समकालीन जनमत
स्मृति

अलविदा प्रिय अभिनेता

 

कुछ अभिनेताओं की पर्दे में उपस्थिति वैसी ही ख़ुशी देती है जैसे अपने किसी बहुत अज़ीज़ को देखकर रोम-रोम ख़ुशी से लहरा उठते हैं.

मेरा मानना है कि सत्तर के दशक के अमिताभ को पर्दे में देखकर दर्शक जिस ख़ुशी को प्रत्यक्ष रूप से व्यक्त करता था अपने समय में इरफ़ान ने भी वही मुक़ाम हासिल किया. दर्शकों के लिए सिनेमा और कहानी नहीं सिर्फ़ और सिर्फ़ इरफ़ान का महत्व था. और इस बात की तस्दीक़ उनकी ‘रोग’, ‘नॉक आउट’ और ‘बिल्लू बारबर’ जैसी अन्य दूसरी अति सामान्य फ़िल्मों से भी की जा सकती है जिन्हें दर्शकों ने सिर्फ़ इरफ़ान को देखने के लिए देखीं.

यूँ तो इरफ़ान की अभिनय यात्रा का विस्तार एनएसडी, टीवी, बॉलीवुड से लेकर हॉलीवुड तक है लेकिन मात्र ‘हासिल’, ‘मक़बूल’, ‘द नेमसेक’, ‘लाइफ़ इन अ मेट्रो’, ‘पान सिंह तोमर’, ‘लंचबॉक्स’, ‘हैदर’, ‘पीकू’, ‘तलवार’ और ‘हिंदी मीडियम’ जैसी फ़िल्मों में इरफ़ान की अदाकारी के उरुज़ को देखा जा सकता है. इरफ़ान द्वारा अभिनीत फ़िल्मों की ख़ास बात यह है कि उन्हें फ़िल्म की किसी धारा के साथ नत्थी नहीं किया जा सकता.

इन फ़िल्मों में इरफ़ान द्वारा निभाए गए किरदार एक ही देशकाल में मौजूद वे अलग-अलग और सामान्य चरित्र हैं जिनसे समाज का कार्य-व्यापार चलता है. इस समाज में यदि ‘हासिल’ का रणविजय सिंह है तो ‘मक़बूल’ का मक़बूल, ‘द नेमसेक’ का अशोके, ‘लाइफ़ इन ए मेट्रो’ का मोंटी, ‘पान सिंह तोमर’ का पानसिंह तोमर, लंचबॉक्स का साजन फ़र्नांडिस, हैदर का रूहदार, पीकू का राणा, तलवार का अश्विन कुमार और हिंदी मीडियम का राजा बत्रा भी है. जिनकी कहानियाँ हिंदी फ़िल्म जगत की फ़ार्मूलाबद्धता के चलते कहीं गहराई में दफ़्न थीं लेकिन कुछ फ़िल्मकारों की सक्रियता ने जहाँ अपने अनुभव के समाज से इन किरदारों को निकालकर कहानियों का पात्र बनाया तो इरफ़ान ने इन किरदारों को अपने अभिनय की ताक़त से हमारे सामने ज़िंदा लाकर खड़ा कर दिया.

इरफ़ान द्वारा जिया गया हासिल में रणविजय सिंह का किरदार कई तरह के मिश्रण से गढ़ा हुआ है, वह लम्पट है, ईर्ष्यालु प्रेमी है, महत्वाकांक्षी छात्रनेता है, गाँव से है. उसकी यह सब विशेषताएँ उसे एक ऐसे दिग्भ्रमित इंसान में तब्दील कर देती हैं जिसे व्यवस्था सहित सबकुछ अपने नियंत्रण में होने की ग़लतफ़हमी रहती है लेकिन दरअसल वह सबकुछ होने के एहसास के साथ एक बहुत ही मामूली साबित होता है जिसे कभी भी कुचला जा सकता है. यह किरदार विश्वविद्यालयों से लेकर मोहल्लों तक में पाए जाने वाले ऐसे अनगिनत चरित्रों का प्रतिनिधि बन जाता है. पान सिंह तोमर में पान सिंह के किरदार को इरफ़ान ने जिस जीवंतता के साथ निभाया है वह सिनेमा दर्शकों के लिए किसी अनुभव से कम नहीं है.

इस एक किरदार में भी जीवन के दो अलग-अलग पहलुओं को इरफ़ान ने बड़ी ख़ूबसूरती से जिया है एक तो बतौर फ़ौजी धावक के रूप में जिसने देश के लिए मेडल जीतकर देश को अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर प्रतिष्ठा दिलायी, दूसरा बाग़ी पानसिंह के रूप में जिसे अपने ही भाई-बाँधवों द्वारा जायदाद हड़पने के चलते बंदूक़ उठानी पड़ती है. इरफ़ान ने अपने अभिनय से इस किरदार में एक भाई, पिता, पुत्र और पति के रूप में जितने भी द्वंद्व और तनाव हो सकते थे उन सबको बहुत ही प्रामाणिक रूप से जीवंत किया है. यहाँ लंचबॉक्स के साजन का ज़िक्र न करना शायद उचित न होगा. इरफ़ान ने साजन के किरदार में एक संवेदनशील दोस्त, अपने जीवन की ट्रेजडी को ख़ुद में जज़्ब किए हुये एक ऐसे नैतिकवान बुजुर्ग़ियत की तरफ़ बढ़ते हुए सामान्य क्लर्क को जिया है जिसका अन्य की ज़िंदगी में मामूली सा भी हस्तक्षेप नहीं है. उसे ‘इला’ के हाथों के स्वाद और पत्रों से पैदा हुई प्रेमिल गर्माहट रेस्तराँ तक खींच तो ले जाती है लेकिन उम्र के फ़ासले को देखकर पास जाने के बजाए उसे दूर से बैठे हुए ही तकता रहता है.

इन मुख्य फ़िल्मों के अलावा इरफ़ान द्वारा अभिनीत एक अलग ही पृष्ठभूमि वाली फ़िल्मों का भी संसार रहा है. जिनमें ‘रोड टू लद्दाख़’ से लेकर ‘क़रीब क़रीब सिंगल’ तक की यात्रा रही है. इन फ़िल्मों में भी इरफ़ान के अभिनय का जादू मुख्य फ़िल्मों से कम नहीं है.

आज इरफ़ान के न रहने की ख़बर हम तमाम इरफ़ान प्रेमी, सिने प्रेमी, कलाकर्मियों और संस्कृतिकर्मियों पर किसी वज्रपात से कम नहीं है. हम तो यह मानकर चल रहे थे कि इरफ़ान अपनी बीमारी को चकमा देकर लौटेंगे ज़रूर और हम सबको अभी अपने अभिनय से और चकित करेंगे यह कुछ-कुछ मुमकिन सा लगने भी लगा था जब उनकी फ़िल्म ‘अंग्रेज़ी मीडियम’ प्रदर्शित हुई लेकिन वे यूँ अचानक हम सबको दुःख के अथाह सागर में डुबाकर कहीं अनंत की यात्रा में निकल गए. अलविदा प्रिय अभिनेता, श्रद्धांजलि!

(लेख में प्रयुक्त स्कैच दिल्ली विश्वविद्यालय में प्राध्यापक डॉ. भास्कर रौशन का है )

Related posts

Fearlessly expressing peoples opinion