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एक हौलनाक़ सफ़रनामा

गोपाल गुरु

(राजनीति विज्ञानी प्रो. गोपाल गुरु का यह लेख ई0पी0डब्ल्यू0 में 9 मई के अंक में प्रकाशित हुआ है जिसे हम साभार समकालीन जनमत के पाठकों के समक्ष प्रस्तुत कर रहे हैं. प्रो. गोपाल गुरु वर्तमान में ई0पी0डब्ल्यू0 के संपादक हैं . हिन्दी अनुवाद दिनेश अस्थाना का है. सं.)

लाखों प्रवासी मजदूर कई-कई दिनों से सड़कों और रेल की पटरियों पर घिसट रहे हैं, इस उम्मीद में कि एक न एक दिन अपने वतन या शहर पहुँच ही जायेंगे। घर का यह सफ़र आसान नहीं है, यह बेहद तकलीफदेह है और कोढ़ में खाज यह कि न भोजन का ठिकाना है, न पानी का और न ही दवा का।

यह पैदल सफ़र मजदूरों के लिये ख़तरा-ए-जान बन चुका है। कुछ संवेदनशील इलेक्ट्राॅनिक मीडिया में बताया गया है कि ये मजदूर न सिर्फ अपनी जान का बल्कि अपने छोटे-छोटे बच्चों और उन बच्चों की जान का भी ख़तरा मोल ले रहे हैं जिन्होंने अभी जन्म ही नहीं लिया है।

मीडिया की रिपोर्टों के अनुसार एक प्रवासी महिला मजदूर ने पूरे दिन का गर्भ हो जाने पर भी सफ़र का ख़तरा उठाया और उसे रास्ते में ही सड़क के किनारे बच्चा जनना पड़ा। महाराष्ट्र के औरंगाबाद में 16 प्रवासी मजदूर गाड़ी के नीचे आकर कट गये।

इन मजदूरों के सफर के वृत्तांत जिस प्रकार सामने आ रहे हैं उससे लगता है कि ये सारे मजदूर त्रासदी की एक ही कहानी पर अभिनय कर रहे हैं, एक ऐसी कहानी जिसमें न कोई रोमांच है न जोखिम और न उत्तेजना। इसलिये यह कहानी लुभाती नहीं बल्कि त्रासद है और यह हम नागरिक समाज के सामने एक नैतिक अपेक्षा प्रस्तुत करती है कि हम यह महसूस करें कि यह सरकारों की घनघोर नाकामी है जिसने इन मजदूरों को ऐसे हौलनाक़ सफ़र पर चल देने के लिये मज़बूर कर दिया है और जिससे कुछ सरकारी अधिकारियों की असंगतता भी प्रकट होती है।

इस त्रासद कहानी की जड़ें एक ओर मजदूरों के मालिकों और केन्द्रीय सरकार और दूसरी ओर उनके अपने राज्य की सरकारों की नाकामी में निहित हैं। साफ-साफ कहा जाय तो, यदि राज्यों की सरकारें उन्हें स्थानीय स्तर पर जीने का उचित अवसर प्रदान करने में नाकाम न हुयी होतीं तो उनके वहीं रुक जाने के पर्याप्त कारण होते। पैदल ही सफ़र पर निकल पड़ने का फैसला एक ओर सरकारों की, अगर बेरुखी न कही जाय तो भी, गुणा-गणित के चलते मजदूरों में उपजी इंतहाई बेबसी और दूसरी ओर सरकारी गफ़लत से पैदा नाउम्मीदी की वज़ह से लेना पड़ा।

दूसरी ओर, भावनात्मक स्तर पर इन मजदूरों की तकलीफों ने लोगों के दिलों को इस कदर झकझोर दिया है कि वे हरचन्द कोशिश करके उन्हें खाना-पानी मुहैया करा रहे हैं। हालाँकि ये फँसे हुये मजदूर अपने घरों को जाने की जो कीमत अदा कर रहे हैं वह उससे कहीं ज्यादा है जो सरकारों को करनी पड़ती।

चूँकि कोविड-19 के चलते जारी लाॅकडाउन से इन मजदूरों का जीवन नरक बन गया इसलिये क्या इसका यह मतलब निकाला जाय कि इनके द्वारा लिया गया विस्थापन का निर्णय पहली नज़र में गलत था ? ‘माँग’ और ‘जरूरत’ की अवधारणा को ध्यान में रखते हुये इसका जवाब देना होगा। उस अर्थ की रोशनी में ही इस सवाल को समझना पड़ेगा जो ‘माँग’ को ‘जरूरत’ से अलग करता है। क्या विस्थापन करना इन मजदूरों की माँग थी या यह विस्थापन उनके लिये अनिवार्य जरूरत बन गया था? इसका जवाब सवाल का दूसरा हिस्सा है, पहला नहीं।

‘माँग’ का ही समानार्थी है ‘चाह’ और इसीलिये यह गतिशील होता है। सामान्य सन्दर्भों में बाजार ‘चाह’ पैदा करते हैं और उसकी पूर्ति आनन्ददायक होती है। बाजार के अर्थशास्त्र में शहरी और कस्बाई क्षेत्रों में ‘चाह’ के चोले में ‘माँग’ को पिछड़े क्षेत्रों की तुलना में अधिक आकांक्षामूल्य प्राप्त हो जाता है।

चाह की अवधारणा सुखकारी होती है और इसके बाद ‘दिल चाहे मोर’ की तर्ज पर अनन्त सुख की इच्छा बलवती होने लगती है। माँग चूँकि गतिशील होती है इसलिये और अधिक सुख की चाह बढ़ती जाती है और इसके लिये और अधिक धन की जरूरत पड़ने लगती है।

वे छात्र जो दूसरे शहरों में परीक्षा की तैयारियों के लिये चले गये थे और लाॅकडाउन में वहीं फँस गये, तर्कसंगत रूप से ‘चाह’ वाली श्रेणी में आते हैं।

लेकिन इसके उलट ‘जरूरत’ अपरिवर्तनीय संसाधनों पर आधारित होती है जैसे भोजन, पानी, घर, स्वास्थ्य और शिक्षा। अत्यंत पिछड़े क्षेत्रों के करोड़ों मजदूरों के लिये इन बुनियादी जरूरतों की आपूर्ति में भी मुश्किल आने लगी। गाँवों से निकलकर शहरों में आनेवाले इन मजदूरों को और अधिक सुख की चाह नहीं थी, उन्हें तो सिर्फ अपनी बुनियादी जरूरतें पूरी करनी थी।

तो हकीकत यह है कि अगर सम्बन्धित सरकारों ने स्थानीय स्तर पर उनके जीवन के लिये वांछित सुविधायें मुहैया करा दी होतीं तो उनके विस्थापन का कोई कारण ही नहीं था। यह निश्चित रूप से बलपूर्वक और निराशा में किया गया विस्थापन है।

प्रवासी मजदूरों ने विस्थापन का निर्णय लेकर कोई गलती नहीं की। इसमें अगर कुछ गलत है तो वह यह है कि सरकारों ने उन्हें जिन्दा रहने की न्यूनतम सामग्री मुहैया कराने में अपने नाकारापन का इज़हार किया है और ‘माँग’ को ‘जरूरत’ पर तरजीह दी है।

प्रवासी मजदूरों का हौलनाक़ सफ़रनामा निराशा में किये जानेवाले विस्थापन की सम्भावनाओं को समाप्त करके अर्थव्यवस्था के पुनर्गठन किये जाने के प्रयास के सामने मूलभूत चुनौती है। आशा है कि विस्थापित मजदूर इस कहानी का पुनर्लेखन इस प्रकार करेंगे कि वांछित आर्थिक विकास प्राप्त करने की राजनीतिक चाह के क्षितिज में वे और भी प्रभावी ढंग से प्रवेश कर सकें।

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