सौम्या सुमन
कवि केदारनाथ सिंह ने कहा है कि कविता के पास अपना विचार होना चाहिए और जीवन जगत के बारे में उसका विचार जितना ही गहरा और पुख़्ता होगा , उसकी रचना उतनी ही मजबूत होगी इसमें मुझे कोई संशय नहीं।
इन दिनों आधुनिक हिंदी कविता में प्रकृति, प्रेम , पर्यावरण, ईश्वर , स्त्री- हिंसा, यौनिकता जैसे विषयों पर कविताओं की बहुतायत देखी जा रही है। आज के इस बदलते, हिंसक, स्वार्थपरक और तमाम आपदाओं से जूझते दौर में अगर एक अकेली आवाज़ अपने दायरे से बाहर निकल कर आवाम के दिलों में जगह बना ले , याद रखी जाए , दोहराई जाय तो यह उस आवाज़ की उपलब्धि है , मज़बूती है।
पिछले कुछ वर्षों से अपनी सशक्त कविताओं के माध्यम से चर्चा में आई सुजाता गुप्ता एक ऐसी ही कवयित्री हैं जिनकी कविताएँ ना सिर्फ स्त्रियों के त्रासद अंधेरे पक्ष की बात करती हैं बल्कि इनकी विरल संवेदना के भीतर प्रकृति , पर्यावरण और समूची पृथ्वी के प्रति एक हूक और बेचैनी भी दिखायी पड़ती है । यह किसी भी रचना का बेहद महत्वपूर्ण और मज़बूत पक्ष है कि वह किस तरह अपने विचारों के माध्यम से जनमानस को प्रभावित करता है और सही-ग़लत, सच-झूठ, समाज की विडंबनाओं को देखने, समझने की दृष्टि भी देता है ।
इस बार जो बच पाओ तो
बचा लेना हरी घास को
कि वह फ़िर
ठूंठ न बन पाए!
ये कोरोना काल के दौरान लिखी गई कविता है जिसमें एक फ़िक्र के साथ समूची मानव प्रजाति के बचे रहने के लिए एक चेतावनी भरा संदेश है । हम जानते हैं कि हमने पृथ्वी का ऐसा दोहन किया है कि अब हम विनाश के कगार पर हैं । पृथ्वी और पर्यावरण को बचाये बिना हम बच नही सकते । कवयित्री ने बार-बार यह संकेत दिया है कि सारी आपदाओं और प्रतिकूल परिस्थितियों के ज़िम्मेदार अंततः हम ही हैं । अतः समय रहते हमारा चेतना ज़रूरी है :
इस बार जो बच पाओ तो
चुका देना हर कर्ज़ धरा का
कि तुम्हें इंसान समझकर
उसने न जाने
कितनी ही नायाब नेमतें
तुमपर बिन मांगे ही
न्योछावर कर डाली थीं
ग़ौरतलब है कि सुजाता की कविताओं में स्त्री जीवन के कहे-अनकहे दर्द, संघर्ष , घुटन, छ्ले जाने के अवसाद और अपमानित होने की पीड़ाओं का व्यापक ब्योरा है।
वरिष्ठ कवयित्री *कात्यायनी* अपनी एक कविता में कहती हैं :
बेवकूफ जाहिल औरत !
कैसे कोई करेगा तेरा भला?
अमृता शेरगिल का तूने
नाम तक नहीं सुना
बमुश्किल तमाम बस इतना ही
जान सकी हो कि
इंदिरा गांधी इस मुल्क की रानी थीं
(फिर भी तो तुम्हारे भीतर कोई प्रेरणा का संचार नहीं होता )
रह गई तू निपट गँवार की गँवार।
पुरुष वर्चस्व वाले समाज के घोर दंभी, अशिष्ट और उद्दंड सोच की यह लाउड अभिव्यक्ति सुजाता की कविताओं में भी अंतर्निहित है और जो पीढ़ियों से धीमे-धीमे दर्द की तरह बहती चली जा रही है।
बेटियों को जीवन के
सबसे गहन और सबसे गूढ़ सबक माँओं ने
उनकी चुटिया बनाते वक्त ही दिए
ऐसी क्या नसीहत है ! ऐसी क्या विपदा आने वाली है कि बिटिया के बाल बनाते वक्त आशंकित माँओं के हाथ अचानक कसते चले जाते हैं ! ब्याह के बाद दूसरे घर जाना है इसलिए उन्हीं के अनुरूप पहनना-ओढ़ना ,धीरे बोलना सबसे कहे अनुसार ही चलने की सीख देना किस भय और आशंका के वशीभूत होकर दुहराती हैं माएं ? बेटी की किसी चूक पर पूरे खानदान को ना कोसा जाय, बेटी गँवार, ज़ाहिल जैसी उपमाओं से ना नवाज़ी जाय, सबको ख़ुश रखे…. ज़ाहिर है यह सब पीढ़ी-दर-पीढ़ी चली आ रही सीखें हैं जो बेटियों को हस्तांतरित होती गयीं हैं।
कविता की कुछ पंक्तियाँ देखें :
देखने दो उसे मैच ,तुम रसोई में जाओ!
उसकी बात काट रही?
जुबान पर जरा लगाम लगाओ! उसे तो यहीं रहना है
तुम ढंग तरीकों में ढल जाओ
वे माएँ जरूर किसी बेबस माँ की बेटियाँ रही होंगी
बस तुम वैसी मत बनना!
सुजाता की कविताएं स्त्री की निर्धारित सीमा रेखाओं को, दोयम दर्जे के दोहरे मापदंड की मार झेलती बेबसियों को रेखांकित करती हैं और इस तरह प्रतिरोध की ऊंचाई पर पहुंच कर ये कविताएँ सर्वकालिक सत्य का ठोस बयान हो गई हैं।
मुझे कवि, कथाकार प्रियदर्शन की यह बात बहुत मुफ़ीद लगती है कि .. एक असाधारण या अद्वितीय कविता में सूत भर का फ़र्क होता है । यही सूत भर का फ़र्क सुजाता गुप्ता की कविताओं को असाधारण बना रहा है।उनकी कविताओं ने सोशल मीडिया पर पाठकों का ख़ूब प्यार पाया है। बड़े पैमाने पर साझा की गयी उनकी कविताएँ इस बात की तस्दीक़ करती हैं।
एकांत भाव से रचने वाली कवयित्री की ये कविताएँ वर्तमान और अतीत पर एक साथ दृष्टिपात करती हमें बेचैन करती हैं :
रेल बन दिनभर दौड़ती माँ
पौ फटने से पहले उठ जाती है छिपकर आँख से नमक बहा गृहस्थी के चूल्हे में
नित नए गम जलाती है
माँ के माध्यम से इन्होंने स्त्री-जीवन की विवशताओं का मार्मिक सच उजागर किया है। सुजाता गुप्ता की कविताएँ कोई भावुक प्रलाप नहीं बल्कि समाज की कुरूप सच्चाइयों की अकुलाहट हैं।
इनका लेखन स्त्री चेतना को केवल भावनात्मक कसौटी पर ही नहीं बल्कि बौद्धिकता के मापदंड पर भी परखता है । किताबों के मोहल्ले में रहने वाली लड़कियों के चौदह फेरे की अहिल्या, पिंजर की पुरो, कर्मभूमि की सुखदा और तमाम सुधाओं, तिलोत्माओं, विधोत्माओं से देर रात तक स्ट्रांग कॉफी के साथ गपशप करना , नई और जागरूक स्त्री के जीवन में आ रहे बदलावों की तरफ़ बहुत सुंदर संकेत है।
वर्जीनिया वुल्फ़ ने कहा है कि “स्त्री का लेखन स्त्री का लेखन होता है, स्त्रीवादी होने से बच नहीं सकता। “
इन अर्थों में सुजाता गुप्ता की ये कविताएँ स्त्री को व्यवस्था की ग़ुलामी से मुक्त करके उसे एक आत्मनिर्णायक, स्वतंत्र और दृढ़ व्यक्तित्व के साथ स्थापित करने का सुंदर और सार्थक प्रयास है।
सुजाता गुप्ता की कविताएँ
कवयित्री सुजाता गुप्ता
जन्म तिथि 20.09.1972
शैक्षणिक योग्यता बीए, बीएड
तकनीकी शिक्षा डिप्लोमा इन कंप्यूटर प्रोग्रामिंग एंड पीसी ऐप्लीकेशंस.
निवास -बुलंदशहर, उत्तर प्रदेश
लगभग 20 वर्षों तक अध्यापन करने के साथ कई प्राईमरी स्तर की किताबें लिखी तथा स्कूल में कल्चरल और एकेडेमिक कॉर्डिनेटर के तौर पर कार्यरत रहीं.
बीते दो सालों से स्वतंत्र लेखन एवं अनुवाद करती हैं।इनकी एक ब्लॉगिंग साइट भी है तथा अन्य न्यूज पोर्टल्स के लिए भी लिखती हैं.
दो साझा काव्य संकलन हैं ‘मेरे दस्तखत एवं साहित्यनामा . एक काव्य संकलन ‘आगार’ प्रतीक्षारत है. वेबसाईट का लिंक है – www.streerang.co.in
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सम्पर्क: 9870855014
कई पत्र-पत्रिकाओं में कविताएँ प्रकाशित।
2016 में दो साझा कविता -संग्रह, 2019 में प्रथम कविता-संग्रह ‘नदी चुप है’ प्रकाशित, सद्य प्रकाशित साझा कहानी संग्रह ‘सपनों का सफ़र’ में एक कहानी प्रकाशित। निज व्यवसाय/बतौर डिज़ाइनर कार्यरत, स्थायी निवास:पटना(बिहार)
मेल : sumansinha212@gmail.com
संपर्क: 7631798050)