समकालीन जनमत
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खोई चीज़ों का शोक: जीवन की स्मृतियों से झकझोर खायी कविताएँ

अनुपम सिंह


समकालीन हिंदी कविता में सविता सिंह प्रकृति के क़रीब रहने वाली कवियों में से हैं। सविता सिंह प्रकृति के प्रत्येक क्रियाकलाप को अनिवार्य और सत्य मानती हैं । वह उसे प्रश्नांकित नहीं करती हैं। वे इस बात को अपनी कविता के मूल सौंदर्य की तरह स्थापित करती हैं कि प्रकृति ही नियंता है, प्रकृति ही प्राथमिक है। हम मानव उसके मातहत हैं। वे मृत्यु को भी प्रकृति की सहगामी मानती हैं, कि मृत्यु ही अमर है, हमारा जीवन उस रूप में अमर नहीं है। वे लिखती हैं-

“एक पत्ता डाल से लगा हुआ था किसी तरह
पतझड़ में आज वह भी गया
इसे किसी पीले रंग ने ख़ुद में मिला लिया
वह गिरा आँखों के सामने ही
हवा ने उसे यों उठा लिया
जैसे इसे उसका ही इंतज़ार था”

इस पूरे संग्रह में मृत्यु की उपस्थिति है।वह जीवन के बीचोंबीच खड़ी है। वह हर रास्ते, पगडंडी, मोड़ पर खड़ी है। वह जीवन के सारे रंग, सारे भाव ले जाती है। बस! छोड़ जाती है अपना पीलापन,खालीपन। वह ले जाती है प्रकाश छोड़ जाती है अपना अँधेरा। मृत्यु का सामना
सर्वसाधारण के लिए दुष्कर है। उसके लिए चाहिए वही दृष्टि, विराटता वही, वही तीव्र वासना जो जीवन के लिए चाहिए होती है। सविता सिंह के अन्य संग्रह की कविताओं में जीवन के प्रति जो वासना दिखाई देती है वही तीव्र वासना इस काव्य संग्रह में मृत्यु के प्रति है। क्योंकि यह “वही वासना जिससे नई सृष्टि जन्म लेती है”। वे प्रकृति को और मृत्यु को हर कीमत चुकाकर सहने के लिए तैयार हैं। ‘ऐ शाम, ऐ मृत्यु’ शीर्षक कविता में वे लिखती हैं-

“जीना कितना अधीर कर रहा था मरने के लिए”
या
“फिर भी मैं कहती हूँ
तुम रहो वासना की तरह ही
ऐ शाम ऐ मृत्यु
मैं रहूँगी तुम्हें सहने के लिए”

यहाँ जीवन और मृत्यु एक दूसरे के विरोधी नहीं हैं बल्कि पूरक हैं एक दूसरे के। विश्व भर के साहित्य में मृत्यु पर कविताएँ लिखी गई हैं।मृत्यु जो मुक्त करती है। परंतु इन कविताओं की मृत्यु न तो मुक्त करती है न ही जीवित-मरण की ओर प्रेरित करती है बल्कि यहाँ तो जैसे जीवन मृत्यु का साक्षात्कार है। मृत्यु का सामना है ,जो कहीं दूर नहीं,बहुत नजदीक घटित होती है। जहाँ मृत्यु अपना ही हृदय छीन ले गई है फिर भी मृत्यु का भव्य और विराट स्वीकार है इन कविताओं में। सविता सिंह मृत्यु को प्रकृति के हर हरकत में देखती हैं। मृत्यु की अदृश्य एवं दृश्य दोनों ही उपास्थियों को स्वयं के जीवन से अधिक जगह देती हैं। ‘जाल’ शीर्षक कविता में वे लिखती हैं-

“वे दरअसल स्वयं मृत्यु हैं
जो उस तक शक्ल बदल-बदलकर आईं
सचमुच मौत ने बनाया था उससे फ़रेब का ही रिश्ता”

इस मृत्यु को अपने सम्मुख घटमान होते देखना आत्मविदारक है। जिसे भाषा बमुश्किल ही कह पाती है। उसे कविता में कहने के दृढ़ संकल्प के बावजूद उसकी पीड़ा का प्रभाव भीतर ही अधिक घटित होता है। उसका प्रभाव इतना तीव्र है कि वह छूट भी रहा है भाषा से। वह इतना पीड़ादायक है, इतना मारक है कि बार-बार कहना पड़ रहा है कि ‘अपनी नसों में ख़ून ज्यों ग़ायब होना’। सविता सिंह लिखती हैं –

“सारी मुश्किलें तो कहने में ही हैं
सारी तकलीफ़ बयान की
तजुर्बे में औंधी बंद पड़ी बात
को वैसे ही छोड़ देना चाहिए”

इस मृत्यु से जीवन में ‘बदरंग उदासी’ ही बचती है और हृदय में एक घुमड़न, जिसकी गति पृथ्वी की गति से भी अधिक तीव्र है। कविताओं से यह ज़ाहिर है कि सविता सिंह सिर्फ़ विचार से नहीं बल्कि जीवन के अनुभव में भी जीवन और मृत्यु को पूरक मानती हैं एक दूसरे का। वे बड़ी शिद्दत से महसूस करती हैं कि दोनों आच्छादित किए हुए हैं एक दूसरे को। जैसे घूमती हुई पृथ्वी पर चीजों को अलग-अलग करना मुश्किल है, वे अंतरंगता में हैं, घुली-मिली हुई हैं, वैसे ही इन कविताओं में जीवन-मृत्यु अपनी विशिष्ट लय एवं अंतरंगता में मिले हुए हैं।जीवन की तरह मृत्यु भी शाश्वत है, निरंतर है। वे मृत्यु और जीवन को नींद और स्वप्न की तरह देखती हैं। वे लिखती हैं-

“मृत्यु क्या सचमुच तुम कोई नींद हो
और यह जीवन एक स्वप्न”

सविता सिंह अपनी कविताओं में दुःख और सुख की भी कोई बाइनरी नहीं बनाती हैं जैसे कि मृत्यु और जीवन का। उनके लिए दु:ख ही स्थायी है, खुशियों का रंग तो उड़ने वाला है। वे कभी पूरा नहीं पहुंचतीं।
‘दुख का साथ’ शीर्षक कविता में वे लिखती हैं-

“मैंने मान लिया है
हमारे आसपास हमेशा दुःख रहा करेंगे
और कहते रहेंगे
‘खुशियाँ अभी आने वाली हैं
वे सहेलियाँ हैं
रास्ते में कहीं रुक गई होंगी’ “

खुशियाँ हैं ही क्या प्रकृति से अलग? प्रकृति की स्नेहिल
उपस्थिति ही खुशियाँ हैं। स्त्री और प्रकृति तो और भी अभिन्न है। उस पर एक चेतना संपन्न स्त्री ,जो अपना अस्तित्व ही प्रकृति की निकटता में देखती है।उसके लिए सुख और दु:ख दोनों की उपस्थिति प्रकृति से अलग नहीं है।

“मेरे लिए तो यही एक ख़ुशी थी
कि हम शाम ठंडी हवा के मध्य
उन फूलों को देखते
जो इस बात से प्रसन्न होते
कि उन्हें देखने के लिए
उत्सुक आँखें बची हुई हैं इस पृथ्वी पर”

इन कविताओं से गुज़रते हुए मैं सोच रही हूँ कि जीवन में इतना जगह घेरने वाली मृत्यु को भी जीवन ही क्यों न कहा जाय ? वह पूरा ही जीवन घेरती है, जीवन भर हर कदम साथ रहती है तो उस जीवन को मृत्यु ही क्यों ना समझा जाए?

यह मृत्यु, यह जीवन सब कुछ एक जाहिर सत्य है। जैसे समय को हथेली में कैद कर नहीं रखा जा सकता है वैसे ही न जीवन को, न मृत्यु को, न सुख को और न दुःख को ही। बाहर-भीतर और इस कायनात की, सबकी घुमड़न एक जैसी है। यह एक चक्र है जो पूर्ण ही होता है।

जीव पदार्थ को छोड़कर बिना किसी रूकावट के तय करता है यह यात्रा। जीव वहाँ के लिए गमन करता है जहाँ से वह एक दिन आया था धरती पर। उसे जाना ही होता है, पुनः आकार ग्रहण करने के लिए। वह निराकार नहीं रह सकता है। वह पुनः लौटेगा अपनी बनायी हुई चीजों में। अपने फूलों में, अपने बच्चों के बीच, उनकी खुशियों में। अपनी कविताओं में, अपने दोस्तों की महफिल में, अपने खेतों में, अपने लोगों की लड़ाइयों में।

ये कविताएँ स्मृतियों से उत्पन्न हैं लेकिन स्मृतियों से लदी एवं बोझिल नहीं है। बल्कि वे स्मृतियों और विवरणों का आसवन हैं। इस जगत का दु:ख, कष्ट, इसकी खुशियां, प्रेम इसके, सारे तत्व इकट्ठा हैं उनके चेतन-अवचेतन में। वे धीमी एवम मधुर आंच पर लंबे समय तक पकते रहते हैं। जिसकी आग वह ख़ुद सहती हैं और उसकी शीतलता, उसका सौंदर्य कविता के ज़रिए पहुँचता है पाठक तक। उसकी सुगंधि कविता में बूँद-बूँद रिसती है और वे सारे भाव दुःख, सुख, प्रेम, पीड़ा, करुणा सब कुछ अधिक मारक, अधिक चमकदार, अधिक तीव्र, अधिक बेधक, अधिक मुलायम, अधिक कठोर और अधिक उदास व बेरंग हो जाते हैं। मुझे यह बात सिर्फ़ ‘खोई चीज़ो का शोक’ संग्रह के विषय में नहीं लगता बल्कि उनके अन्य तीनों संग्रहों में भी यही काव्य प्रक्रिया अपनायी गयी लगती है।

“उधर से कोई आवाज़ नहीं आती
उधर से आती है
छूट गई देह की सिहरन
हवा में मिली हुई
एक छाया अपनी ही छाया छोड़ जाती हुई “

इन कविताओं की भाषा भयाक्रांत नहीं करती है। न अतिरिक्त गुस्सा ही है इनकी कविताओं में। सविता सिंह भाषा को न ही अतीत के शब्दों से बोझिल करती हैं। वे न लोकवादी हैं, न संस्कृतिवादी, बल्कि इनकी कविताएँ सरल-सुलझी हुई भाषा में आधुनिक स्त्री-मन के अवचेतन को, इस प्रकृति एवम जगत-पीड़ा एवं उसके सौंदर्य को संवेदनक्षम तरीक़े से अभिव्यक्त करती हैं। ये कविताएँ अपने प्रभाव में इतनी गहन हैं कि हमारे संवेदीतंत्र को एक तीव्र झंकार देती हैं।

“लौटी हैं वही वीरानियाँ फिर
भरी होती थीं जो मारक क्रूर बेचैनियों से कभी
कट-कट कर गिरते थे शब्दों के सिर जिनमें
कविता की तरफ़ आते हुए”

इस संग्रह को पढ़कर मैं किसी पीड़ा से गुजर रही हूँ। लेकिन यह कहने की हिम्मत नहीं है, कि जिस पीड़ा से इन कविताओं की कवि गुज़रती है मैं उसकी कल्पना कर सकती हूँ। ऐसा शायद कोई भी नहीं कह पायेगा। कवि शायद किसी आग से, किसी अगाध जलराशि से, खून जमाने वाले हिम में डूबकर किसी तरह बाहर निकली होगी। अंत में यही कि इनकी कविताएँ दु:ख का, मृत्यु का तिरस्कार नहीं करतीं हैं, फिर भी ये जीवन की स्मृतियों से झकझोर खायी कविताएँ हैं। जीवन की गाढ़ी स्मृति, गाढ़ा दु:ख और हॉरर मृत्यु यही तीन चीजें प्रमुखता से हैं इन कविताओं में।

“आख़िर क्या जोड़े रखता है चले गए
मनुष्य को
अपनी औलाद का माथा चूमने की
इच्छा से
इस मनहूस पृथ्वी से”

 

समकालीन जनमत के पाठकों के लिए प्रस्तुत है संग्रह से एक कविता

ऐ शाम, ऐ मृत्यु

नहीं मालूम वह कैसी शाम थी
आज तक जिसका असर है
पेड़ों-पत्तों पर
जिनसे होकर कोई साँवली हवा गुज़ती थी

बहुत दिनों बाद
वह शाम अपनी ही वासना-सी दिख रही थी
मंद-मंद एक उत्तेजना को पास लाती हुई
वह मृत्यु थी मुझे लगा
मरने के अलावा उस शाम
और क्या-क्या हुआ
जीना कितना अधीर कर रहा था
मरने के लिए
एक स्त्री जो अभी-अभी गुज़री है
वह उसी शाम की तरह है
बिल्कुल वैसी ही
जिसने मेरा क्या कुछ नहीं बिगाड़ दिया
फिर भी मैं कहती हूँ
तुम रहो वासना की तरह ही
ऐ शाम, ऐ मृत्यु
मैं रहूँगी तुम्हें सहने के लिए

कविता संग्रह: खोई चीज़ों का शोक
कवयित्री: सविता सिंह
पेपर बैक-150
राधाकृष्ण प्रकाशन

 

(कवयित्री सविता सिंह इग्नू के स्त्री अध्ययन केंद्र में प्राध्यापिका हैं, समकालीन स्त्री विमर्श और कविता की प्रमुख हस्ताक्षर हैं

सम्पर्क: savita.singh6@gmail.com)

(समीक्षक अनुपम सिंह समकालीन कविता का चर्चित युवा नाम हैं। जन संस्कति मंच दिल्ली की राज्य सचिव हैं।

सम्पर्क: anupamdu131@gmail.com)

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