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अनिल अनलहातु का पहला काव्य संग्रह ‘बाबरी मस्जिद तथा अन्‍य कविताएँ’ विकास के विडम्बनाबोध की अभिव्यक्ति है

अपनी विश्‍व प्रसिद्ध पुस्‍तक ‘सेपियन्‍स’ में युवाल नोआ हरारी संस्‍कृति और तथाकथित मनुष्‍यता पर सवाल उठाते लिखते हैं- …हमारी प्रजाति, जिसे हमने निर्लज्‍ज ढंग से होमो सेपियन्‍स, यानि ‘बुद्धिमान मनुष्‍य’ नाम दे रखा है।”

अनिल अनलहातु के पहले कविता संकलन ‘बाबरी मस्जिद तथा अन्‍य कविताएँ’ की कविताओं में मनुष्‍यता के आडंबरपूर्ण-अहंकारी आख्‍यानों की इसी निर्लज्‍जता के ब्‍यौरे सूत्र रूप में हैं –

“मैं जीता नहीं हूँ, मैं हारता हूँ
हारते हुए भी हारता ही हूँ
और हारते हुए ही जीता हूँ।”

यह अनिल अनलहातु की कविताओं का मुख्‍य स्‍वर है। यहाँ कवि के मैं में दुनिया की तमाम पीड़ित जातियाँ शामिल हैं। यह मैं उन सभी लोगों का प्रतिनिधित्‍व करता है जो जीते नहीं हैं, हारते हैं और हारते हुए भी/ही जीते हैं। इस मैं की पीड़ा के साक्षात के लिए करूणा नाकाफी है। उससे ज्‍यादा जरूरी है कि आपको मनुष्‍यता के इस विकास की समझ हो, जिसके कंगूरे आदिम सभ्‍यताओं के ध्‍वंसावशेषों पर टिके हैं। जिसकी दमन भटिटयाें में जलते मनुष्‍यों की चीखें विजेता सभ्‍यता के लिए वनदाह पर्व के रूप में गर्व और अहं का स्‍मारक हैं।

इस सभ्‍यता के भविष्‍य पर सवाल उठाते अनिल लिखते हैं –

“कि एक सभ्‍यता के भग्नावशेष

पर खड़ी हुई

दूसरी सभ्यता

कब तक सुरक्षित रह पाएगी?”

सेपियन्‍स में हरारी लिखते हैं – इसमें संदेह है कि होमो सेपियन्‍स की प्रजाति आज से एक हजार साल बाद तक बची रह सकेगी…।

अनिल की कविताओं में आप राजकमल चौधरी की पंक्तियों के निहितार्थ तलाश सकते हैं –

“आदमी को तोड़ती नहीं हैं लोकतांत्रिक पद्धतियां केवल पेट के बल
उसे झुका देती हैं धीरे-धीरे अपाहिज
धीरे-धीरे नपुसंक बना लेने के लिए उसे शिष्‍ट राजभक्‍त देशप्रेमी नागरिक
बना लेती हैं
आदमी को इस लोकतंत्री सरकार से अलग हो जाना चाहिये।”

अनिल लिखते हैं –

“क्यों होता है ऐसा
जब आदमी साँपों की हिश-हिश
सुनना पसंद करने लगता है?

आखिर वह कौन-सी
प्रक्रिया है
जो उगलवा लेती है
शब्द उससे
खुद के ही खिलाफ़?”

दरअसल अनिल की तमाम कविताएँ विकास के विडंबनाबोध को अभिव्‍यक्‍त करती हैं। जिसके नाम पर तमाम सरकारों के प्रतिनिधि अपनी आय को बहुगुणित करने के खेल के सिवा कुछ नहीं कर पाते। इनमें धूमिल के तीसरे आदमी को लेकर पूछा जा रहा सवाल बारहा आकार पाता दिखता है। कवि पूछता है कि –

“इकहत्‍तर वर्षों के बाद भी

न जाने किस भूत/अतीत से डरकर

मेरे बगल में बैठा वर्तमान

हनुमान चालीसा पढ़ रहा है।”

इन कविताओं में हाशिए पर पडे उस अंतिम आदमी की बातें हैं जिनके बारे में कवि का कहना है कि – ये कविताएं याद नहीं की जाएंगी क्योंकि इनमें जिंदगी का उपहास है।

मनुष्यता के इतिहास से घोर निराशा के बावजूद पीड़ित जनता के जीवट व विद्रोह को दर्ज करता है कवि –

“काट डालिए पैर उसके

वह एक पैर से उचककर

चलता हुआ

समाज में आदर्श बन जायेगा।”

मुक्तिबोध का सजल-उर शिष्य होना अभीष्ट है कवि का और यह दुःस्वप्न उसे पारंपरिक अर्थों में कवि नहीं होने देता। करोड़पतियों के इस तंत्र में अपनी सच्ची जिच के साथ किसी का कवि होना क्या/कैसे संभव हो –

“जहाँ हत्यारी चेतना

का रक्त-प्लावित स्वर

अपने ही बंधु-बान्धवों के

खिलाफ प्रकट हो

विकट हो जाएगा!!!”

यह तथाकथित गर्व करनेवालों का काल है जिसमें वे गर्व के ढोल को कानफाडू ढंग से पीटे जा रहे। इस ढोल की पृष्‍ठभूमि में जो कुछ है अनिल की कविताएं उसकी पहचान उजागर करती हैं –

“तुम्‍हारा सोम और

अश्वमेध यज्ञ का धुआँ

इन अभागों के श्रम को

जला ही सकता है

किसी भटके हुए बादल के

चंद टुकड़ों को लाने में

वे सर्वथा असमर्थ हैं। “

अनिल की अधिकांश कविताएँ सभ्‍यता समीक्षा करती हैं और इसमें अनिल भाषा के साथ भी टूल की तरह व्‍यवहार करते हैं और भाषा की जमीन पर सभ्‍यता के पैरोकारों को नंगा करते हैं , उन्‍हें एक बड़े कवि का यह कहना रास नहीं आता के –

“वे पेड़-पौधों की भाँति

चुपचाप

जीनेवाले सीधे लोग हैं।”

एक पूरी की पूरी मानव जाति –

सभ्यता को क्या

जंगल में तब्दील कर देना नहीं है ?

……………..

– कि भाषा बुद्ध या ईसा का

दाँत नहीं

कि उसपर तुम खड़ा कर सको

अपनी श्रेष्ठता का स्तूप।”

गांव-शहर के द्वंद्व को लेकर कई कविताएँ हैं अनिल के यहाँ, झाड़फानूस ऐसी ही एक छोटी सी कविता है जिसमें यह द्वंद्व स्‍पष्‍टता के साथ उभरता है। कविता दिखलाती है कि कैसे अरसा पहले शहरातू हो चुके लोग अपने ड्राईंगरूम में अपने पुराने गांव को जिन्‍दा रखने की जुगत भिड़ाते इससे अनजान रहते हैं कि उनका गांव इस बीच कितना बदल चुका है और आज वह भी शहर की हवा में पतंग की तरह उड़ान भरने की कोशिश कर रहा।

इन कविताओं में युगों से प्रताडि़त दलितों-पीडि़तों की जो दुनिया है उसमें औरतें भी शामिल हैं जो अंधेरे और नींद में डूबे गांवों को किसी रात पीछे छोड़ शहर-शहरात की तरफ निकल पड़ती हैं रोशनी की खोज में, पर कहीं पहुंच नहीं पातीं और खो जाती हैं शहर की भूल-भुलैया में। कि सुबह का होना थम जाता है उनके लिए और सुबह एक यंत्रणा में तब्‍दील हो जाती है।

बुद्ध, मार्क्‍स, धूमिल, मुक्त‍िबोध, गोरख पांडे आदि विचारकों-लेखकों के संदर्भ अनिल की कविताओं में तमाम जगह सूत्रों की तरह व्‍याप्‍त हैं। मुक्तिबोध के बाद मनुष्‍यता का जो त्रास विष्‍णु खरे के यहाँ जगह पाता है उसे अनिल की कविताओं में भी जगह मिलती है –

खुद अपने ही प्रेत हैं अब पछवावे में मुक्ति खोजते भटकते हुए

हम जैसे तो कभी की आत्‍महत्‍या कर चुके ( विष्‍णु खरे )

अनिल भी लिखते हैं –

“लौटता हूं मैं

और अपनी ही बनाई

घृणा की ज़मीन पर

अपनी लाश बिछाकर

सो जाता हूँ।”

 

  • कविता संग्रह : बाबरी मस्जिद तथा अन्य कविताएँ

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ

मूल्य : 220

 

 

 

 

(‘बाबरी मस्जिद तथा अन्य कविताएँ’ कविता संग्रह पर साहित्य शिल्पी पुरस्कार,2018,
से सम्मानित कवि अनिल अनलहातु.

शिक्षा – बी.टेक., खनन अभियंत्रण , आई॰आई॰टी॰ (आई एस एम),धनबाद । एम॰बी॰ए॰ (मार्केटिंग मैनेजमेंट ), कम्प्यूटर साइंस में डिप्लोमा, एम॰ ए॰ ( हिन्दी)। जन्म – बिहार के भोजपुर(आरा)जिले के बड़का लौहर-फरना गाँव में दिसंबर 1972.

प्रकाशन – ‘बाबरी मस्जिद तथा अन्य कविताएँ’, भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन से प्रकाशित आलोचना की पुस्तक ‘आलोचना की रचना’ तथा दूसरा कविता संग्रह ‘तूतनखामेन खामोश क्यों है ‘ प्रकाशनाधीन ।

इसके अतिरिक्त कई लेख, और कविताएँ विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित.

अन्य पुरस्कार : ‘प्रतिलिपि कविता सम्मान, 2015′, ‘कल के लिए’ पत्रिका द्वारा ‘मुक्तिबोध स्मृति कविता पुरस्कार’
अखिल भारतीय हिंदी सेवी संस्थान, इलाहबाद द्वारा ‘राष्ट्रभाषा गौरव’ पुरस्कार, आई.आई.टी. कानपुर द्वारा हिंदी में वैज्ञानिक लेखन पुरस्कार ।

संप्रति – स्टील अथॉरिटी ऑफ इंडिया लिमिटेड (सेल) में महाप्रबंधक |
संपर्क: gmccso2019@gmail.com)

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