समकालीन जनमत
पुस्तक

कमला सिंघवी की किताब ‘दाम्पत्य के दायरे’ के बहाने कुछ बातें

निकिता


हाल ही में मैंने “कमला सिंघवी” की पुस्तक “दाम्पत्य के दायरे” पढ़ा, जिसे पढ़ते समय एक स्थान पर बैठे हुए ही मानो मैंने एक किताब की यात्रा के साथ ही अनेक किताबों की यात्रा करते हुए; तमाम ऐसी चीजों को जाना और कुछ हद तक उन चीजों को समझने की कोशिश (चीजों की तुलना, दूसरे कुछ हद तक स्वतंत्र पुस्तकों से) भी की जिससे मैं मिली तो जरुर थी पर मेरी मुक्कमल पहचान अभी तक उन तमाम चीजों से नहीं हो सकी थी, और आज जब इस पुस्तक को पढ़ते हुए मैंने उन तथ्यों को अपने करीब पाया तो कुछ चीजें तो स्वाभाविक लगीं पर कुछ चीजों पर कमला जी के जो विचार थे, ख़ासकर एक आधुनिक स्वतंत्र स्त्री के तौर पर वह मुझे कुछ खिन्न से कर गये; और चूंकि मैं भी एक स्त्री हूँ, शायद इसलिए तमाम सवालों से घिरी मैं स्वयं को एक अपराधी सी महसूस कर रही हूँ, और साथ ही यह भी महसूस कर रही कि एक स्त्री जब पुरुषवादी मानसिकता की हो जाती है तो सामने बैठी एक दूसरी स्त्री के लिए यह क्षण या विचार कितना भयावह हो जाता है।

अगर हम इस पुस्तक “दाम्पत्य के दायरे” के रचनाकाल या रचे जाने वाले समय या परिस्थिति पर ध्यान दें तो इसका प्रकाशन 1975 में हुआ। 70 के दशक में जहाँ भारत की राजनीतिक स्थिति में एक भारी उलटफेर चल रहा था वहीं अगर साहित्यिक स्थिति को देखते हुए स्त्री विमर्श की बात करें तो वह औपचारिक रूप से 70 के बाद ही भारतीय साहित्य में आता है। साथ ही औपचारिकता को दरकिनार कर यदि सूक्ष्म दृष्टि से देखें तो स्त्री विमर्श या स्त्रीवाद में जिन दो महान पुस्तकों, जिनमें ‘महादेवी वर्मा’ की “श्रृंखला की कड़ियां”(1942) व ‘सिमोन द बोउवार’ का “द सेकेंड सेक्स”(1949) को आज भी स्त्रीवाद में आधारस्वरूप ग्रहण किया जाता है, आ चुकी थी। ये दोनों ही पुस्तकें स्त्री के प्रारंभ से चले आ रहे वास्तविक स्थिति को बड़े ही तार्किक रूप से दर्शातें हैं जो निःसंदेह दयनीय थी। महादेवी वर्मा व ‘सिमोन द बोउवार’ ने यद्यपि क्रांतिकारी कृति का सृजन किया पर दोनों में ही यह समानता मिलेगी कि प्रारंभ में दोनों ने ही खुद को किसी भी वाद और विमर्श के केन्द्र में नहीं माना। हाँ, बाद में जाकर ‘सिमोन’ ने जरुर खुद को स्वतंत्र रुप से स्त्रीवादी घोषित किया पर ‘महादेवी’ तो इससे भी दूर ही रहीं। तो इन दो महान रचनाओं में जो भी यथार्थ चित्रण हुआ है, वह स्त्री व समाज दोनों के लिए ही सामंजस्य की स्थिति की माँग करती है, कहीं भी एकतरफा बात इनके यहाँ नहीं मिलेगी, अगर वो स्त्री के दयनीय स्थिति की बात करतीं हैं तो उसमें सुधार के लिए समाधान भी बताती चलती हैं। समाधान यह कि उनकी इस स्थिति में पुरुषों का कहाँ तक हाथ रहा है साथ ही उसे सुधारने के लिए उन्हें अब कितने कार्य या व्यवहारिक परिवर्तन करने होंगे।
जिसमें हम महादेवी का कथन पढ़ सकते हैं-” समाज में पूर्ण स्वतंत्र तो कोई हो ही नहीं सकता, क्योंकि सापेक्षता ही सामाजिक सम्बन्ध का मूल है।
प्रत्येक व्यक्ति उसी मात्रा में दूसरों पर निर्भर है, जिस मात्रा में दूसरा उसकी अपेक्षा रखता है। पुरुष -स्त्री भी इसी अर्थ में अपने विकास के लिए एक-दूसरे के सहयोग की अपेक्षा रखते हैं, इसमें संदेह नहीं।”
(श्रृंखला की कड़ियाँ, पृष्ठ संख्या-103)

साथ ही ‘सिमोन’ की पुस्तक के विषय में जब प्रभा खेतान कहतीं हैं कि “सिमोन की इस पुस्तक में सिद्धांत एवं तथ्य के अलावा और भी बहुत कुछ ऐसा आत्मीय है, जो हमें भावनात्मक रूप से झकझोरता है। लेखक और पाठक के बीच आत्मीयता बढ़ती चली जाती है; लगता है कि सिमोन हमारी माँ, बहन य बड़ी गहरी दोस्त हैं जिनकी गोद में कभी मुँह छिपाकर हम रोएं और जो हमारा दर्द और हमारी परेशानी सबकुछ समझती हैं।”
(“स्त्री उपेक्षिता।”)
‘प्रभा खेतान’ के इस कथन को हम महसूस भी करते हैं कि जब भी हम सिमोन को पढ़ने लगते हैं तो मानो हमारी ही स्थिति का वर्णन वे गहनता के साथ कर रहीं हैं, जिसमें वे हमारी गार्जियन की तरह हमें हमारी समस्या का समाधान भी बताती चलतीं हैं।
वहीं कमला जी की इस किताब को पढ़ते हुए जब उनसे पहले की इन महिमा साहित्यकारों के विषय में हम स्मरण करते हैं तो यह स्पष्ट हो जाता है कि कमला सिंघवी जी, जिन्होंने दिल्ली में अपनी हायर की पढ़ाई पूरी की और बाद के कुछ दिनों तक लंदन में भी रहीं; उनके विचार का इतना संकीर्ण होना य यूँ कहें कि केवल और केवल स्त्री को हिदायत देना जो कि पारम्परिक ढर्रा लिए हुए था उनके पुरुषवादी मानसिकता को ही दर्शाता है जो सोचनीय है। महादेवी व सिमोन ने स्त्री के मनोवैज्ञानिक व हृदय के संवेदनशील भावों का तार्किक विश्लेषण करते हुए, पुरुषों को जो वर्षों से चले आ रहे पारम्परिक संकीर्णता में फँसे हुए थे और स्त्री के साथ ही समाज को भी विकृति की ओर निरन्तर अग्रसर कर रहे थे, उनको स्त्री की योग्यता व महत्व को बताते हुए उनके सामंजस्य की बात की तो वहीं कमला जी में एक सामन्त वादी विचार सा दिखाई पड़ता है, जिसमें वो खुद तो लंदन में हैं, और वहीं से भारतीय स्त्री के बारे में लिखते हुए उन बातों का दृढ़ता से समर्थन कर रहीं हैं जिन्हें बदलना चाहिए या जिन्हें बदलने के लिए आधुनिक स्त्रियाँ जूझ रहीं हैं, खैर!

कभी-कभी तो लगता है कि आज के समाज में जहाँ अधिकांश स्त्रियाँ अपनी वास्तविक स्थिति से अवगत होते हुए, अपनी पूरी शक्ति के साथ पुरुष-सत्तात्मक विचार व समाज से लगातार जूझते हुए लड़ रहीं हैं, वहीं उनके ही तमाम क्षेत्रों से जुड़ी कुछ स्त्रियाँ ऐसी भी हैं, जो उनको सहयोग प्रदान करने की अपेक्षा य उनके साथ खड़ी होने की अपेक्षा, उन्हें हतोत्साहित करते हुए निरन्तर पीछे की ओर घसीटना चाह रहीं हैं। जहाँ एक तरफ एक स्त्री वर्ग अपने अधिकारों के आधार पर कई क्षेत्रों में सक्रिय है और रहते हुए कुछ भिन्न व सशक्त करना चाह रही हैं, वहीं ठीक उनके सामने वाली पंक्ति में कुछ स्त्रियाँ, जो कि वास्तव में पूर्णतः पुरुषवादी मानसिकता से ग्रसित हैं, तमाम पुरुषवादी मानसिकता से ग्रसित पुरुषों के साथ उनको हतोत्साहित करने की निरन्तर साज़िश कर रही हैं; इस चीज़ को महसूस करना ही कितना दुखदाई है।

पुरुषवादी महिलाओं को तो यह भी ज्ञात नहीं है कि वो वास्तव में जिस जगह हैं, जिस जगह को वह अपने लिए सुरक्षित व सशक्त मान रहीं हैं वह वास्तव में दूषित और रुढिग्रस्त जगह है, उनके साथ जो पुरुष उठ बैठ रहे हैं, जो उन स्त्रियों की पुरुषवादी बातों में हाँ में हाँ मिला रहें हैं वह एक विशद षड्यंत्र है जो कि तमाम स्त्रियों द्वारा निरन्तर लड़े जा रहे स्त्रियों के हक की लड़ाई में भविष्य में उनकी गहरी हार का कारण हो सकती है।

खैर, कमला जी की पुस्तक एक बहुत ही स्वाभाविक और महत्वपूर्ण विषय को लेकर आरंभ होती है।
“विवाह की संस्था क्यों जरूरी है?”
यह पढ़कर ही रोचक लगा और लगा कि अगर कोई स्त्री इस बात को लिखने जा रही है तो जरूर कुछ भिन्न और महत्वपूर्ण होगा, पर धारणा वही पारम्परिक ही रही, खैर!

इसमें उन्होंने मनोवैज्ञानिक, सामाजिक व सांस्कृतिकता के जो कारण बताए वह उनके समय के बिल्कुल अनुकूल कहा जा सकता है, और आज जब हम बात करें पुरुषवादी स्त्रियों की तो उनके भी साँचे में लगभग फिट हो ही जाना चाहिए।
पर जैसा कि मैं मूल्यांकन 2021 में एक स्वतंत्र स्त्री के तौर पर कर रही हूँ तो मैं यह कहना चाहूंगी कि कमला जी ने अपने वैयक्तिक अनुभवों (जो कि उनके अपने दृष्टिकोण से बेशक सफल हो सकते हैं) के आधार पर हम तमाम स्त्रियों के साथ अन्याय किया है; क्योंकि, उन्होंने अप्रत्यक्ष रूप से यह कहना चाहा है कि स्त्री यदि अपने विषय में सोच रही है, या इतनी पढ़ाई-लिखाई के बाद यदि वह अपने योग्य अपने जीवन का चुनाव करना चाह रही है तो यह पाश्चात्य संस्कृति का दुष्प्रभाव है, जो आज नहीं तो कल हमारे समाज को ध्वस्त कर देगा। वे विवाह को समाज के यंत्र को चलाने की अनिवार्य उपकरण मानती हैं; यानी जहाँ तमाम आधुनिक स्त्रियाँ इस बात को स्वीकार करते हुए कि 100% में से 90% प्रेमी, जिसके साथ वो वर्षों से रहती हुईं आ रहीं हैं, जिससे सम्भवतः भविष्य में वो विवाह भी करें, वो पुरुष यौन सम्बन्ध को बनाना (विवाह के पहले ही) उनसे (प्रेमिकाओं) या विवाह से अधिक महत्वपूर्ण मानते हैं और स्त्रियों की इस बात पर असहमति से वो उनको छोड़ देने की धमकी देते हैं, या कइयों ने तो उन्हें छोड़कर अन्य स्त्रियों से सम्पर्क बनाना बड़े ही आसानी से स्वीकार भी कर लिया; ऐसे में कमला जी का विवाह के लिए विशेषकर स्त्रियों को जो हिदायत दी गई है वह आज की स्त्रियों के लिए जहाँ एक तरफ़ दुखद है वहीं दूसरी ओर सोचनीय भी कि जहाँ हम युवा स्त्रियों को पढ़ने की, सोचने की छूट मिली है वहाँ विवाह जैसे महत्वपूर्ण बिंदु के लिए ऐसी कमेटमेंट कि अगर वो विवाह नहीं कर रहीं हैं या विवाहोपरान्त कलह कर रहीं (अधिकारों के लिए आवाज़ उठाना, तलाक़ की माँग करना) तो यह पश्चिमी सभ्यता का दुष्प्रभाव है; एक स्त्री के द्वारा तमाम स्त्रियों के लिए तकलीफदेह ही है।

इस पुस्तक के क्रम-सूची को देखते हुए मुझे हँसी भी आ रही है साथ ही एक भीतरी पीड़ा का भी अनुभव मैं निरन्तर कर रही हूँ। इन तमाम बिन्दुओं में इस बात पर ज़ोर दिये जाने का प्रयास है कि चाहे प्रेमिका हो या पत्नी, अपने गृहस्थ रूप में हो या छात्र जीवन में जी रही अभी-अभी पुष्पित पल्लवित युवा स्त्री उन्हें पूर्णतः पुरुषों को समर्पित रहना चाहिए, बिना किसी सवाल-जवाब के बिना किसी शर्त के। क्योंकि अगर वो सवाल करती हैं तो सम्भव है कि कलह हो और कलह होगा तो प्रेम के क्षण जो उसके प्रेमी के लिए बहुत ही बहुमूल्य हैं वह कटुता में बदल जाएगी जो सही नहीं होगा।
साथ ही पति या प्रेमी के सामने आने के लिए उन्हें अपने सौन्दर्य को निखारने का भरसक प्रयास करना चाहिए; जिसके लिए उन्हें अपने शारीरिक बनावट पर ध्यान देना होगा कि कहीं अधिक चर्बी न हो जाए, कपड़ों के बनावट में एक आकर्षण हो, चेहरे की सुंदरता के लिए उपयुक्त भोजन के साथ योगा आदि पर विशेष ध्यान दिया जाना चाहिए और भी बहुत बहुत बातें कमला जी ने अपने पुस्तक में बहुत ही विस्तार से रखने का प्रयास किया है जिसे पढ़ते चले जाइए, चले जाइए आपको सब जगह स्त्रियों के लिए लंबी चौड़ी हिदायत मिल जाएगी पर अफसोस, पुरुष के लिए एक शब्द नहीं, पुरुष अपने रिश्ते को किसी तरह बचाए, पुरुष अपने दाम्पत्य जीवन में खुशियाँ लाने के लिए अपने किन-किन चीजों से समझौता करे (स्त्रियों के लिए काफी लम्बा चिट्ठा है) अपने सौन्दर्य को अपनी पत्नी के लिए कैसे निखारे कि उनमें पहले जैसा प्यार बना रहे या पुरुष अपनी पत्नियों या प्रेमिकाओं के लिए किन-किन बातों का ध्यान दें कि कौन सी बातें हैं जो एक भावनात्मक रुप से कमज़ोर स्त्री को दुखित कर सकती है, तमाम बातें जो एक खुशहाल दाम्पत्य जीवन में स्त्री-पुरुष दोनों को ही ध्यान में रखना जरुरी होता है, में कमला जी; एक पक्ष, पुरुष पक्ष जिस पर अभी बहुत काम करना बाकी है, पर एकदम मौन रहीं, यह बात एक स्त्री लेखिका के तौर पर ज़रा सोचनीय है।

हमारा जीवन छोटी-छोटी चीजों से मिलकर बनी है, उसमें छोटे-छोटे दुःख हैं छोटे-छोटे सुख हैं। अब इनके बीच अगर हम बात दाम्पत्य की कर ही रहे हैं तो हमें दोनों पक्षों को बराबरी के पल्ले पर रखकर परखना होगा जहाँ न कोई छोटा हो न ही कोई बड़ा। जहाँ ऐसा वातावरण हो कि किसी को भी किसी के लिए झूठा प्रपंच (सौन्दर्य का झूठा प्रदर्शन, जिसके लिए कमला सिंघवी ने अपने पुस्तक में कई जगह स्त्रियों को बढ़िया से सचेत किया है) न रचना पड़े, भले ही यह प्रपंच सामने वाले को खुश रखने के लिए ही क्यों न हो। सबकुछ एकदम सत्य एवं साफ होना चाहिए, और आज के समय में ऐसे ही स्पष्ट रिश्ते की आवश्यकता है, तभी वह चल पाएगा, ठहर पाएगा और तो और दंपत्ति एक-दूसरे के साथ सचमुच में खुश रह पाएंगे।

कमला जी जिस समर्पण व एकनिष्ठता की बात अपने पुस्तक में करतीं हैं (जहाँ उन्होंने स्त्री को पति के लिए पत्नी के साथ प्रेमिका भी बनने की बात कही है, मुझे लगता है यह पूरी तरह रीतिकालीन धारणा है, जहाँ वो स्त्री के पत्नी के साथ साथी के जगह पर प्रेमिका बनने के लिए बल देती हैं, ताकि पुरुष की यौन सम्बन्धी रुचि को वह सभी अर्थों में पूरा कर सकें) उसमें भी तर्क यह होना चाहिए कि क्या सच में सामने वाला व्यक्ति; कमला जी ने तो विशेषतः पुरुषों के लिए ही कहा है; पर मेरे अनुसार स्त्री-पुरुष दोनों ही, समर्पण के इस भाव के योग्य हैं भी या नहीं, अगर हैं तब तो कहने या किसी की सुनने की आवश्यकता ही नहीं होनी चाहिए और यदि नहीं भी हैं तो उन दोनों को एक-दूसरे पर उस योग्य बनाने के लिए कार्य करना पड़ेगा कि जिसमें स्वाभाविक रूप से समर्पित हुआ जा सके ; दोनों ही एक-दूसरे को समझते हुए उनमें सुधार करने को प्राथमिकता दें यही इस रिश्ते की सच्चाई होनी चाहिए बाकि तो फैंटसी है जिसमें घूमते हुए व्यक्ति बिखरता ही जाएगा और अन्ततः अपने ही गढ़े आदर्श में अपने को अनफिट पाकर कुंठाग्रस्त हो जाएगा, जो एक दम्पत्ति के लिए क्या किसी भी व्यक्ति के लिए श्रेयस्कर नहीं होगा। इसलिए, “दाम्पत्य के दायरे” को एक निश्चित और कुंठित दायरे से बाहर निकालकर हमें उसपर बहुत सारे काम करते हुए उसे थोड़ी व्यापकता देनी होगी। दाम्पत्य के दायरों को एक खुला आसमान देना होगा जहाँ दोनों युगल अपने अपने सत्य के साथ एक साथ उड़ सकें जिसमें आदर्श से अधिक यथार्थ हो और उस यथार्थ को स्वीकार करने की दोनों में क्षमता और तब उनकी यह उड़ान चिरस्थाई हो सकेगी और चिरस्थाई चीजें स्वाभाविक रूप से समय माँगतीं हैं।

(निकिता महादेवी वर्मा स्मृति महिला पुस्तकालय से जुड़ी रही हैं और अभी बीएचयू में एम ए की छात्रा हैं।)

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