समकालीन जनमत
दुनिया

नेक हौसलों से भरा दिल दुनिया को खूबसूरत बनाता है

राह चलते, मिलते-जुलते, पढ़ते-पढ़ाते कई दफ़ा ऐसे किरदार मिलते हैं, जो बहुत दूर होकर भी साथ चलने लगते हैं। भौगोलिक और सरहदी दूरियां बेमानी हो जाती हैं। किरदारों से एक रिश्ता बन जाता है। उन पर बात करने का मन करने लगता है। रूह से रूह का वास्ता हो जाता है। माहा आब्दो ऐसी ही एक सख्शियत हैं, जिन्हें कागज़ के एक कतरन के हवाले से पाया था। खोजबीन के बाद उनकी कई बातें सामने आईं। अनजानी होकर भी उनका संघर्ष अपना सा लगता है। उन पर सोचने, जानने और समझने के क्रम में मन किया कि आपसे भी साझा किया जाए।

जनसंख्याशास्त्री माल्थस ने जनसंख्या वृद्धि के कारकों पर विचार करते हुए दो महत्वपूर्ण बातों की ओर इशारा किया है – पहला – जनसंख्या वृद्धि का भोजन की उपलब्धता से सीधा संबंध। और दूसरा– विषम लिंगियों के बीच सहज आकर्षण। दोनों स्थितियों के अध्ययन से पता चलता है कि इंसान की तरक्की के लिए ‘मानव विकास के पर्यावरण’ की जरूरत होती है। महामारी, प्राकृतिक आपदा और युद्ध की स्थितियों में ‘मानव विकास के विकास पर्यावरण’ का क्षय होने लगता है, जिससे अशिक्षा, बेरोजगारी, गरीबी, पलायन और पितृसत्ता को पनपने अथवा प्रबल होने का परिवेश निर्मित होता है। इन सारी परिस्थितियों को मानव सभ्यता के इतिहास में खोजा जा सकता है। उदाहरण हर देश के अतीत और वर्तमान में मौजूद हैं। कभी-कभी ऐसी विषम परिस्थितियों में कुछ युगांतकारी व्यक्तित्व पैदा होते हैं, जिनकी चमक से पूरी मानवता दमक उठती है। फौलादी हौसले से बनी माहा आब्दो ऐसी ही एक सख्शियत हैं।

समझने और सहायता के लिए किसी की ओर हाथ बढ़ाने की शुरूआत सुनने से होती है। जैव-विकास के दौरान पतली सी झिल्ली में कैद एक-कोशीय जीव प्रकृति की चुनौती को अगर न सुना होता तो सुंदर बहुकोशीय और बहुअंगीय जीवों का विकास नहीं हो पाया होता। जैव विकास का पूरा वितान सुनने, समझने और आगे बढ़ने-बढ़ाने वाले हौसलों के अलावा आखिर क्या है?

जैव विकास की ही तरह समतामूलक समाज के विकास के लिए सुनना पहली शर्त है। इस शर्त का पालन बुद्ध, कबीर, मार्क्स, भगत सिंह और आंबेडकर को करना पड़ा। इनका और इन जैसे तमाम लोगों का जीवन सुनने, समझने और करने का उदाहरण है। माहा आब्दो भी इसी तरह की आस्ट्रेलियाई महिला मानवाधिकार कार्यकर्ता हैं, जिन्होंने युद्ध, नस्लवाद, पितृसत्ता और भाषाई दिक्कतों में फंसी औरतों के लिए रास्ता निकाला। वह आज भी मुश्किलों को हल करने में लगी हुई हैं। लोगों की पीड़ा को समझने की समझ उन्हें खुद की पीड़ा और मुश्किलों से हासिल हुई है। भले आज आस्ट्रेलिया में वह एक मुखर और जरूरी आवाज़ बन चुकी हैं, मगर एक वक्त ऐसा था, जब उनकी स्थिति वहाँ किसी गूँगी गुड़िया से ज्यादा की नहीं थी। मगर उन्होंने अंधेरे में रौशनी को ईजाद किया। अंधेरी काली दुनिया को रौशनी से भर दिया। बेहद खराब वक्त में जिंदगी को खुशगवार बनाने का हुनर हासिल किया और अपना हाथ दूसरे जरूरतमंदों तक बढ़ाया। मुश्किल हालात से लड़ते हुए उन्हें महसूस हुआ कि अपने जैसे तमाम लोगों को जोड़कर छोटे-छोटे हौसलों से फौलादी हौसला हासिल किया जा सकता है।

माहा आब्दो एक हताश मुल्क की पैदाइश थीं। उनका मादरे वतन लेबनान सन साठ के आसपास वही मुल्क नहीं रह गया था, जो कभी जातीय विविधता और मिली-जुली धार्मिक पहचान के लिए जाना जाता था। एक समय में असीरिया और बेबीलोन के साम्राज्यों को सँवारने वाला मुल्क असमंजस की स्थिति में ठगा सा खड़ा था। फ्रांस से आजाद होने के डेढ़-दो दशक बाद लेबनान फिलिस्तीनी शरणार्थियों का अड्डा बन गया और उसे अरब-इजरायल युद्ध का हिस्सा बनना पड़ा। लड़ाइयां यातना देती हैं और ब्लैक होल की तरह जीने की तमाम सहूलियतों का कत्ल कर देती हैं। सन साठ में जब माहा आब्दो लेबनान के त्रिपोली प्रांत में पैदा हुईं, तो उस वक्त त्रिपोली प्रांत की हवा में बारूदी गंध धुली हुई थी। औरतों और बच्चियों पर पाबंदियां लगाई जाने लगीं। स्कूल की दीवारें ढहाई जाने लगीं। तरक्की के रास्ते बंद होने लगे।

हिंसा और युद्ध पितृसत्ता को पांव जमाने का मौका मुहैया कराते हैं। युद्ध और नफ़रत से बचने के लिए लोग ‘रक्तस्नात नागरिक अधिकार’ छोड़कर शरणार्थी के रूप में दूसरे मुल्क की तलाश में निकल जाते हैं। बच्चों को अच्छी और सुकून भरी जिंदगी की तलाश में माहा के अब्बा आस्ट्रेलिया आ गए। वहाँ उन्हें सरकारी ठेके में काम तो मिल गया पर पहचान नहीं मिली। काम मिलने से पैसों की आमद तो हो गई, मगर बच्चियां और उसकी माँ अभी तक लेबनान में ही थी और वहां के हालात लगातार खराब होते जा रहे थे। बहुत कोशिश के बाद वे बच्चियों और उनकी माँ को उस वक्त आस्ट्रेलिया ले आ पाए, जब वहाँ ‘ह्वाइट ऑस्ट्रेलिया पॉलिसी’ जो गैर-यूरोपीय लोगों को वहाँ आने से रोकती थी, हटी।

जिस तरह एक जमीन में लगे पौधे को उखाड़ कर दूसरी जमीन में लगाने से पौधा तुरंत नहीं लग पाता। उसे दूसरी जमीन के साथ रिश्ता कायम करने में वक्त लगता है और कभी-कभी तो पौधा मर भी जाता है, उसी तरह अपने मुल्क को छोड़कर दूसरे मुल्क में आबाद होने में न सिर्फ वक्त लगता है, बल्कि तमाम मुश्किलों का सामना भी करना पड़ता है। शरीर की बनावट, चमड़ी का रंग, जुबान, तहजीब और खानपान जैसी तमाम दिक्कतें अपने से अलग सामाजिक भूगोल में जाने के बाद ही खुलती हैं।

आस्ट्रेलिया में आने पर माहा आब्दो की माँ और भाई-बहनों की स्थिति गूंगों जैसी हो गई। वे लोग अरबी और फ्रेंच के अलावा दूसरी भाषा न जानते थे, न समझते थे। और आस्ट्रेलिया में अंग्रेजी के बिना एक कदम आगे नहीं बढ़ा जा सकता था।

सन सत्तर में माहा आब्दो बारह साल की थीं और अब वह सिडनी में रह रही थीं। सिडनी में रहते हुए उन्हें उस समय के अनुदार आस्ट्रेलियाई समाज के कटाक्षों और अलगाव का सामना करना पड़ा। एकदम अलग परिवेश होने के बाद भी सिडनी शहर माहा आब्दो को अच्छा लगता था। क्योंकि उस उसकी दीवारों पर कारतूस के निशान नहीं थे। स्कूलों में लड़के और लड़कियां दोनों साथ-साथ जाते देख उनका मन हौसलों से भर जाया करता था। बहुत कम उम्र में वह जान चुकी थीं कि अगर भाषा की दीवार फतह कर लिया तो अम्मा-अब्बा और भाई-बहनों के लिए बहुत कुछ किया जा सकता है। इसी बीच उनका दाखिला सिडनी के रैंडविक गर्ल्स हाईस्कूल में करा दिया गया। सिडनी की शांति के बाद माहा को स्कूल अंग्रेज प्रिंसपल बहुत अच्छी लगीं। वह माहा की भाषा न समझने के बावजूद उसे बहुत चाहती थीं। जिस अंग्रेजी को माहा आब्दो पहाड़ सा कठोर और दुर्लभ समझती थीं, वह भाषा स्कूल के अध्यापिकाओं के सहयोग से उनकी जुबान पर नाचने लगी। मेजबान मुल्क की भाषा पर विजय माहा आब्दो की पहली विजय थी।

अच्छा अध्यापक किसी विद्यार्थी के लिए कितना महत्वपूर्ण होता है, उसके कई उदाहरण माहा आब्दो के जीवन में आए। उसमें से एक का जिक्र यहां जरूरी लग रहा है। स्कूल में दाखिले के बाद माहा को जो पहली कक्षा मिली, वह गणित की कक्षा थी। बच्चे एक कठिन सवाल को हल करने में लगे हुए थे। माहा को लगा कि यह सवाल उतना कठिन है नहीं, जितना बच्चे समझ रहे हैं। हालांकि यह वाकया उस बखत का है, जब माहा अंग्रेजी बिल्कुल नहीं समझती थीं। फिर भी उन्होंने हाथ ऊपर किया और शिक्षिका का इशारा पाकर ब्लैक बोर्ड तक पहुँच गई और बहुत आसान तरीके से सवाल को हल कर दिया। क्लास के बच्चे हैरान रह गए। वह समझ नहीं पा रहे थे कि अंग्रेजी न समझने के बाद भी माहा ने सवाल कैसे हल किया? तब माहा का सिर सहलाते हुए शिक्षिका ने कहा – “अगर कोई अंग्रेजी नहीं बोल सकता, तो इसका यह कतई अर्थ नहीं कि उसका दिमाग समस्याओं को सुलझा नहीं सकता।”

गणित की शिक्षिका के इस प्रोत्साहन ने माहा के हौसले को मजबूत बनाया। उसकी आँखें सपने देखने के क़ाबिल होने लगीं। अंग्रेजी बोलने वाले बच्चे माहा के पीले रंग और जुबान पर फब्तियां कसते, मगर आगे बढ़ने के जुनून और अब्बा-अम्मा के संघर्ष ने बचपन में ही माहा को फौलादी जज्बे वाला बना दिया था। तमाम कमियों के बाद भी यह मुल्क उसके पैदाइशी मुल्क से बेहतर था। वहाँ तरक्की के रास्तों पर गोले बारूद की गंध नहीं थी। माहा जब कभी अकेले बैठी होती, तब पता नहीं कहाँ से अब्बा उसके पास आ जाते और एक बात समझाने लगते, जो उसे याद हो गई थी – “हम अपनी जड़ों से उखड़े हुए लोग हैं, अपने परिश्रम और अच्छे आचरण के सहारे हमें, यहां की मिट्टी में घुलना-मिलना पड़ता है।” इस बात के बाद अब्बा एक बात और कहते – “अगर कोई इल्म हासिल करो, तो उसे दूसरों में बांटो, क्योंकि इसी से वह जिंदा रह सकेगा।” उस समय अब्बा की बातें उसे अच्छी तो लगतीं मगर वह उन बातों का मकसद नहीं निकाल पाती।

अब्बा के सपने माहा के सपने मिस्री की तरह घुल गए। अब्बा सिडनी में रह रहे लेबनानी समुदाय के लोगों को हक-हकूक दिलाने और उनके भविष्य को सुंदर बनाने के लिए बहुत मेहनत करते थे। अब्बा की चिंता को माहा देखती रहती थी। मगर कुछ ऐसा था कि अपने को अब्बा के साथ के जुनून के साथ जोड़ नहीं पा रही थी। मगर जब वह बैंक्सटाइन टेक्निकल कॉलेज से स्नातक करके शादी कर ली और एक के बाद एक कुल चार बच्चों की माँ बन गई, तब उसे एक औरत की मुश्किलों, खासकर आस्ट्रेलिया में रह रही मुस्लिम और शरणार्शी महिलाओं पर गौर करने की विवशता महसूस हुई। वह तमाम अनजानी औरतों से दर्द के रिश्ते से जुड़ी महसूस करने लगी।

उनके जैसी तमाम औरतें दूसरे मुल्क से होते हुए आस्ट्रेलिया पहुँचतीं, जो रूप-रंग शक्ल, रहन-सहन और जुबान में आस्ट्रेलिया के लोगों से बहुत अलग थीं। गुलाब के बगीचे में कनेर की तरह उन्हें दूर से ही पहचाना जा सकता था। ऐसी औरतें बेरोजगार और गरीब तो थी ही, कुंठा का भी शिकार होती जा रही थीं। यातनाओं को सुनने वाला कोई नहीं था, कहीं नहीं था। माहा ने बच्चों, किशोरों और औरतों को सुनने का मन बना लिया। वह सुनना ही नहीं, उनके लिए कुछ करना भी चाह रही थीं। साथ ही अपने साथ कुछ लोगों को जोड़ना भी चाह रही थीं। इसलिए सन 1988 में वह ‘मुस्लिम वुमन्स एसोसिएशन’ से जुड़ गईं। अब वह सामाजिक जीवन में कदम रख चुकी थीं। माहा पहली मुस्लिम महिला हैं, जिन्होंने ऑस्ट्रेलिया में मुस्लिम समुदाय के लिए ‘लीडरशिप वर्कशॉप’ का आयोजन किया। यह आयोजन जब सन 1992 में पहली बार किया गया, तो सिर्फ 28 मुस्लिम शरणार्शी लड़कियां प्रशिक्षण में शामिल हुईं। और आज आलम यह है कि प्रतिभागी औरतों की संख्या इतनी पहुँच जाती है कि वेटिंग लिस्ट निकालना पड़ता है।

अपने दुख की रौशनी में बढ़ते हुए माहा ने जिस रास्ते का आविष्कार किया है, उस रास्ते पर हजारों शरणार्थी औरतें चलकर अपना जीवन सँवार चुकी हैं और सँवार रही हैं। आज इस संगठन का दायरा बढ़ चुका है। यह संगठन सिडनी और सिडनी के बाहर दूसरे शहरों में फैल चुका है। दूसरे मुल्कों से आने वाली शरणार्थी मुसलमान औरतें यौन शोषण से लेकर आम हिंसा, जिसमें घरेलू हिंसा भी शामिल होती है का, शिकार बन जाती हैं। माहा का संगठन उन तमाम औरतों की आवाज़ बन चुका है। संगठन उनके लिए नागरिकता की पैरवी करता है। संगठन ने विस्तार करते हुए बुजुर्गों और नौजवानों के लिए भी काम करना शुरू कर दिया।

जंग और नफ़रत इंसानी महामारी है। 9/11 ने दूसरे मुल्कों में शरणार्थी के रूप में गुजर-बसर कर रह रहे मुसमानों के सामने सबसे गंभीर संकट खड़ा कर दिया। ‘इस्लामोफोबिया’ जैसे पदों में मुस्लिम अस्मिता को घेरा जाने लगा। ऐसे खराब माहौल में माहा ने आस्ट्रेलिया के विभिन्न संस्कृतियों के बीच शरणार्थी मुस्लिम परिवारों को जिस तरह जोड़ा और सबके बीच विश्वास को सेतु बनाया, वह एक बेहद जरूरी इंसानी काम था। उनकी मेहनत और लगन से आस्ट्रेलिया में बुर्का पहनना मुद्दा नहीं बन सका। यही कारण है कि विभिन्न संस्कृतियों के बीच की औरतों की आवाज के रूप में वह आस्ट्रेलिया की सबसे जानी-पहचानी सख्शियत बन चुकी हैं। सिडनी सन 2021 में जब उन्हें अनसंग हिरो का खिताब दिया तो किसी को हैरानी नहीं हुई।

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