मान, सदाचार और सौभाग्य की बात है। जो शान्ति, संतुष्टि और ख़ुशी मर्ज़ और दर्द को दूर करने और दिलजोई और रोग-निवारण का माध्यम बनने में चिकित्सक को मिलती है, उसका अंदाज़ा कुछ आप ही लगा सकते हैं, कि जो बात मेरे लिए अनुमान और आकलन है वह आपका अनुभव है। जहाँ तक याद पड़ता है, यह कथन हज़रत शाह वलीउल्लाह से संबद्ध किया जाता है कि किसी ने उनसे सवाल किया कि पैग़म्बरों की मनोदशा क्या होती है? फ़रमाया कि जब तुम किसी की हाजतपूर्ति करते हो, या किसी का दुःख दूर कर देते हो तो कुछ क्षणों के लिए तुम्हें एक अजीब सी मस्ती और दिल में एक असीम फैलाव महसूस होता है, तो यूँ समझो कि वैसी ही मनोदशा पग़म्बरों पर हर समय रहती है। कैसे सौभाग्यशाली और गौरवमयी हैं वे लोग जिनको इस मनोदशा का हज़ारवाँ हिस्सा कुछ पल के लिए भी नसीब हो जाए।
एक शेर जो सुनाना चाहता हूँ वह पुराना है। किसी उस्ताद का है और नासिहाना (उपदेशात्मक) है। इसलिए बेमन से सुनाया और बेध्यानी से सुना जाता है, जिससे इस संदेह को शक्ति मिलती है कि ज़रूर कोई काम की बात कही होगी तो आप भी सुनिए:
दर्द-ए-दिल के वास्ते पैदा किया इंसान को
वरना ताअत के लिए कुछ कम न थे कर्रूबियाँ 7
प्रेम, कष्ट-निवारण, कृपा और करुणा वो ईश्वरीय गुण हैं जो रहमान व रहीम ख़ुदा ने बन्दों को प्रदान किए हैं। यही ईश्वरीय गुण मानवता की गरिमा व प्रतिष्ठा और समस्त सृष्टि की आत्मा का अक्स हैं। यह वह आत्मा है जो हर दर्द व कष्ट व विपदा में इंसान की शरीक व साझीदार है। कहीं एक बूँद रक्त की नहीं गिरती और कोई आँसूं आँख से नहीं टपकता जिसमें यह अभिकंपित न हो। यह हर सुकरात के साथ ज़हर पीती है और ईसा व मंसूर और सरमद के साथ सूली पर चढ़ती है। यह इब्राहीम का सपना भी है और छुरी भी और इस्माइल का गला भी और जब कहीं मैदान-ए-कर्बला में हुसैन की गर्दन पर तलवार चलती है तो यह शहीद भी होती है और अमर भी रहती है कि यह मौत के स्वाद से परिचित भी है और इसको मृत्यु भी नहीं। आदमी उस समय तक इंसान और इंसान उस समय तक सर्वश्रेष्ठ प्राणी नहीं कहलाया जा सकता जब तक वह दूसरों के दुःख न अपना ले। दुःख चाहे शारीरिक हो, चाहे मानसिक, सामाजिक हो या आर्थिक, व्यक्तिगत हो या सामूहिक, उससे सुरक्षा और उसका निवारण धार्मिक कर्तव्य के समान है और उससे गफ़लत महापाप है। क़ुरान पाक में रब फ़रमाता है कि हमने इस्राइली लोगों के लिए यह फ़रमान लिख दिया था कि जिसने किसी मनुष्य की हत्या की, उसने मानो तमाम मनुष्यों की हत्या करदी और जिसने किसी को जीवन प्रदान किया उसने मानो तमाम मनुष्यों को जीवन प्रदान किया।
पाक परवरदिगार से हाथ उठाकर दुआ करता हूँ कि आपके दर्द-ए-दिल को और तेज़ करदे और आपके हाथों की शिफ़ा (रोगमुक्ति) और प्रवीणता को सस्ता व सुलभ बनादे। आमीन।

(अनुवादक : डॉ. आफ़ताब अहमद
वरिष्ठ व्याख्याता, हिंदी-उर्दू, कोलंबिया विश्वविद्यालय, न्यूयॉर्क)

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