समकालीन जनमत
जनमत

मजदूर वर्ग न झुका, ना टूटा है, वह आगे ही बढ़ता गया है

भारत सहित दुनिया के अनेक देशों में कोरोना वायरस के कारण लाॅक डाउन है। पहली बार श्रमिक प्रदर्शन नहीं कर रहे हैं और मई दिवस के अवसर पर न कोई जुलूस है, ना कोई आयोजन। जो जहां है, वहां मई दिवस को, उसके इतिहास और संघर्ष को याद कर मजदूर वर्ग की एकजुटता को कायम रखने पर विचार कर रहा है, संवाद कर रहा है। अतीत के उन शानदार प्रदर्शनों, संघर्षों से प्रेरणा ग्रहण कर रहा है।

मार्क्स और एंगेल्स ने ‘ कम्युनिस्ट घोषणापत्र ’ में 1848 में दुनिया के मजदूरों को एक होने का आह्वान किया था। मिल मालिकों और पूंजीपतियों से लड़ने के लिए, शोषण को समाप्त करने के लिए मजदूर एकता केवल 19वीं व 20वीं सदी में ही आवश्यक नहीं थी। 21वीं सदी में उसकी आवश्यकता और अधिक है क्योंकि दुनिया की कुल संपत्ति पर मुट्ठी भर लोगों का कब्जा है।

आज की दुनिया मार्गरेट थैचर और रोनाल्ड रीगन की बनाई हुई है। हायेक और मिल्टन जैसे ‘शिकागो स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स’ के अर्थशास्त्रियों ने जिन अर्थनीतियों की रचना की, वे बाद में नवउदारवादी नीतियों और अर्थव्यवस्था में विकसित हुई। लंदन स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स में जर्मन इतिहासकार अलबेख्त रिसेल ने मार्क्स को ‘भूमंडलीकरण का पहला आलोचक’ कहा है। आज अमरीका में मजदूरों का वेतन स्थिर है पर अधिकारियों के वेतन में 40 से 110 गुना तक वृद्धि हुई है।

21वीं सदी का भारत और संपूर्ण विश्व बदला हुआ है। बीसवीं सदी के अंतिम 2 दशकों में वह स्क्रिप्ट लिख दी गई थी जिस पर आज की दुनिया बढ़ रही है। मजदूरों और श्रमिकों के समक्ष समस्याएं आज कम विकट और विकराल नहीं है। नवउदारवादी अर्थव्यवस्था, उत्तर औद्योगिक विकास, उच्च तकनीकी प्रौद्योगिकी ने श्रमिक वर्ग के समक्ष अधिक समस्याएं पैदा की हैं।

कार्ल मार्क्स  ने जब यह कहा था कि ‘दुनिया के मजदूरों एक हो, जंजीरों के सिवा तुम्हें खोने को कुछ नहीं है’, फ्रेडरिक एंगेल्स ने कही थी कि  ‘मजदूर वर्ग को अपनी मुक्त खुद ही लानी है’ और लेनिन ने मजदूरों के संगठन का महत्व बताया था ‘हुकूमत प्राप्ति के लिए मजदूर वर्ग के पास संगठन के अलावा अन्य हथियार नहीं है’, तब की दुनिया आज की दुनिया से एकदम भिन्न थी। उत्तर औद्योगिक, वित्तीय, बाजार, कारपोरेट याराना, मनचली और उड़न छू पूंजी आज की तरह तब मचल नहीं रही थी।

उस समय औद्योगिक पूंजी प्रमुख थी और औद्योगिक पूंजी के दौर में ही मजदूर एकत्र और संगठित हो रहे थे, प्रदर्शन और संघर्ष कर रहे थे , ट्रेड यूनियनें बन रही थी और सशक्त मजदूर आंदोलन लहर रहा था।

आज के लाॅक डाउन में प्रवासी मजदूर, बेरोजगार, मजदूर, दैनिक मजदूर, अनियमित और असंगठित मजदूरों की हालत कहीं अधिक दुखद है। नवउदारवादी अर्थव्यवस्था ने अनेक मंझोले और लघु उद्योग धंधों के समक्ष संकट खड़ा किया। ताले लटक गए और एक दौर में मजदूरों का जो संघर्ष और आंदोलन था वह क्रमशः कम होता गया। 19वीं सदी में मजदूरों के जीवन निर्वाह के लिए 14 से 20 घंटे तक काम करना पड़ता था। उस समय काम का न्यूनतम समय सूर्योदय से सूर्यास्त तक था। कम से कम 12 घंटे उस समय कई कारखानों के मजदूरों की अवस्था ‘मिस्र देश की क्रीत दास प्रथा’ से भी अधिक असह्य थी।

उन्नीसवीं सदी के मजदूरों की दशा और उनकी एकता तथा संघर्ष को आज मई दिवस के अवसर पर कहीं अधिक याद करने की आवश्यकता इसलिए है कि आज मजदूर बेकार है, असंगठित है। लाॅक डाउन ने दैनिक मजदूरों की कहीं अधिक बुरी हालत कर दी है। पहले मजदूर फैक्ट्रियों में तालाबंदी करते थे, हड़ताल करते थे, संघर्ष पर बल देते थे ‘हर जोर जुल्म के टक्कर में संघर्ष हमारा नारा है’ पर आज हड़ताल कम है और उनकी ओर किसी का ध्यान नहीं है। सांगठनिक एकता को सरकार उभरने नहीं देती। लफंगे और बदमाश पूंजी ने सर्वाधिक दुर्दशा किसानों और मजदूरों की की है।

आज मई दिवस के महत्व और उसके इतिहास को जानना उससे प्रेरणा प्राप्त कर आगे की दिशा में बढ़ने के लिए है, न कि मई दिवस को मात्र एक आयोजन और उत्सव समारोह में बदल देने के लिए।

1820 से 1840 तक काम के घंटों में कमी की मांग को लेकर अनेक हड़तालें हुईं। अमरीका में 10 घंटे काम की मांग पर गृह निर्माण उद्योग के मजदूरों ने हड़ताल की थी। इस मांग के कारण ही 1826 में विश्व का प्रथम ट्रेड यूनियन बना – ‘मैकेनिक्स यूनियन ऑफ फिलाडेल्फिया’। अमेरिका में 10 घंटे काम का आंदोलन फैलता गया और इस आंदोलन के कारण ही अमेरिका के आठवें राष्ट्रपति वाॅन ब्यूरेन ने 1836 में सरकारी कार्य में लगे मजदूरों के लिए 10 घंटे काम का नियम लागू किया।

सरकारी कार्यों के अलावा निजी कार्यों में भी बाद में मजदूरों की यह मांग मान ली गई। अमरीका के गृह युद्ध, 1861-62, के बाद वहां का मजदूर आंदोलन पहले की तुलना में अधिक प्रबल-प्रखर रूप में सामने आया। एक ओर नृशंस शोषण था, दूसरी ओर उसके विरुद्ध मजदूरों का संघर्ष था। अमरीका के 16 वें राष्ट्रपति अब्राहम लिंकन ने देशहित और मजदूर हित में कोई अंतर नहीं माना – ‘मजदूरों के हित और देश के हित में कोई फर्क नहीं है। यदि कोई यह कहे कि वह अमेरिका को प्यार करता है किंतु मजदूरों से घृणा करता है तो यह मिथ्यावादी है…. मजदूर जब चाहे हड़ताल कर सके, ऐसी कोई श्रम व्यवस्था होने पर मुझे प्रसन्नता होगी।’

रिपब्लिकन पार्टी के अब्राहम लिंकन अश्वेत थे। उन्होंने अमेरिका में दास प्रथा का अंत किया। 1961 से 1865 तक वे राष्ट्रपति थे। गोली मारकर 15 अप्रैल 1865 को उनकी हत्या की गई। अमेरिकी पूंजीपतियों ने लिंकन की बातों पर ध्यान नहीं दिया। अमल करने की बात तो दूर थी।

औद्योगिक सभ्यता के निर्माण और विकास में मजदूरों की भूमिका है जिन्होंने रेल मार्ग बनाकर रेल की पटरियां बिछाई, पुल बनाए, बांधों का निर्माण किया। उनके हाथों का सौंदर्य देखा जाना चाहिए। मजदूरों के कारण देश का आर्थिक विकास हुआ। उद्योग धंधे खड़े हुए। पूँजी पूंजीपतियों की रही पर श्रम तो केवल श्रमिकों का था। उनके शोषण, उत्पीड़न और प्रताड़ना का एक लंबा इतिहास है। इन मजदूरों के खिलाफ गुंडों को खड़ा किया गया। संस्थाएं बनाई गईं। पिंकार्टन एजेंसी एलेन पिंकार्टन के नाम पर बनी। मजदूरों की यूनियन को भंग करने के लिए इन्होंने और बाद में विलियम ए पिंकार्टन और राॅबर्ट ए पिंकार्टन ने रेल कंपनियों और अन्य संस्थाओं को सहयोग करने के लिए कहा था।

पिंकार्टन की ‘खूनी वाहिनी’ थी – पैदल सेना, घुड़सवार और गोलंदाज थे। यह भाड़े पर काम करती थी। हड़तालें भंग कराती थी। उस समय अनेक समाचार पत्र मजदूर आंदोलन के विरुद्ध थे। 1885 में ‘न्यूयॉर्क ट्रिब्यून’ ने लिखा था – ‘ये सब पाशविक जीव शक्ति प्रयोग को छोड़कर कोई दूसरी भाषा नहीं समझते। ‘शिकागो टाइम्स’ ने इन पर हाथगोलों से वार करना उचित ठहराया था। यह उद्योग-पूंजी और बैंक पूजी के महामिलन का समय था। 1886 में पाडर्ली जैसे मजदूर नेता को पैसे से खरीद लिया गया था। अमेरिका में जे गोल्ड के हाथ में इजारेदारी थी। उसने हड़तालियों को इन शब्दों में धमकी और चेतावनी दी थी कि ‘मजदूर वर्ग के आधे लोगों को पैसे पर खरीद कर उनके ही द्वारा शेष आधे लोगों की हत्या करवा सकता हूं’।

यह सब उल्लेख मात्र इसलिए है कि हम उन संघर्षी दिनों की याद करें, जब मजदूर वर्ग न झुका, ना टूटा। वह आगे बढ़ता गया। उससे आज भी प्रेरणा ली जा सकती है।

पहली मई या मई दिवस का अपना गौरवशाली इतिहास है, जिसे हमें हमेशा स्मरण करना चाहिए। आज मजदूर सॉलिडेरिटी जरूरी है। सबको इकट्ठा करना फौरी कार्य होना चाहिए। भारत के वामपंथी दल सुस्त और निष्क्रिय अवस्था में हैं। उनके सक्रिय गतिमान होने की आज सर्वाधिक आवश्यकता है। आस्ट्रेलिया में पहली बार 8 घंटे काम का विचार 1856 में मजदूरों के दिमाग में आया।

21 अप्रैल 1856 को ऑस्ट्रेलिया में श्रमिकों की 8 घंटे काम की मांग को लेकर पहली हड़ताल हुई थी। इस दिन मजदूरों ने पूर्ण बंदी की। इसी के बाद यह विचार दूसरे देशों में फैला। अमरीकी मजदूरों ने इसका अनुसरण किया। उन्होंने 1886 में 1 मई को विश्व स्तर पर काम बंद करने का निर्णय लिया। इसके पहले 1862 में मई में हावड़ा स्टेशन में 1200 श्रमिकों ने 8 घंटे काम को लेकर हड़ताल की थी। 1864 में इंटरनेशनल वर्किंग मेंस एसोसिएशन का गठन हुआ जिसका लक्ष्य एंगेल्स के शब्दों में ‘यूरोप और अमेरिका के तमाम जुझारू श्रमिक वर्ग को एक महान सेना के रूप में संगठित करना था’।

दो वर्ष बाद 1866 में 20 अगस्त को साठ मजदूर यूनियनों के प्रतिनिधियों ने वाल्टिमार में एकत्र होकर राष्ट्रीय श्रमिक संघ, नेशनल लेबर यूनियन की स्थापना की थी। इस स्थापना-सभा में अमेरिका के सभी राज्यों में काम का निश्चित समय 8 घंटा किए जाने की मांग की गई थी। 1875 में 10 संघर्षरत खान मजदूरों को फांसी देने के बाद मजदूर आंदोलन और तीव्र हुआ। दो  वर्ष बाद 1877 में यह आंदोलन अधिक व्यापक हुआ। इसी वर्ष 1877 में मजदूर नेताओं – अल्बर्ट आर पार्सन्स, आगस्ट स्पाटस, फिशर और एंजेल को फांसी दी गई।

सात वर्ष बाद 1884 में अमरीका और कनाडा के फेडरेशन ऑफ आर्गनाइज्ड ट्रेडस लेबर यूनियन बाद में इसका नाम अमरीकन फेडरेशन ऑफ लेबर ने 1 मई 1886 से संगठित श्रमिकों द्वारा 8 घंटे काम को लागू कराने के लिए लड़ाई लड़ने का निश्चय किया। हॉब्सबाम ने जिस समय को 1848 से 1875 ‘द एज ऑफ कैपिटल’ कहां है, उसी समय मजदूर आंदोलन में भी गति आई। अमेरिकन फेडरेशन आफ लेबर की प्रस्तावना में पूंजी और श्रम के बीच तीव्र संग्राम का उल्लेख किया गया था। इस दुनिया के सब राष्ट्रों में अत्याचारी और अत्याचारितों के बीच एक संग्राम चल रहा है। 1884 के सम्मेलन में सर्वसम्मति से यह प्रस्ताव पारित किया गया था कि 1 मई 1886 को 8 घंटे की मांग को लेकर अमरीका के सभी मजदूर प्रदर्शन करें।

इस प्रदर्शन के तुरंत बाद 4 मई 1886 को शिकागो के मार्केट में मजदूरों के प्रदर्शन पर गोलाबारी हुई। अनेक मजदूर मारे गए और अनेक घायल हुए। इसके बाद 1888 में यह निर्णय लिया गया कि 1 मई 1890 को अगला समारोह होगा। आंदोलन और मजबूत हो चुका था। 1889 अंतरराष्ट्रीय श्रमिक कांग्रेस में चार सौ प्रतिनिधि उपस्थित थे। इस समय यह निर्णय लिया गया कि पहली मांग 8 घंटे काम करने की हो। इस सम्मेलन में फ्रांस के श्रमिक संगठनों के प्रतिनिधि लेंविग्ने ने प्रत्येक देश में वैश्विक स्तर पर इस दिन को वैश्विक कार्यबंदी की मांग की। अंतरराष्ट्रीय श्रमिक कांग्रेस ने निश्चय किया कि दुनिया के सभी मजदूर एक साथ 1 मई 1890 को 8 घंटे काम को लेकर प्रदर्शन करें। मार्क्स दिवंगत हो चुके थे। एंगेल्स जीवित थे। उस समय आगामी वर्षों में इसकी आवृत्ति की बात नहीं की गई थी पर अब मई दिवस का ऐतिहासिक महत्व था।

1 मई 1890 से मई दिवस पूरी दुनिया में मनाया जा रहा है। उरूग्वे पहला देश है जिसने देश भर में 8 घंटे की कार्य दिवस को 1915 में लागू किया। स्पेन ने सभी प्रकार के कार्य के लिए 1919 में 8 घंटे काम के लागू किए। भारत में पहली बार चेन्नई में मुरैना समुद्र तट पर पहला मजदूर दिवस 1 मई 1923 को मनाया गया। यह प्रस्ताव लिया गया कि इस दिवस को अवकाश घोषित किया जाना चाहिए। अवकाश होता है। पर काश! सरकार मजदूरों का ख्याल करती। मई दिवस पर कहानी, उपन्यास, कविताएं लिखी गई। केदारनाथ अग्रवाल ने मजदूरों पर काफी कविताएं लिखीं। अब श्रमिकों की ओर साहित्यकारों का ध्यान बहुत कम है जो चिंतनीय है।

लाॅक डाउन करने वाला मजदूर आज स्वयं लॉक डाउन में है। केवल मजदूर और श्रमिक वर्ग ही नहीं उनका साथ देने वाले व्यक्ति, समूह, संगठन सबका यह दायित्व है कि वे संघर्ष की धार को कुंद होने से बचाएं। यह सांगठनिक शक्ति और एकता के बिना संभव नहीं है।

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