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भारत की फिलिस्तीन नीति में निरंतर परिवर्तन

स्टैनली जॉनी

भारत ऐतिहासिक रूप से फिलिस्तीनी हितों का प्रबल समर्थक रहा है। और पिछले तीन दशकों में, जब इज़राइल के साथ भारत के संबंध परवान चढ़ रहे थे तब भी भारत ने अपने इस नए सहभागी और फिलिस्तीन के प्रति वचनबद्धता, दोनों के मध्य संतुलन बनाए रखा। हालिया सालों में एक सवाल उठ खड़ा हुआ है कि क्या भारत अब वह संतुलन तोड़ रहा है और वह तुला पश्चिम एशिया में, जहां अरब देश भी फिलिस्तीन के सवाल को दरकिनार करके इज़राइल के साथ अपने द्विपक्षीय सम्बन्धों को सुधारने के लिए तैयार हो रहे हैं, इस बदलते हुए यहूदी राष्ट्र की ओर झुक रही है।

इज़राइल पर 7 अक्तूबर को हुए हमास के हमले के तुरंत बाद, जिसमें कम से कम 1200 लोगों की मौत हो गई थी, उनमें से भी ज़्यादातर सिविलियन थे, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने ‘एक्स’ पर एक पोस्ट में कहा था कि इस आतंकवादी हमले की खबर ने उन्हें अंदर से हिला दिया है। उन्होंने आगे कहा था कि इस संकट की घड़ी में हम इज़राइल के साथ एकजुटता से खड़े हैं।

मोदी जी 2017 में इज़राइल का दौरा करनेवाले पहले भारतीय प्रधानमंत्री हैं जिनकी इज़राइली प्रधानमंत्री नेतनयाहू से गहरी छनती है। मोदी जी के समर्थक और भारतीय जनता पार्टी, इज़राइल के उग्र सुरक्षा मॉडल के प्रति अपनी भावमुग्धता को कभी नहीं छुपाते। हमास के हमले के बमुश्किल तीन हफ्ते के भीतर 26 अक्तूबर को गाज़ा में “तुरंत, स्थायी और दीर्घकालिक युद्धबंदी” को लेकर संयुक्त राष्ट्र महासभा की बैठक से भारत ने खुद को अलग कर लिया था। भारत ने अपने इस कदम का बचाव यह कह कर किया था कि इस बैठक के प्रस्ताव में 7 अक्तूबर के “आतंकवादी हमले की सुस्पष्ट निंदा” नहीं की गई थी। इन सब तथ्यों से तो यही निष्कर्ष निकलता है कि फिलिस्तीन के प्रति भारत की ऐतिहासिक नीति में प्रकारन्तर से विचलन हो रहा है।

समझ का विकास

भारत की फिलिस्तीनी नीति का वर्षों में क्रमबद्ध विकास हुआ है। जब नवंबर 1947 में संयुक्त राष्ट्र महासभा में फिलिस्तीन का एक यहूदी राष्ट्र, एक अरब राष्ट्र और एक अंतर्राष्ट्रीय शहर जेरूसलम में विभाजन का प्रस्ताव पारित किया गया उस समय भारत, पाकिस्तान और अरब देशों ने मिलकर उस प्रस्ताव के विरोध में मतदान किया था। प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने ऐतिहासिक फिलिस्तीन में अधिवासी जियोनियों की तुलना अविभाजित भारत के मुस्लिम लीग से की थी। उनका कथन था कि चूंकि भारत विभाजन के गंभीर दंश से गुजर चुका है इसलिए उसे फिलिस्तीन के विभाजन का कभी समर्थन नहीं करना चाहिए। लेकिन जब मई 1948 में इज़राइल की घोषणा कर दी गई तो भारत ने तुरंत व्यावहारिक रुख अपना लिया: 1950 में इज़राइल को मान्यता तो दे दी गई लेकिन उससे पूर्ण कूटनीतिक संबंध स्थापित करने से परहेज किया गया। पूरे शीतयुद्ध के दौरान, तृतीय विश्व की स्वायत्तता का पक्षधर, भारत फिलिस्तीनी हितों का सबसे मुखर समर्थक बना रहा।

1992 में इज़राइल के साथ पूर्ण कूटनीतिक संबंध स्थापित हो जाने के बाद नई दिल्ली और तेल अवीव के बीच द्विपक्षीय संबंध गहरे और उदार होने लगे (आज इज़राइल भारत के प्रमुख सुरक्षा और तकनीकी सहयोगियों में से एक है)। परंतु भारत सार्वजनिक रूप से “आपसी बातचीत से कोई ऐसा हल पाने का समर्थक है जिसके नतीजे में एक सर्व-संप्रभुता सम्पन्न, स्वतंत्र, व्यावहारिक और संयुक्त फिलिस्तीनी राष्ट्र की अवधारणा मूर्त हो सके जिसकी राजधानी पूर्व जेरूसलम हो, उसकी सीमाएं सुरक्षित और मान्यताप्राप्त हों, साथ ही साथ इज़राइल से उसके संबंध शांतिपूर्ण हों, ठीक वैसा ही जैसा अरब पीस इनिशिएटिव, द क्वार्ट्रेट रोडमैप और इसी प्रकार के संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के विभिन्न प्रस्तावों में वर्णित है” – इसका अर्थ यह है कि भारत ने हमेशा एक ऐसे फिलिस्तीनी राष्ट्र के सृजन का समर्थन किया है जिसकी राजधानी पूर्व जेरूसलम हो और वह 1967 की सीमाओं पर आधारित हो।

मोदी जी के प्रधानमंत्री बनने के बाद से इस स्थिति में और विकास हुआ है। फरवरी 2018 में जब उन्होंने वेस्ट बैंक के रामुल्ला का दौरा किया था तो उन्होंने  इस संकट का स्थायी समाधान ढूँढने के लिए आपसी बातचीत का आह्वान किया था लेकिन जेरूसलम या सीमाओं को लेकर कुछ कहने से बचते रहे। इसका यह अर्थ नहीं होता कि भारत इज़राइल के पूरे जेरूसलम पर दावे का समर्थन करता है (नई दिल्ली ने जेरूसलम को इज़राइल की राजधानी के रूप में मान्यता देने के अमेरिकी निर्णय के खिलाफ मत दिया था) लेकिन वह राजधानी और सीमाओं और ऐसे ही उलझे हुए मुद्दों पर कुछ भी नहीं कहता, पर वह इज़राइल और उसके द्विराष्ट्र के हल का समर्थक है। भारत की फिलिस्तीनी नीति के नैतिक तत्वों को व्यावहारिक राजनीति ने दरकिनार कर दिया है।

7 अक्तूबर के बाद

7 अक्तूबर के बाद संयुक्त राष्ट्र में भारत के वोट देने रेकॉर्ड और समय-समय पर दिये गए विदेश मंत्रलाय के बयानों के गहन विश्लेषण से ज्ञात होता है कि संतुलन बनाए रखने की इस स्थिति में अभी तक तो कोई बदलाव नहीं आया है। वह न तो इज़राइल के युद्ध के तौर-तरीकों का ब्राज़ील या दक्षिण अफ्रीका जैसा प्रबल आलोचक है और न ही अमेरिका या ब्रिटेन जैसा मूक-दर्शक या उसका समर्थक ही है।

“आतंकी हमले” इज़राइल के साथ एकजुटता व्यक्त किए जाने वाले मोदी के ट्वीट के बाद ही विदेश मंत्रलाय का बयान आया था कि भारत “एक सर्व-संप्रभुता सम्पन्न, स्वतंत्र, व्यावहारिक और संयुक्त फिलिस्तीनी राष्ट्र” का हामी है। पहली बार तटस्थ रहने के बाद से भारत ने कम से कम चार बार संयुक्त राष्ट्र महासभा में इज़राइल के मसले पर वोट दिया है।

12 नवंबर 2023 को भारत ने उस प्रस्ताव के पक्ष में मतदान किया था जिसमें “फिलिस्तीन के पूर्व जेरूसलम और गोलन पहाड़ियों समेत अन्य कब्जा किए गए क्षेत्रों में इज़राइली बस्तियाँ बसाने” के निंदा-प्रस्ताव को पारित किया गया था। दो हफ्ते बाद नई दिल्ली ने एक दूसरे प्रस्ताव के भी पक्ष में मतदान किया था जिसमें सीरिया की गोलन हाइट्स पर इज़राइल के बढ़ते कब्जे पर “गंभीर चिंता” व्यक्त की गई थी। 12 दिसंबर को भारत ने “मानवीय आधारों पर तुरंत युद्ध बंद करने” के प्रस्ताव का समर्थन किया था। और 19 दिसंबर को इसने फिलिस्तीनियों के आत्मनिर्णय के अधिकार का समर्थन किया था।

वोटिंग रेकॉर्ड साफ-साफ बोलते हैं। फिलिस्तीनी क्षेत्रों में इज़राइली बस्तियाँ बसती रहीं तो द्विराष्ट्र हल की भी कोई गुंजाइश नहीं है। और यदि कोई हल संभव है तो वह है कूटनीति न कि युद्ध क्योंकि पश्चिम एशिया के इस सर्वशक्तिमान सैन्यबल इज़राइल और फिलिस्तीनी लड़ाकुओं के बीच कोई शक्ति-संतुलन है ही नहीं। तो लब्बोलुवाब यह है कि यदि कोई द्विराष्ट्र हल का समर्थन करता है तो तत्काल प्रभाव से हिंसा को बंद करना होगा, आपसी बातचीत का समर्थन करना होगा, बस्तियाँ बसाने की निंदा करनी होगी और सिद्धान्त रूप में फिलिस्तीनियों के आत्मनिर्णय के अधिकार का समर्थन करना होगा। भारत ने अमेरिका के उलट, जो संयुक्त राष्ट्र के समस्त प्रस्तावों के विरुद्ध मतदान करता है और युद्धबंदी के आह्वान का समर्थन नहीं करता, यही किया है।

भारत के हित

फिलिस्तीनी हितों का बहुत मामूली समर्थन भी वास्तविक राष्ट्रीय हितों की जड़ों में है। गाज़ा जारी इज़राइली नरसंहार, जिसमें 30,000 से ज्यादा मौतें हो चुकी हैं, लगभग 70,000 लोग घायल हैं और गाज़ा की 23 लाख की आबादी में से लगभग 90% लोग बेघर हो चुके हैं, 21वीं सदी की सबसे भीषण त्रासदियों में से एक है। अपने क्रूर व्यवहार के बावजूद इज़राइल अंतर्राष्ट्रीय क़ानूनों और व्यवस्था के ताप से केवल इसलिए बचा हुआ है कि उसे अमेरिका का बिलाशर्त समर्थन प्राप्त है। लेकिन फिलिस्तीनी ज़िंदगियों और अंतर्राष्ट्रीय क़ानूनों से बेपरवाह इज़राइल और तेल अवीव को अमेरिका के समर्थन ने दक्षिणी विश्व में कठोर प्रतिक्रिया को दावत दे दी है। दक्षिण अफ्रीका ने इज़राइल को अंतर्राष्ट्रीय न्यायालय में घसीट लिया है, ब्राज़ील के राष्ट्रपति लुइज़ इनैशिओ लूला डी सिल्वा ने इज़राइल पर गाज़ा में नरसंहार का अपराध करने का आरोप लगाया है। चीन ने बार-बार युद्धबंदी की गुहार लगाई है, और रूस हमास सहित विभिन्न फिलिस्तीनी घटकों को अपने यहाँ बुला रहा है।

दक्षिणी विश्व की अगुवाई की चाहत रखनेवाला भारत इन आवाज़ों और एहसासों की उपेक्षा नहीं कर सकता। इसीलिए विदेशमंत्री एस0जयशंकर ने पिछले महीने म्यूनिख सुरक्षा सम्मेलन में कहा था कि इज़राइल को “गाज़ा में नागरिकों के साथ होनेवाले हादसों के बारे में पहले ही सोचना चाहिए था और अभी भी सोचना ही चाहिए”, और यह इज़राइली युद्ध को लेकर भारत की अभी तक की सबसे तल्ख टिप्पणी है।

7 अक्तूबर के हमले और उसके बाद इज़राइल की बदले की कार्रवाई ने भी इस क्षेत्र में युद्ध की गति उलट दी है। 7 अक्तूबर के पहले भारत अपने अरब, इज़राइली और अमेरिकी सहयोगियों के साथ मिलकर ‘अब्राहम समझौते’ को सामरिक वास्तविकता बनाने की दिशा में तैयारी कर रहा था। लेकिन अब अरब-इज़राइल समस्या के समाधान का काम मुल्तवी कर दिया गया है। अमेरिका की छवि भी इज़राइल की तरह ही दागदार हो गई है। यदि सऊदी-इज़राइली संबंध सामान्य नहीं होते तो भारत-मध्यपूर्व-यूरोप आर्थिक कॉरीडोर (आईएमईसी) ठंडे-बस्ते में चला जाएगा। यदि यह संकट जारी रहा और लाल सागर में हूती जहाजों को अपना निशाना बनाते रहे, तो इससे भारत को गहरी आर्थिक क्षति हो जाएगी। गाज़ा में युद्ध जितना लंबा खिंचेगा, इस क्षेत्र में झगड़े उतने ही बढ़ते जाएंगे और इसमें ईरान, इज़राइल और अमेरिका सभी उलझ जाएँगे और ये सभी भारत के सहयोगी हैं। युद्ध को तत्काल समाप्त किया जाना और पश्चिम एशिया में व्यवस्था और स्थायित्व की वापसी और फिलिस्तीनी सवाल का स्थायी समाधान, ये सभी भारत के भी उतने ही हित में हैं जितने पश्चिम एशिया के किसी और देश के। यही भारत की ‘एक्ट वेस्ट पॉलिसी’ का मार्गदर्शक होना चाहिए।

‘द हिन्दू’ दिनांक 2 मार्च 2024 से साभार.

अनुवाद: दिनेश अस्थाना

(तस्वीर गूगल से साभार)

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