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प्रो. गरिमा श्रीवास्तव से ‘स्त्री आत्मकथा के विविध पक्ष’ पर डॉ. कामिनी की बातचीत

कोरस के फेसबुक लाइव ‘स्त्री संघर्ष का कोरस’ में बीते रविवार डॉ. कामिनी ने प्रो. गरिमा श्रीवास्तव से “स्त्री आत्मकथा के विविध पक्ष” पर बातचीत की । बातचीत की शुरुआत में पूछे गए प्रश्न स्त्री आत्मकथा की परंपरा कहाँ से और कैसे शुरू होती है ? का जवाब देते हुए गरिमा जी ने कहा कि पहला सवाल तो यही है कि स्त्रियों ने आत्मकथा को ही विधा के रूप में क्यों अपनाया ? जैसा कि ‘सीमोन द बोउआर’ का कथन है कि ‘स्त्री होती नहीं बनाई जाती है’, तो इस स्त्री के निर्माण की जो प्रक्रिया है उसे कैसे जाना जा सकता है। एक तरीका तो यह है कि स्त्री खुद अपने बारे में एक मुकम्मल जानकारी दे और समाज के सामने अपनी बात कहे।
एक लंबे समय तक ऐसा माना जाता रहा है कि सिर्फ पुरुष ही आत्मकथा लिख सकते हैं क्योंकि उनमें नेतृत्वकारी क्षमता होती है। स्त्रियां अपनी आत्मकथा इसलिए नहीं लिख पाती थी, क्योंकि उनके पास व्यक्तिगत स्पेस नाम की चीज ही नहीं थी। 1960-70 के दशक में एफ्रो-अमेरिकन लिट्रेचर आने पर आत्मकथाओं को अकादमिक केंद्रों में विभिन्न शोधों का विषय बनाया गया। 19वीं सदी में भारत में अलग-अलग विधाओं में स्त्रियों ने अपनी कथाएं कहनी शुरू की जो डायरी, यात्रा वृतांत, संस्मरण, कविताओं या उपन्यास के रूप में थीं। 18वीं सदी की तमाम आत्मकथाएं तो पत्र के रूप में मिलती हैं। ये पत्र एक स्त्री द्वारा दूसरी स्त्री को लिखे जाते थे। उस समय आत्मकथाओं पर पश्चिम का बहुत प्रभाव था। पश्चिम में व्यक्ति की निजता एक मूल्य है जो भारत में उस वक्त तो क्या आज भी बहुत मुश्किल से संभव है।
हमारे यहां मलयाली समाज में 20वीं सदी की शुरुआत से आत्मकथा लेखन के प्रमाण मिलने लगते हैं। मलयाली लेखिका सुगदा कुमारी कहती हैं कि स्त्री आत्मकथा लेखन की सबसे बड़ी समस्या है स्त्री होना, तो आप देखिये महिलाओं पर कई तरह के सेंसरशिप या दवाब काम करते हैं जैसे सेल्फ सेंसरशिप, पारिवारिक सेंसरशिप, सामाजिक सेंसरशिप तथा पाठकीय व प्रकाशकीय सेंसरशिप। इन सब के साथ ही भारत में किसी स्त्री आत्मकथा को देखा जा सकता है।
मलयालम आत्मकथाओं में कुछ महत्वपूर्ण आत्मकथाएं जिनका जिक्र गरिमा जी करती हैं, उनमें नलिनी जमीला की लिखी ‘सेक्स वर्कर की आत्मकथा’ कमला दास की आत्मकथा ‘Ente Katha’, सिस्टर जेसमे की आत्मकथा ‘आमीन’ साथ ही सी. के. जानू, ललिताम्बिका अंतर्जन्म, देविकी निलाम्बुर आदि की आत्मकथाएँ शामिल हैं। नलिनी जमीला की आत्मकथा उस समय की एक महत्वपूर्ण आत्मकथा मानी जाती है, जिसमें जमीला की माँ एक देह श्रमिक हैं। उनका मानना है कि देह श्रम किसी भी दृष्टि से किसी अध्यापक या किसी संगीतकार के श्रम से कम नहीं है। देविकी निलाम्बुर की आत्मकथा से पता चलता है कि उस समय हर ब्राह्मण परिवार किसी-न-किसी मंदिर से जुड़ा होता था। उनकी सामाजिक परंपरा के अनुसार परिवार की सभी स्त्रियों का विवाह नहीं होता था । जाति से सवर्ण होने पर भी स्त्रियां हाशिए पर थीं और उनके साथ भरपूर सामाजिक भेदभाव किए जाते थे।
सिस्टर जेसमे ने ‘आमीन’ में बताया है कि कैसे धर्म स्थान स्त्री शोषण का ज़रिया बन जाता है। वहीं सी. के. जानू ने एक आदिवासी स्त्री के जीवन का वर्णन किया है, जिसे पढ़े बिना हम उनके जीवन की कल्पना तक नहीं कर सकते।
अभिजात स्त्रियों की आत्मकथाओं और हाशिए की स्त्रियों की आत्मकथाओं में अंतर के सवाल पर गरिमा जी कहती हैं कि अभिजात स्त्रियों के उदाहरण के रूप में कमला दास की आत्मकथा देखी जा सकती है। अपनी आत्मकथा में कमला बताती हैं कि उनका पति उनके साथ ऐसा व्यवहार करता है जैसे वह कोई टैक्स वसूलने वाला व्यक्ति हो। अपनी पत्नी से संबंध स्थापित करने में बाधा महसूस होने पर वह अपने 2 साल के बच्चे को रातभर रोता हुआ रसोई घर में बंद कर देता है। जब इन सबसे तंग आकर वे आत्महत्या करने जा रही थीं तभी उनके मन में कुछ पंक्तियाँ कौंधीं जो उस समय एक मैग्ज़ीन में छपी थी। यहीं से उनका जीवन बदल गया और उन्होंने आत्माभिव्यक्ति की शुरुआत की लेकिन अभिजात स्त्री होने के नाते उन्हें उन समस्याओं का सामना नहीं करना पड़ा, जिनका सामना नलिनी जमीला ने किया था। वह तीन महीने अपनी बेटी को लेकर मस्ज़िद में छिपी रहीं। 12 साल तक एक व्यक्ति से संबंध में रहने के बाद उन्हें छोड़ दिया गया और वह फिर से देह व्यापार में लग गईं। दूसरे उदहारण के तौर पर भोपाल की स्त्री शासक ‘सुल्तान जहां बेगम’ की आत्मकथा देख सकते हैं। यहाँ कहानी अन्य स्त्रियों से बिलकुल अलग हैं क्योंकि इनके पास सत्ता थी। सत्ता लेखन का स्वरूप व स्वभाव बदल देती है । भोपाल रियासत से जुड़ी जो भी स्त्रियां थीं उन सबने अपनी आत्मकथाओं में इस्लाम, शासन, पर्दा-प्रथा, और स्त्री-सुधार संबंधी विचारों को प्रमुखता दी है ।
कामिनी द्वारा पूछे गए अगले प्रश्न कि आपने अपने लेख “चुप्पियां और दरारें” में एक खास वर्ग (मुस्लिम स्त्रियों) को ही शोध के लिए क्यों चुना ? क्या इसके पीछे कोई खास वजह थी ? इसका जवाब देते हुये गरिमा जी बताती हैं कि मैं लगभग 10 सालों से भी अधिक समय से स्त्रियों की आत्मकथाएँ पढ़ रही हूं जिनमें मलयालम, तमिल, तेलगु, कन्नड़, उड़िया और ब्लैक वीमेन की आत्मकथाएं शामिल हैं। हुआ यूं कि जेएनयू की एक प्रो. आशा किदवई की दादी की आत्मकथा ‘आज़ादी की छांव’ पर मेरी एक छात्रा ने शोध शुरू किया तो मुझे भी उर्दू और अंग्रेज़ी में लिखी हुई मुस्लिम महिलाओं की आत्मकथाओं को पढ़ने में दिलचस्पी हुई। सी. एम. नैम की किताब में बीवी अशरफ़ का जिक्र देखा था जिनकी पढ़ाई को लेकर गहन लगन थी तथा उनका मानना था, जैसे लोग देख कर खाना बनाना सीख लेते हैं, वैसे ही मैं पढ़ना भी सीख लूंगी। उन्होंने कोयले से लिखे हुए शब्दों की आकृतियां बनाकर पढ़ने का प्रयास किया। इसे वाकये को पढ़कर मुझे लगा कि मुस्लिम स्त्रियों की आत्मकथाओं के बारे में हमारा हिंदी समाज भी जान पाए तो अच्छा रहेगा। इस तरह मैंने ‘चुप्पियाँ और दरारे’ पर काम करना शुरू हुआ फिर मल्लिका पुखराज की आत्मकथा को पढ़कर लगा कि इसका तो हिंदी अनुवाद होना चाहिए। बहुत सारी आत्मकथाएँ, जिनके बारे में मैं नहीं जानती थी, उनको और भोपाल की स्त्रियों की आत्मकथाओं को ढूंढना दिलचस्प था । मेरे शोध पर जो प्रतिक्रिया आ रही है उससे लगता है कि लोगों को इनके बारे में बहुत कम पता था ।

दलित स्त्रियों की आत्मकथाओं से संबन्धित सवाल पर चर्चा करते हुये गरिमा जी कहती हैं कि स्त्रियां पहले ही हाशिए पर हैं, उस पर से भी अगर कोई स्त्री दलित है, तो उसकी चुनौतियां दोहरी हो जाती हैं । कौशल्या बैसन्त्री की आत्मकथा “दोहरा अभिशाप”, मल्लिका अमरशेख की आत्मकथा “मला उद्ध्वस्त व्हायंचय” इन सारी आत्मकथाओं में एक अलग तरह की संस्कृति के निर्माण की इच्छा दिखाई पड़ती है, सदियों की चुप्पी को तोड़कर वर्तमान संस्कृति में अपना आईना तैयार करने की कोशिश दिखाई पड़ती है।
बाज़ार स्त्री को उत्पाद की तरह इस्तेमाल करता है स्त्री आत्मकथायें इस मुद्दे को लेकर कितनी सजग हैं ? इस पर गरिमा जी कहती हैं कि स्त्रियां सजग हैं भी और नहीं भी। ऐसा नहीं है कि बाज़ार सिर्फ शोषण कर रहा है। बाज़ार पहले उन्हें अपने अनुसार ढालता था पर अब स्त्री रचनाकार काफी सजग हो गई हैं, वे समझ रही हैं कि उन्हें क्या चाहिए। उन्हें मालूम है कि वे क्या लिखेंगी और क्या बिकेगा। स्त्री रचनाकारों के सामने सबसे बड़ी चुनौती होती है अपना पाठक वर्ग तैयार करना। अब वे इस बाधा को पार कर चुकी हैं। यहां ऐसी स्त्रियां भी हैं, जो अपनी अभिव्यक्ति पुरुषों की भाषा में करती हैं और ऐसी भी स्त्रियाँ हैं जो पुरुष पाठकों की अभिरुचि को अपनी तरफ मोड़ने की कोशिश करती हैं। अक्सर जब कोई स्त्री लिखती है तो लोग उस पर काल्पनिक होने का आरोप लगाते हैं लेकिन अब स्त्रियों ने बहुत बड़ा अंतराल पार कर लिया है। वे अपने नाम से छप रही हैं, पहले से कहीं ज्यादा बोल्ड हो गई हैं । अगर उनसे आपत्तिजनक प्रश्न नहीं किए जाएंगे तो वे ज्यादा ईमानदारी और बोल्ड किरदारों के साथ अपने लेखन को सामने लाएंगी ।

कार्यक्रम के अंत में बातचीत को समेटते हुये डॉ. कामिनी ने एक बहुत ही मौजूं सवाल किया कि अक्सर स्त्रियों के बारे में कहा जाता है कि उनकी दुनिया बहुत छोटी है लेकिन देश-दुनिया में जो भी बड़े परिवर्तन होते हैं उनका सर्वाधिक प्रभाव स्त्रियों पर पड़ता है। अब युद्ध को ही ले लीजिए इस संदर्भ में आपने अपनी पुस्तक ‘देह ही देश’ में काफी कुछ बताया है फिर भी ऐसा क्यों है कि महिलाएं इस पूरे डिसकोर्स से बाहर है ?
इस प्रश्न के जबाब में गरिमा जी कहती हैं कि स्त्रियों का जीवन और पुरुषों का जीवन इन दोनों में बहुत बड़ा सांस्कृतिक अंतर है। इस अंतर के कारण स्त्रियों के अनुभव संसार की गहराई, उनका व्यवहारिक जीवन, उनके रंग-भेद संबंधी अनुभव, पुरुषों से एकदम अलग और गहरे होते हैं। स्त्रियों का अपना कोई देश नहीं होता। एंजेला डेविस ने ब्लैक पैंथर में नेतृत्वकारी भूमिका निभाई थी फिर भी उन्होने अपनी आत्मकथा में लिखा “स्त्रियां चाहे किसी गुट की नेता ही क्यों न हों, उनका दैहिक शोषण होता है |” दुनिया में कहीं भी किसी के भी बीच कोई लड़ाई हो उसमें एक स्त्री देह अनायास निशाने पर आ ही जाती है। पूरे विश्व का एक अलिखित सा नियम है कि युद्ध हुआ तो उसमें स्त्रियों का बलात्कार होगा ही। 1971 में हुये बांग्लादेश के मुक्तियुद्ध के खात्मे के बाद 1972 में शेख मुजीबुर्रहमान ने कहा कि जिन स्त्रियों ने इस युद्ध में भूमिका निभाई वे हमारी वीरांगनाएँ हैं और उन्होंने उनके लिए बाकायदा स्मारक बनवाए पर उन स्त्रियों की वस्तुस्थिति कुछ और ही थी। उनका अपहरण किया गया, वे पाकिस्तानी फौजी कैंपों में रहीं। बहुत सी स्त्रियां बलात्कार से गर्भवती हुईं और युद्ध खत्म होने के बाद उनको उनके पिताओं, पतियों, भाईयों ने वापस लेने से इनकार कर दिया और इसके बाद भी जिन्होंने हार नहीं मानी उन्हें या तो मार दिया गया या उनका गर्भ गिरा दिया गया। तीन लाख से अधिक स्त्रियां वहां शोषित हुई, उनका यौन शोषण हुआ पर किसी मीडिया में इनका कोई ज़िक्र नहीं किया गया, न ही कभी उनकी खोज करने की कोशिश हुई । देह ही देश को जीतने का माध्यम है। किसी भी देश को जीतना है तो स्त्री के देह पर हमला कर दो यही हर युद्ध की सच्चाई है।

(प्रस्तुति: मात्शी)

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