समकालीन जनमत
जनमत

मजदूरों की पहचान ‘माईग्रेंट’ के रूप में करना मेहनतकश वर्ग के खिलाफ साजिश 

शिवाजी राय

 

हम जिस गाँव में रहते हैं वहाँ मेरी दस पीढ़ियाँ गुजर गयी होंगी। उस गाँव में मेरे खानदान के आने वाले पहले व्यक्ति, सुनने में आता है कि आज के गाजीपुर जनपद के किसी गाँव से आए थे। यानी लगभग दो सौ वर्ष पहले, अब वो गाँव बहुत बड़ा हो गया है। देश में बहुत कम ऐसे गाँव होंगे जो दो- ढाई सौ वर्ष से ज्यादा पुराने होंगे। आजादी से पहले देश में हैजा, प्लेग, तावन, सूखा, बाढ़ जैसी आपदायें अनेकों बार आई होंगी और लोग गांवों को छोड़कर दूसरी जगह जाकर बस गए होंगे और उसी के साथ गाँव उजड़ते बसते रहते होंगे।

इतिहास के बारे में हमें इतना ज्ञान तो नहीं है लेकिन अपने होश से आजतक, अपने पूर्वजों से या अगल-बगल के गांवों या कस्बों या शहरों में उपेक्षित भाव से किसी के बारे में प्रवासी या माइग्रेन्ट कहते नहीं सुना। आजादी की लड़ाई के दौरान साम्राज्यवाद के खिलाफ़ आपसी धार्मिक, जातीय और क्षेत्रीय झगड़ों को खत्म कर राष्ट्रीय भावना पैदा की जाती थी। देशी-विदेशी भाव उत्पन्न किया जाता था, जिससे अंग्रेजों के उपनिवेश को खत्म किया जा सके। 1857 की क्रांति इस बात का सबूत है कि हम सारे भेद-भाव खत्म करके उस लड़ाई को लड़े।

15 अगस्त 1947 को हमें जो आजादी मिली वह निश्चित रूप से लोगों के अंदर राष्ट्रीय भावना जागृत होने के कारण ही संभव हो सकी। आजादी के बाद जो देश की हालत थी उसके बारे में जो भी लोग ठीक समझते हैं, उन्हे मालूम है कि आज देश में जो सामाजिक, आर्थिक या राजनैतिक विकास हुआ है उसके निर्माण में बड़ी भूमिका देश के किसानों- मजदूरों एवं मेहनतकश लोगों की रही है. देश के अंदर आपस में तमाम सांस्कृतिक, सामाजिक एवं भाषाई भेद के बाद भी, आम सहमति पर सभी भारत के लोग भारतीय नागरिक के रूप में एका के भाव से काम करते रहे हैं. राज्यों के आपसी एवं क्षेत्रीय झगड़े अपने हक हकूक के लिए चलते हैं और चलते रहेंगे. देश को आजाद होने के बाद अपना संविधान मिला और लोगों को अपने संवैधानिक अधिकार मिले जिसके तहत देश के किसी भी कोने में किसी भी नागरिक को कार्य करने का और रोजी-रोटी कमाने का हक मिला.

भारतीय संविधान की उद्देशिका में लोकतंत्रात्मक, धर्म-निरपेक्ष एवं समाजवादी जैसे शब्दों के साथ संविधान का ढांचा तैयार किया गया. हमने देखा कि देश के नागरिक किसी जाति धर्म या क्षेत्र के लोग हों, देश के कोने- कोने में जाकर फैक्ट्रियों में मजदूर के रूप में, शहरों में रिक्शा, ठेला- खुमचा छोटी दुकान या व्यवसाइयों के यहाँ या तमाम किस्म के कार्य से जुड़ कर अपनी रोजी- रोटी का काम चलाते हैं. यहाँ तक कि आजादी के पहले से ही ट्रेड सेंटर मौजूद थे. जिले या क्षेत्रीय स्तर पर बड़े- छोटे या कुटीर उद्योग मौजूद थे. वहां काम करके अपना पेट भर लेते थे. शुरुआती दौर में सरकार की नीतियों से देश में भारी उद्योग, मझोले उद्योग, छोटे उद्योग एवं लघु उद्योग एवं भारी संख्या में कुटीर उद्योग की स्थापनायें हुई, जिसके कारण दुर्गापुर, भिलाई, दिल्ली, पंजाब, हरियाणा, राजस्थान, पश्चिमी उत्तर प्रदेश एवं एन सी आर, गुजरात, अहमदाबाद, महाराष्ट्र में पुणे इत्यादि जगहों पर और झारखंड, बिहार, छत्तीसगढ़ में कोल माइंस जैसी जगहों पर रोजगार के अवसर बढ़े और भारी संख्या में मजदूर के रूप में देश के नौजवान पहुँच गए.

सत्तर के दशक में जीडीपी में कृषि क्षेत्र की भागीदारी तुलनात्मक रूप से ज्यादा थी और खाद्यान उत्पादन में हम आत्मनिर्भर हो रहे थे। किसान उत्पादन में लागत मूल्य कम करने की मांग करता था तो एक तरफ अपने सामान के मूल्य को बढ़ाने की मांग करता था। हमें याद है कि गेंदा सिंह जैसे लोग जो किसानों के आंदोलन से जुड़े हुए थे तो चौधरी चरण सिंह जैसे लोग के हाथ में कभी कभी प्रदेश और देश की कमान भी आ जाती थी। जिससे किसानों की वकालत सदन से खेत तक मजबूत थी। उसी के साथ ही देश में फैक्ट्रियों से लेकर शहरों के गली कूचों तक काम करने वालों की आवाज भी सड़क से संसद तक और महिलाओं की आवाज भी बहुत मजबूती से घरों से संसद तक पहुंचती थी। माया त्यागी और नारायनपुर कांड जिसने कभी इंदिरा गांधी एवं सत्ता की चूलें हिला दी थी। लगता था कि देश में मजबूती से किसानों, मजदूरों, महिलाओं को ताकत मिलेगी, समाजवाद तेजी से आगे बढ़ेगा। देश की संसद एवं विधानसभाओं में जन प्रतिनिधि के रूप में क्षेत्रों से आने वाले प्रतिनिधि किसानों की वकालत करने वाले होते थे या मजदूरों की या देश के गरीबों महिलाओं या दलितों या पिछड़े वर्ग (जो की किसी न किसी रूप में मेहनतकश ही थे) उनकी वकालत करने वाले होते थे।

उदाहरण के रूप में हम जिस इलाके से आते हैं उस इलाके से गेंदा बाबू (प्यार से लोग जिन्हें गन्ना सिंग कहते थे), विश्वनाथ राय, झारखंडे राय, सरयू पांडे, अलगू राय शास्त्री, राजनरायण, चंद्रशेखर, जनेश्वर मिश्र, राज मंगल पांडे, राम नरेश पांडे, रामेश्वर लाल, कृष्णा बाबू (जो गरीबों के मसीहा कहे जाते थे), रामधारी शास्त्री, हरिकेवल कुशवाहा, कुबेर भण्डारी जैसे लोग जनता के प्रतिनिधि के रूप में सदन में मौजूद होते थे तो किसान और मजदूर बेफिक्र होता था कि सदन और सदन से बाहर मेरी वकालत निश्चित होगी। जिसके कारण वो खेत खलियान व कल कारखानों से लेकर गली कूचों तक निफिक्र थे। ऐसा होता भी था। सड़कों पर भीड़ भड़ाके के साथ देश के कोने-कोने से मजदूरों किसानों की आवाज गूँजती रहती थी।

डॉ. लोहिया ने कहा था कि जब देश की सड़कें सूनी दिखें तो निश्चित समझना कि देश में तानाशाही है और ऐसा ही दिख रहा है। आप सोचेंगे कि मैं ये अतीत की बातें क्यों कर रहा हूँ; इसलिए कि किसानों या मजदूरों के हित में संसद या असेंबली में जितने कानून बने थे वह इन लोगों के जद्दो जहद और देश की वास्तविक स्थिति का सही-सही एहसास होने के नाते संभव हो सका था। लेकिन जब उपरोक्त अतीत को छोड़कर हम त्रिकोणीय गठबंधन (जातीय, धार्मिक, पूंजीवादी) के जाल में फँस गए तो देश में सार्वभौमिक सवालों पर बहस कमजोर हो गयी और देश की सदनों में जाति-धर्म एवं पूजीपतियों के प्रतिनिधि चुन कर जाने लगे। अब उनकी चिंता निजी हितों की हो गयी। सार्वजनिक क्षेत्र से लेकर निजी सेक्टर के जितने भी उपक्रम या कल कारखाने क्षेत्रीय स्तर पर स्थापित हुए थे उसको देश के पूँजीपतियों के हाथों बेच दिया गया या उनके विरुद्ध नीति बनाकर उन्हें उजाड़ दिया गया।

डॉ. लोहिया ने एक बात और कही थी कि जिंदा कौमे पांच साल इंतजार नहीं करती। तब ये देखा जा रहा था कि जनता के सवालों पर देश या राज्यों की सरकारें उठा गिरा करती थी। तब देश के किसी भी नेता के अंदर कूवत नहीं थी कि लोकतंत्र को चुनौती देते हुए यह कह दे कि हम 50 साल राज करेंगे। यह सिर्फ पूंजीवादी ताकतों या पूँजीपतियों के बल पर ही दावा किया जा सकता है। क्योंकि अब उन्हीं के पास यह ताकत चली गयी है कि अरबों खरबों रुपये निवेश करके अपने लिए सरकार बना बिगाड़ सकते हैं।

यही कारण है कि मजदूरों के हित में बने सारे कानून या तो खत्म कर दिए गए है या खत्म कर दिए जाएंगे। अब उनके पास कोई अधिकार नहीं रहने दिया जाएगा जिससे वे दावा कर सकें कि एक मजदूर के रूप मे उनके श्रम की कीमत का निर्धारण हो। अब वे ठेका मजदूर, डेली मजदूर, पैकेज मजदूर, तिमाही मजदूर, छमाही मजदूर, संविदा मजदूर, पूरबिया मजदूर, बिहारी मजदूर, भैया, असमियाँ, बंगाली, बंधुआ मजदूर, महिला मजदूर, सरकारी मजदूर, भठ्ठा मजदूर, अर्ध सरकारी मजदूर, अवैतनिक मजदूर, वेतन भोगी कुशल और अकुशल मजदूर, माइग्रेंट मजदूर, पेंसनधारी मजदूर, बिना पेन्सन वाला मजदूर, टेक्निकल- नॉन टेक्निकल मजदूर, बौद्धिक ठेका मजदूर, बौद्धिक आगंतुक मजदूर और मैनेजेरियल मजदूर आदि-आदि के रूप में उनकी पहचान बना दी जाएगी जिससे इनका शोषण बहुत ही सरल हो जाए |

ये बंटवारा इसलिए हो सका कि सीधे सीधे इनकी वकालत करने का जो प्लेटफ़ॉर्म था मजदूर संगठन, उन्हें भी कानून बना कर कमजोर कर दिया गया और उनके अधिकार समाप्त कर दिए गए। और शोषण के विरुद्ध मांग करने के जो लोकतांत्रिक तरीके थे, जैसे धरना-प्रदर्शन, अनशन, हड़ताल, उन्हें कानूनी तौर पर अवैध घोषित कर दिया जाता है। जिसके कारण मजदूरों के हक को पाने के लिए जो विरोध की ताकत बन सकती थी अब वो मुश्किल हो चुका है। ऐसा नहीं है कि ये संसद या विधानसभाएं जो गठित होती हैं या चुनी जाती हैं इसके लिए वोट नहीं पड़ता है। अंतर सिर्फ इतना है कि वोट का आधार किसानों, मजदूरों , महिलाओं , गरीबों के मुद्दे न होकर जातीय और धार्मिक या पैसे की ताकत होता है। लोकतंत्र में जनता के पास सबसे बड़ी ताकत वोट की होती है और वही वोट जनता के खिलाफ संसद में कानून बनाने में सहायक भी होती है।

मुझे हेनरी डेविड थोरो का कथन याद आता है। थोरो ने कहा था कि जो हम टैक्स देते हैं उसी से पुलिस पाली जाती है और वही पुलिस मेरे ऊपर डंडे बरसाती है। इसका मतलब मेरा ही पैसा मेरे ऊपर डंडा बरसाता है। उनका अवज्ञा आंदोलन दुनिया में प्रसिद्ध है जिसे गांधी ने भी अख्तियार किया था। जो जनता वोट डालती है, उपरोक्त पहचान के साथ देश के कोने-कोने में जिनके श्रम की लूट हो रही है, इन्हीं उजड़े हुए किसान परिवारों के बच्चे हैं जिन्होंने गाँव मे जातीय या धार्मिक पहचान बना रखी है। पूँजीपतियों एवं पूंजीवाद के इस कुटिल खेल के शिकार के रूप में पूरे देश के मेहनतकश लोग आ चुके हैं।

आजादी के बाद पहली बार आई कोरोना वायरस महामारी में देश के छोटे बड़े सभी शहरों में मेहनत मशक्कत करके रोटी कमाने वाले मेहनतकश वर्ग के लोगों को देश की कॉर्पोरेट एवं तथा कथित कारपोरेट मीडिया, अनैतिक रूप से कमाए धन से स्थापित शहरी मध्यवर्ग, सरकारी तंत्र और व्यसायिक वर्ग एवं पूरा कॉर्पोरेट जगत, धार्मिक एवं जातीय राजनीति करने वाले लोग एवं केंद्र और क्षेत्रीय सरकारों ने एक स्वर से इन्हें नई पहचान दी है। अब इन्हें माइग्रेंट वर्कर्स कहा जाने लगा है।

लॉकडाउन के दौरान लाखों लाख मजदूर बेघर हुए जिनका मजदूरी और राशन के बिना जीना मुश्किल हो गया. तब वे शहरों से निकल गए जबकि उनका निकलना खतरे की घंटी थी। उन्हें जगह-जगह रोक कर के कोरेंटाईन कर दिया गया और जो नहीं निकल सके उन्हें भारी संख्या में बड़े शहरों में ही उनकी हालात पर छोड़ दिया गया। कंपनियों से लेकर वे सेठ महाजन या जहां भी वे काम करते थे और जिनके लिए मुनाफा कमाने के साधन हो सकते थे जो मनमाना उनकी श्रम की लूट कर रहे थे और उनके बल पर ऐशो आराम की जिंदगी जी रहे थे उन सभी लोगों ने उनसे पल्ला झाड़ लिया। किसी ने भी उनके भोजन उनके परिवार की देखरेख या किसी प्रकार की चिंता न की। यहां तक कि सरकारी तंत्र और मीडिया ने ये चिन्हित करके बता  दिया कि देश के 31 जिलों मे 33% से ज्यादा कोरोना के शिकार माइग्रेंट वर्कर्स हैं। अब उनकी पहचान, जो पहले क्षेत्रीय आधार पर या विभिन्न किस्म के मजदूर के नाम पर थी, अब वे सिर्फ और सिर्फ माइग्रेंट के रूप में घोषित कर दिए गए हैं। अब तो अखबारों में कई पन्ने माइग्रेंट वर्कर्स के नाम पर आ रहे हैं।

जब मैं माइग्रेंट शब्द सुनता हूँ तो मुझे धक्का लग जाता है। गांधी ने साउथ अफ्रीका के आंदोलन में मुख्य रूप से मजदूरों की गिरमिटिया की पहचान के खिलाफ उनके पहचान पत्र को जलवाया था। गांधी साउथ अफ्रीका में गिरमिटिया मजदूरों के रूप में गए लोगों की पहचान एक नागरिक के रूप में चाहते थे और आज गांधी के देश में सारे अखबार, सारा तंत्र, सरकारें चीख-चीख के मजदूरों को माईग्रेंट बता रहे हैं।

ये मेहनतककश लोग जो उत्पादन से लेकर किसी भी किस्म के निर्माण और जीडीपी में सबसे अहम भागीदारी निभाते हैं, जिनके बिना गांव से लेकर मेट्रो सिटी तक और सड़क से लेकर कूचों तक स्वच्छता अभियान धरा का धरा रह जाता, नाले बजबजाते रहते और पांच सितारा से लेकर नुक्कड़ के होटलों में मक्खियां भिनभिनाती। हवाई जहाज से लेकर ई-रिक्सा तक धूल चाटते। हवाई से लेकर सड़क यात्राएं ठप्प हो जाती। दैत्याकार फैक्ट्रियों से लेकर छोटे-छोटे उद्योग के पहिये रुक जाते और खाद्य सामग्री के उत्पादन से लेकर विपणन तक के बिना जीवन मुहाल हो जाता, उन्हें शहरी लोग बेशर्मी से प्रवासी बताते हैं। जैसे वे मजदूर देश के नागरिक न हों। मैं उन लोगों से पूछना चाहता हूं कि जो घर से काम पर निकल गया वो प्रवासी हो जाता है तो आज देश में गिनती के काम छोड़ दिये जाएं तो कोई ऐसा कार्य है जो घर पर संभव है ? तो क्या ऐसा नहीं लगता कि जो मजदूर की माइग्रेंट के रूप में नई परिभाषा गढ़ी जा रही है तो प्रधानमंत्री से लेकर देश का पूरा तंत्र, देश के सारे व्यवसायी या अन्य सभी लोग जो अपने घर से दूर जाकर काम कर रहे हैं वे माइग्रेंट नहीं हैं ? और इसका उत्तर यही है कि ये सारे माइग्रेंट लोग अपनी पहचान छिपाकर उन मजदूरों को जो देश का निर्माण करते हुए एक नया और बेहतर समाज बनाते हैं, जो दुनिया की सबसे उत्तम किस्म की संस्कृति है, जिसमें वे जीते मरते हैं और जिन्होंने देश और दुनिया में इतिहास रचा है, उनके खिलाफ ये एक बड़ा छलावा है।

मैं मेहनतकश साथियों से कहना चाहता हूँ कि आपको अपनी पहचान मेहनतकश के रूप में बनानी ही होगी। जातीय, धार्मिक और क्षेत्रीय पहचान विषम परिस्थिति में काम नहीं आएगी। इस कोरोना महामारी ने ठीक से इसका बोध करा दिया है। माहामारी तो चली जाएगी लेकिन उसके बाद पुनः वे कल कारखाने, सभी संस्थान और अन्य सारे कार्यक्षेत्र जो ठप्प पड़े हुए हैं, उन्हें खड़ा करने के लिए आपकी ही आवश्यकता पड़ेगी। फिर ये लोग आपकी मेहनत पर मुनाफा कमाने से लेकर ऐशो आराम की जिंदगी के लिए आपकी राह जरूर देखेंगे। वे जानते हैं कि आप सीधे-साधे लोग थोड़ा पुचकारने पर गालियां और उपेक्षाएं भूल कर ट्रेनों मे भर कर वापस आएंगे और ये भी कि इस व्यवस्था ने आपके पास कोई और रास्ता नहीं छोड़ा है। वे जानते हैं। ऐसा कई बार हुआ है। भगाए भी जाते हैं और बुलाए भी जाते हैं लेकिन जो नई पहचान दी गयी है ये अति घिनौनी है। इस पहचान को खत्म करने के लिए पूरे देश में अपनी पहचान मेहनतकश मजदूर के रूप में बनानी ही होगी। वही पहचान आपके गाँव से लेकर शहरों तक, खेती किसानी से लेकर मेहनत मजदूरी तक एवं देश के निर्माणकर्ता के रूप में आपको स्थापित कर सकेगी।

(लेखक  किसान मजदूर संघर्ष मोर्चा के अध्यक्ष हैं और उत्तर प्रदेश के देवरिया में रहते हैं. संपर्क-9450218946)

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